शशांक / खंड 1 / भाग-4 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नूतन और पुरातन

सबेरे ही परिचारक लोग पुराना सभामण्डप साफ करने में लगे हैं। सभामंडप काले पत्थरों का बना हुआ और चौकोर था। उसकी छत एक सौ आठ खम्भों पर थी। फर्श भी काले चौकोर चिकने पत्थरों की थी। सभा प्रांगण् में सबसे भीतर चारों ओर गया हुआ, हरे पत्थरों का चबूतरा या अलिंद था जो सुन्दर पतलेपतले खम्भों पर पटा था। अलिंद पर सोनेचाँदी का बहुत सुन्दर काम था। छत पर पत्थर की मनोहरर् मूर्तियाँ थीं, स्थानस्थान पर रामायण और महाभारत के चित्रा बने थे। अलिंद के पीछे सभामंडप के खम्भे पड़ते थे। सभामंडप के किनारे चारों ओर पत्थर का बना हुआ चौड़ा घेरा था। पाटलिपुत्र के बड़े बूढ़े कहते थे कि पुराने सम्राटों के समय में इस घेरे के भीतर दस सह अश्वारोही सुसज्जित और श्रेणीबद्ध होकर खड़े होते थे। सभामण्डप में हाथीदाँत की बनी हुई कम से कम एक सह सुन्दर चौकियाँ बैठने के लिए रखी थीं जो बहुत दिनों तक यत्न और देखभाल न होने के कारण मैली हो रही थीं। इन पर राजकर्मचारी और नगर के प्रतिष्ठित जन बैठते थे। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि मुसलमानी दरबारों के समान खड़े रहने की प्रथा प्राचीन हिन्दू सम्राटों की सभा में न थी। राजा के आने पर सब लोग अपने आसनों पर से उठ खड़े होते थे और फिर राजाज्ञा से बैठ जाते थे। अलिंद में चाँदी की गद्दीदार चौकियों की दो श्रेणियाँ थीं जिनपर राजवंश के लोग तथा युवराजपादीय1 और कुमारपादीय2 अमात्यगण बैठते थे। इन वर्गों में जिनकी गिनती नहीं थी वे अलिंद में आसन नहीं पा सकते थे। मत्स्य देश से आए हुए दूधा से श्वेत सग़मरमर पत्थर की ऊँची वेदी के ऊपर सम्राट का सिंहासन रहता था। वेदी के तीन ओर सीढ़ियाँ थीं। वेदी के ऊपर सोने के चार डण्डों पर झलकता हुआ चँदवा तनता था। चन्द्रातप के नीचे राजसिंहासन सुशोभित होता था।

परिचारक मरमर की वेदी धोकर और उसपर पारस्य देश का गलीचा

बिछाकर सोने के दो सिंहासन रख रहे थे। कुछ परिचारक चँदवें में मोती की झालरें लटकाने में लगे थे, कुछ दोनों सिंहासनों के पीछे चाँदी के उज्ज्वल छत्रा लगा रहे थे। वेदी के एक किनारे बैठा एक कर्मचारी परिचारकों के काम की देखरेख कर रहा था।

कई दिन पहले जो पिंगलकेश बालक सोन गंगा के संगम पर पुराने राजप्रासाद की खिड़की पर खड़ा जलधारा की ओर देख रहा था वह सभामंडप में आकर इधर


1. युवराजपादीय = वे अमात्य या राजकर्मचारी जिन्हें युवराज के बराबर सम्मान प्राप्त था।

2. कुमारपादीय = वे अमात्य या राजपुरुष जिनका सम्मान अन्य राजकुमारों के समान था।

उधार घूम रहा था। घूमता घूमता वह वेदी के सामने आ खड़ा हुआ। उसे देखते ही परिचारक थोड़ी देर के लिए काम बन्द करके खड़े हो गए। बालक ने पूछा “यह नया सिंहासन किसके लिए है?” एक परिचारक बोला “थानेश्वर के सम्राट के लिए”। बालक चौंक पड़ा। उसका सुन्दर मुखड़ा क्रोध से लाल हो गया और उसने हाथीदाँत की एक चौकी उठा ली। हाथ के झटके से चौकी उखड़ गई। परिचारक डर के मारे दो हाथ पीछे हट गए। रोषरुद्ध कंठ से बालक ने फिर पूछा “क्या कहा”? किसी से कुछ उत्तर न बन पड़ा। जो कर्मचारी परिचारकों के काम की देखरेख करता था वह वेदी के पास आया और बालक को अभिवादन करके सामने खड़ा हो गया। बालक ने पूछा “तुम किसकी आज्ञा से वेदी पर नया सिंहासन रख रहे हो?” कर्मचारी उत्तर देने में इधर उधार करने लगा, फिर बोला “मैंने सुना है”-। उसकी बात भी पूरी न हो पाई थी कि बालक एक फलांग में वेदी के ऊपर जा पहुँचा और पैर से ठुकराकर नए सिंहासन को दस हाथ दूर फेंक दिया। सिंहासन काले पत्थर की फर्श पर धाड़ाम से गिरकर खंड हो गया। परिचारक डर के मारे मंडप से भाग खड़े हुए। कर्मचारी भी बालक की आकृति देख भागने ही को था इतने में थोड़ी दूर पर एक द्वार पर का हरा पर्दा हटा और एक लम्बा अधोड़ योध्दा और एक दुबली पतली बुढ़िया बहुत से विदेशी सैनिकों से घिरी आ पहुँची। वृध्दा ने पूछा “यह कैसा शब्द हुआ?” सब चुप रहे। कुमार शशांक और उसके अमात्य को छोड़ वहाँ और कोई उत्तर देनेवाला था भी नहीं। अमात्य तो उन दोनों को देख इतना सूख गया था कि उसके मुँह से एक शब्द तक न निकला। कुमार कुछ कहना ही चाहता था पर मुँह फेर कर रह गया। वृध्दा ने फिर पूछा। कर्मचारी ने उत्तर देने की चेष्टा की पर उसकी घिग्घी सी बँधा गई, मुँह से स्पष्ट शब्द न निकले। बालक ने तब अवज्ञा से मुँह फेरकर कहा “परिचारकों ने पिताजी के सिंहासन के पास थानेश्वर के राजा का सिंहासन रख दिया था। मैंने उसे पैरों से ठुकराकर चूर कर दिया”। बालक के ये तेजभरे वाक्य उस पुराने सभामंडप में गूँज उठे। सुनते ही उस अधोड़ योध्दा का मुँह लाल हो गया। उसके साथ के सैनिकों की तलवारें म्यानों में खड़क उठीं। कर्मचारी तो वह झनकार सुनते ही साँस छोड़कर भागा। वृध्दा वेदी के पास बढ़ आई और बालक का हाथ थाम उसे नीचे उतार लाई। इधर अधोड़ योध्दा म्यान से आधी तलवार निकाल चुका था। इतने में सादा श्वेतवस्त्र डाले नंगे पैर एक वृद्ध सभामंडप में घबराए हुए आ पहुँचे। उन्हें देखते ही विदेशी सैनिकों ने भी झुककर अभिवादन किया। हम लोग भी उन्हें पहले देख चुके हैं। वे गुप्तवंशीय सम्राट महासेनगुप्त थे।

