शशांक / खंड 1 / भाग-9 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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भविष्यवाणी

बैसाख का महीना है। एक पहर दिन चढ़ते चढ़ते धूप इतनी कड़ी हो गई है कि कहीं निकलने का जी नहीं करता। भागीरथी का चौड़ा पाट बालू ही बालू से भरा दिखाई पड़ता है। सूरज की किरणों के पड़ने से बालू के महीन-महीन कण इधर उधार दमक रहे हैं। बालू के मैदान का एक किनारा धारे स्वच्छसलिला, हिमगिरिनन्दिनी गंगा की पतली धारा बह रही है। धारा के दोनों ओर थोड़ी थोड़ी दूर तक गीली बालू का रंग कुछ गहराई या श्यामता लिए है। सफेद झक बालू के मैदान के बीच यह गहरे रंग की रेखा अंजन की लकीर सी दिखाई देती है। इस कड़ी धूप में धारा के पास की गीली बालू पर बैठे दो बालक खेल रहे हैं। एक बालिका भी पास बैठी है। दोनों बालकों में जो बड़ा है वह भीगी धोती पहने जल में पाँव डुबाए बैठा गीली बालू का घर बना रहा है। उससे कुछ दूर पर दूसरा लड़का भी बालू का घर बनाने में लगा है। बालिका दोनों के बीच में बैठी देख रही है। बड़ा लड़का बड़ी फुरती से कोट और खाई बनाकर उसके भीतर मन्दिर उठा रहा है। हाथ में गीली बालू लेकर वह मन्दिर का चूड़ (कँगूरा) बना रहा है। उँगलियों से उठा उठाकर वह गीली बालू मन्दिर की चोटी पर रखता जाता है जिससे मन्दिर की चोटी बहुत ऊँची हो जाती है पर बोझ अधिक हो जाने से गिरगिर पड़ती है। बालिका एकटक यही देख रही है। कभी बड़े लड़के के मन्दिर की चोटी ऊँची हो जाती कभी छोटे के मन्दिर की। जब जिसका मन्दिर अधिक ऊँचा उठता तब वह बालिका को पुकार कर उसे दिखाता। धूप की प्रचंडता बराबर बढ़ती जाती है इसका उनमें से किसी को धयान नहीं है, वे अपने खेल में लगे हैं।

धारा के किनारे किनारे मैले और फटे पुराने कपड़े पहने एक वृद्ध उनकी ओर आ रहा है, इसे उन्होंने न देखा। जब वह पास आकर खड़ा हुआ तब उसकी परछाईं देख बालिका चौंक पड़ी और डरकर बड़े लड़के के पास चली गई। बुङ्ढे के पैरों की ठोकर से मन्दिर और गढ़ चूर हो गया। छोटा लड़का यह देख ठट्ठा मारकर हँस पड़ा। वृद्ध ने कहा “कुमार! खेद न करना, तुम्हें इस जीवन में खेद करने का अवसर ही न मिलेगा। काल की चपेट से तुम्हारी आशा के न जाने कितने भवन गिर गिर कर चूर होंगे।” तीनों विस्मित होकर वृद्ध के मुँह की ओर ताकते रह गए।

बुङ्ढा अपने फटे कपड़े का एक कोना बालू पर बिछाकर बैठ गया। बहुत देर पीछे बड़े लड़के ने पूछा “तुमने मुझे पहचाना कैसे?” बुङ्ढे ने हँसकर उत्तर दिया “कुमार शशांक! तुम्हें न जो पहचानता हो ऐसा कौन है? तुम्हारे पिंगल केश ही तुम्हारी पहचान हैं। इन्हीं केशों के कारण उत्तरापथ में तुम्हें सब पहचानेंगे। युद्ध क्षेत्रो में तुम्हारे शत्रु तुम्हारे इन केशों को ताड़ेंगे। तुम्हें पहचान लेना कोई कठिन बात नहीं है।” वृद्ध पागलों के समान हँस पड़ा। तीनों और भी चकित हुए, बालिका कुमार के और भी पास सरक गई। वृद्ध एकबारगी उठकर खड़ा हो गया, उसने कपड़े के भीतर से एक बंसी निकाली, पर न जाने क्या समझ उसे फिर छिपकर बोला “कुमार! तुमसे मैं बहुत सी बातें कहनेवाला हूँ, पर यहाँ न कहूँगा। मेरे साथ आओ।” मन्त्र मुग्ध के समान तीनों उसके पीछे हो लिए। आग सी तपती गंगा की रेत पार करके वृद्ध प्राचीन राजप्रासाद के नीचे घाट की एक टूटी सीढ़ी पर आकर बैठ गया। बालिका और दोनों बालक नीचे की सीढ़ी पर एक पंक्ति में बैठे। बुङ्ढा कपड़े के भीतर से बंसी निकाल बजाने लगा। बैसाख की उस सनसनाती दुपहरी में बंसी का करुण स्वर भागीरथी का पाट लाँघता हुआ उस पार तक गूँज उठा, तपता हुआ संसार मानो क्षण भर के लिए शीतल हो गया। बालक बालिका चुपचाप बंसी की टेर सुन रहे थे। बंसी का सुर एकबारगी बन्द हो गया ऐसा जान पड़ा मानो संसार की फिर वही अवस्था हो गई। वृद्ध उठकर कहने लगा “कुमार! तीन सौ वर्ष हुए गुप्तवंश में तुम्हारे ही समान एक और पिंगलकेश राजपुत्र हुआ था। अदृष्ट तुम्हारे ही समान उसके पीछे भी लगा था। तुम्हारे ही समान वह भी उदार, दयावान् और पराक्रमी था। तुम जिस प्रकार वंश के लुप्त गौरव के उध्दार के यत्न में अपना जीवन विसर्जित करोगे उसी प्रकार उसने भी किया था। उसका नाम था स्कन्दगुप्त। अब इस समय उत्तारापथ में बहुत से लोग उसका नाम तक नहीं जानते। यह कोई अचम्भे की बात नहीं है। पाटलिपुत्र के कृतघ्न नागरिक तक उसका नाम भूल गए हैं, पर किसी समय उसी स्कन्दगुप्त ने पाटलिपुत्र के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था।

