शशांक / खंड 1 / भाग-6 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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दुर्गस्वामिनी का कंगन

रोहिताश्वगढ़ आर्यावर्त के इतिहास में बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। यह गढ़ दक्षिण मगध और करुष(करुष देश = आजकल का आरा शाहाबाद का जिला।) की दक्षिणी सीमा पर स्थित था और दक्षिण के जंगली प्रदेश का एकमात्र प्रवेशद्वार था। जब तक का इतिहास मिलता है तब से लेकर इधर तक इस गढ़ का अधीश्वर जंगली जातियों का शासक और अधिपति समझा जाता था। मुसलमानों के आने पर रोहिताश्व दुर्ग रोहतासगढ़ कहलाने लगा और मोगल राजाओं के समय में रोहतास का किलेदार सूबा बिहार की दक्खिनी सीमा का रक्षक माना जाता था। शेरशाह, मानसिंह, इसलामखाँ, शाइस्ताखाँ, इत्यादि इस दुर्ग में बहुत दिनों तक रहे हैं। सब इस पुराने दुर्ग में अपना कोईनकोई चिद्द छोड़ गए हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में, जिसका कोई लेखा इतिहास में नहीं है, इस दुर्ग की नींव पड़ी थी। पर्वत का जो अंश नदी के गर्भ तक चला गया था उसी के ऊपर यह दुर्जय दुर्ग उठाया गया था। दूर से उसके टीले को देखने से यही जान पड़ता था कि वह सोन नद के बीचो बीच उठा हुआ है।

जिस समय की बात हम लिख रहे हैं वह आज से तेरह सौ वर्ष पहले का है। हजार वर्ष से ऊपर हुए कि सोन अपनी धारा क्रमश:बदलने लगा। अब सोन नद न तो पाटलिपुत्र के नीचे से होकर बहता है न रोहिताश्वगढ़ के। हजार वर्ष पहले जहाँ सोन की धारा बहती थी वहाँ अब हरेभरे खेत और अमराइयों से घिरेहुए गाँव दिखाई पड़ते हैं। विन्धयपर्वत का अंचल अब नदी के तट से बहुत दूर परहै।

प्राचीन रोहिताश्वगढ़ पर्वत की चोटी पर था। गढ़ भीतरी और बाहरी दो भागों में बँटा था। बाहरी या नीचे का भाग उस लम्बे चौड़े टीले को पत्थर की चौड़ी दीवार से घेर कर बनाया गया था। दूसरे कोट के भीतर का भाग अपरिमित धान लगाकर ऊँची नीची पहाड़ी भूमि को चौरस करके बना था। इसकी लम्बाई चौड़ाई यद्यपि सौ हाथ से अधिक न होगी पर यह अत्यन्त दुर्गम और दुर्जेय रहा है। रोहिताश्व के इतिहास में यह अन्तर्भाग दो बार से अधिक शत्रुओं के हाथ में नहीं पड़ा। इसी रोहिताश्वगढ़ के उत्तारी तोरण (फाटक) के नीचे एक मोटा ताजा बुङ्ढा बैठा दातुन कर रहा था।

