शशांक / खंड 1 / भाग-5 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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परचूनवाली

दूकान पर बैठी काली भुजंग एक प्रौढ़ा स्त्री आटे, चावल, दाल, नमक, तेल, घी आदि के साथ साथ अपनी मन्द मुसकान बेच रही थी। इतने बड़े पाटलिपुत्र नगर में जिस प्रकार चावल दाल के ग्राहक थे उसी प्रकार उसकी मन्द मुसकान के ग्राहकों की भी कमी नहीं थी। दूकान के बीच में बैठा हमारा वही पूर्वपरिचित तेली बिकती हुई मुसकान की मात्रा की ओर कड़ी दृष्टि लगाए था। उसके साथ जो बालक आया था वह दूकान के सामने राजपथ पर कई धूलधूसर काले लड़कों के साथ खेल रहा था। इसी बीच में लम्बे डील का एक गोरा आदमी चावल और घी लेने दूकान पर आया। घी और चावल के साथ उस रमणी ने और न जाने कितनी वस्तुएँ बेच डालीं। सब सौदा हो चुकने पर जब उस पुरुष ने चावल, दाल, घी, नमक आदि सामग्री कपड़े के छोर में बाँधी तब उसने देखा कि सब सामान एक आदमी से न जाएगा। यह देख सदयहृदया रमणी उसकी सहायता करने के लिए दूकान से उठी।

तेली यह देख घर से निकल आया और उस आदमी से कहने लगा “मैं आप का सब सामान आप पहुँचाने के लिए तैयार हूँ अथवा अपने इस लड़के को आप के साथ किए देता हूँ। मैं अपनी स्त्री को एक बिना जाने सुने आदमी के साथ घर से बाहर नहीं जाने देना चाहता”। धीरे धीरे बात बढ़ चली और मुठभेड़ की नौबत दिखाई देने लगी। अन्त में उस शान्तिप्रिय रमणी ने बीच में पड़कर निबटारा कर दिया। यह स्थिर हुआ कि बालक उस पुरुष के साथ सब सामान लेकर जाएगा।

बालक सिर पर भारी गठरी रखे उस आदमी के पीछे धीरे धीरे चला। वह आदमी लम्बे लम्बे डग मारता आगे आगे चलता जाता था और पीछे फिर फिर कर देखता जाता था कि लड़का कितनी दूर है। बीच बीच में लड़के को पीछे न देख उसे लौटना भी पड़ता था। वह आदमी जो मार्ग पकड़े जाता था वह अब नगर के बाहर होकर नदी तट की ओर जाता दिखाई पड़ा। उसके दोनों ओर वृक्षश्रेणी छाया डाल रही थी। एक ओर तो गंगा की चमकती हुई बालू दूर तक फैली थी, दूसरी ओर हरी हरी घास से ढकी भूमि थी। बालू के मैदान के बीच उत्तर की ओर दूर पर भागीरथी की क्षीण जलरेखा दिखाई देती थी। उस पथ पर सन्धया सबेरे को छोड़ और कभी कोई आता जाता नहीं दिखाई पड़ता था। आज कोई विशेष बात थी जो उस पर लोगों की भीड़ भाड़ दिखाई देती थी। बालक कभी कभी भीड़ में मिल जाता था और वह पुरुष बड़ी कठिनता से उसे ढूँढ़कर निकालता था। मार्ग के दक्षिण ओर बहुत से लोग एकत्र थे जो देखने में युध्दा व्यवसायी जान पड़ते थे। घास के मैदान में बहुत से शिविर (डेरे) पड़े थे जिनके सामने सैनिक इधर उधर आते जाते दिखाई पड़ते थे। उनमें से अधिकतर लोग खाने और रसोई बनाने में लगे थे। कुछ लोग नित्य के सब कामों से छुट्टी पाकर पेड़ों की छाया के नीचे लेटे थे। मार्ग से थोड़ा उतर चलकर पेड़ों के नीचे यहाँ से वहाँ तक एक पंक्ति में घोड़े बँधे थे। उनके सामने स्थानस्थान पर साज और शस्त्रा-भाले, बरछे, तलवारें और धानुर्बाण इत्यादि-ढेर लगाकर रखे हुए थे। सड़क के दोनों ओर थोड़ी थोड़ी दूर पर सजे हुए विदेशी सैनिक रक्षा के लिए नियुक्त थे। दल के दल सैनिक नदी से स्नान करके आ रहे थे। बालक लोग गदहों पर बड़ेबड़े लोहे के कलसे लाद कर अश्वारोहियों के पीने के लिए पानी ला रहे थे। छकड़ों और रथों के मारे सड़क पर चलने की जगह न थी। छकड़े अश्वारोहियों और घोड़ों के खाने पीने की सामग्री नगर से लाद कर लाते थे और बोझ ठिकाने उतार कर फिर नगर की ओर लौटते थे। कभी कभी छकड़ों के दोनों ओर सवार भी चलते थे और उन्हें शिविर तक ले जाकर सामग्री उतरवाकर छोड़ देते थे।