“कुमार शशांक! समुद्रगुप्त का नाम तुमने सुना है? समुद्रगुप्त की समुद्र से लेकर समुद्र तक के दिग्विजय की कथा तुमने सुनी है? कुमारगुप्त का वृत्तान्त जानते हो? स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त के ही पुत्र थे। तुम्हारे पिता के छोटे से राज्य में जिस प्रकार तुम्हारे भूरे बाल देखकर लोग पहचान जाते हैं कि तुम युवराज हो उसी प्रकार स्कन्दगुप्त के पिता के साम्राज्य में उनके पिंगलकेश देखते ही समुद्र से लेकर समुद्र तक, हिमालय से कुमारी तक, सब उन्हें पहचान लेते थे।

“तुम्हारे चारों ओर जैसा विपद् का घना जाल है उससे कहीं अधिक घना जाल उनके चारों ओर फैला था। उन्होंने उस जाल को हटाने का बहुत यत्न किया था, एक दिन तुम भी करोगे। अदृष्ट साथ साथ लगा है यह उन्हें नहीं सूझता था। मोह जिस समय तुम्हें घेरेगा तुम्हें भी न सूझेगा। उनके भाई बन्धु सेवक, सम्बन्धी विश्वासघाती हो गए थे, विश्वासघात से उनके जीवन की शान्ति नष्ट हो गई थी, तुम्हारे जीवन की भी यही दशा होगी। उनका सारा जीवन युद्ध करते बीता। उनका जी टूट गया था पर उन्हें साँस लेने तक का अवसर न मिला, वे बराबर लड़ते ही रहे। कुमार शशांक! तुम राजा होगे, पर तुम्हारे मार्ग में बराबर कंटक मिलेंगे, तुम कभी सुखी न रहोगे। भ्राता, वाग्दत्ता पत्नी, अमात्य और प्रजा सबके सब तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। सब को खोकर तुम भी स्कन्दगुप्त के समान युद्ध में गिरोगे, पर स्वदेश में नहीं, विदेश में। स्कन्दगुप्त ने स्वदेश में विदेशियों के साथ लड़कर अपना जीवन विसर्जित किया था, पर तुम्हें विदेश में स्वदेशियों के साथ, अपने जात भाइयो के साथ, लड़ना पड़ेगा।

“कुमार! खिन्न न होना। तुम्हारा सिंहराशि में जन्म है, तुम सिंह के समान पराक्रमी होगे। अदृष्ट के अधीन होकर सिर कभी न झुकाना। भाग्य के साथ जीवनभर चलने वाले संग्राम के लिए सन्नद्ध रहो। इस बूढ़े की बात सुनकर स्त्रियों के समान दहल मत जाना, पूर्णरूप से अपना पुरुषार्थ दिखाने को अग्रसर हो। शशांक! संसार में किसी का विश्वास न करना। सबके सब स्वार्थ के लिए आए हैं, परार्थ के लिए कोई नहीं आया है। स्त्री वा पुत्र तुम्हारे न होंगे। कैसे न होंगे, यह न पूछना। अपने काले भाई का विश्वास न करना, गोरे कुबड़े कामरूप के राजकुमार का विश्वास न करना। यदि करोगे तो अदृष्ट की चक्की के नीचे बराबर पिसते रहोगे, कभी विश्राम न पाओगे।