वृद्ध बहुत देर से दातून कर रहा था। उसकी प्रात:क्रिया पूरी भी न हो पाई थी कि पूर्व के द्वार की ओर पैरों की आहट सुनाई दी। देखते देखते एक अत्यन्त सुन्दर बालिका, जिसके घुँघराले बाल इधर उधार लहरा रहे थे, दौड़ती दौड़ती बाहर आई और वृद्ध को देख उसे पकड़ने के लिए लपकी पर चिकने पत्थरों पर फिसल कर गिर पड़ी। वृद्ध और एक परिचारक ने उसे दौड़कर उठाया। उसे बहुत चोट नहीं लगी थी। बालिका उठकर हाँफती हाँफती बोली, “बाबा! नन्नी कहती है कि घर में आटा नहीं हैं, हम लोग खायँगे क्या?” वृद्ध बालिका के सिर पर हाथ फेरता हुआ बोला “कुछ चिन्ता नहीं, घर में गेहूँ होगा, रग्घू अभी पीस कर आटा तैयार किए देता है” बालिका बोली “नन्नी रोती है, कहती है कि घर में एक दाना गेहूँ भी नहीं है।” उसकी बात सुनकर वृद्ध की आकृति गम्भीर हो गई। उन्होंने कहा “अच्छा, मैं अभी शिकार लिए आता हूँ। रग्घू! मेरा धानुष तो ला।” परिचारक दुर्ग के भीतर गया। बालिका अपने दादा को जोर से पकड़ कर सिसकते सुर में बोली “बाबा! चिड़िया और हिरन का मांस मुझ से नहीं खाया जाता, न जाने कैसी गन्धा आती है।” वृद्ध ठक खड़े रहे। भृत्य धानुष और बाण लेकर आया पर वृद्ध का धयान उसकी ओर न गया। बालिका अपने बाबा की चेष्टा देखती खड़ी रही। कुछ देर बाद वृद्ध का धयान टूटा, एक बूँद ऑंसू टपक कर उनकी सफेदसफेद मूँछों पर आ पड़ा। वृद्ध ने परिचारक से कहा “तू धानुष बाण रखकर मेरे साथ भीतर आ।” वे बालिका को लिए भीतर की ओर चले। धीरे धीरे दुर्ग के ऑंगन को पार करते हुए, जिसमें कभी सफाई न होने के कारण घास और पौधो का जंगल सा लग रहा था, वृद्ध दूसरे कोट के नीचे की एक छोटी कोठरी में घुसे। बगल की एक कोठरी में बुढ़िया दासी नन्नी गेहूँ न देखकर जोरजोर से रो रही थी। वृद्ध को देखते ही वह सहम कर चुप हो गई। कोठरी के एक कोने में लकड़ी के एक बहुत पुराने पाटे पर उससे भी पुरानी लोहे की एक पेटी जकड़बन्द करके रखी हुई थी। वृद्ध ने बड़ी कठिनता से भृत्य की सहायता से उसे खोला और उसके भीतर से फूलों की सूखी मालाओं से लपेटी हुई पुराने कपड़े की एक पोटली बाहर निकाली। पोटली खोलने पर उसमें से हीरों से जड़ा हुआ एक पुराना कंगन निकला। वृद्ध ने उसे भृत्य के हाथ में देकर कहा “तुम इसे लेकर बस्ती में जाओ, और धानसुख सोनार के हाथ बेच आओ। जो कुछ दाम मिले उसमें से कुछ का आटा और गेहूँ भी लेते आना।” कगन देते समय वृद्ध का हाथ काँपता था। पुराने परिचारक ने यह बात देखी और उसकी दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आए। किन्तु आज्ञा पाकर वह चुपचाप चला गया। वृद्ध कोठरी में बैठ गया। उसके दोनों नेत्रो से अश्रुधारा वेग से छूट कर तुषारखंडसी श्वेत लम्बी मूँछों पर होती झरने के समान बह रही थी। बालिका कोठरी के द्वार पर खड़ी चुपचाप अपने पितामह की यह दशा देख रही थी।

जिस समय की बात हम लिख रहे हैं उस समय गुप्त साम्राज्य की बढ़ती के दिन पूरे हो चुके थे। मगध, अंग और राढ़ि देश को छोड़ और सारे प्रदेश गुप्तवंश के हाथ से निकल चुके थे। तीरभुक्ति और बंगदेश भी एक प्रकार से स्वतन्त्रा हो चुके थे। प्रादेशिक शासनकर्ता नाम मात्रा के लिए अधीन बने थे, वे राजधानी में कभी कर नहीं भेजते थे। इतना अवश्य था कि उन्होंने प्रकाश्य रूप में अपनी स्वाधीनता की घोषणा नहीं की थी। गुप्त साम्राज्य के समय में जिन लोगों ने अधिकार और मान मर्य्यादा प्राप्त की थी वे अधिकांश मगध और गौड़ के रहने वाले थे। गुप्तवंश के अभ्युदय काल में नए जीते हुए देशों में पुरस्कार स्वरूप उन्हें बहुत सी भूमि मिली हुई थी। अपनी भूमि की रक्षा के लिए बहुतों को देश छोड़कर विदेश में रहना पड़ता था। पर कुछ लोगों को मगध के बाहर जाने की छुट्टी नहीं मिलती थी; कुल परम्परा से उनके यहाँ राजसेवा चली आती थी इससे सम्राट के पास ही उन्हें रहना पड़ता था। जब गुप्तसाम्राज्य नष्ट हुआ तक उनके वंशजों की दशा अत्यन्त हीन हो गई। विदेश में जो अधिकार उन्हें प्राप्त थे वे उनके हाथ से धीरे धीरे निकल गए। गौड़ और बंगदेश में जिनकी कुछ भूमि थी कुछ दिनों तक वे सुख से रहे। पीछे महासेनगुप्त के पिता दामोदरगुप्त के समय में उनके अधिकार भी नष्ट हो गए। पाटलिपुत्र और मगध में चारों ओर ऐसे लोग दिखाई देने लगे जिनके पास उच्चवंश के अभिमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह गया था। प्राचीन अभिजातवंश और अमात्यवंश की दुर्दशा के साथसाथ गुप्त साम्राज्य की दशा भी दिनोदिन हीन होती जाती थी।

