शशांक / खंड 1 / भाग-7 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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महादेवी का विचार

पाटलिपुत्र के प्राचीन राजप्रासाद के भीतर एक छोटी कोठरी में सन्धया बीतने पर दो व्यक्ति बैठे हैं। उस छोटी कोठरी में नीलपट पड़े हुए हैं, भूमि कोमल बहुमूल्य पारसी कालीन से ढकी है। हाथीदाँत के एक छोटे से सिंहासन पर महादेवी महासेनगुप्ता विराज रही हैं। उनके सामने सोने के सिंहासन पर राजसी पीत परिधान धारण किए, विविध आभूषणों से अलंकृत सम्राट प्रभाकरवर्ध्दन बैठे हैं। घर के एक कोने में एक टिमटिमाता हुआ गन्धदीप स्वच्छ नीलपट की ओट से कोठरी के कुछ भाग पर मृदुल प्रकाश डाल रहा था। अंधेरे में बैठी हुई दोनोंर् मूर्तियाँ स्पष्ट नहीं दिखाई देती थीं। माता और पुत्र के बीच धीरे धीरे बातचीत हो रही थी। महादेवी कहती थीं “प्रभाकर! तुम्हारा इस प्रकार आपे के बाहर होना उचित नहीं है। अब तुम नवयुवक नहीं हो। मगध तुम्हारे मामा का राज्य है, यह भवन तुम्हारे मामा का है। तुम इस पाटलिपुत्र नगर में अतिथि होकर आए हो। तुम्हारा मातामहवंश बहुत प्राचीन है, आर्यावर्त में अत्यन्त प्रतिष्ठित है। इस समय भी उत्तारापथ में तुम्हारे पितृकुल की अपेक्षा मातृकुल को लोग अधिक सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। दिनों के फेर से मेरा पितृकुल इस समय दुर्दशा में है और तुम्हारा पितृकुल बढ़ती पर है! इसलिए सम्राट पदवीधारी स्थाण्वीश्वर के राजा को क्या यही उचित है कि वह अपने मामा के यहाँ अतिथि होकर आए और उसका अपमान करे?”

महादेवी यह बात बहुत धीरे धीरे कह रही थीं। उनका स्वर इतना धीमा था कि उस कोठरी के बाहर से उसे कोई नहीं सुन सकता था।

प्रभाकरवर्ध्दन उत्तोजित होकर कहने लगे “महादेवी! आप आदि से अन्त तक मेरी बात “

उन्हें रोककर महासेनगुप्ता बोलीं “प्रभाकर! मैं तुम्हारी माता हूँ। जो कुछ तुम कहा चाहते हो मैं सब समझती हूँ। पाटलिपुत्र के उद्दंड नागरिक एकदम निर्दोष हैं यह मैं नहीं कहती। पर उन्होंने थानेश्वर के सैनिकों का अत्याचार देख कर ही उत्तोजित होकर हमारे शिविर पर आक्रमण किया है।”

बात कटती देख स्थाण्वीश्वर के सम्राट के मुँह के कोने पर कुछ ललाई दिखाई दी। उन्होंने बड़े कष्ट से अपने भाव को छिपाकर कहा “आपकी जो इच्छा हो, करें।”

महा -मैं तुम्हारे सामने ही कल की घटना से सम्बन्धा रखनेवाले लोगों को बुलाकर विचार करती हूँ, तुम कुछ न बोलना। यदि कुछ कहना तो पट की ओट में बुलाकर कहना। तुम्हारे कर्मचारियों ने तुमसे क्या-क्या कहा है?”

प्रभा -एक सैनिक ने मार्ग में एक सुन्दर दासी मोल ली थी। उसे देख कर नागरिक कहने लगे कि वह नगर के बनिए की लड़की है। उसी दासी के पीछे सैनिकों और नागरिकों में झगड़ा होने लगा। उसी बीच कुमार शशांक वहाँ पहुँचे और मगध सेना का एक दल लेकर थानेश्वर के सैनिकों पर टूट पड़े और उन्होंने उन्हें मारकर शिविर में आग लगा दी। नगर के दूसरे पार्श्व से जब तक हमारी सेना पहुँचे तब तक सारा काम हो गया।”

महा -तुम्हारे कर्मचारियों ने तुमसे जो कुछ कहा है सब झूठ है। किसकी बात सच है यह अभी तुम्हारे सामने दिखाती हूँ।