नगर से कोस भर पर एक बड़े पीपल के पेड़ की छाया के नीचे कई आदमी बैठे बातचीत कर रहे थे। उनके सामने कई एक भाले जुटा कर रखे हुए थे। एक ओर भूमि पर एक बालिका या स्त्री पड़ी थी। उसके दोनों हाथ चमड़े के बन्धान से कसे थे। और दोनों पैर एक रस्सी द्वारा खूँटे से बँधो थे। वह बीचबीच में सिर उठा कर आनेजाने वालों की ओर ताकती और फिर हताश होकर पड़ जाती थी। जो मनुष्य वृक्ष के तले बैठे थे वे देखने मे विदेशी और विशेषत:पंचनद के जान पड़ते थे। उनमें से एक रह रह कर चमड़े के छोटे कुप्पे में से मद्य ढालढाल कर पीता और अपने साथियों को देता जाता था। उनमें से कोई बालिका की ओर कुछ धयान न देता था।

बालक चावलदाल की गठरी सिर पर लिए उसी पेड़ के नीचे आकर खड़ा हो गया, फिर बोझ उतारकर थोड़ा बैठ गया और इधरउधार ताकने लगा। उस समय बालिका टक लगाए सड़क की ओर देख रही थी। रंगबिरंगे परिच्छेदों से सुसज्जित होकर बाजा बजाती हुई मगध की पदातिक सेना उस समय उस मार्ग से निकल रही थी। बालक की गठरी जहाँ की तहाँ पड़ी रही। वह धीरे धीरे बालिका की ओर बढ़ा और पास जाकर उसने पुकारा “बहिन!” बालिका ने चकपका कर उधार मुँह फेरा। देखते ही बालक उसके गले से लग गया। भाई और बहिन दोनों एकदूसरे के गले से लगकर सिसक सिसक कर रोने लगे। कुछ काल बीतने पर विदेशी सैनिकों की दृष्टि उन दोनों पर पड़ी। उन्होंने देखा कि एक से दो बन्दी हो गए। व्यक्ति मद्य ढाल-ढाल कर पी रहा था वह चकित होकर बालिका के पास उठ कर आया और थोड़ी देर ठग मरासा खड़ा रहा, फिर बोला “अरे तू ने इसे कहाँ से ला जुटाया”। बालिका बिलखती बोली 'यह मेरा भाई है”। इतना सुनते ही वह कर्कश स्वर से बोला “यहाँ तेरे भाईसाई का कुछ काम नहीं। उससे कह कि चला जाय”। उसकी बात सुनकर बालिका चिल्ला उठी। बालक ने भी उसके सुर में सुर मिलाया। सैनिक ने उसका हाथ पकड़ कर खींचा। वह और भी चिल्लाने लगा “बहिन, मैं तुम्हें छोड़ कर न जाऊँगा।”। एक एक दो दो करके लोग इकट्ठे होने लगे। एक ने पूछा “क्या हुआ?” दूसरे ने पूछा “इन्हें क्यों मारते हो?” तीसरा आदमी चौथे से कहने लगा “देखो तो, उस बेचारी बालिका को कैसा बाँधा रखा है”।