रोहिताश्व के गढ़पति गुप्त साम्राज्य की बढ़ती के दिनों में अत्यन्त प्रतापशाली थे। दक्षिणप्रान्त की रक्षा करने के कारण सम्राटों से उन्हें बहुत सम्मान प्राप्त था। जिस समय देश पर देश अधिकृत होकर गुप्तसाम्राज्य में मिलते जाते थे रोहिताश्व के गढ़पतियों को मालव और बंगदेश में बहुतसी भूमि मिली थी। जब साम्राज्य का धवंस आरम्भ हुआ तब मालव की भूमि रोहिताश्ववालों के अधिकार से निकल गई। पर जब तक बंगदेश में उनकी भूसम्पत्ति बनी रही तब तक उन्हें किसी बात का अभाव नहीं था। सम्राट दामोदरगुप्त के समय में बंगदेश के शासक ने राजस्व भेजना बन्द कर दिया। पर उनके पीछे भी बहुत दिनों तक रोहिताश्व के गढ़पति अपनी भूमि का कर पाते रहे। धीरे धीरे वह भी बन्द हो गया। दुर्ग के आसपास की पथरीली भूमि पर ही उनका अधिकार रह गया। उसकी उपज का षष्ठांश ही वे पाते थे और उसी से कष्टपूर्वक अपने दिन काटते थे। जो वृद्ध प्रात:काल परिखा (खाई) के किनारे बैठे दातुन कर रहे थे रोहिताश्वगढ़ के वर्तमान अधाीश्वर यशोधावलदेव थे। यशोधावलदेव अति प्राचीन और प्रतिष्ठित वंश के थे। महानायक की पदवी पुरुषपरम्परा से उनके यहाँ चली आती थी और गुप्तसाम्राज्य में उन्हें राजकुमारों के तुल्य सम्मान प्राप्त था। यशोधावलदेव की अवस्था सत्तर वर्ष से ऊपर होगी। दामोदरगुप्त के समय में उन्होंने अनेक युध्दों में कीर्ति प्राप्त की थी। महासेनगुप्त के समय में भी उन्होंने मौखरीवंश के राजाओं को पराजित करके दक्षिण मगध में विद्रोहाग्नि शान्त की थी। उनके मात्रा एक पुत्र का नाम कीर्तिधावल था। पुत्र भी पिता के समान ही यशस्वी और पराक्रमी था। अभाव में जीवन व्यतीत करना उससे न देखा गया। उसने बिना पिता से पूछे बंगदेश में जाकर अपने पूर्वपुरुषों की भूमि पर अधिकार करना चाहा। पर नदी से घिरे समतट प्रदेश में वह मारा गया।

स्वामी का मृत्युसंवाद पाकर कीर्तिधावल की पत्नी ने तो अग्निप्रवेश किया। तब से भग्नहृदय वृद्ध यशोधावलदेव मातृपितृ हीन पौत्री को लिए पूर्वजों के पुराने दुर्ग में किसी प्रकार अपने जीवन के दिन पूरे कर रहे हैं। पुत्र के मरे पीछे उनकी दशा दिनोदिन और दीन होती गई। आसपास की प्रजा नियमित रूप से कर भी नहीं देती थी। वेतन न पाकर दुर्गरक्षक एकएक करके काम छोड़कर चले गए। होतेहोते बूढ़े परिचारक रग्घू और नन्नी टहलनी को छोड़ गढ़ में और कोई न रह गया। उस समय भी गढ़पति के अधिकार में आसपास की जो भूमि रह गई थी उसका कर यदि नियमित रूप से मिलता जाता तो उन्हे अन्न कष्ट न होता पर पास में आदमी न होने से उपज का षष्ठांश अन्न गढ़ में न पहुँचता था। जब कोई माँगने ही न जाता तब प्रजा को आप से आप कर पहुँचाने की क्या पड़ी थी। अन्त में युवराज भट्टारकपादीय महानायक यशोधावलदेव को अन्नाभाव से विवश होकर अपनी स्वर्गीय पत्नी का चिद्दस्वरूप अलंकार बेचना पड़ा।

बालिका थोड़ी देर खड़ीखड़ी अपने बाबा की दशा देखती रही, उसकी दोनों ऑंखों में भी जल भर आया। उधार से नन्नी आकर उसे गोद में उठा ले गई। देखतेदेखते दोपहर हो गई। रग्घू पसीने से लथफथ एक बड़ा बोरा पीठ पर लादे आ पहुँचा। उसे देख वृद्ध आपे में आए। वे ऑंख उठा कर रग्घू के मुँह की ओर ताका ही चाहते थे कि उसने टेंट से दस स्वर्ण मुद्राएँ निकाल कर रख दीं और कहा-धानसुख सोनार ने आपको प्रणाम कहा है और कहा है कि “कगन का पूरा मूल्य मैं इस समय नहीं दे सका, सन्धया होतेहोते और मुद्राएँ लेकर मैं सेवा में आऊँगा।” नन्नी और रग्घू ने देखा कि उस दिन वृद्ध गढ़पति कुछ आहार न कर सके।

