शशांक / खंड 1 / भाग-8 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोहिताश्व के गढ़पति

रोहिताश्वगढ़ के प्राचीन भवन पर बहुत से कौवे बैठकर काँव काँव कर रहे हैं पर अभी गढ़वासियों की नींद नहीं टूटी है। कौवों के शोर से रग्घू की नींद खुली। उसने उठकर देखा कि बूढ़ी नन्नी अभी पड़ी सो रही है। वह उसे खींचकर कहने लगा “जान पड़ता है कि कौवो के शोर से प्रभु जाग गए हैं। पहर भर दिन चढ़ा।” बिना दाँत की बुढ़िया ऑंख मलते मलते उठ बैठी और हँसकर बोली “तू ज्यों ज्यों बूढ़ा होता जाता है, देखती हूँ कि तेरी रसिकता बढ़ती जाती है। तू तो उठ बैठा है। जाकर कौवों को क्यों नहीं उड़ा देता?” रग्घू के भी ओठों के एक किनारे पर हँसी दिखाई पड़ी और वह बोला “अच्छा तू सोई रह, मैं कौवों को जाकर उड़ाए आता हूँ।” बूढ़ा उठकर कोठरी के बाहर चला ही था कि एक बोरे से टकरा कर गिर पड़ा। बुढ़िया हाँ हाँ करके चिल्ला उठी। वह भूमि पर से उठे कि बोरा टेढ़ा हो पड़ा। कोने में बहुत से बर्तन नीचे ऊपर सजाकर रखे थे, बोरे के धक्के से वे बूढ़े के सिर पर आ गिरे। बुढ़िया फिर हाय हाय करके चिल्ला उठी।

रग्घू को कुछ चोट लगी। बुढ़ापे की चोट बहुत जान पड़ती है। वह टूटे फूटे बर्तनों के बीच खड़ा खड़ा अपनी पीठ और माथे पर हाथ फेरने लगा। बुढ़िया ने पूछा “बहुत चोट तो नहीं लगी?” “बूढ़े ने पहले तो कहा 'नहीं।' अपना हित और प्रेम जताने के लिए बुढ़िया ने फिर वही बात पूछी। बूढ़े ने इस बार झुँझला कर कहा “तू अपना प्रेम रहने दे, जान पड़ता है मेरा सिर चकनाचूर हो गया है। तू अब हो गई बुङ्ढी, तुझे कुछ सुझाई तो देता नहीं। किस ठिकाने क्या रखती है, कुछ ठीक नहीं।” बुङ्ढी चकपका कर बोली “मैं इस घर में नए बरतन लाकर क्यों रखने लगी? बरतन भाँड़ें तो सब मैं भण्डार के घर में रखती हूँ। मेरी समझ में भी नहीं आ रहा है कि इस घर में इतने बोरे और हँड़ियाँ कहाँ से आईं।” बुङ्ढा और भी खिझला कर बोला, “तो भूत तेरे रूप पर लुभाकर रात को यह सब रख गए हैं। बकवाद छोड़कर तू थोड़ा पानी ला। पीठ पर रक्त की धारा बह रही है। अरे बाप रे, बाप! सारा कपड़ा रक्त से भींग गया।”

बुढ़िया ने पास जाकर देखा कि बुङ्ढे के सिर पर से मधु के समान गाढ़ी गाढ़ी वस्तु पीठ पर बह रही है और उसके कपड़े तर हो रहे हैं। ऊपर ऑंख उठाकर उसने देखा कि सब हँड़ियाँ नहीं गिरी हैं, तीन चार अभी ज्यों की त्यों रखी हैं। उनमें से कुछ फूट गई हैं और उनमें से रस की धारा बहकर अब तक बुङ्ढे के सिर पर पड़ रही है। बुढ़िया ने देखा कि फूटी हाँड़ियों में से बहुतसे मोदक और लड्डू निकल कर घर में चारों ओर बिखरे पड़े हैं। किसी किसी बर्तन से मिठाई का चूर मिला रस (शीरा) गिरकर भूमि पर फैल गया है और वहाँ कीचड़ सा हो गया है। बुढ़िया यह देखते ही अपनी हँसी न थाम सकी, अपने पोपले मुँह के अट्टहास से वह पुरानी छत हिलाने लगी। बूढ़ा चिढ़कर उसे गालियाँ देने लगा। हँसी कुछ थमने पर नन्नी बोली 'तेरी देह और माथे में लगा क्या है, देख तो। तूने तो समझा था कि तेरा सिर फूट कर खंड खंड हो गया है।” रग्घू ने घबराकर पूछा, “क्या लगा है?”