देखते देखते एक शान्तिरक्षक वहाँ आ पहुँचा और पूछने लगा “क्या हुआ”? एक साथ दस आदमी उत्तर देने लगे “मद्य पीकर ये कई विदेशी इस बालिका को मार रहे हैं, इसका भाई आकर इसे छुड़ा रहा है”। छुड़ाने वाले का डीलडौल देखकर शान्तिरक्षक हँस पड़ा। पूछने पर सैनिक ने उत्तर दिया “बालिका मेरी बन्दी है। मैंने उसे मार्ग में पकड़ा है। यह बालक कौन है, मैं नहीं जानता। मैं किसी को मारता पीटता नहीं हूँ”। इतने में दूकान पर सौदा लेनेवाला वह आदमी लड़के को ढूँढ़ता पेड़ के पास भीड़ इकट्ठी देख वहाँ आ पहुँचा। चारों ओर घूमघूम कर देखने पर भी जब उसे किसी बात का पता न चला तब वह धीरे धीरे भीड़ हटा कर घुसा। घुसते ही पहले तो उसने देखा कि उसका मोल लिया हुआ सारा सामान एक किनारे पड़ा है और बालक उस बालिका की गोद में बैठा है?” उसने लड़के से पूछा “अरे! तू यहाँ इस तरह आ बैठा है?” लड़का उसे देख और भी रोने लगा और बोला “मैं बहिन को छोड़ कर कहीं न जाऊँगा।”

वह चकपका उठा। चारों ओर जो लोग खड़े थे वे उससे अनेक प्रकार की बातें पूछने लगे। उसने बताया कि “मैं भी थानेश्वर की सेना में ही हूँ, रात भर प्रासाद में प्रतीहार के रूप में रक्षा पर नियुक्त था, सबेरे छुट्टी पाकर रसोई की सामग्री लेने नगर की ओर गया था। बोझ अधिक हो जाने पर बनिये ने अपने लड़के को साथ कर दिया था। इस लड़की को मैंने कभी नहीं देखा था।” जिन लोगों ने मार्ग में लड़की को पकड़ा था वे एक साथ बोल उठे कि लड़की पाटलिपुत्र की नहीं है।

देखते देखते शिविर के शान्तिरक्षक वहाँ आ पहुँचे, पर भीड़ बराबर बढ़ती ही जाती थी। उन्होंने बहुत चेष्टा की पर हुल्लड़ शान्त न हुआ। नगरवासियों की संख्या क्रमश: बढ़ने लगी। देखते देखते दोनों पक्षों में झगड़ा बढ़ चला। गालीगलौज से होतेहोते मारपीट की नौबत आई। मुट्ठी भर शान्तिरक्षकों ने जब देखा कि झगड़ा शान्त नहीं होता है तब वे किनारे हट गए। पूरा युद्ध छिड़ गया। थानेश्वर के सैनिक तो झगड़े के लिए सन्नद्ध होकर आए ही थे, अस्त्र शस्त्र उनके साथ थे। पर पाटलिपुत्र वाले लड़ाई के लिए तैयार होकर नहीं आए थे। किसी के हाथ में छकड़े का बल्ला था, कोई सोटा लिए था, कोई लोटा। पर संख्या में वे विदेशियों के तिगुने थे। थानेश्वर के सैनिक पहले तो दोचार कदम पीछे हटे, पर पीछे उनके भालों और तलवारों के सामने नागरिकों का ठहरना कठिन हो गया। किसी का माथा फूटा, किसी के हाथपैर कटे, किसी की पीठ में चोट आई, पर कोई मरा नहीं। रक्तपात देखते ही नागरिक पीछे हटने लगे, पर भागे नहीं, डेरों और पेड़ों की ओट में होकर दूर से वे लगातार पत्थर बरसाने लगे।