“संसार में जिसके आगे किसी का वश नहीं चल सकता उसके आगे तुम्हारा वश भी न चल सकेगा। जो सबके लिए असाधय है वह तुम्हारे लिए भी असाधय होगा। तुम्हारा भाई तुम्हारा सिंहासन ले लेगा। तुम्हारी बालपन की संगिनी तुम्हें वरदान देकर भी धोखे में पड़कर दूसरे को हाथ पकड़ाएगी। तुम्हारे विश्वस्त सेवक थोड़े से धान के लोभ में आकर विश्वासघात करेंगे। तुम्हारे देश के लोग ही तुम्हें देश से भगा देंगे। विदेश में विदेशी लोग तुम्हें आग्रह के साथ बुलाएँगे। जो तुहारे दु:ख सुख के सच्चे साथी होंगे तुम भाग्य के फेर से उन्हें न पहचानेगे। वे तुम्हारी उपेक्षा और लांछना सहकर भी अन्त तक तुम्हारा साथ देंगे।”

बालिका डर के मारे रोने लगी। दूसरा बालक भी सकपका गया था, उसका मुँह सूख गया था। किन्तु शशांक कुछ भी न डरे। कुमार ने वृद्ध से पूछा “तुम क्या क्या कह गए, मैं नहीं समझा। तुम हो कौन?” प्रश्न सुनकर वृद्ध ठठाकर हँस पड़ा और पागल की तरह नाचने लगा। बालिका चिल्लाकर रो पड़ी। माधवगुप्त भी रोने लगा। शशांक भय से दो कदम पीछे हट गए। वृद्ध ने हँसते हँसते कहा “मैं कौन हूँ यह लल्ल से पूछना, वृद्ध यशोधावल से पूछना और अपने पिता से पूछना, कहना कि शक्रसेन यह सब कह गया है। मैंने जो कुछ कहा है उसे तुम समझ ही कैसे सकते हो? जो होने वाला है वह तो होगा ही। जब तुम समझोगे तब मैं फिर आऊँगा।” वृद्ध फिर नाचने लगा। देखते देखते उसने कपड़े के नीचे से एक चमचमाता अस्त्र निकाला। शशांक उसे देख दो कदम और पीछे हट गए। वृद्ध बोला “तुम हमारे शत्रु हो, तुम हमारे धर्म के शत्रु हो। जी चाहता है कि तुम्हारा कलेजा निकालकर तुम्हारा रक्त चूस लूँ। पर ऐसा करता क्यों नहीं, जानते हो? जो कालचक्र तुम्हें नचा रहा है वही मुझे भी नचा रहा है।”

इतने मे एक छोटी सी नाव आकर उस घाट के सामने लगी। उस पर से दो वृद्ध, एक युवक और एक बालिका उतरी। शशांक और उसके साथियों ने उनको नहीं देखा, पर उस वृद्ध ने देख लिया। उन्हें निकट पहुँचते देख वृद्ध बोल उठा “कुमार! अब मैं भागूँ। बहुत से लोग आ रहे हैं। जब तुम मर्मव्यथा से व्याकुल होगे तब मैं फिर दिखाई पड़ूँगा। समझे।” इतना कहते कहते वुद्ध ने पीपल की एक डाल तोड़ ली और उसके ऊपर सवारी करके देखते देखते दृष्टि के ओझल हो गया। शशांक, माधवगुप्त और चित्रा तीनों भय और विस्मय से कठपुतली बने खड़े रह गए।

नाव पर से उतरे हुए लोग घाट के पास आकर खड़े हुए। उनमें से एक वृद्ध साथ के युवक से बोला “जान पड़ता है कि राजघाट यही है। इधर बीस वर्ष से मैं पाटलिपुत्र नहीं आया। वीरेन्द्र! कोई मिले तो उससे मार्ग पूछ लो।”

वीरेन्द्र-प्रभो! घाट पर तो कोई नहीं दिखाई पड़ता है।

वृद्ध-अभी ऊपर की सीढ़ी पर कोई खड़ा था न।

वीरेन्द्रसिंह ने ऊपर चढ़कर बालक बालिका को देखा और उनसे पूछा “यह प्रासाद के नीचे का घाट है?” शशांक उदास मन एक टक उसी ओर ताक रहे थे जिधार वह वृद्ध जाकर लुप्त हो गया था। वीरेन्द्रसिंह की बात पर उन्होंने दृष्टि फेरी। जो बात पूछी गई थी वह उनके कान में अब तक नहीं पड़ी थी। उन्होंने पूछा “क्या कहा?” वीरेन्द्र ने झुँझलाकर कहा “बहरे हो क्या? मैं पूछता हूँ कि क्या यह प्रासाद का घाट है।” शशांक ने प्रश्न का कोई उत्तर न देकर पूछा “तुम कौन हो? कहाँ से आते हो?” वीरेन्द्र और भी कुढ़ गया और बोला “बाबा! तुम्हारी सब बातों का मैं उत्तर दूँ, इतना समय मुझे नहीं है। प्रासाद का घाट किधार है यही मुझे बता दो।”

