शशांक / खंड 1 / भाग-1 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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उदय

सोन के संगम पर

हजार वर्ष से ऊपर हुए जब कि पाटलिपुत्र नगर के नीचे सोन की धारा गंगा से मिलती थी। सोन के संगम पर ही एक बहुत बड़ा और पुराना पत्थर का प्रसाद था। उसका अब कोई चिह्न तक नहीं है। सोन की धारा जिस समय हटी उसी समय उसका खडहर गंगा के गर्भ में विलीन हो गया।

वर्षा का आरम्भ था; सन्धया हो चली थी। प्रसाद की एक खिड़की पर एक बालक और एक वृद्ध खड़े थे। बालक का रंग गोरा था, लम्बे लम्बे रक्ताभ केश उसकी पीठ पर लहराते थे। सन्धया का शीतल समीर रह-रह कर केशपाश के बीच क्रीड़ा करता था। पास में जो बुङ्ढा खड़ा था उसे देखते ही यह प्रकट हो जाता था कि वह कोई योध्दा है। उसके लम्बे लम्बे सफेद बालों के ऊपर एक नीला चीर बँधा था। उसके लम्बे चौड़े गठीले शरीर के ऊपर एक मैली धोती छोड़ और कोई वस्त्र नहीं था। बुङ्ढा हाथ में बरछा लिए चुपचाप लड़के के पास खड़ा था। पाटलिपुत्र के नीचे सोन की मटमैली धारा गंगा में गिरकर ऊँची ऊँची तरंगें उठाती थी। वर्षा के कीचड़ मिले जल के कारण गंगा की मटमैली धारा बड़े वेग से समुद्र की ओर बह रही थी। बालक धयान लगाए यही देख रहा था। पश्चिम को जानेवाली नावें धीरे धीरे किनारा छोड़कर आगे बढ़ रही थीं। सोन के दोनों तटों पर बहुतसी नावें इकट्ठी थीं। उस घोर प्रचंड जलधारा में नाव छोड़ने का साहस माझियों को नहीं होता था। वृद्ध सैनिक खड़ा खड़ा यही देख रहा था। इतने में बालक बोल उठा “दादा! ये लोग आज पार न होंगे क्या?” वृद्ध ने उत्तर दिया “नहीं, भैया! वे अंधेरे के डर से नावें तीर पर लगा रहे हैं”। बालक कुछ उदास हो गया; वह खिड़की से उठकर कमरे में गया। वृद्ध भी धीरे धीरे उसके पीछे हो लिया।

अब चारों ओर अंधेरा फैलने लगा; सोन संगम पर धुधलापन छा गया। तीर पर जो नावें बँधी थीं उनपर जलते हुए दीपक दूर से जुगनुओं की पंक्ति के समान दिखाई पड़ते थे। कमरे के भीतर चाँदी के एक बड़े दीवार पर रखा हुआ बड़ा दीपक सुगन्धा और प्रकाश फैला रहा था। कमरे की सजावट अनोखी थी; संगमरमर की बर्फ सी सफेद दीवारों पर अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र टँगे थे। दीपक के दोनों ओर हाथीदाँत जड़े दो पलंग थे। एक पलंग पर सोने का एक दण्ड रखा था। दोनों पलंगों के बीच सफेद फ़र्श थी। बालक जाकर पलंग पर बैठ गया; वृद्ध भी एक किनारे बैठा। कुछ काल तक तो बालक चुप रहा, फिर बालस्वभाव की चपलता से उठ खड़ा हुआ और सुवर्णदण्ड को उलटने पलटने लगा। वृद्ध घबराकर उसके पास आया और कहने लगा “भैया, इसे मत उठाना, महाराज सुनेंगे तो बिगड़ेंगे”। बालक ने हँसते हँसते कहा “दादा, अब तो मैं सहज में समुद्रगुप्त का धवज उठा सकता हूँ, अब वह मेरे हाथ से गिरेगा नहीं”। बालक ने क्रीड़ावश पाँच हाथ लम्बे उस भारी हेमदण्ड को उठा लिया। वृद्ध ने हँसते हँसते कहा “भैया”! वह दिन आएगा जब तुम्हें घोड़े की पीठ पर गरुड़धवज को लेकर युद्ध में जाना होगा”। बुङ्ढे की बात बालक के कानों तक न पहुँची, वह उस समय बड़े धयान से सुवर्णदण्ड के ऊपर अनेक प्रकार के बेलबूटों के बीच कुछ अक्षर लिखे थे बालक उन्हें पढ़ने की चेष्टा कर रहा था। दण्ड के शीर्ष पर एक सुन्दर गरुड़, बैठा था जिसकी परछाईं नाना अस्त्रा शस्त्रो के बीच संगमरमर की दीवार पर पड़कर विलक्षण विलक्षण आकार धारण करती थी। बालक ने वृद्ध से कहा “दादा! मुझे पढ़ना आता है; यह देखो इस दण्ड पर कई एक नाम लिखे हैं। यह सब क्या आर्य समुद्रगुप्त का लिखा है?” वृद्ध ने उत्तर दिया “गरुड़धवज पर कुछ लिखा है। यह तो मैंने कभी नहीं सुना”।

