शशांक / भूमिका / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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यह उपन्यास श्रीयुत राखालदास वंद्योपाध्‍याय महोदय के बँगला उपन्यास का हिन्दी भाषान्तर है। राखाल बाबू का सम्बन्ध पुरात्तव विभाग से है। भारत के प्राचीन इतिहास की पूरी जानकारी के साथ साथ दीर्घ कालपटल को भेद अतीत के क्षेत्रा में क्रीड़ा करने वाली कल्पना भी आपको प्राप्त है। अपना स्वरूप भूले हुए हमें बहुत दिन हो गए। अपनी प्रतिभा द्वारा हमारे सामने हिन्दुओं के पूर्व जीवन के माधुर्य का चित्र रखकर आपने बड़ा भारी काम किया। सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि आपने यह स्पष्ट कर दिया कि प्राचीनकाल की घटनाओं को लेकर उन पर नाटक या उपन्यास लिखने के अधिकारी कौन हैं। प्राचीनकाल में कैसे कैसे नाम होते थे, कैसा वेश होता था, पद के अनुसार कैसे सम्बोधान होते थे, राजकर्मचारियों की क्या क्या संज्ञाएँ होती थीं, राजसभाओं में किस प्रकार की शिष्टता बनती जाती थी इन सब बातों का ध्यान रखकर इस उपन्यास की रचना हुई है। यही इसका महत्तव है। मुसलमानी या फारसी तमीज के कायल इसमें यह देख सकते हैं कि हमारी भी अलग शिष्टता थी, अलग सभ्यता थी, पर वह विदेशी प्रभाव से लुप्त हो गई। वे राजसभाएँ न रह गईं। हिन्दू राजा भी मुसलमानी दरबारों की नकल करने लगे; प्रणाम के स्थान पर सलाम होने लगा। हमारा पुराना शिष्टाचार अन्तर्हित हो गया और हम समझने लगे कि हम में कभी शिष्टाचार था ही नहीं।

इस उपन्यास में जो चित्र दिखाया गया है वह गुप्तसाम्राज्य की घटती के दिनों का है जब श्रीकंठ (थानेश्वर) के पुष्पभूति वंश का प्रभाव बढ़ रहा था। प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्तवंश उन प्रतापी राजवंशों में है जिनके एकछत्र राज्य के अन्तर्गत किसी समय सारा देश था। कामरूप से लेकर गान्धार और वाधीक तक और हिमालय से लेकर मालवा, सौराष्ट्र, कलिंग और दक्षिणकोशल तक पराक्रान्त गुप्त सम्राटों की विजय पताका फहराती थी। इस क्षत्रिय वंश के मूल पुरुष का नाम गुप्त था। इन्हीं गुप्त के पुत्र घटोत्कच हुए जिनके प्रतापी पुत्र प्रथम चन्द्रगुप्त लिच्छवी राजवंश की कन्या कुमारदेवी से विवाह कर सन् 321 ई में मगध के सिंहासन पर बैठे और गुप्तवंश के प्रथम सम्राट हुए। उनके पुत्र परम विजयी समुद्रगुप्त (सन् 350 ई ) ने अपने साम्राज्य का विस्तार समुद्र से समुद्र तक बढ़ाया। प्रतिष्ठान (झूँसी) इनके प्रधान गढ़ों में से था जहाँ अब तक इनके कीर्ति चिह्न पाए जाते हैं। समुद्रकूप इन्हीं के नाम पर है। इलाहाबाद के किले के भीतर अशोक का जो स्तम्भ है उसे मैं समझता हूँ कि इन्हीं ने कौशाम्बी से लाकर अपने प्रतिष्ठानपुर के दुर्ग में खड़ा किया था। पीछे मोगलों के समय में झ्रूसी से उठकर वह इलाहाबाद के किले में आया। इसी स्तम्भ पर हरिषेण कृत समुद्रगुप्त की प्रशस्ति अत्यन्त सुन्दर श्लोकों में अंकित है। समुद्रगुप्त के पुत्र द्वितीय चन्द्रगुप्त (विक्रमादित्य) हुए (सन् 401 से 413 ई ) जिन्हें अनेक इतिहासज्ञ कथाओं में प्रसिद्ध विक्रमादित्य मानते हैं। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के पुत्र प्रथम कुमारगुप्त ने 415 से 455 ई तक राज्य किया। कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त के समय में हूणों का आक्रमण हुआ और गुप्तसाम्राज्य अस्त व्यस्त हुआ। स्कन्दगुप्त ने 455 से 467 ई तक राज्य किया। जान पड़ता है कि हूणों के साथ युद्ध करने में ही इनके जीवन का अन्त हुआ। इनकी उपाधि भी विक्रमादित्य थी।

