रेहन पर रग्घू / खंड 2 / भाग 7 / काशीनाथ सिंह

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घर में फोन अब जी का जंजाल हो गया था! जब रघुनाथ ने कनेक्शन लिया था तो राजू की जिद पर - कि संजू अमेरिका से जब बात करना चाहेगा तो कैसे करेगा? कोई संदेश ही देना हो तो? भाभी ही मम्मी से कुछ बोलना या पूछना चाहें तो? मुझे ही कोई सलाह लेनी हो तो? चिट्ठी-पत्री कौन लिखता है आज? किसके पास इतना फालतू समय है? और सरला दीदी भी तो हैं शहर में, उनसे नहीं बात करनी है क्या आप और मम्मी को?... तो हर हाल में जरूरी है यह। गाँव में ही बेमतलब थोड़े लिए हैं लोगों ने?

फोन लगा तो राजू के लिए। जब भी घर में रहता था, जुटा रहता था उस पर - कभी इस दोस्त को, कभी उस दोस्त को। संजू की तो लाइन ही नहीं मिलती थी! हाँ, कभी-कभी सरला जरूर मिल जाती थी! अब, जब राजू बाहर है तो फोन उसी तरह बेकार पड़ा था जैसे चरनी और खूँटा या हल और हेंगा!

इसीलिए रात में जब फोन की घंटी बजी तो रघुनाथ और शीला ने डर कर एक दूसरे को देखा! घंटी बज कर बंद हो गई, उनमें से किसी ने उत्साह नहीं दिखाया! जब दूसरी बार बजी तब रघुनाथ उठे और रिसीवर उठाया - 'हलो!'

दूसरी तरफ से स्वर सोनल का था। पहचाना उन्होंने। देर तक सुनते रहे फिर शीला को रिसीवर पकड़ा दिया! और माथे पर हाथ रख कर चुपचाप बैठ गए!

थोड़ी देर बाद दोनों तरफ से सुबकने की आवाज सुनाई पड़ी उन्हें!

वे उठे और अपने बिस्तर पर आ गए!

रिसीवर रख कर शीला भी आई और अपने बिस्तरे पर बैठ गई!

'वह कल आ रही है हमें ले जाने के लिए!'

'तुम्हें जाना हो जाओ, मुझे नहीं जाना!'

'बहुत रो रही थी! पूछ रही थी कि हमारी कौनसी ऐसी गलती है कि देखने के लिए आना तो दूर, आप लोगों ने फोन तक नहीं किया?'

'उसने किया फोन? हम सपना देख रहे हैं कि महारानी लौट आई हैं अपने देश? आकाशवाणी हुई थी उनके आगमन की?'

'यह तो न बोलो। राजू ने नहीं बताया था?'

'मैं किसी राजू-फाजू को नहीं जानता! उसने क्यों नहीं किया? बाप को कर सकती थी, ससुर को नहीं कर सकती? बाप को बुलाया, ज्वाइन किया, अशोक विहार आई, इतने दिन से रह रही है, बीच में पापा-मम्मी नहीं याद आए, आज याद आ रहे हैं! ऐसे ही तो नहीं याद आए हैं कोई बात होगी जरूर!

'रो-रो कर कह रही थी कि मैं पापा-मम्मी के बिना नहीं रह सकती!'

'झूठ बोलती है! फुसला रही है तुम्हें हमें। जानती ही कितना है हमें? न कभी देखा है, न मिली है, वह क्या जाने पापा-मम्मी को? मैं तो जानता भी नहीं कि मेरे कोई बहू है!'

'बहू न सही, बेटा तो है! न जाएँ तो वह क्या सोचेगा?'

'भाड़ में जाए बेटा बेटी बहू - दुनिया! सबकी चिंता करने के लिए हमीं हैं?' रघुनाथ खासे तनाव में आ गए!

