शशांक / खंड 1 / भाग-3 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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पाटलिपुत्र के मार्ग पर

दोपहर को गहरी वर्षा हो गई है। आकाश अभी स्वच्छ नहीं हुआ है। सन्धया होतेहोते गरमी बढ़ चली। पाटलिपुत्र से कुछ दूर वाराणसी की ओर जाते हुए निर्जन पथ पर धीरे धीरे अन्धकार छा रहा था। पर्वतों की चोटियों और पेड़ों के सिरों पर डूबते हुए सरयू की रक्ताभ किरणें अब भी कहीं कहीं झलकती हुई दिखाई देती थीं किन्तु पूर्व की ओर घने काले बादलों की घटा छाई हुई थी। चौड़े राजपथ पर वर्षा का जल नदी की तरह बह रहा था। चार जीव धीरे धीरे उस पथ पर पाटलिपुत्र की ओर आ रहे थे। सब के आगे लम्बी लाठी लिए एक बुङ्ढा था, उसके पीछे बारह वर्ष की एक लड़की थी। सबके पीछे एक बुङ्ढा गदहा था जिसकी पीठ पर एक छोटा-सा बालक बैठा था। वृद्ध चलते चलते बहुत थककर भी चुपचाप चला जाता था। पर लड़की रह रहकर विश्राम की इच्छा प्रकट करती जाती थी।

वृद्ध बोला “थोड़ी दूर और चलने पर किसी के घर में या किसी गाँव में ठहरने का ठिकाना मिलेगा। यहाँ रास्ते में रुकने से अंधेरा हो जाएगा, फिर चलना कठिन हो जाएगा।” बालिका कहती थी “बाबा! अब मैं और नहीं चल सकती; मेरे पैर कटे जा रहे हैं, मैं तो अब बैठती हूँ”। बालक बोला “बहिन, तू गदहे की पीठ पर आ जा, मैं पाँव पाँव चलूँ”। बालक की बात सुनकर बालिका और वृद्ध दोनों हँस पड़े। बालक चुप हो रहा। कुछ दूर जाते जाते बालिका सचमुच बैठ गई। सड़क से हटकर एक ऊँची जगह देख वह ठहर गई। बुङ्ढे ने कहा “बेटी! बैठ गई?” उत्तर न सुनकर वृद्ध भी उसके पास जा बैठा। गदहा भी बालक को पीठ पर लिए आ खड़ा हुआ। अब चारों ओर घोर अन्धकार छा गया।

कुछ क्षण के उपरान्त बालक बोल उठा “बाबा! बहुत से घोड़ों की टाप सुनाई देती है।”

बुङ्ढा चौंककर उठ खड़ा हुआ। राजपथ के किनारे धान के खेतों के बीच आम का एक पुराना पेड़ था। उसके नीचे अन्धकार चारों ओर से घना था। बुङ्ढा कन्या और पुत्र को लेकर वहीं जा छिपा। घोड़ों की टाप अब पास ही सुनाई देने लगी। उस अधेरे में सैकड़ों अश्वारोही पाटलिपुत्र की ओर घोड़े फेंकते जाते दिखाई पड़े। रह रहकर बिजली का प्रकाश पड़ने से उनकीर् मूर्तियाँ और भी भीषण दिखाई दे जाती थीं। बुङ्ढा अपने पुत्र और कन्या को गोद में दबाए पेड़ से लगकर सिमटा जाता था। आधो दंड के भीतर जितने अश्वारोही थे सब श्रेणीबद्ध होकर उस आम के पेड़ के सामने से होकर निकले। अश्वारोहियों के बहुत दूर निकल जाने पर भी वृद्ध को सड़क पर आने का साहस नहीं होता था। धीरे धीरे वर्षा भी होने लगी। सारा आकाश मेघों से ढककर काला हो गया। वृद्ध पुत्र और कन्या को पेड़ के धाड़ के खोखले में खिसका कर आप बैठ कर भीगता था। एक पहर रात बीतने पर घोड़ों की टाप फिर सुनाई पड़ी। वृद्ध बहुत डरकर सड़क की ओर ताकने लगा। देखते देखते चार पाँच अश्वारोही वृक्ष के सामने आकर खड़े हो गए। उनमें से एक बोला, “पानी बहुत बरस रहा है, चलो पेड़ के नीचे खडे हो जायँ”। यह सुनकर सब सड़क से उतरकर धान के खेत की ओर बढ़े। वृद्ध के दुर्भाग्य से बिजली चमकी और उसका लम्बा डील अश्वारोहियों की दृष्टि के सामने पड़ा। जो व्यक्ति आगे था वह बोला “देखो तो पेड़ के नीचे शूल हाथ में लिए कौन खड़ा है”। उसकी बात सुनकर सब पेड़ की ओर बढ़े। वृद्ध डर कर पेड़ के नीचे से हटकर धान के खेत में हो रहा। एक सवार ने डपटकर उसे आगे बढ़ने से रोका। उसकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि पीछे से एक भाला आकर वृद्ध की छाती विदीर्ण करता हुआ गिरा। वृद्ध एक बार चिल्लाकर धान के गीले खेत में प्राण हीन होकर गिर पड़ा। पेड़ के नीचे से बालिका बड़े जोर से चिल्ला उठी। गदहा भड़क कर भागने लगा। बालक अपने बल भर उसे थामे रहा।