उसी समय गंगातट के मार्ग से पाटलिपुत्र की सेना का एक दल शिविर की ओर आता दिखाई पड़ा। किन्तु उसे देख नागरिक कुछ विशेष उत्साहित न हुए और एक एक दो दो करके भागने लगे। उन्होंने समझ लिया कि उनकी स्वदेशी सेना झगड़े की बात सुनकर उनका साथ तो देगी नहीं, उलटा भलाबुरा कहेगी। इसी बीच में नदी तट के मार्ग से एक रथ अत्यन्त वेग से नगर की ओर जाता था। युद्धक्षेत्रा के पास पहुँचते ही एक बड़ासा पत्थर सारथी के सिर पर आ पड़ा और वह चोट खाकर नीचे गिर पड़ा। उसके गिरने से जो धामाका हुआ उससे चौंक कर घोड़े प्राण छोड़कर नगर की ओर भाग चले। यह देख रथारूढ़ व्यक्ति झट से नीचे कूद पड़ा। उतरते ही पहले वह सारथी के पास गया। जाकर देखा तो वह जीता था, पर उसका सिर चूर हो गया था। क्रोधा के मारे उसका चेहरा लाल हो गया। इतने में पाटलिपुत्र के नागरिकों का फेंका हुआ एक पत्थर उसके कान के पास से सनसनाता हुआ निकल गया और सड़क के किनारे एक शिविर पर जा पड़ा। रथवाला व्यक्ति यह देखकर चकित हो गया। वह क्रोध से खड्ग खींचकर जिस ओर से पत्थर आते थे उसी ओर को लपका। जो लोग पेड़ की आड़ से पत्थर फेंक रहे थे वे सिर निकाल कर झाँकने लगे। पत्थरों की वर्षा कुछ धीमी पड़ी। नगर की ओर जाती हुई सेना अब पास पहुँच गई थी, इससे नागरिकों में से जिसे जिधार रास्ता मिला वह उधार भागने लगा। पेड़ की ओट से जो कई आदमी पत्थर चला रहे थे रथ पर के मनुष्य को अपनी ओर आते देख सरकने का डौल करने लगे। इतने में एक उनमें से बोल उठा “अरे! ये तो हमारे युवराज हैं।” एक ने सुनकर कहा “अरे, बावला हुआ है? युवराज अभी लड़के हैं, वे यहाँ क्या करने आएँगे?”

प्रथम व्यक्ति-क्यों, क्या युवराज घूमनेफिरने नहीं निकलते?

द्वितीय व्यक्ति-युवराज को इस इतने बड़े पाटलिपुत्र नगर में और कहीं घूमने की जगह नहीं है जो वे इस दोपहर की धूप में इस रेत में आएँगे?

