शशांक / खंड 1 / भाग-2 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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पुरानी कथा

कड़कड़ाती धूप से धरती तप रही थी। राजप्रासाद के नीचे की अधेरी कोठरी में वृद्ध यदुभट्ट भूमि पर एक बिस्तर डाल खा पीकर विश्राम कर रहा था। वह पड़ापड़ा गुप्त वंश के अभ्युदय की कथा कह रहा था। उसका गम्भीर कण्ठस्वर उस सूनी कोठरी के भीतर गूँज रहा था। सम्राटों की दशा के साथ प्रासाद की दशा भी पलट गई थी। बहुत पहले पाटलिपुत्र के लिच्छवि राजाओं ने गंगा और सोन के संगम पर एक छोटा सा उद्यान बनवाया था। जब गुप्तराजवंश का अधिकार हुआ तब प्रथम चन्द्रगुप्त नगर के बीच का राजप्रासाद छोड़ बाहर की ओर उद्यान में आकर रहने लगे। प्रासाद का यह भाग उसी समय बना था। भारी भारी पत्थरों की जोड़ाई से बनी हुई ये छोटी कोठरियाँ बहुत दिनों तक यों ही पड़ी रहीं, उनमें कोई आता जाता नहीं था। मगध राज्य जब सारे भारतवर्ष का केन्द्रस्थल हुआ तब समुद्रगुप्त और द्वितीय चन्द्रगुप्त के समय में सोन के किनारे अपरिमित धान लगाकर एक परम विशाल और अद्भुत राजप्रासाद बनवाया गया। प्रथम कुमारगुप्त ने उस बृहत् प्रासाद को छोड़ अपनी छोटी रानी के मनोरंजन के लिए गंगातट पर श्वेत संगमरमर का एक नवीन रम्य भवन उठवाया। गिरती दशा में गुप्तवंश के सम्राट कुमारगुप्त के बनवाए भवन में ही रहने लगे थे। प्रासाद के शेष भाग में कर्मचारी लोग रहते थे। लगभग कोस भर के घेरे में फैले हुए प्रासाद, उद्यान और ऑंगन के भिन्न भिन्न भाग भिन्न भिन्न नामों से परिचित थे। जिस घर में यदुभट्ट रहता था उसे लोग 'चन्द्रगुप्त का कोट' कहते थे। इसी प्रकार 'धा्रुवस्वामिनी का उद्यान', 'समुद्रगुप्त का प्रासाद', 'गोविन्दगुप्त का रंगभवन' इत्यादि नामों से प्रासाद के भिन्न-भिन्न प्रान्त नगरवासियों के बीच प्रसिद्ध थे। गुप्तसाम्राज्य के धवस्त होने पर यह विस्तीर्ण राजप्रासाद भी ख्रडहर सा होने लगा। पिछले सम्राटों में उसे बनाए रखने की भी सामर्थ्य नहीं थी। दिनों के फेर से विस्तीर्ण सौधामाला गिर पड़कर रहने के योग्य नहीं रह गई थी। मगधराज के परिचारक और छोटे कर्मचारी इन पुराने घरों में रहते थे। लम्बे चौड़े उद्यान और भारी भारी ऑंगन जंगल हो रहे थे। पाटलिपुत्रवासी रात को इन स्थानों में डर के मारे नहीं जाते थे। प्रासाद का यदि कोई भाग अच्छी दशा में था तो कुमारगुप्त का श्वेत पत्थरवाला भवन, जो सबके पीछे बनने के कारण जीर्ण नहीं हुआ था। उसी श्वेत प्रासाद में मगधोश्वर महासेनगुप्त रहते थे। समुद्रगुप्त के लाल पत्थरवाले विस्तृत प्रासाद में सम्राट की शरीररक्षक सेना रहती थी। पुस्तक के आरम्भ में पाठक ने इसी प्रासाद के एक भाग में कुमार शशांक और सेनापति लल्ल को देखा था।

वृद्ध भट्ट पुरानी कथा इस प्रकार कह रहा था-”इस सुन्दर पाटलिपुत्र नगर में शकराज निवास करते थे। प्राचीन मगध देश अधीन होकर उनके पैरों के नीचे पड़ा हुआ था। तीरभुक्ति के राजा पाटलिपुत्र में आकर उन्हें सिर झुकाते थे और सामान्य भूस्वामियों के समान प्रतिवर्ष कर देते थे। वैशाली के प्राचीन लिच्छविराजवंश ने दुर्दशाग्रस्त होकर पाटलिपुत्र में आश्रय लिया था। उस प्रतापी वंश के लोग साधारण भूस्वामियों के समान शकराज की सेवा में दिन काटते थे।

कुमार का मुँह लाल हो गया। क्रोधाभरे शब्दों में बालक बोल उठा-”भट्ट! क्या उस समय देश में मनुष्य नहीं थे? सारे मगध और तीरभुक्ति के राजाओं ने शकों का आधिपत्य कैसे स्वीकार किया?”