अश्वारोहियों ने पास जाकर देखा कि मृत पुरुष निरस्त्रा और वृद्ध था। जिसे उन्होंने शूल समझा था वह उसके टेकने की लकड़ी थी। सब के सब मिलकर बरछा चलाने वाले को बुरा भला कहने लगे। किन्तु वह लड़की का चिल्लाना सुन कर, अपने साथियों की बातों की ओर बिना कुछ धयान दिए, पेड़ की ओर लपका। कौंधो की चमक में उसने पेड़ से सटी हुई बालिका को देख पाया। देखते ही वह उल्लास के मारे साथियों को पुकार कर कहने लगा “देख जा! बूढ़े को मार कर मैंने क्या पाया। इसमें किसी का साझा नहीं रहेगा”। सुनते ही सब के सब दौड़ आए और बालिका को देखकर कहने लगे “चन्द्रेश्वर ने सचमुच रत्न पाया”। बालिका शोक और भय से चिल्ला रही थी। बालिका पर अधिकार जतानेवाला सवार उसे उठाकर घोड़े की पीठ पर जा बैठा। पानी के कुछ थमने पर अश्वारोहियों ने फिर अपना मार्ग लिया।

बालक को पीठ पर लादे हुए गदहा बहुत दूर तक न जा सका। आधाकोस के लगभग जाकर वह एक ताड़ के पेड़ के नीचे रुक गया। बालक कुछ देर तक तो व्याकुल होकर रोता रहा, पर धीरे धीरे उसका शरीर ढीला पड़ने लगा और वह गदहे की पीठ पर ही सो गया। दूसरे दिन सबेरे बालक के रोने का शब्द एक तेली के कान में पड़ा। वह एक पगडण्डी से होकर सौदा बेचने के लिए नगर की ओर जा रहा था। उसे दया आई और उसने लड़के और गदहे दोनों को अपने साथ ले लिया। दोपहर होने पर जिस समय नगर के तोरणों पर मंगलवाद्य हो रहा था लड़के को लिए हुए तेली पाटलिपुत्र के पश्चिम तोरण से होकर घुसा।

तोरण का बाहरी फाटक खोलकर प्रतीहार दूसरे फाटक पर बैठे ऊँघ रहे थे। तेली को उन्हें पुकारने का साहस न हुआ। वह बालक के साथ कुछ दूर पर बैठा रहा। द्वारपालों ने उसकी ओर ऑंख उठाकर देखा तक नहीं। दोपहर बीतने पर रथ के पहिये की घरघराहट सुनकर उनकी नींद टूटी। रथ नगर के भीतर से आकर फाटक के पास पहुँचा। भीतर से एक व्यक्ति ने डाँटकर फाटक खोलने के लिए कहा। पहरेवाले घबराकर चारपाई से उठ खड़े हुए। एक उनमें से तब भी पड़ा खर्राटा ले रहा था। उसके पास जाकर एक ने एक लात जमाई। वह ऑंख मलकर उठ बैठा और उससे भिड़ने के लिए तैयार हो गया। एक तीसरे ने आकर चारपाई सहित उसे एक कोठरी में डाल दिया। पहरेवालों मे से एक कुछ दूर पर बैठा नीम की दातून दाँतों पर रगड़ रहा था, और बीचबीच में खखार खखार कर थूकता जाता था। उसने वहीं से पूछा-”क्यों रे! कौन आया है?” एक ने उत्तर दिया “तेरा बाप”। उसने कहा “मेरे बाप को तो यहाँ से गए न जाने कितने दिन हुए” और फिर निश्चिन्त होकर दातून करने लगा। यह देखकर एक ने उसका लोटा उठा कर खाई में डाल दिया। वह अपना लोटा निकालने के लिए खाई के जल में कूदा। प्रतीहारों ने अपनीअपनी चारपाइयाँ फाटक के पास से हटा दीं। नगर के भीतर से जिसने फाटक खोलने की आज्ञा दी थी वह अधीर होकर फाटक पर जोर जोर से लात मार रहा था। सब पहरेवालों ने मिलकर जब बल लगाया तब चारों अर्गल हटे और तोरणद्वार के दोनों भारी भारी पल्ले अलग होकर द्वार के प्राचीर से जा लगे। फाटक खुलने पर प्रतीहारों और द्वारपालों ने देखा कि एक काला ठेंगना वृद्ध अत्यन्त क्रुद्ध होकर उनके सामने खड़ा है। उसे देखते ही जो पगड़ी तक न बाँध पाए थे वे तो साँस छोड़कर भागे। जो प्रतिहार और द्वारपाल रह गए वे घुटने टेक कर बैठ गए और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे। पर उस वृद्ध ने उनकी एक न सुनकर मारे कोड़ों के उनके धुर्रे उड़ा दिए। चार घोड़ों का रथ धाड़ाधाड़ाता हुआ तोरणद्वार के बाहर निकल गया।