बुढ़िया-लड्डू, मोदक और टिकिया।

रग्घू-हाँ रे! यह सब कहाँ से आया? हे कालूवीर! मैंने तुम्हारा नाम लेकर अभी ठट्ठा किया था, अपराध क्षमा करना, मैं कल तड़के ही पेड़ के नीचे तुम्हारी चौरी पर बलिदान दूँगा। देख बुङ्ढी! यह सब भूतों की लीला है। दस वर्ष से कभी कोई पकवान और मिठाई लेकर गढ़ में नहीं आया है। आज कौन आकर मिठाई का ढेर लगा गया है?

बुढ़िया सन्नाटे में आकर बोली “उनकी लीला कौन जाने?”

इसी बीच में द्वार पर किसी मनुष्य की परछाईं पड़ी और धानसुख सोनार ने आकर पूछा “रग्घू! तुम उठे? अरे यह क्या किया? सब हाँड़ियाँ फोड़ डालीं? जापिलग्राम के मोदियों ने गढ़पति के लिए इतनी मिठाइयाँ भेजी थीं।” रग्घू थोड़ीसी हँसी लिए हुए बोला “तो यह सब भूतों का काम नहीं है। चलो थोड़ा ।” इतना कहतेकहते जमीन पर से एक लड्डू उठाकर उसने मुँह में डाला और बोला “अरे नन्नी! ऐसा बढ़िया लड्डू तो इधर बहुत दिनों से नहीं खाया था, नन्नी थोड़ा तू भी खाकर देख।” इस प्रकार उसने एकएक करके जमीन पर पड़ी हुई सारी मिठाई पेट में डाल ली। उसके शरीर पर भी इधर उधर जो चूर लगे थे उन्हें भी ठिकाने लगाया। बुढ़िया उसकी यह लीला देख मुँह पर कपड़ा दिए हँस रही थी। धानसुख चुपचाप द्वार पर खड़ा था। रग्घू जब सब चट कर चुका तब नन्नी से कहने लगा “ऊपर जो हाँड़ियाँ रखी हैं देख तो उनमें क्या क्या है?” बुढ़िया ने हँस कर कहा “अब उधर डीग मत लगा, वह सब प्रभु के लिए आया है, अब तू और खायगा तो तेरा पेट फट जायगा, चल उठ।” धानसुख ने किसी प्रकार अपनी हँसी रोक कर कहा “रग्घू! गढ़ के ऑंगन में बहुतसे लोग गढ़पति से मिलने के लिए बैठे हैं, जाकर उन्हें संवाद दे आओ।” बुङ्ढा धीरे धीरे उठा और अपना शरीर धो पोंछ कर एक बहुत पुरानी पगड़ी सिर पर बाँधा दुर्गस्वामी के भवन की ओर चला। उसके चले जाने पर बुढ़िया धानसुख से पूछने लगी “धानसुख! यह इतना सामान और मिठाई कहाँ से आई है?” धानसुख ने कहा “रोहिताश्वगढ़ की प्रजा यह सब पहुँचा गई है, अभी बहुत सा सामान बाहर पड़ा है। मुझे भण्डार का घर न मिला इससे कुछ वस्तुएँ तुम्हारी कोठरी में रख गया, और सब अभी बाहर हैं।”

