शशांक / खंड 1 / भाग-10 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तरला का दूतीपन

उस समय पाटलिपुत्र नगर के किनारे किनारे बहुत सी बस्ती हो गई थी। प्राचीन नगर के प्राचीर के भीतर स्थान की कमी होती जाती थी। स्थानाभाव के कारण नगर के दरिद्र श्रमजीवी बाहर बसते थे। बहुत दिनों से नगर प्राचीर के पूर्व और दक्षिण ओर कई टीले बस गए थे। नागरिक उस भाग को उपनगर कहा करते थे। नगर के उत्तर और पश्चिम भागीरथी और सोन की धारा बहती थी। बहुत से लोग इन नदियों के पार भी बसते थे और नित्य सबेरे काम करने नगर में आते और सन्ध्या को लौट जाते थे। दक्खिन के टोले में एक पुराने मन्दिर के सामने कई बौद्धभिक्खु घास के ऊपर बैठे बातचीत कर रहे थे। मन्दिर के पीछे कुछ दूर तक ऊँचा टीला सा चला गया था जिस पर नए पुराने पेड़ों का जंगल लगा था और कहीं कहीं पत्थर के पुराने खम्भे दिखाई पड़ते थे। पहले कभी वहाँ पत्थर का बहुत बड़ा बौद्धमन्दिर था। उसके गिर जाने पर बौद्धभिक्खुओं ने सामने एक छोटा सा मन्दिर उठाकर उसमें प्रतिमा स्थापित कर दी थी। घास पर बैठे जो भिक्खु बातचीत कर रहे थे वे सबके सब तरुण अवस्था के थे। उन्हें देखने से जान पड़ता था कि उन्हें गृहस्थाश्रम छोड़े बहुत दिन नहीं हुए हैं। गृहत्यागी भिक्खुओं में जैसी गम्भीरता होनी चाहिए वैसी उनमें अभी नहीं आई थी।

उनके बीच एक अधोड़ भिक्खु भी बैठा था। अवस्था में उनके जोड़ का न होने पर भी वह उनके साथ मिलकर हँसीठट्ठा करता था। इस भिक्षुमण्डली से थोड़ी दूर पर एक तरुण भिक्खु बैठा था। वह मन ही मन न जाने क्या सोच रहा था जिससे उसके साथियों का हँसीठट्ठा उसके कानों तक नहीं पहुँचता था। भिक्खु लोग उसकी ओर दिखा दिखाकर न जाने क्या क्या कहते और ठट्ठा मार मारकर हँसते थे। किन्तु जिस पर यह सब बौछार हो रही थी उसका धयान कहीं दूसरी ही ओर था, वह मानो कुछ सुनता ही न था।

इसी बीच एक युवती मन्दिर के सामने आ खड़ी हुई। उसे देखते ही भिक्खुओं की हँसी रुक गई। एक ने उस अधोड़ का हाथ दबाकर कहा “आचार्य्य! जान पड़ता है कि यह युवती तुम्हारी ही खोज में आई है।” दूसरा भिक्खु उसे रोककर बोला “तू पागल हुआ है। आचार्य्य अब स्थविर हो गए हैं। युवती स्त्री बूढ़े को खोजकर क्या करेगी?” पहले भिक्खु की बात तो बूढ़े को बहुत अच्छी लगी, उसका चेहरा खिल उठा पर दूसरे की बात सुनकर उसका मुँह लटक गया, वह मन ही मन जल उठा और बोला “तू मुझे बूढ़ा कहता है, और एक स्त्री के सामने? मैं अभी तेरे प्राण लेता हूँ।”

पहला भिक्खु-आचार्य्य! बात तो इसने बड़ी बुरी कही। पर उस दिन संघ स्थविर भी मुझसे कहते थे कि आचार्य्य देशानन्द अब वृद्धहुए, वे तरुण भिक्खुओं को शिक्षा देने के योग्य हैं।

वृद्धभिक्षु-स्थविर तेरा बाप, तेरा दादा। तुम सबने क्या मुझे पागल समझ रखा है? अभी मैं उठकर बताता हूँ।