तेली लड़के और गदहे को लेकर चलने के लिए उठा। उसे देखते ही पहरेवालों का पराक्रम लौट आया वे उसे तंग करने लगे। अन्त में बेचारे तेली ने कोई उपाय न देख अपने सौदे में से थोड़ा थोड़ा सब को दिया और अपना पीछा छुड़ाया। लड़के को साथ लिए वह नगर में घुसा। देखा तो राजपथ जनशून्य सा हो रहा है; दूकानें बन्द हैं। जो दो चार आदमी आते जाते भी थे वे डरे हुए दिखाई देते थे और जहाँ कोई गली पड़ती थी सड़क छोड़कर उसमें हो रहते थे। रह रहकर विदेशी सैनिकों के दल के दल कोलाहल करते हुए निकलते थे। उन्हें देखते ही पाटलिपुत्र वाले दूर हट जाते थे और अपने घरों के किवाड़ बन्द कर लेते थे। दुकानदार दुकान छोड़छोड़ कर भाग जाते थे। नगर की यह अवस्था देख तेली के प्राण सूख गए और वह झट राजपथ छोड़ एक पतली गली में हो रहा। उस अधेरी गली में चलते चलते वह एक झोपड़ी के सामने पहुँचा और किवाड़ खटखटाए। कुछ काल तक वह खड़ा रहा पर जब उसने देखा कि किवाड़ नहीं खुलता है तब वह फिर किवाड़ खटखटाने लगा। इस प्रकार दो घड़ी के लगभग बीत गए। बालक गदहे पर बैठा बैठा थककर ऊँघने लगा।

नगर मे सन्नाटा छा गया। दिन ढलने पर गली में और भी अधेरा छा गया। तेली घबरा कर किवाड़ पीटने लगा। उसके धाक्कों से किवाड़ टूटा ही चाहता था कि भीतर से किसी स्त्री कण्ठ का अस्फुटर् आत्तानाद सुनाई पड़ा। रोने के साथ जो शब्द मिले थे उन्हें ठीकठीक कहना असम्भव है। उनका भावार्थ यह था “घर में डाकू आ पड़े हैं नगर में कहीं कोई प्रतिवेशी है या नहीं? आकर मेरी रक्षा करे। राजा के भांजे के साथ थानेश्वर से जो दुष्ट सैनिक आए हैं वे मुझे अनाथ, असहाय और विधवा देखकर मुझपर अत्याचार कर रहे हैं। आकर बचाओ, नहीं तो मैं मरी। मेरी जाति, कुल, मान मर्यादा सब गई”। कुछ प्रतिवेशियों के कान में उस स्त्री का चिल्लाना पड़ चुका था। वे खिड़की हटाकर देखना चाहते थे कि भीतर क्या हो रहा है। दो एक अपने वचनों से अभयदान भी दे रहे थे।

एक पड़ोसी की दृष्टि द्वार पर खड़े गदहे पर पड़ी। वह चिल्ला उठा “अरे, देखते क्या हो? थानेश्वर के सवार आ पहुँचे”। सुनते ही पाटलिपुत्र के वीर निवासी अपने अपने किवाड़ बन्दकर भीतर जा घुसे। स्त्री का रोना चिल्लाना बढ़ने लगा। तेली को अधेरे में और कुछ न सूझा, उसने पैर के धाक्कों से किवाड़ खोल दिए और घर के भीतर घुसा। स्त्री बड़े जोर से चिल्ला उठी, चिल्लाकर मूर्च्छित हो गई या क्या कुछ समझ में न आया। तेली ने अपने बैल, गदहे और बालक को भीतर करके किवाड़ बन्द कर लिए। उसके पीछे स्त्री का चिल्लाना किसी ने न सुना।