ताली बजाते ही पट हटाकर एक वृद्ध परिचारक घर में आया। महादेवी ने उससे कहा-”महाप्रतीहार1 विनयसेन को तो भेजो।” परिचारक दो बार प्रणाम करके बाहर चला गया और थोड़ी देर में फिर आकर खड़ा हुआ। उसके साथ एक उज्ज्वल वर्म्मधारी पुरुष ने आकर द्वार पर से प्रणाम किया। वे ही महाप्रतीहार विनयसेन थे।

1. महाप्रतीहार = नगररक्षक, पुररक्षकों का नायक। कोतवाल।

महादेवी ने उनसे पूछा “पाटलिपुत्र के मार्ग में जिस सैनिक ने दासी मोल ली थी उसका नाम क्या है?”

विनय -चन्द्रेश्वर। वह जालन्धार की अश्वारोही सेना का है।

महा -उसे यहाँ ले आओ।

महाप्रतीहार दो बार अभिवादन करके निकले। फिर परदा उठा और महाप्रतीहार चन्द्रेश्वर को लिए आ पहुँचे। महादेवी ने हँसतेहँसते पूछा “तुम्हारा नाम क्या है?”

सैनिक-चन्द्रेश्वर।

महा -निवास कहाँ है?

सैनिक-जालन्धर नगर में।

महा -तुम थानेश्वर की सेना में हो?

सैनिक ने अभिवादन किया। महादेवी ने फिर पूछा “वाराणसी से पाटलिपुत्र आते हुए तुमने कोई दासी मोल ली थी?”

सैनिक-हाँ, पाटलिपुत्रवाले उसे मुझसे छीन ले गए।

महा -तुमने उसे किससे मोल लिया था?

सैनिक-मार्ग में एक बनिए से।

महा -कितना मूल्य दिया था?

सैनिक-दस दीनार1A

महा -अच्छा जाओ। विनयसेन! उस लड़की को तो ले आओ।

दोनों अभिवादन करके बाहर गए। परिचारक पट हटाकर आया और अभिवादन करके बोला “द्वार पर सम्राट महासेनगुप्त खड़े हैं।” इतना सुनकर भी प्रभाकरवर्ध्दन ज्यों के त्यों आसन पर बैठे रहे। महादेवी ने यह देख क्रुद्ध होकर कहा “पुत्र! तुम्हारी बुध्दि एकबारगी लुप्त हो गई? द्वार पर तुम्हारे मामा खड़े हैं, जाकर उन्हें आगे से ले आओ।” प्रभाकरवर्ध्दन का चित्ता ठिकाने आया। वे घबराकर सिंहासन से उठ पड़े और द्वार पर अपने मामा को लेने गए। इसी बीच में परिचारिकों ने एक और सिंहासन ला कर रख दिया। घर में आकर दोनों बैठ गए।

महा.-भैया! आप यहाँ चाहे जिस लिए आए हों, थोड़ा बैठ जाइए। मैं एक विषय का विचार कर रही हूँ, आप भी सुनिए।

महाप्रतीहार विनयसेन उस बालिका को लेकर घर में आए। विनयसेन के आदेशानुसार बालिका ने तीनों को प्रणाम किया।

महा -तुम्हारा नाम क्या है?

बालिका-गंगा।


1. दीनार-गुप्तकाल में यह सोने का सिक्का चलता था। किसी समय फारस से लेकर रोम तक इस नाम की स्वर्णमुद्रा प्रचलित थी। प्राचीनकाल में उस नाम की एक ताम्रमुद्रा भी कश्मीर आदि में चलती थी-अनुवादक।

महा -तुम किस जाति की हो?

बालिका-क्षत्रिय।

महा -तुम्हारे पिता का नाम क्या है?

बालिका के नेत्रा गीले हो गए। उसने उत्तर दिया “यज्ञवर्म्मा।”

महादेवी ने उसकी ऑंखों में ऑंसू देख उसे ढाँढ़स बँधा कर कहा “बेटी डरो मत। अब तुम से कोई कुछ नहीं बोलेगा। तुम रहनेवाली कहाँ की हो?”