सन्धया होने के कुछ पहले ही एक क्षीणकाय वृद्ध धीरे धीरे पैर रखता गढ़ के भीतर गया। वह चकित होकर इधर उधार ताकता जाता था। वह देखता था कि तोरण पर न तो कोई पहरेवाला है, न इधर उधार परिचारक दिखाई देते हैं। फाटक भी टूटा फूटा है, उसमें जड़े हुए लोहे निकलकर इधर-उधार पड़े हैं। गढ़ के भीतर पैर रखना कठिन है, प्रांगण में घासपात का जंगल उगा है। दीवारों से बरगद और पीपल के पेड़ निकलकर बड़ेबड़े हो गए हैं। गढ़पति के रहने का भवन भी गिरीपड़ी दशा में है। भवन की सजावट की वस्तुएँ झाड़पोंछ के बिना मैली हो रही हैं, उनपर धूल जम रही है। दुर्ग के भीतर की अवस्था देखने से जान पड़ता है कि यहाँ अब मनुष्य का वास नहीं है। दूसरे दुर्ग के नीचे एक छोटी कोठरी के सामने एक बहुमूल्य पारसी कालीन पर वृद्ध गढ़पति बैठे हैं। सोनार ने उन्हें देखते ही भूमि पर पड़कर साष्टांग प्रणाम किया। वृद्ध दुर्गस्वामी ने उसे बैठने को कहा, पर वह बैठा नहीं, उसने एक थैली में से बहुतसी स्वर्णमुद्राएँ निकालकर वृद्ध के सामने रख दीं और कहा “कंगन कितने मूल्य का होगा यह अभी मैं ठीकठीक नहीं कह सकता। एकसहò स्वर्णमुद्रा जो मेरे पास इस समय है, मैं लाया हूँ शेष थोड़े दिनों में पाटलिपुत्र से आ जाता है।”

वृद्ध-कंगन का मूल्य क्या इतना अधिक होगा?

धानसुख-मेरी जहाँ तक परख है कंगन का मूल्य दस सह स्वर्णमुद्रा से कम न होगा।

वृद्ध-इतना अधिक मूल्य तुम दे सकते हो?

धान-अपने बेटे को पाटलिपुत्र भेजा है, उसके आने पर मैं दे सकता हूँ।

वृद्ध निश्चिन्त हुए, किन्तु धानसुख उसी प्रकार सामने खड़ा रहा, गया नहीं। थोड़ी देर में गढ़पति ने फिर पूछा “धानसुख! जापिल गाँव में हमारा एक सेनापति महेन्द्रसिंह रहता था, क्या वह अभी है?”

धान-प्रभो! महेन्द्रसिंह का तो बहुत दिन हुआ स्वर्गवास हो गया, उनके पुत्र वीरेन्द्रसिंह हैं जो अब खेती में लग गए हैं। फिर भी जापिल ग्राम में अभी आपके पुराने सेनानायक हरिदत्ता अक्षपटलिक विधुसेन और पर्वतखंड के सिंहदत्ताजी जीवित हैं।

वृद्ध के नेत्रा दमक उठे। उन्होंने कहा “बहुत अच्छा हुआ जो तुम आ गए। मेरा पाटलिपुत्र जाने का विचार हो रहा है। तुम इन्हें मेरे पास भेज दोगे?” बूढ़ा धानसुख घुटने टेक हाथ जोड़कर बोला “प्रभो! मेरा अहोभाग्य कि आज मुझे आपका दर्शन मिला। इधर दस वर्ष से किसी ने आपका दर्शन नहीं पाया है। जो बंगदेश के युद्ध से लौट आए थे वे लज्जा से आपके सामने मुँह नहीं दिखा सकते। पर निश्चय जानिए, आपके दर्शन के लिए सब तरस रहे हैं। वे कल सबेरे ही दुर्ग में आपके दर्शन को आएँगे। “वृद्ध के नेत्रो में जल झलक पड़ा। उन्होंने कहा “जो लोग आना चाहें आएँ उन्हें देखकर मैं बहुत सुखी हूँगा। पर उनसे यह कह देना कि मुझ में अब वह सामर्थ्य नहीं, मैं अब किसी योग्य नहीं रह गया हूँ। आने पर मुट्ठी भर अन्न भी दे सकूँगा कि नहीं, नहीं कह सकता। मेरे पास अब न लोकबल है न अर्थबल। तुम तो मेरी दशा देख ही रहे हो। ऐसा न होता तो क्या मैं दुर्गस्वामिनी का कंगन कभी अपने हाथों से बेचता।”

गढ़पति की बातें सुनकर धानसुख चुपचाप ऑंसू गिरा रहा था। उसके मुँह से एक बात न फूटी। वह फिर साष्टांग प्रणाम करके चला गया।