बालक कुछ कहना ही चाहता था इतने में एक बालिका झपटी हुई आई और उसके गले से लग कर हाँफती हाँफती बोली “कुमार! माधव मुझसे कहते है कि तुम्हारे साथ ब्याह करूँगा। मैं उसके पास से भागी आ रही हूँ, वे मुझे पकड़ने आ रहे हैं”। इतना कह कर वह बालक की गोद में छिपने का यत्न करने लगी। बालक और वृद्ध दोनों एक साथ हँस पड़े। उनकी हँसी की गूँज पुराने प्रासाद के एक कक्ष से दूसरे कक्ष तक फैल गई। इतने में एक और बालक दौड़ता हुआ उस कमरे की ओर आता दिखाई दिया, पर अट्टहास सुनकर वह द्वार ही पर ठिठक रहा। बालिका ने जिसे 'कुमार' कहकर सम्बोधान किया था उसे देखते ही आनेवाले बालक का मुँह उतर गया। पहले बालक ने इस बात को देखा और वह फिर ठठाकर हँस पड़ा। दूसरा बालक और भी डरकर द्वार की ओर हट गया। बालिका अब तक अपने रक्षक की गोद में मुँह छिपाए थी। दूसरा बालक काला, दुबला पतला और नाटा था। देखने में वह पाँच बरस से अधिक का नहीं जान पड़ता था, पर था दस बरस से ऊपर का। बालिका अत्यन्त सुन्दर थी। उसका वयस् आठ वर्ष से अधिक नहीं था। उसका रंग कुन्दन सा और अंग गठीले थे। छोटे से मस्तक का बहुत सा भाग काले घुँघराले बालों से ढँका था पहले बालक ने दूसरे बालक से कहा “माधव! तू चित्रा से ब्याह करने को कहता था? चित्रा का तो बहुत पहले से स्वयंवरा हो चुकी है”। दूसरा बालक बोला “चित्रा मुझे काला कहकर मुझसे घिन करती है। क्या मैं राजा का पुत्र नहीं हूँ? बुङ्ढे सैनिक ने हँस कर कहा “माधव! तुम क्या जिस किसी को सुन्दर देखोगे उसी से ब्याह करने को तैयार हो जाओगे?” जेठा भाई हँस पड़ा, बालक मर्माहत होकर धीरे धीरे वहाँ से चला गया।

ईसा की छठीं शताब्दी के शेष भाग में गुप्तवंशी महासेनगुप्त मगध में राज्य करते थे। उस समय गुप्तसाम्राज्य का प्रताप अस्त हो चुका था, समुद्रगुप्त के वंशधार सम्राट की उपाधि किसी प्रकार बनाए रखकर मगध और बंगलादेश पर शासन करते थे। गुप्तसाम्राज्य का बहुत सा अंश औरों के हाथ में जा चुका था। आर्यर्वत्ता में मौखरीवंश के राजाओं का एकाधिपत्य स्थापित हो गया था। ब्रह्मर्वत्ता और पंचनद स्थाण्वीश्वर का वैसक्षत्रिय राजवंश धीरे धीरे अपना अधिकार बढ़ा रहा था। कामरूप देश तो बहुत पहले से स्वाधीन हो चुका था। बंग और समतट प्रदेश कभी कभी अपने को साम्राज्य के अधीन मान लेते थे, पर सुयोग पाकर राज कर भेजना बन्द कर देते थे। पिछले गुप्तसम्राट अपने वंश की प्राचीन राजधानी पाटलिपुत्र में ही निवास करते थे। भारतवर्ष की वह प्राचीन राजधानी धवंसोन्मुख हो रही थी, उसकी समृध्दि के दिन पूरे हो रहे थे। धीरे धीरे कान्यकुब्ज का गौरव रवि उदित हो रहा था। आगे चलकर फिर कभी मगध की राजधानी भारतवर्ष की राजधानी न हुई।