नन्नी-थोड़ा ठहरो, मैं इस कोठरी को साफ कर दूँ।

बुढ़िया झाड़ू लेकर हाँड़ियों के चूर बटोरकर फेंकने लगी। धानसुख कोठरी के बाहर गया। बुढ़िया ने कोठरी के बाहर निकलकर देखा कि दुर्ग का लम्बा चौड़ा प्रांगण लोगो से खचाखच भरा है, सह से अधिक मनुष्य बैठे हैं। उनके सामने अन्न और खाने पीने की सामग्री का अटाला लगा हुआ है। आटे, घी, तेल, चावल, चीनी आदि से भरे सैकड़ो बोरे और बरतन यहाँ से वहाँ तक रखे हुए हैं। बुढ़िया को जो पहचानते नहीं थे वे उसे दुर्गस्वामिनी समझ प्रणाम करने के लिए बढ़ने लगे, पर जो जानते थे उन्होंने उन्हें रोक लिया। नन्नी ने देखा कि इतनी सामग्री ले जाकर भण्डार घर में रखना उसकी शक्ति के बाहर है। वह चुपचाप घर में लौट गई।

दुर्गस्वामी उठकर पलंग पर बैठे हैं, रग्घू उनके सब वस्त्र परिधान लिए सामने खड़ा है। इसी बीच अपने बिखरे हुए केशों को लहराती हुई बालिका लतिका कोठरी में बिजली की तरह आ पहुँची और कहने लगी “बाबा! उठते नहीं, देखो तुम्हारे आसरे कितने लोग बाहर आकर बैठे हैं!” वृद्ध ने हँस कर कहा “जाता हूँ बेटी।” रग्घू स्वामी के हाथ में कपड़े देकर बाहर चला गया।

दुर्ग के प्रांगण के एक किनारे मत्स्य देश के श्वेतमर्मर की एक बारहदरी थी, जो बहुत पुरानी हो जाने के कारण और बहुत दिनों से मरम्मत न होने से जर्जर हो रही थी। उसकी छत एक कोने पर गिर गई थी और वहाँ एक पीपल का पेड़ निकलकर अपने पत्तो हिला रहा था। बारहदरी के नीचे शालग्रामी पत्थर की एक बारहकोनी चौकी बनी थी जो कदाचित् तब की होगी जब रोहिताश्वगढ़ बना था। गढ़पति इसी अलिंद में इसी चौकी पर बैठकर प्रजा के आवेदन सुनते और विचार किया करते थे। धावलवंशीय महानायकों ने सुन्दर बेलबूटों के रंगीन पत्थरों से बारहदरी के खम्भे सजाए थे। दुर्गस्वामी जिस समय विचार करने बैठते थे गढ़ की सेना चारों ओर श्रेणीबद्ध होकर खड़ी होती थी। अधीन सेनानायक और छोटे भूस्वामी महानायक के सामने बैठते थे, और लोग नंगे पैर खड़े रहते थे। काली चौकी पर सोने का सिंहासन रखा जाता था और उस पर वाराणसी का बना हुआ सुनहरे काम का मणिमुक्ताखचित झूल डाला जाता था। रोहिताश्व के महानायक उसी पर बैठा करते थे। गढ़पतियों की भाग्यलक्ष्मी के साथसाथ समृध्दि के सब चिद्द भी लुप्त हो गए थे केवल एक यही सिंहासन बच रहा था। अन्नकष्ट होने पर भी महानायक लोक लज्जा और वंशगौरव के अभिमान से इस बहुमूल्य स्वर्णसिंहासन को न बेच सके थे। वह बड़े यत्न से अब तक रखा हुआ था। पुत्र की मृत्यु के पहले यशोधावल समयसमय पर प्रजा को दर्शन देते थे और कीर्तिधावल नित्य आवश्यक कार्यों के निर्वाह के लिए बारहदरी में बैठते थे। उनके मरे पीछे फिर कभी कोई बारहदरी में नहीं बैठा। इस बीच में एक ओर की छत टूट गई और वहाँ एक पीपल का पेड़ उग आया।