'उसे तो चिंता है कि लोग क्या कहेंगे? सास-ससुर गाँव में पड़े हैं और बहू शहर में मजे कर रही है।'

'यह तुम कह रही हो - अपने मन से। समझा? कुछ कहलाओ मत मुझसे!' रघुनाथ उठे और आँगन में टहलने लगे।

नींद गायब हो चुकी थी उनकी! वे कोई निर्णय नहीं कर पा रहे थे। वे गाँव से आजिज भी आ गए थे लेकिन उसे छोड़ना भी नहीं चाहते थे! मन शहर और कालोनी की ओर बहक रहा था - जीवन के नएपन की ओर, नई जिंदगी की ओर, साफ सुथरे पक्के मकानों और कोलतार पुती सड़कों की ओर, गंगा के घाटों की ओर, अनजाने नए संबंधों की ओर। ये आकर्षण थे मन के लेकिन उधर जाने में हिचक भी रहा था मन कि कहीं ऐसा न हो कि पिछवाड़े की जमीन हाथ से निकल जाए, बिना रख-रखाव के मकान ढह जाए, सनेही चोरी और बेइमानी शुरू न कर दे, कहीं लोग हमेशा के लिए गाँव से गया न मान लें। और ऐसा कहनेवाले भी तो कम न होंगे कि देवेश ने एड़ क्या लगाई कि गाँव ही छोड़ कर भाग गए। इससे बड़ी जगहँसाई और क्या हो सकती है?

वे आँगन का चक्कर काटते हुए वहाँ खड़े हो गए जहाँ से खपरैलों से ऊपर उठता चाँद नजर आ रहा था। वे उसे ऐसे देखने लगे जैसे गाँव छोड़ने के बाद फिर नहीं दिखेगा - या उससे पूछ रहे हों कि तुम्हीं बोलो - क्या करना चाहिए?

यह चैत महीने की रात थी! दशरथ यादव ने अपने दरवाजे के सामने नया-नया शिव मंदिर बनवाया था! पिछले दस घंटे से वहाँ अखंड हरिकीर्तन चल रहा था। कीर्तनियों ने मंदिर के बगल में खड़े नीम के पेड़ पर लाउडस्पीकर बाँध रखा था और पूरा गाँव 'हरे राम, जै जै राम' से गूँज रहा था! यह एकरस और उबाऊ गूँज उनके मन को बोझिल बना रही थी!

'तुम जाओ, मैं यहीं रहूँगा अपने घर! सुना?' उन्होंने ऊँची आवाज में शीला से कहा!

'तुम्हें अकेला छोड़ कर? ना बाबा ना, पता नहीं क्या हो जाए यहाँ?' शीला वहीं से बोली - 'और वह भी तो घर ही है। संजू क्या कहता था? हम चाहते हैं कि पापा-मम्मी के अंतिम दिन काशी में बीतें। चैन से बीतें। जब समय आया है तो ना नुकुर कर रहे हो? सोनल पराई नहीं, बहू है हमारी!'

'तुम समझती क्यों नहीं? सोनल बहू है लेकिन घर बहू का है, हमारा नहीं! किस हैसियत से जाऊँ मैं? मेहमान बन कर? किराएदार बन कर? किस हैसियत से?'

इस ओर ध्यान नहीं गया था शीला का। वह थोड़ी देर के लिए तो अचकचाई, फिर बोली - 'ठीक है, उसका घर है मगर संजू तो है न? वह तो हमारा बेटा है। देर सबेर तो आना ही है उसे! राजू से उसी ने कहा था न कि पापा-मम्मी को भेज दो। और सोचो तो बहू का घर क्या हमारा घर नहीं है!'

रघुनाथ चुप रहे! कुछ नहीं बोले।

'देखो, हम चलें। ऐसा नहीं कि यह घर छोड़ कर जा रहे हैं। कभी भी लौट आएँगे इसमें! जब परेशानी होगी तो आ जाएँगे! खेती का जिम्मा दे ही दिया है सनेही को! रह गया है घर तो दस बिस्सा खेत और दे दो गनपत को। कमरे सब बंद करके दरवाजे की ताली उसे दे दो। साफ-सफाई और देखभाल करता रहेगा।'

शीला की बात में दम दिखाई पड़ा रघुनाथ को। उन्हें चार दिन बाद जाना भी था पेंशन के काम से। दिक्कत केवल यही थी कि गनपत मिर्जापुर गया था अपने बेटे के पास!

'तो ऐसा करो शीला, तुम तो सोनल के पास कल जाओ! मैं यहाँ की व्यवस्था करके पाँचवें दिन पहुँचूँगा! पेंशन आफिस में अपना काम निपटा कर सीधे अशोक नगर आ जाऊँगा! कोई जरूरी बात हो तो फोन पर खबर कर देना! अरे हाँ, फोन का कनेक्शन भी तो कटवाना पड़ेगा! खैर, अपनी तैयारी करो तुम - गेहूँ, चावल, दाल, घी, अचार। थोड़ा बहुत जो ले जा सको, ले जाओ!'