वृद्धदोनों भिक्खुओं की ओर झपटा। सबके सब उसे पकड़कर बिठाने लगे, पर वह किसी की नहीं सुनता था। अन्त में बड़ी बड़ी मुश्किलों से वह शान्त हुआ। युवक भिक्खुओं ने यह बात मान ली कि उन्हीं का वयस् अधिक है, आचार्य्य देशानन्द तरुण हैं। उनके बाल जो थोड़े बहुत पक गए हैं। वह अधिक अधययन से। जिस स्त्री को देखकर भिक्खुमंडली के बीच यह सब झगड़ा खड़ा हुआ था कपड़े लत्तो से वह अच्छी जाति की और किसी धानाढय नागरिक की परिचारिका जान पड़ती थी। गड़बड़ देखकर अब तक वह दूर खड़ी थी। भिक्खुओं को शान्त होते देख वह आगे बढ़कर कुछ पूछा ही चाहती थी कि आचार्य्य सामने आकर बोले “तुम क्या मुझे ढूँढ़ने आई हो?” रमणी ने कहा “नहीं, यहाँ कहीं जिनानन्द भिक्खु रहते हैं?” उसकी बात सुनकर वृद्धहताश होकर बैठ गया। रमणी फिर पूछने लगी “यहाँ जिनानन्द भिक्खु रहते हैं?” आचार्य्य को निरुत्तार देख एक भिक्खु ने उत्तर दिया “हाँ, रहते हैं।”

रमणी-महाराज! थोड़ा उन्हें मेरे पास भेज देंगे।

भिक्खु-क्यों?

रमणी-काम है।

भिक्खु-क्या काम है, बताओ।

रमणी-बताने की आज्ञा मुझे नहीं है।

भिक्खु-हमारे संघाराम1 में कोई तरुण भिक्खु किसी युवती से एकान्त में नहीं मिल सकता।

रमणी-मैं एकान्त में मिलना नहीं चाहती।

भिक्खु-तो फिर गुप्त बात कहोगी कैसे?

रमणी-मैं पत्रा लाई हूँ।

भिक्खु-लाओ, दो।

रमणी-क्षमा कीजिएगा। जिनानन्द को छोड़ मैं पत्रा और किसी को नहीं दे सकती।

भिक्खु-जिनानन्द भिक्खु को पहचानोगी कैसे?

रमणी-मेरे पास संकेत चिद्द है।

इतने में पीछे से एक भिक्खु पुकार कर बोला 'अरे, ओ जिनानन्द! कुछ देखते सुनते भी हो? क्या एकबारगी समाधि लगा रखी है?”

और भिक्खुओं से दूर जो भिक्खु बैठा कुछ सोच रहा था उसने सिर उठाकर देखा। दूसरा भिक्खु फिर बोला “यह रमणी तुमसे मिलने आई है। तुम क्या सारी बातें नहीं सुनते थे। इसे देखकर अभी क्या क्या रंग उड़े थे!” जिनानन्द कुछ नबोला। रमणी को देखते ही वह घबराया हुआ उसके पास गया और बोला “तरले! तुम कब


1. संघाराम = वह उद्यान या स्थान जहाँ बौध्दों का संघ रहता हो।

आई? क्या सामचार है? रमणी कुछ देर तक उसका मुँह ताकती रही फिर प्रणाम करके बोली “भैयाजी! नए भेस के कारण मैं पहचान नहीं सकी थी। समाचार बहुत कुछ है, पर ये बाबा लोग भलेमानस नहीं जान पड़ते। चलिए उधर ओट में चलें।” रमणी मन्दिर के पीछे पेड़ों के झुरमुट की ओर बढ़ी। तरुण भिक्खु भी पीछे पीछेगया।

वृद्धअब तक तो चुपचाप बैठा रहा। पर जिनानन्द और तरला के पेड़ों के झुरमुट में जाते ही उठा और उनकी ओर बढ़ा। उसकी यह लीला देख कई तरुण भिक्खु हँस पड़े। वृद्धने उन्हें घूरकर कहा “तुम सब अभी बच्चे हो, स्त्री चरित्र क्या जानो। मैं इस कुमार्गी भिक्खु को ठिकाने पर लाने के लिए जाता हूँ।” भिक्खु हँसते हँसते लोट पड़े। वृद्धने देखकर भी न देखा। वह बाघ की तरह दबे पाँव पेड़ों के बीच दबकता हुआ उन दोनों के पीछे पीछे चला जाता था।