रग्घू गढ़पति के भवन से निकलकर बारहदरी की ओर आया और उसने धानसुख को बुलाकर कई युवकों को साथ ले लिया। उनकी सहायता से उसने बारहदरी में पड़े हुए कंकड़ पत्थर बाहर फेंके। फिर धानसुख के साथ लगकर उस स्वर्ण सिंहासन को पत्थर के संपुट से बाहर निकाला। दोनों ने मिलकर सिंहासन को काली चौकी पर रखा। सिंहासन की कारीगरी अनोखी थी। उसे देखने के लिए चारों ओर से लोग झुक पड़े। बहुत बूढ़ों को छोड़ और किसी ने रोहिताश्व गढ़पतियों के इस सिंहासन को नहीं देखा था। चार सिंहों की पीठ पर एक बड़ा भारी प्रस्फुटित स्वर्ण पर् स्थापित था जिसके चौरस सिरे पर रत्नों और मोतियों से जड़ा पट वस्त्र पड़ा था। वस्त्र पुराना और जीर्ण हो गया था, स्थान स्थान पर सोने का काम मैला पड़ गया था, फिर भी सिंहासन अत्यन्त मनोहर था। जिस समय सब लोग अलिंद में सिंहासन देखने के लिए झुके हुए थे रग्घू पीछे से चिल्ला कर बोला-

“दुर्गस्वामी महानायक युवराजभट्टारकपादीय श्री यशोधावलदेव का आगमन हो रहा है।”

सुनते ही सब लोग पीछे हट गए और कई सैनिक वेशधाारी वृद्ध आगे बढ़कर जनता के सामने स्थिर भाव से खड़ हो गए। शुभ्र उत्तारीय वस्त्र धाारण किए, लम्बे लम्बे श्वेत केशों पर शुभ्र उष्णीष बाँधो, खड्ग हाथ में लिए यशोधावलदेव आकर सिंहासन पर बैठ गए। रग्घू कहीं से एक फटापुराना लाल कपड़ा लाकर उसे सिर में बाँधा अलिंद के सामने आकर खड़ा हो गया। सब के पहले एक दन्तहीन शुक्लकेश वृद्ध अलिंद के सामने आया और उसने कोष से तलवार खींच उसकी नोक अपनी पगड़ी से लगाई। रग्घू ने पुकारा “सेनानायक हरिदत्ता।” वृद्ध गढ़पति के पैरों तले तलवार रख उसने कपड़े के खूँट से एक स्वर्णमुद्रा निकाली और तलवार के ऊपर रख दी। दुर्गस्वामी ने तलवार उठाकर फिर वृद्ध के हाथ में दे दी। वृद्ध एक बार फिर अभिवादन करके पीछे हट गया। उसी समय भीड़ में से एक और लम्बे डील के अस्त्राधाारी वृद्ध ने आकर गढ़पति का अभिवादन किया। रग्घू ने पुकार कर कहा “सेनापति सिंहदत्ता।” उसने भी तलवार और स्वर्णमुद्रा गढ़पति के सामने रखी और गढ़पति ने उसी प्रकार तलवार उठाकर हाथ में दी। सिंहदत्ता के पीछे हटने पर भीड़ में से एक अत्यन्त वृद्ध दो युवकों का सहारा लिए आता दिखाई पड़ा। उसे देखते ही गढ़पति सिंहासन से उठ पड़े और बोले “कौन, विधाुसेन?”। दुर्गस्वामी का कण्ठस्वर सुनते ही वृद्ध जोर से रो पड़ा और उनके पैरों तले लोट गया। यशोधावलदेव ने उसे पकड़कर उठाया। उनकी ऑंखों में भी ऑंसू आ गए थे, और गला भर आया था। उन्होंने कहा-”विधाुसेन! कीर्तिधावल तो चल ही बसे। तुमने भी आनाजाना छोड़ दिया।” वृद्ध ने रोतेरोते कहा-”प्रभो! मैं किसे लेकर आता? कौन मुँह आपको दिखाता? अपना सर्वस्व तो मैं मेघनाद (मेगना नदी) के उस पार छोड़ आया। केवल कुँवर कीर्तिधावल को ही मैं वहाँ नहीं छोड़ आया, अपने दो पुत्रों को भी छोड़ आया। मेरे पहाड़ी प्रदेश में न जाने कितने अपने पुत्र, अपने पिता और अपने भाई छोड़ आए। इन दोनों बालकों को छोड़ मेरा अब इस संसार में और कोई नहीं है। जयसेन का मृत्युसंवाद पाकर मेरी पुत्रवधू ने अपने दो बच्चों को मेरी गोद में डाल अग्नि में प्रवेश किया। तब से मैं युद्ध व्यवसाय और राज्य के सब कामकाज छोड़ इनदोनों को पाल रहा हूँ।”इतना कहतेकहते वृद्ध अक्षपटलिक1 चिल्लाचिल्लाकर रोने लगा। दुर्गस्वामी ने किसी प्रकार