बालिका के कोमल कपोलों पर टपटप ऑंसू गिरने लगे, उसका गला भर आया। वह बोली “चरणाद्रि दुर्ग।”

अब तक सम्राट महासेनगुप्त पत्थर की मूर्ति बने चुपचाप सिंहासन पर बैठे थे। जो कुछ बातचीत हुई उसका बहुतसा अंश उनके कानों में नहीं पड़ा था। पर 'यज्ञवर्म्मा' और 'चरणाद्रिदुर्ग' सुनते ही वे चौंक पड़े। वे बालिका से पूछने लगे 'क्या कहा, चरणाद्रिगढ़? तुम्हारे पिता का नाम यज्ञवर्म्मा है? कौन यज्ञवर्म्मा? मौखरिनायक शार्दूलवर्म्मा के पुत्र?” बालिका ने रोते रोते कहा “हाँ”। सम्राट और कुछ कहा ही चाहते थे कि बीच में महादेवी ने महाप्रतीहार को प्रधान महल्लिका को बुलाने की आज्ञा दी। विनयसेन तीन बार अभिवादन करके बाहर गए और पलभर में महल्लिका को साथ लिए लौट आए। महादेवी ने उससे कहा “बालिका को ले जाओ, इसे चुप कराके फिर ले आना”।

महादेवी ने सम्राट की ओर फिर कर पूछा “आप यज्ञवर्म्मा के सम्बन्धा में क्या कह रहे थे?” सम्राट ने लम्बी साँस भरकर कहा “देवि! वह बहुत दिनों की बात है। तब तक साम्राज्य का बहुत कुछ गौरव बना हुआ था, जब तक मेरी भुजाओं में बल था। उस समय यज्ञवर्म्मा के नाम से सारा उत्तरापथ काँपता था। बहुत प्राचीनकाल से मौखरीवंश की एक शाखा के अधिकार में चरणाद्रि का दुर्ग चला आता था। गुप्त साम्राज्य की ओर से उस वंश के लोग उस दुर्ग की रक्षा पर नियुक्त थे। भट्टों और चारणों के मुँह से सुना है कि महाराजाधिराज समुद्रगुप्त ने उन लोगों को उस दुर्ग की रक्षा का भार दिया था। प्रथम कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त के समय में जब बर्बर हूण देश में टिड्डीदल की तरह टूट पड़े थे, साम्राज्य की उस घोर दुर्दशा के समय में मौखरिगढ़पतियों ने किस प्रकार दुर्ग रक्षा की थी उसे चारण लोग अब तक गली गली गाते फिरते हैं। बहिन! बाल्यकाल की बात का क्या तुम्हें कुछ भी स्मरण नहीं है? वृद्ध यदु अभी जीता है। विवाह के पहले गंगा की बालू में बैठे हम दोनों भाई बहिन बूढ़े यदुभट्ट का गान सुनते सुनते अपने आपको भूल जाते थे, वह सब क्या तुम्हें भूल गया?”

बोलते बोलते सम्राट उठ खड़े हुए और कहने लगे “मौखरि नरवर्म्मा ने किस प्रकार दुर्ग रक्षा की थी, क्या भूल गया? यदुभट्ट की बातें अब तक मेरे कानों में गूँज रही हैं, उसका वह कण्ठस्वर अब तक मुझे सुनाई दे रहा है।