वृद्धके अदृश्य हो जाने पर एक भिक्खु बोला “यह जिनानन्द कौन हैं, तुम लोग कुछ कह सकते हो।”

दूसरा भिक्खु-रूप रंग तो राजपुत्रो का सा है। वह किसी धानी का पुत्र है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।

पहला भिक्खु-जिनानन्द का कोई गूढ़ रहस्य है, जो किसी प्रकार खुलता नहींहै।

दू भिक्खु-यह कैसे कहते हो?

पं भिक्खु-संघस्थविर1 ने तुमसे कुछ कहा नहीं था?

दू भिक्खु-न।

पं भिक्खु-तुम थे नहीं, कहीं गए थे। जिनानन्द जिस दिन आया है उस दिन संघस्थविर ने सबको बुलाकर कहा है कि उस पर बराबर दृष्टि रखना, वह ऑंख की ओट न होने पाए। रात को भी उसकी कोठरी के बाहर दो भिक्खु सोते हैं। न जाने कितने नए भिक्खु आए पर ऐसी व्यवस्था किसी के लिए नहीं की गई थी।

दू भिक्खु-जान पड़ता है कि कोई भारी शिकार है। संघ के जैसे बुरे दिन आज हैं उन्हें देखते नए शिकार की इतनी चौकसी होनी ही चाहिए।

प भिक्खु-यह तो समझता हूँ, पर जिनानन्द का भेद नहीं खुलता। इसके पहले उसके पास और भी पत्र आ चुके हैं।

फूलों की शय्या पर एक भिक्खु लेटा हुआ था। वह घबराकर उठ बैठा और बोला “अरे सावधान रहना! दूर पर वज्राचार्य्य2 दिखाई पड़ा है।” उसकी बात सुनते ही सब उठकर खड़े हो गए। देखते देखते पेड़ की डाल कन्धो पर रखे, मैले औरफटे पुराने कपड़े पहने एक वृद्धमन्दिर के सामने आया। उसे देख भिक्खुओं ने साष्टांग


1. संघस्थविर = बौद्धमठाधयक्ष या सम्प्रदाय का नायक।

2. सिद्धभिक्षु = ये सदा हाथ में वज्र लिए रहते थे।

प्रणाम किया। गंगा के किनारे पाठक एक बार उसे देख चुके हैं। वही, जिसने युवराज के सम्बन्धा में भविष्यद्वाणी की थी। वृद्धने पूछा “देशानन्द कहाँ हैं?”

भिक्षुगण-वन के भीतर गए हैं।

वृद्ध्-संघस्थविर कहाँ हैं?

भिक्षुगण-मन्दिर के भीतर।

वृद्धदेखते देखते वहाँ से चल दिया और दृष्टि के बाहर हो गया।

जंगल के भीतर एक टूटे खम्भे की आड़ में तरला और जिनानन्द खड़े धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं?

तरला-भैयाजी! अब क्या इसी प्रकार दिन काटोगे?

जिना -क्या करूँ? कुछ वश नहीं। इन्होंने मुझे बाँधा तो नहीं रखा है, पर बाँधा रखना इससे कहीं अच्छा था। सदा मेरे पीछे लोग लगे रहते हैं, वे मुझे बराबर दृष्टि के सामने रखते हैं। इससे भाग निकलने का भी कोई उपाय नहीं है।

तरला-तब क्या अब घर न लौटेंगे?

जिना -लौटना यदि मेरी इच्छा पर होता-तो मैं क्या अब तक यहाँ पड़ा रहता?