1. अक्षपटलिक = राजस्व विभाग का सचिव, अर्थसचिव।

उसे शान्त करके कहा “विधुसेन! यदि एक बार भी तुम आ गए होते तो मुझे पेट पालने के लिए दुर्गस्वामिनी का कंगन न बेचना पड़ता।” यह बात सुनकर विधुसेन फिर दुर्गस्वामी के पैरों पर लोट पड़ा और रोते रोते बोला “प्रभो! यह सब मैंने धानसुख के मुँह से सुना। मैं यह नहीं जानता था कि मेरे न रहने से मेरे स्वामी की अवस्था इतनी बुरी हो जायगी।” वृद्ध फिर रोने लगा। दुर्गस्वामी ने उसे शान्त करके बारहदरी में बिठाया। कुछ काल पीछे वह अपने दोनों पौत्रो को दुर्गस्वामी के पास लाया। उन्होंने भी रीति के अनुसार तलवार और स्वर्णमुद्रा गढ़पति के पैरों के नीचे रखकर अभिवादन किया।

उसके पीछे एक एक करके सौ से ऊपर वृद्ध सैनिक अपने पुत्र पौत्रो को लेकर गढ़पति का अभिवादन करने के लिए आए। उन सबने भी यथारीति खड्ग तथा स्वर्ण, रजत या ताम्र मुद्रा सामने रखकर अभिवादन किया। गढ़पति ने भी उनकी तलवारें उन्हें लौटा दीं। सैनिकों के पीछे साधारण भूस्वामियों, किसानों, बनिए, महाजनों आदि ने अपने अपने वित्ता के अनुसार सोने, चाँदी या ताँबे के सिक्के सामने रखकर प्रणाम किया। देखते देखते सिंहासन के सामने रुपयों और दीनारों का ढेर लग गया।

सब के पीछे एक बलिष्ठ युवा योध्दा को साथ लेकर धानसुख अलिंद कीओर बढ़ा। युवक जब रीति के अनुसार अभिवादन कर चुका तब धानसुख प्रणाम करकेबोला “प्रभो! यह युवक आपके पुराने सेवक महेन्द्रसिंह का पुत्र हैवीरेन्द्र सिंह है,

दुर्गस्वामी-पुत्र! तुम्हारे पिता ने अनेक युध्दों में मेरा साथ दिया था। तुम्हारे पिता की तलवार आज मैं तुम्हारे हाथ में देता हूँ। मुझे पूरा भरोसा है कि तुम इसकी मर्य्यादा रख सकोगे।

युवक ने तलवार हाथ में लेकर भूमि टेक कर प्रणाम किया। वृद्ध अक्षपटलिक अब तक अलिंद में चुपचाप बैठे थे। सबके अभिवादन कर चुकने पर वे उठकर बोले “प्रभो। बंगदेश के युद्ध के पीछे प्रजा ने नियमित रूप से अपना कर नहीं भेजा था। वीरेन्द्रसिंह, धानसुख और इस सेवक ने गाँवगाँव आदमी भेज कर मण्डलों को अपना अपना कर चुकाने के लिए विवश किया। वे सब यहाँ बाहर खड़े हैं। आज्ञा हो तो सामने लाऊँ।” आज्ञा पाकर विधुसेन एक एक करके मण्डलों और ग्रामवासियों को बुलाने लगे औरवे अपना अपना कर लाकर सिंहासन के सामने रखने लगे। धानसुख सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्कों को अलग अलग करके गिनने लगा। इसी में दोपहर बीत गया। धानसुखसबगिन चुकने पर बोला “एक हजार, दो सौ अठारह स्वर्णमुद्रा, ढाई सौ रुपये और सौ से ऊपर ताँबे के सिक्के आए हैं।” इतना सब हो चुकने पर सिंहासन के सामने धानसुख टेककर बैठ गया। धीरे धीरे कपड़े के भीतर से उसने दुर्गस्वामिनी का कंगन निकाला और उसे सिंहासन के सामने रख कर हाथ जोड़ बोला “प्रभो! इतने बड़े अमूल्य कंगन का ग्राहक पाना मेरे लिए असम्भव है। इसका मूल्य पचास सह स्वर्णमुद्रा से भी अधिक होगा।”