जिस समय अन्न और जल के बिना दुर्ग के भीतर की सेना व्याकुल हो उठी तब भी वीर नरवर्म्मा ने साहस न छोड़ा। छोटे बच्चे ने प्यास के मारे तलफतलफ कर सामने ही प्राण त्याग दिए पर नरवर्म्मा विचलित न हुए। वीरगण! उस मौखरि वीर ने क्या कहा था सुनो। इस चरणाद्रिगढ़ में मौखरिवंश महाराजाधिराज समुद्रगुप्त का प्रतिष्ठित किया हुआ है, समुद्रगुप्त के वंशधार को छोड़ कोई इसके भीतर पैर नहीं रख सकता। जब तक एक भी मौखरि के शरीर में प्राण रहेगा तब तक सम्राट को छोड़ और कोई अपनी सेना सहित दुर्ग में नहीं घुस सकता। वीरो! मौखरिवीर ने जो किया था वह आर्यर्वत्त देश में कोई नई बात नहीं है। सैकड़ों दुर्गों में, सैकड़ों युध्दों मे विदेशी सेनाओं ने वैसी सैकड़ों बातें देखी हैं, और देखकर चकित रह गए हैं? मौखरि कुलांगनाओं के रक्त से दुर्ग का ऑंगन लाल हो गया है। सिर कटे बच्चों के कोमल धाड़ नोच कर फेंके हुए फूलों के समान पत्थर की कड़ी धारती पर पड़े हैं। मौखरिवीर कहाँ हैं? क्या अपने पुत्र, माता, और भगिनी के नाम पड़े रो रहे हैं? नहीं, वह देखो! दुर्ग के प्राकार पर गरुड़धवज ऊपर उठ रहा है। मौखरिवीर केसरिया बाना पहने उल्लास से गरज रहे हैं। कण्ठ में रक्त जवाकुसुम की माला धारण किए, रक्त चन्दन का लेप किए वीर नरवर्म्मा स्वयं गरुड़धवज हाथ में लिए सेना को बढ़ा रहे हैं। उनके गम्भीर जयनाद को सुनकर हजारों हाथ नीचे खड़े हूण दहल रहे हैं। भीषण् हुंकार सुनकर पशु पक्षी पहाड़ छोड़ कर भागे जा रहे हैं। इस जीवन की चिन्ता के साथहीसाथ उस वीर के चित्ता से पुत्रकलत्रा की चिन्ता भी दूर हो गई है। जहाँ तक मनुष्य का वश चल सकता है नरवर्म्मा ने किया, जो बात मनुष्य के वश के बाहर है उसके सम्बन्धा में कोई क्या कर सकता है? धीरे धीरे हूण सेना गढ़ के कोट पर चढ़ गई, किन्तु जब तक एक भी मौखरि जीता रहा हूण गढ़ के भीतर न घुस सके। जब नरवर्म्मा और उनके साथी दुर्ग के प्राकार पर महानिद्रा में मग्न हो गए तब हूणों ने दुर्ग पर अधिकार किया।

देवि! शार्दूलवर्म्मा को भूल गईं क्या? उस विशाल शरीरवाले योध्दा का कुछ धयान आपको है जो हाथ में परशु लिए पिताजी के सिंहासन के पास खड़ा रहता था? यज्ञवर्म्मा का स्मरण मुझे है, पूरा स्मरण है। उनके हाथ में यदि खड्ग न होता तो ब्रह्मपुत्र के किनारे सुस्थितवर्म्मा के हाथ से मैं मारा गया होता। उन्हीं यज्ञवर्म्मा की कन्या आज “

कटे हुए कदली के समान सम्राट मर्च्छित होकर धड़ाम से भूमि पर गिर पड़े, यदि प्रभाकर झट से थाम न लेते तो उन्हें बहुत चोट आती। महाप्रतीहार के बुलाने पर प्रासाद के परिचारक आकर उपचार में लग गए। थोड़ी देर में उन्हें सुधा हुई और उन्होंने किसी प्रकार मुँह पर थोड़ी हँसी लाकर अपनी बहिन से कहा “देवि! मैं आपके विचार में अब बाधा न दूँगा। बुढ़ापे ने अब मुझे भी आ घेरा है, बाल सफेद हो गए हैं, देह में अब शक्ति नहीं रह गई है, साथ ही मानसिक बल भी जाता रहा है, मेरा अपराध क्षमा करना।”

महा -भैया! आपका जी अच्छा नहीं है, घर के भीतर जाकर थोड़ा विश्राम कीजिए। मैं अकेले विचार कर लूँगी।

सम्राट-देवि! अनेक युध्दों में साम्राज्य के लिए मौखरि लोगों ने अपना रक्त बहाया है। यज्ञवर्म्मा ने अनेक युध्दों में मेरी प्राणरक्षा की है। कई रातें हम दोनों ने अस्त्रो की शय्या पर एक साथ काटी है। महाप्रतापी मौखरि महानायक की कन्या किस प्रकार एक सामान्य सैनिक के हाथ में पड़ी, मैं सुनना चाहता हूँ।”

महादेवी ने कोई उत्तर न देकर अपने भाई के मुँह की ओर देखा और महाप्रतीहार से कहा “पृथूदक की पदातिक सेना के नायक रत्नसेन को बुला लाओ और उसके साथ बालिका के भाई को भी लेते आना”।

रत्नसेन और बालक को लेकर महाप्रतीहार के लौटने पर महादेवी ने रत्नसेन से पूछा “तुम्हारा नाम रत्नसेन है?”

रत्न -हाँ।

महा -तुम क्या काम करते हो?