तरला-तुम्हें संन्यासी बनाकर इन सबों ने क्या पाया है मेरी समझ में नहीं आता। तुम अपने बाप के इकलौते बेटे थे, न जाने किस कलेजे से उन्होंने जीवन भर के लिए तुम्हें छोड़ दिया।

जिना -तरले! उन्होंने क्या लाभ समझकर मुझे भिक्खु बनाया है, यह क्या तुम नहीं जानती? पिता के मरने पर उनकी अतुल सम्पत्ति का उत्ताराधिकारी मैं ही हूँ। यदि मैं घर में रहता तो यूथिका के साथ विवाह करके गृहस्थ होता। पर जिस दिन मैंने संघ में प्रवेश किया, मैं भिक्खु हुआ, उसी दिन से मेरा सब अधिकार जाता रहा, उसी दिन से मानो यह संसार मैंने छोड़ दिया। अब पिता के मरने पर सम्पत्ति पर मेरा कोई अधिकार न रहेगा, ये संन्यासी ही वह सब सम्पत्ति पाएँगे। इसीलिए ये सब मुझे यहाँ ले आए हैं और मेरे ऊपर इतनी कड़ी दृष्टि रखते हैं।

तरला-भैया! हो तो तुम वही वसुमित्र ही!

जिना -अब वह नाम मुँह पर न लाओ, तरला! समझ लो कि सेठ वसुमित्र मर गया, अब तो मेरा नाम जिनानन्द है।

तरला-भैयाजी, ऐसी बात न कहो। यदि इस दासी के तन में प्राण रहेगा तो वसुमित्र यहाँ से निकलेंगे, फिर गृहस्थी में जायँगे और यूथिका से विवाह करके ।

जिना -कहाँ की बात तरला! यह सब दुराशा मात्रा है। दुराशा या दु:स्वप्नभी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार का स्वप्न देखना भी मेरे लिए इस समय पापहै।

तरला-भैयाजी! मक्खीचूस समझकर तुम्हारे पिता का नगर में सबेरे कोई नाम नहीं लेता। न जाने कितने गृहस्थों को तुम्हारे पिता ने राह का भिखारी कर दिया। पहले जब मैं तुम्हारे पिता की निठुराई की बातें सुनती तो मन ही मन कहती कि चारुमित्रा मनुष्य नहीं हैं, पशु हैं। पर अब देखती हूँ कि चारुमित्रा पशु नहीं, पत्थर हैं। पशु के हृदय में भी अपनी सन्तान का स्नेह होता है।

जिना -मेरे पिता एकबारगी हृदयहीन नहीं हैं। उन्हें धान की हाय हाय रहती है सही, पर उनके चित्ता में कोमलता है। तरला! उन्होंने बौद्धसंघ की उन्नति की अभिलाषा से मुझे उत्सर्ग कर दिया है। मेरे धन से बौद्धसंघ की उन्नति हो, यह उनका उद्देश्य है। राजा खुल्लमखुल्ला तो बौद्धविद्वेषी नहीं हैं, पर बौद्धधार्मावलम्बी नहीं हैं। उनके मरने पर कहीं मैं अपना उत्तराधिकार जताकर बौद्धसंघ के साथ कोई झगड़ा न करूँ, इसी डर से पिता ने मुझे मृतक कर दिया। अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि अपना एक मात्रा पुत्र तक, उन्होंने धर्म की उन्नति के लिए उत्सर्ग करके अक्षय पुण्य संचित किया है।

तरला-भैयाजी, मुझसे अब और न कहलाओ। तुम्हारा पिता समझकर मैं उनको कुछ नहीं कह सकती।

कुछ दूर पर सूखे पत्तो पर किसी के पैर की आहट सुनाई पड़ी। जिनानन्द डरकर कहने लगा “अब चलता हूँ। कोई आ रहा है।”

तरला-कुछ डर नहीं, मैं जाकर देखती हूँ।

एक पेड़ के पीछे खड़ी होकर तरला ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, फिर आकर बोली “कोई डर नहीं, वही मुँह जला बुङ्ढा है, यहाँ तक पीछे लगा आया है। अब मैं यहाँ न ठहरूँगी। तुम्हें यहाँ सड़ना नहीं होगा, मैं तुम्हें यहाँ से छुड़ा ले जाऊँगी।” इतना कहकर तरला डग बढ़ाती हुई चली गई। जिनानन्द लम्बी साँस लेकर लौटा और उसने देखा कि कुछ दूर पर देशानन्द तरला के पीछे पीछे चला जा रहा है।