“प्रासाद का घाट तो यही है, पर इस मार्ग से साधारण लोग नहीं जा सकते।”

“बाबा! इस मार्ग से जाता कौन है?” यह कहकर वह वृद्ध के पास लौट गया और बोला “प्रभो! प्रासाद का घाट तो यही है पर घाट पर कई लड़के खड़े हैं। उनमें से एक की बातचीत तो राजपुत्र की सी है। वह कहता है कि इस मार्ग से जनसाधारण के जाने का निषेध है।” वृद्ध यशोधावलदेव ने हँसकर कहा “वीरेन्द्र, लड़का ठीक कहता है।

वीरेन्द्र-तब क्या नाव पर फिर लौट चलेंगे?

यशो -न, इसी मार्ग से जायँगे। विशेष अमात्यों और राजवंश के लोगों को छोड़कर कोई गंगा के इस घाट की ओर नहीं आने पाता। बात यह है कि अन्त:पुर की स्त्रियाँ प्राय: यहाँ गंगा स्नान करने आती हैं। इसीलिए उस लड़के ने तुमसे इस मार्ग से न जाने को कहा था। अच्छा अब तुम आगे आगे चलो, मेरे लिए यहाँ कोई रोकटोक नहीं है।

सब लोग सीढ़ियाँ चढ़कर घाट के ऊपर आए। यशोधावल ने देखा कि एक बालक उनका मार्ग रोकने के लिए बीच में आकर खड़ा है, दूसरा बालक और बालिका बैठे हैं। बालक ने पूछा “आप कौन हैं?”

यशो -मैं रोहिताश्व का गढ़पति हूँ। मेरा नाम है यशोधावल।

शशांक-आप कहाँ जायँगे?

यशोधावल-सम्राट से मिलने के लिए प्रासाद के भीतर जाना चाहता हूँ।

शशांक-आप क्या नहीं जातने कि इस मार्ग से होकर साधारण लोग नहीं जा सकते। आप उधार से घूमकर दक्खिन फाटक से होकर जायँ। उसी मार्ग से आप प्रासाद में जा सकते हैं।

वीरेन्द्र-अच्छा, यदि हम लोग इसी मार्ग से जायँ तो क्या तुम हम लोगों को रोक लोगे?

कुमार ने हँसकर कहा 'कहाँ तक जायँगे, गंगा द्वार पर द्वाररक्षक आप लोगों को सीधा लौटा देंगे फिर इसी घाट पर आना होगा और नाव पर लौट जाना पड़ेगा, क्योंकि यहाँ से नगर की ओर जाने का नदी छोड़ और कोई मार्ग नहीं है।”

यशो -सुनो! मैं मगध साम्राज्य की साधारण प्रजा में नहीं हूँ, सेना दल में मेरी पदवी महानायक1 की है। राजद्वार में मुझे युवराज भट्टारकपादीय का मान प्राप्त है। अन्त:पुर को छोड़ प्रासाद में और कहीं मेरे लिए रोकटोक नहीं है।

शशांक-आप-महानायक-युवराजभट्टारक?

यशो -अचम्भा क्यों मानते हो?

शशांक-मैंने आज तक कभी किसी महानायक या युवराजभट्टारक को इस रूप में प्रासाद में जाते नहीं देखा है। वे जिस समय आते हैं सैकड़ों पदातिक और सवार उनके आगे पीछे रहते हैं। वे जिस मार्ग से होकर निकलते हैं डर के मारे लोग भाग जाते हैं। साम्राज्य के किसी युवराजभट्टारक को मैंने कभी पैदल चलते नहीं देखा है।

यशो -तुम कौन हो?

शशांक-मैं सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। मेरा नाम है शशांक।

इतना सुनते ही वृद्ध गढ़पति की तलवार कोष से निकल पड़ी और उसकी नोक उसकी श्वेत उष्णीष पर जा लगी। उस समय सैनिक वर्ग में अभिवादन की यही रीति थी। अभिवादन के पीछे वृद्ध ने कहा “युवराज! मैं इधर बहुत दिनों से पाटलिपुत्र नहीं आया इसी से आपको पहचान न सका। मेरे इस अपराध को आप धयान में न लाएँगे। जिस समय मैं राजसभा में आता जाता था उस समय आप लोगों का जन्म नहीं हुआ था। उस समय हम लोग आपके चाचा के पुत्र देवगुप्त को ही साम्राज्य का भावी अधीश्वर जानते थे। युवराज! साम्राज्य के और महानायकों के पास जो है वह मेरे पास नहीं है इसीलिए तो मैं सम्राट के पास जाता हूँ।”