रत्न -मैं पृथूदक की पदातिक सेना का नायक हूँ।

महा -तुम कल सबेरे किसी दूकान पर सीधा मोल लेने गए थे?

रत्न -हाँ! मेरे अधीनस्थ सेनाशतक का निरीक्षण हो जाने पर गौल्मिक की आज्ञा लेकर मैं इसी बालक के पिता की दूकान पर चावल दाल लेने गया था।

महा -दूकानवाला इस लड़के का पिता है यह तुमने कैसे जाना?

रत्न -मैंने जो सामग्री ली थी उसका बोझ अधिक हो जाने पर दूकानदार ने कहा था कि मेरा लड़का तुम्हारे साथ जाकर इसे पहुँचा आएगा।

महा -तुमने और पहले भी इन दोनों को कभी देखा था।

रत्न -न।

महा -अच्छा, अब पीछे जाकर खड़े रहो। विनयसेन! दूकानदार यहाँ है?

विनय -वह तो सौदा लादने अंग देश गया हुआ है, उसकी रखेली यहाँ है।

महा -अच्छा उसी को लिवा लाओ।

विनयसेन के चले जाने पर महादेवी ने बालक से पूछा-

“तुम्हारा नाम क्या है?”

बालक-प्रनन्तवर्म्मा।

महा -मौखरिवंशीय यज्ञवर्म्मा तुम्हारे पिता हैं?

बालक ने सिर हिलाकर कहा 'हाँ'।

महा -तुम लोग क्या चरणाद्रिगढ़ में रहते थे?

बालक-हाँ! पर इधर मेरे चचेरे भाई के पुत्र अवन्तीवर्म्मा ने हम लोगों को निकाल दिया था।

महासेनगुप्ता कुछ काल तक चुप रहीं, फिर पूछने लगीं-”गढ़ की सेना क्या तुम्हारे पिता के विरुद्ध हो गई थी?”

बालक-नहीं, पिताजी कहते थे कि यदि भीतर भीतर थानेश्वर के राजा उसकी सहायता न करते तो मेरा चचेरा भाई हम लोगों को कभी नहीं निकाल सकता था।पिता ने सहायता के लिए पाटलिपुत्र दूत भेजा था, किन्तु सम्राट ने कुछ सहायता नकी।

प्रभाकरवर्ध्दन के मुख का रंग कुछ और हो गया, लज्जा से महासेनगुप्ता ने भी सिर नीचा कर लिया। महादेवी ने फिर पूछा “दुर्ग से हटाए जाने पर तुम लोगों ने क्या किया?”

बालक-पिता मुझे और बहिन को लिए सहायता माँगने के लिए सम्राट के पास आ रहे थे, मार्ग में-

बालक का गला भर आया उसकी नीली नीली ऑंखों में जल झलकने लगा। यह देख महादेवी ने उसे खींचकर गोद में बिठा लिया। बालक सिसकसिसक कर रोने लगा। इतने में विनयसेन हम लोगों की पूर्वपरिचित सहुवाइन (परचूनवाली) को लिए आ पहुँचे। घर में आने के पहले ही से वह बिलबिला रही थी; कोठरी में पहुँचते ही उसने पूरे सुर में रोना आरम्भ किया। जब पीछे से एक प्रतीहार ने चाँटा दिया तब जाकर उसका रोना कुछ थमा। वह कहने लगी “मैंने कोई अपराध नहीं किया है, मुझे बिना अपराध पकड़ लाए हैं।” जब विनयसेन ने देखा कि उसके शोक का वेग बराबर बढ़ता जाता है तब उन्होंने उसे चुप रहने के लिए कहा। महादेवी ने पूछा तुम्हारा नाम क्या है?”

स्त्री-मेरा नाम मल्लिका है, मेरी माँ का नाम-

विनय -जितनी बात पूछी जाती है उतनी ही का उत्तर दे।

वह क्या करती? चुप हो रही। प्रभाकरवर्ध्दन ने उससे पूछा-”यह लड़का तुम्हारा बेटा है?” उस स्त्री को अपनी प्रगल्भता दिखाने का अवसर मिला। वह चिल्लाचिल्लाकर रोने और कहने लगी, “अरे, बाबा रे बाबा! मेरे सात, चौदह पुरखों में कभी किसी को बेटा नहीं हुआ, सब लड़कियाँ ही हुईं। मुँहजला न जाने कहाँ से जी का जंजाल एक छोकरा उठा लाया?”