भट्ट बहुत बूढ़ा हो गया था, कान से भी कुछ ऊँचा सुनता था। बालक की बात उसके कानों में नहीं पड़ी। वह अपनी कहता जाता था-

“शकों के अत्याचार से मगध की भूमि जर्जर हो गई, देश में देवताओं और ब्राह्मणों का आदर नहीं रह गया। प्रजा पीड़ित होकर देश छोड़ने लगी। मगध और तीरभुक्ति के ब्राह्मण निराश्रय होकर लिच्छविराज के द्वार पर जा पड़े। किन्तु परम प्रतापी विशाल के वंशज लिच्छविराज आप घोर दुर्दशा में थे। उस समय वे शकराज के वेतनभोगी कर्मचारी मात्रा थे। उन्हें ब्राह्मणों को अपने यहाँ आश्रय देने का साहस न हुआ। ब्राह्मणमण्डली को आश्रय देना शकराज के प्रति प्रकाश्य रूप में विद्रोहाचरण करना था। किन्तु जिसे करने का साहस लिच्छविराज को न हुआ उसे उनके एक सामन्त चन्द्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से किया। उन्होंने ब्राह्मणों को अपने यहाँ आश्रय दिया।”

वृद्ध पुरुष परम्परा से चली आती हुई कथा लगातार कहता चला-”आश्रय पाकर ब्राह्मण लोग पाटलिपुत्र की गली गली, घर घर देवद्वेषी बौध्दों और शकों के अत्याचार की बातें फैलाने लगे। शकराज की सेना ने महाराज चन्द्रगुप्त का घर जा घेरा। नगरवासियों ने उत्तोजित होकर शकराज का संहार किया। चन्द्रगुप्त को नेता बनाकर पाटलिपुत्रवालों ने शकों को मगध की पवित्रा भूमि से निकाल दिया। धीरे धीरे विद्रोहाग्नि मगध के चारों ओर फैल गई। तीरभुक्ति और मगध दोनों प्रदेश बौद्ध शकों के हाथ से निकल गए। पाटलिपुत्र में गंगा के तट पर धूमधाम से चन्द्रगुप्त का अभिषेक हुआ। पुत्रहीन लिच्छविराज अपनी एक मात्रा कन्या कुमारदेवी का महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त को पाणिग्रहण कराकर तीर्थाटन को चले गए। देश में शान्ति स्थापित हुई।”

“पाटलिपुत्र नगर में फिर वासुदेव के चक्रधवज और महादेव के त्रिशूलधवज से सुशोभित मन्दिर चारों ओर आकाश से बातें करने लगे। अत्याचार पीड़ित प्रजा देश में धीरे धीरे लौटने लगी। मगध और तीरभुक्ति की भूमि फिर धानधान्य से पूर्ण हुई। अनेक सामन्तचक्र सेवित महाराजाधिराज परमभट्टारक प्रथम चन्द्रगुप्त के बाहुबल से मगध की राजलक्ष्मी ने गुप्तवंश में आश्रय लिया।”

वृद्ध जब तक लड़ाई भिड़ाई की बात कहता रहा तब तक बालक एकाग्रचित्ता होकर सुनता रहा। उसके उपरान्त वृद्ध का कण्ठस्वर सुनते सुनते बालक को झपकी आने लगी। उसी सीड़ में पड़े हुए बिस्तर के ऊपर मगध का युवराज सो गया। श्रोता बहुत देर से सो रहा है वृद्ध को इसकी कुछ भी खबर नहीं थी। वह बिना रुके हुए अपनी कथा कहता जाता था-