पाटलिपुत्र के पुराने खडहर में बैठकर पिछले गुप्तसम्राट केवल साम्राज्य का स्वाँग करते थे पर आसपास के प्रबल राजाओं से उन्हें सदा सशंक रहना पड़ता था। कुमारगुप्त और दामोदरगुप्त बड़ी बड़ी कठिनाइयों से मौखरी राजाओं के हाथ से अपनी रक्षा कर सके थे। थोड़े ही दिनों में मौखरी राज्य नष्ट करके और पश्चिम प्रान्त में हूणों को परास्त करके महासेनगुप्त के भांजे प्रभाकरवर्ध्दन उत्तारापथ में सबसे अधिक प्रतापशाली हो गए थे। गुप्तवंश में सम्राट की पदवी अभी तक चली आती थी। पाटलिपुत्र में महासेनगुप्त को अपने भांजे का सदा डर बना रहता था। वे यह जानते थे कि प्रभाकरवर्ध्दन के पीछे उत्तारापथ से गुप्तवंश का रहा सहा अधिकार भी जाता रहेगा।

महासेनगुप्त के दो पुत्र थे। पुस्तक के आरम्भ में जो बालक सोन की धारा की ओर धयान लगाए तरंगों की क्रीड़ा देख रहा था वह महासेनगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र गुप्तसाम्राज्य का उत्ताराधिकारी शशांक था। दूसरा बालक उसका छोटा भाई था। माधवगुप्त शशांक की विमाता से उत्पन्न था और अपने बूढ़े पिता का बहुत ही दुलारा तथा अत्यन्त उग्र और निष्ठुर स्वभाव का था। शशांक धीर, बुध्दिमान्, उदार और बलिष्ठ था। युवराज बाल्यकाल से ही सैनिकों का प्रियपात्रा था। बालिका चित्रा मंडला के दुर्गपति मृत तक्षदत्ता की कन्या और शशांक के सखा नरसिंहदत्ता की भगिनी थी। तक्षदत्ता के मरने पर जब बर्बरों ने मंडला दुर्ग पर अधिकार कर लिया तब उनकी विधावा पत्नी अपने पुत्र और कन्या को लेकर पाटलिपुत्र चली आईं। नरसिंहदत्ता का पैतृक दुर्ग सम्राट ने अपने दूसरे सेनापति को भेजकर किसी प्रकार फिर अपने अधिकार में किया। उस समय मण्डला, गौड़, मगध और वंग में गुप्त साम्राज्य के दुर्जय दुर्ग थे।

वृद्ध सैनिक और कुमार शशांक अस्त्रागार में बैठे बातचीत कर रहे थे इतने में पास के घर में बहुत से मनुष्यों के पैरों की आहट सुनाई दी। सैनिक चौंक पड़ा और बरछा हाथ में लेकर द्वार पर जा खड़ा हुआ। कुमार भी उठ खड़ा हुआ। सबके आगे दीपक के प्रकाश में श्वेत वस्त्र धारण किए बूढ़े भट्ट (भाँट) की मूर्ति दिखाई पड़ी, उसके पीछे राजभवन के बहुत से परिचारक और परिचारिकाएँ थीं। कुमार को देख वृद्ध भट्ट ने जयध्वनि की । देखते देखते सब के सब उस घर में आ पहुँचे। बात यह थी कि दोपहर से ही कुमार अस्त्रागार में आ बैठा था, इससे दोपहर के पीछे किसी ने उसे नहीं देखा। चारों ओर खोज होने लगी। जब माधवगुप्त और चित्रा से पता मिला कि सन्धया समय कुमार और कोल सेनानायक लल्ल अस्त्रागार में थे तब लोग इधर आए। सम्राट और पट्टमहादेवी कुमार को न देखकर अधीर हो रही थीं। महादेवी मन ही मन सोचती थीं कि चंचल बालक कहीं बढ़े हुए सोननदी की धारा में न जा पड़ा हो। भट्ट कुमार को गोद में उठाकर अस्त्रागार के बाहर ले चला। बालक किसी तरह नहीं जाता था। वह बूढ़े भट्ट से हाथापाई करने लगा और कहने लगा “मैं लल्ल से आर्यसमुद्रगुप्त का हाल सुनता था, मैं इस समय न जाऊँगा”। इस पर लल्ल भी समझाने बुझाने लगा। पर कुछ फल न हुआ। अन्त में भट्ट ने वचन दिया कि मैं कल आर्यसमुद्रगुप्त की कथा गाकर सुनाऊँगा। कुमार शान्त हुआ और परिचारक उसे लेकर चले। बूढ़ा लल्ल भी उनके पीछे पीछे हो लिया।

जो वृद्ध सन्धया समय कुमार के पास खड़ा था वह मगध सेना का एक नायक था। वह बर्बर जातीय कोलसेना का अधयक्ष था और आप भी कोल जाति का था। उसका नाम था लल्ल। लल्ल ने बहुत से युध्दों में साम्राज्य की मर्य्यादा रखी थी। बुढ़ापे में लड़का पाकर महासेन गुप्त ने लल्ल को उसका रक्षक नियुक्त किया था। वही उसका लालन पालन करता था। शशांक लल्ल से बहुत हिल गया था और उसे 'दादा' कहा करता था।