प्रथम व्यक्ति-अरे तू क्या जाने, युवराज के मन की मौज तो है।

द्वितीय व्यक्ति-अच्छा तू जाकर अपने युवराज को देख, मैं तो चला।

पहले व्यक्ति ने पेड़ की ओट से निकलकर “युवराज की जय हो” कहकर रथ पर के मनुष्य का अभिवादन किया। वह विस्मित होकर उसे देखता रह गया। दूसरा व्यक्ति पेड़ के पास से भाग रहा था। रथ पर के मनुष्य ने उसे खड़े रहने के लिए कहा। वह भी कण्ठस्वर सुनते ही बोल उठा “युवराज की जय हो”। अब तो जितने नागरिक इधरउधार लुकेछिपे थे आआकर अभिवादन करने लगे। देखते देखते उस पेड़ के पास बहुतसे लोग इकट्ठे हो गए। नागरिकों को तितरबितर होते देख थानेश्वर के सैनिक निश्चिन्त हो रहे थे। पेड़ के नीचे कुछ भीड़ जमी देख वे भी पत्थर फेंकने लगे। ईंट का एक टुकड़ा आकर रथ पर के मनुष्य के शिरस्त्राण में लगा। यह देख नागरिक फिर खलबला उठे। इतने में मगध सेना का वह दल आ पहुँचा और भीड़ भाड़ देख अधिनायक की आज्ञा से रुक गया। रथ पर के मनुष्य ने झट आगे बढ़कर अधिनायक से पूछा “तुम मुझे पहचानते हो?” सेनानायक बोला “नहीं”। रथ पर के मनुष्य ने सिर पर से शिरस्त्राण हटा दिया। बन्धानमुक्त, पिंगलवर्ण, कुंचित केश उसके कन्धो और पीठ पर छूट पड़े। सेनानायक ने झट विनीत भाव से अभिवादन किया। मगधसेना ने जयध्वनि की। नागरिकों ने भी एक स्वर से जयनाद किया। रथ पर से कूदनेवाले सचमुच कुमार शशांक ही थे। लौहवर्म से अंगप्रत्यंग आच्छादित रहने के कारण चौदह वर्ष के कुमार कोई छोटे डील के योध्दा जान पड़ते थे। कुमार ने ज्योंही पूछा कि “क्या हुआ? “ त्यों ही एक साथ कई नागरिक बोल उठे कि विदेशी सैनिक एक बालिका को पकड़े लिए जाते थे, जब उनसे छोड़ने के लिए कहा गया तब वे नागरिकों पर टूट पड़े और उन्हें मारने लगे। जिन्होंने चोट खाई थी वे अपनी अपनी चोंटे दिखाने लगे। अस्त्राहीन प्रजा पर अस्त्र के आघात देख मगध की सेना भी भड़क उठी। सारथी का प्राणहीन शरीर जब सैनिकों ने देखा तब तो उन्हें शान्त रखना अत्यन्त कठिन हो गया।

कुमार की आज्ञा से सेनानायक स्थाण्वीश्वर के पड़ाव की ओर चले। पर जब थानेश्वरवाले अपनेअपने डेरों में से पत्थर फेंकने लगे तब विवश होकर वे लौट आए। अब कुमार की आज्ञा से मागध सेना ने श्रेणीबद्ध होकर शिविरों पर आक्रमण किया। स्थाण्वीश्वर के अधिकांश सैनिक उस समय मद्य पीकर मतवाले हो रहे थे। वे तो बात की बात में पराजित हो गए। जिन्हें अपने तन की सुधा थी वे भाग खड़े हुए। जो उन्मत्ता थे वे भूमि पर पड़ेपड़े प्रहार सहते रहे। बहुत से बन्दी बना लिए गए। कुमार के आदेश से बालिका अपने भाई सहित बन्धान से छुड़ा कर लाई गई। कुमार दोनों को रथ पर बिठाकर नगर की ओर चल पड़े। सेना भी अपने ठिकाने आ पहुँची।

सन्धया हो चली थी। झगड़े की बात नगर भर में फैल गई। उत्पाती दुष्ट दल बाँधबाँधाकर लोगों को भड़काने लगे। सेनादल को लौटते देर नहीं कि नागरिक शिविर लूटने में लगे। मुट्ठी भर शान्तिरक्षक उन्हें किसी प्रकार न रोक सके। अन्त में नगरवासियों ने शान्तिरक्षकों को मार भगाया। लूटपाट कर चुकने पर उन्होंने डेरों में आग लगा दी। दूर तक जलते हुए डेरों की आकाश तक उठती हुई लपट देखकर थानेश्वर के सेनानायकों ने जाना कि शिविर में कुशल नहीं। नगर में एक से कुछ अधिक शरीररक्षक अश्वारोही थे। उन्हें लेकर सेनानायक पड़ाव पर पहुँचे। उस समय अग्नि जलाने के लिए और कुछ न पाकर बुझ चुकी थी। उन्होंने शिविरों के आसपास जाकर देखा कि उन्मत्ता और बन्दी सैनिकों की भीषण हत्या करके नागरिकों ने डेरों में आग लगाकर सब कुछ भस्म कर डाला है।