“पूरी आयु भोग कर यथासमय सम्राट प्रथम चन्द्रगुप्त ने गंगालाभ किया। कुल की रीति के अनुसार पट्टमहिषी लिच्छविराजकन्या कुमारदेवी स्वामी की सहगामिनी हुईं। गुप्तवंश के माधयाद्दर्मात्तांड परम प्रतापी महाराजाधिराज समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र के सिंहासन पर सुशोभित हुए”। इतने में पास के घर से कोई आता दिखाई पड़ा। वृद्ध को उसके पैरों की कुछ भी आहट न मिली। वह व्यक्क्ति सहसा कोठरी में आ पहुँचा। देखने से ही वह कोई बहुत बड़ा आदमी जान पड़ता था। पहिरावा तो उसका साधारण ही था-धोती के ऊपर महीन उत्तारीय अंग पर पड़ा था। किन्तु पैर के जोड़े जड़ाऊ थे-उनमें रत्न और मोती टँके थे। घर में आकर उसने सोते हुए बालक और लेटे हुए वृद्ध को देखा। देखते ही उसने ऊँचे स्वर से भट्ट को पुकार कर कहा “यदुभट्ट! पागलों की तरह क्या बक रहे हो?” कण्ठस्वर सुनते ही वृद्ध चौंककर उठ खड़ा हुआ। आनेवाले को देखते ही वृद्ध का चेहरा सूख गया। वह ठक सा रह गया। आनेवाले पुरुष ने कहा “तुमसे मैं न जाने कितनी बार कह चुका कि कुमार के सामने चन्द्रगुप्त और कुमारगुप्त का नाम न लिया करो। तुम अभी शशांक से क्या कह रहे थे? कई बार मैंने तुम्हें समुद्रगुप्त का नाम लेते सुना”। वृद्ध के मुँह से एक बात न निकली। वह डरकर दीवार की ओर सरक गया।

आगन्तुक पुरुष के ऊँचे स्वर से बालक की नींद टूट गई। वह उसे सामने देख घबरा कर उठ खड़ा हुआ। आगन्तुक ने पूछा “शशांक! तुम इस जीर्ण कोठरी में क्या करते थे?” बालक सिर नीचा किए खड़ा रहा, कुछ उत्तर न दे सका। आगन्तुक वृद्ध की ओर फिर कर बोला “यदु! तुम अब बहुत बुङ्ढे हुए, तुम्हारी बुध्दि सठिया गई है, तुम्हें उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रह गया है। तुम मेरे आदेश के विरुद्ध बेधाड़क कुमार को बुरी शिक्षा दे रहे थे। यदि तुम्हें फिर कभी समुद्रगुप्त का नाम मुँह पर लाते सुना तो समझ रखना कि तुम्हारा सिर मुँड़ा कर तुम्हें नगर के बाहर कर दूँगा”। फिर कुमार की ओर फिर कर कहा “देखो शशांक! तुम कभी इधर अकेले मत आया करो। यदु बुङ्ढा हुआ; अभी यहाँ कोई साँप निकले या बाघ आ जाय तो वह तुम्हें नहीं बचा सकता।” बालक के कानों तक पहुँचते हुए विशाल नेत्रो में जल भर आया। वह सिर नीचा किए चुपचाप कोठरी के बाहर निकला। कुछ दूर पर दूसरे घर में लल्ल खड़ा था। उसने दौड़कर कुमार को गोद में उठा लिया और बाहर ले चला। बालक वृद्ध सैनिक की गोद में मुँह छिपाए सिसकता जाता था।

कोई दु:संवाद पाकर सम्राट महासेनगुप्त व्यग्रता के साथ प्रासाद के ऑंगन में टहल रहे थे। धीरे धीरे वे नए प्रासाद से इस पुराने प्रासाद की ओर बढ़ आए। जिस कोठरी में यदुभट्ट रहता था उसकी ओर सम्राट क्या कोई राजपुरुष भी कभी नहीं जाता था। इसी से यदुभट्ट निश्चिन्त होकर कुमार को वह कथा सुना रहा था जिसका निषेध था। आगन्तुक पुरुष सम्राट महासेनगुप्त थे, इसे बताने की अब आवश्यकता नहीं। बहुत दिन हुए सम्राट ने मधयदेश के एक ज्योतिषी के मुँह से सुना था कि शशांक के हाथ से ही गुप्तराज्य नष्ट होगा और पाटलिपुत्र पर नाती के वंशवालों का अधिकार होगा। तभी से वृद्ध सम्राट ने भाटों और चारणों को गुप्तवंश के लुप्त गौरव की कथा, चन्द्रगुप्त और समुद्रगुप्त का चरित, कुमार के आगे कहने का निषेधा कर दिया था। कुमार के चले जाने पर सम्राट फिर चिन्ता में पड़ गए। वे भट्ट की कोठरी से निकल इधर टहलने लगे। सम्राट के कोठरी से निकलते ही वृद्ध भट्ट कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर जा पड़ा।