दुर्गस्वामी ने उठकर धानसुख को गले लगाया और वे कहने लगे 'धानसुख! मैं तुम्हारी सब युक्ति समझता हूँ। इस बार तो तुम्हारे अनुग्रह से दुर्गस्वामिनी का कंगन बिकने से बच गया पर मैं देखता हूँ कि अब इसकी रक्षा मेरे लिए कठिन ही है। रोहिताश्वगढ़ के कोषाधयक्ष का पद बहुत दिनों से खाली पड़ा है। अब दुर्गस्वामिनी के इस कंगन की और इस धान की रक्षा तुम करो। जो रुपया तुमने मुझे दिया था वह इसी में से काट लेना। दुर्गस्वामिनी ने कहा था कि पोते या पोती के ब्याह के समय इसे मेरा चिद्द कहकर देना। जब कभीर् कीत्तिधावल की कन्या का विवाह हो तब इस चिद्द को उसे देना।” दुर्गस्वामी का गला भर आया और वे थोड़ी देर चुप रहकर फिर विधुसेन से बोले “विधुसेन! इन आए हुए लोगों के खाने पीने का क्या उपाय होगा? इस जंगल में तो पैसा देने पर भी कुछ नहीं मिल सकता।”

धानसुख-प्रभो! अक्षपटलिक और वीरेन्द्रसिंह ने पहले ही से सब प्रबन्ध कर रखा है।

सब लोग भोजन आदि करके निश्चिन्त हुए। यशोधावलदेव ने विधुसेन, सिंहदत्ता, हरिदत्ता, वीरेन्द्रसिंह और धानसुख को अपने शयनागार में बुलाया। सब के बैठ जाने पर दुर्गस्वामी ने कहा “जिस दिन मुझे कीत्तिधावल के स्वर्गवास का संवाद मिला उस दिन से कल तक पागल की सी दशा में मेरे दिन बीते। कल मेरी ऑंखें खुलीं, गढ़ के चारों ओर जो मेरी भूसम्पत्ति है उसका लोभ ऐसा नहीं हो सकता कि कोई ऊँचे घराने का युवक मेरी पुत्री के साथ विवाह करके इस जंगली और पहाड़ी देश में आकर रहे। जिस प्रकार से हो बंगदेश सम्पत्ति का उध्दार किए बिना न बनेगा। मैंने विचारा है कि मैं पाटलिपुत्र जाकर सम्राट से मिलूँ। तुम सब लोग मिलकर इसका प्रबन्ध कर दो।” अन्त में यह बात ठहरी कि विधुसेन तो रहकर दुर्ग की रक्षा करें, धानसुख धान सम्पत्ति सँभालें और वीरेन्द्रसिंह गढ़पति के साथ पाटलिपुत्र जायँ।

सन्धया होते होते जब अस्ताचलगामी सूर्य की सुनहरी किरणें गढ़ के मुँड़ेरों और कलशों पर रक्त डाल रही थीं, ग्रामवासी एक एक करके दुर्गस्वामी से विदा होकर अपने अपने घर लौट रहे थे। रग्घू नन्नी से कहने लगा “न जाने कहाँ से यह राक्षसों का जमावड़ा आकर इतना सब अन्न चट कर गया। अरे, इतनी जिंस भेजी थी तो फिर आप आकर क्या डटे? अपने घर जाकर खाते पीते।”