प्रतीहार के डाटने पर वह चुप हुई। महादेवी उसकी बातें सुनसुन कर हँस रही थीं। उसके चुप होने पर वे फिर पूछने लगीं “जिसे मुँहजला कह रही हो वह तुम्हारा पति है?” स्त्री बोली “नारायण! नारायण! मेरे पति को मरे तो न जाने कितने दिन हुए। इसके साथ तो बहुत दिनों की जानपहचान है। गाँव से सौदापत्तार लाकर मेरे यहाँ बेचा करता है और जब नगर में आता है तब मेरे ही घर टिकता है”। महादेवी ने कहा “बस, सब समझ गई, अब तुम जाओ।” स्त्री ने जी का धान पाया, बिना और कुछ कहे सुने वह एक साँस में वहाँ से भागी। तब महादेवी ने उस बालक को गोद में बिठा कर पूछा “तुम लोग क्या चरणाद्रि से पाटलिपुत्र पैदल ही आते थे?”

बालक-हाँ, अवन्तीवर्म्मा ने हम लोगों का जो कुछ था सब ले लिया। पिताजीके एक बूढ़े सेवक ने एक गदहा कहीं से लाकर दिया था। उसी पर चढ़कर मैं अवन्तीवर्म्मा के डर से छिप कर आ रहा था। बहिन और पिताजी पैदल ही आते थे।”

महा -फिर क्या हुआ?

बालक-एक दिन मार्ग में पानी बरसने लगा। किसी गाँव में पहुँचने के पहले ही दिन डूब गया और चारों ओर अधेरा छा गया। पिताजी हम लोगों को लेकर एक आम के पेड़ के नीचे ठहर गए। उस मार्ग से बहुत से अश्वारोही जा रहे थे। उनमें से कई एक को पेड़ की ओर आते देख ज्यों ही पिताजी पेड़ के नीचे से हटकर जाने लगे कि एक ने भाले से उन्हें मार गिराया।”

महादेवी विनयसेन की ओर देखकर बोलीं “नायक रत्नसेन से कह दो कि जायँ।” नायक तीन बार अभिवादन करके चले गए। बालक का जी जब कुछ ठिकाने आया तब महादेवी ने फिर पूछा “हाँ, तब उसके पीछे क्या हुआ?”

बालक-अश्वारोही बहिन को लेकर चले गए। गदहा मुझे पीठ पर लिए भाग खड़ा हुआ। सबेरे एक बनिए ने मुझे देखा और इस नगर में ले आया। जो सैनिक यहाँ से अभी गया है उसने उसी बनिए के यहाँ से चावल लिया था और मैं बोझ पहुँचाने उसके साथ पड़ाव की ओर गया था। वहाँ अपनी बहिन को देख मैं लिपट गया। अन्त में एक देवता मुझको यहाँ लाए।”

सम्राट महासेनगुप्त सिंहासन पर से उठ खड़े हुए और बोले “देवि! यज्ञवर्म्मा के पुत्र का पालन करना मेरा धर्म है। बच्चा! अब तुम्हें कोई डर नहीं। अब से मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।”

बालक-”पिताजी कहते थे कि यदि मैं मर जाऊँ तो, अनन्त तुम सम्राट महासेनगुप्त के यहाँ आश्रय लेना, और किसी के पास न जाना। आप कौन हैं मैं नहीं जानता। मैं तो सम्राट के पास जाऊँगा।”

वृद्ध सम्राट के शीर्ण गंडस्थल पर अश्रुधारा बहने लगी। उनका गला भर आया। काँपते हुए स्वर से बोल उठे। “हा! मैं अपने प्राणरक्षक को भूल गया, पर यज्ञवर्म्मा मुझे न भूले। पुत्र! मेरा ही नाम महासेनगुप्त है।” बालक सम्राट के पैरों पर लोट पड़ा। सम्राट उसे गोद में उठाकर बाहर चले गए। उनके चले जाने पर महादेवी महासेनगुप्ता ने कहा “प्रभाकर! मेरा विचार पूरा हो गया। कहो, कुछ कहा चाहते हो।” लज्जा से सिर झुकाकर प्रभाकर ने कहा “माता! मेरी ही भूल थी, क्षमा कीजिए। मैं अभी जाकर चन्द्रेश्वर के दंड की व्यवस्था करता हूँ।”