उन्हें देखते ही वृध्दा हँसकर आगे बढ़ी। प्रौढ़ योध्दा का सिर कुछ नीचा हो गया। वृद्ध सम्राट एक विशेष विनयसूचक भाव से उस वृध्दा की ओर देख रहे थे जिससे यही लक्षित होता था कि वे बालक के अपराध के लिए क्षमा चाहते थे, किन्तु प्राचीन साम्राज्य का अभिमान उनका कंठ खुलने नहीं देता था। वृध्दा हँसती हँसती बोली 'भैया! शशांक की बात मत चलाना। प्रभाकर कुछ ऐसे पागल नहीं हैं जो बालक की बात मन में लाएँगे”। प्रौढ़ योध्दा सिर नीचा किए भीतरहीभीतर दाँत पीस रहा था। वृध्दा के पहनावे से जान पड़ता था कि वह पंचनद की रहनेवाली थी। अब तक पंजाब की स्त्रियाँ प्राय: वैसा ही पहनावा पहनती हैं। कपिशा और गान्धार की स्त्रियों के पहनावे के समान उस पहनावे मे भी स्त्री सुलभ रमणीयता और कोमलता का अभाव था। दूर से पहनावा देखकर स्त्री पुरुष का भेद करना तब भी कठिन था। किन्तु ठण्डे पहाड़ी देशों के लिए वैसा पहनावा उपयुक्त था।

वृध्दा के बाल सन की तरह सफेद हो गए थे। गालों पर झुर्रियाँ पड़ी हुई थीं। शरीर पर एड़ी के पास तक पहुँचता हुआ चोल या ऍंग रखा था, सिर पर भारी पगड़ी थी। पैरों में जड़ाऊ जूतियाँ थीं। पीठ पर बाल खुले हुए थे। वे सम्राट महासेनगुप्त की सगी बहिन, स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) के महाराज आदित्यवर्ध्दन की विधवा पटरानी, महादेवी महासेनगुप्ता थीं। उनके साथ में जो अधोड़ पुरुष था वह आदित्यवर्ध्दन का ज्येष्ठ पुत्र, स्थाण्वीश्वर के राजवंश का प्रथम सम्राट, प्रभाकरवर्ध्दन था। जिस समय आदित्यवर्ध्दन वर्तमान थे उसी समय से महासेनगुप्त स्वामी के नाम से सब राज काज चलाती थीं। जब प्रभाकरवर्ध्दन स्थाण्वीश्वर के सिंहासन पर बैठे तब भी महादेवी सिंहासन के पीछे परदे में बैठी बैठी पुत्र के नाम से अपना प्रचण्ड शासन चलाती थीं। अस्सी वर्ष की होने पर भी थानेश्वर में उनका आतंक वैसा ही बना था। आर्यावर्त के सब लोग जानते थे कि स्थाण्वीश्वर के सिंहासन पर बैठे हुए, पंचनद का उध्दार करनेवाले, हूणों, आभीरों और गुर्जरों का दमन करनेवाले सम्राट पदवीधारी प्रभाकरवर्ध्दन महादेवी के हाथ की कठपुतली मात्रा हैं। उन्हीं की उँगलियों पर सारा थानेश्वर और उत्तारापथ का समस्त राजचक्र नाचता था।

महादेवी हँसती हँसती अपने भतीजे और पुत्र का हाथ पकड़े सभागृह से बाहर निकलीं। वृद्ध सम्राट सिर नीचा किए उनके पीछे पीछे चले। अब एक एक करके सब परिचारक आने लगे। टूटा हुआ सिंहासन हटा दिया गया। सभामण्डप सुसज्जित हुआ। वेदी के ऊपर केवल सम्राट का एक सिंहासन रहा।