स्कन्दगुप्त के पीछे, जैसी कि कुछ लोगों की धारणा है, गुप्तसाम्राज्य एकबारगी नष्ट नहीं हो गया। ईसा की छठी और सातवीं शताब्दी तक गुप्तसाम्राज्य के बने रहने के अनेक प्रमाण पाए जाते हैं। गुप्त संवत् 199 (518 ई ) के परिव्राजक महाराज संक्षोभ के शिलालेख से1 यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्तों की अधीनता दभाला तक, जिसके अन्तर्गत त्रिपुर विषय (जबलपुर के आसपास का प्रदेश) था, मानी जाती थी। इसी प्रकार का संक्षोभ का एक और शिलालेख जो नागौद (बघेलखंड) में मिला है मधयप्रदेश के पूर्व की ओर गुप्तों का साम्राज्य सन् 528 ई. में सूचित करता है। श्रीकण्ठ (थानेश्वर) के बैस क्षत्रिय वंश के अभ्युदय के समय में भी मालवा में एक गुप्त राजा का होना पाया जाता है जिसके पुत्र कुमारगुप्त और माधवगुप्त थानेश्वर के कुमार राज्यवर्ध्दन और हर्षवर्ध्दन के सहचर कहे गए हैं (हर्षचरित)। हर्षवर्ध्दन के समय में अवश्य गुप्तसाम्राज्य का प्रताप मन्द पड़ गया था पर हर्ष के मरते ही माधवगुप्त के पुत्र परम प्रतापी आदित्यसेन ने गुप्तसाम्राज्य को फिर से प्रतिष्ठित करके अश्वमेधा यज्ञ किया और परमभट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। गया के पास अफसड़ गाँव में जो उनका शिलालेख मिला है उसमें कामरूप के राजा सुस्थित वर्म्मा को पराजित करनेवाले उनके दादा महासेनगुप्त के सम्बन्धा में लिखा है कि उनकी विजयकीर्ति लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) नदी के किनारे बराबर गाई जाती थी। इससे प्रकट है कि सन् 600 ई में भी, जब प्रभाकरवर्ध्दन (हर्षवर्ध्दन के पिता) थानेश्वर में राज्य करते थे, गुप्तों का अधिकार मालवा से लेकर ब्रह्मपुत्रनद के किनारे तक था।

यहाँ पर स्कन्दगुप्त के पीछे होनेवाले गुप्त सम्राटों का थोड़ा बहुत उल्लेख आवश्यक है। स्कन्दगुप्त के पीछे उनके छोटे भाई (अनन्ता देवी से उत्पन्न) पुरगुप्त

1 श्रीमत्प्रवर्ध्दमानविजयराज्ये संवत्सरशते नवनवत्युत्तारे गुप्तनृपराज्यभुक्तौ ।

ने थोड़े दिनों तक राज्य किया। इनका विरुध भी विक्रमादित्य था। कुछ इतिहासज्ञों का अनुमान है कि ये वही अयोधया के विक्रमादित्य हैं जो बौद्ध आचार्य वसुबन्धु के बड़े भारी भक्त थे। इससे सूचित होता है कि गुप्तों का साम्राज्य मौखरीवंश के अभ्युदय तक पश्चिम में अयोधया तक था। पुरगुप्त के पुत्र नरसिंहगुप्त वालादित्य थे। जिन्होंने सन् 473 ई तक राज्य किया। ये वे वालादित्य नहीं हैं जिन्होंने हुएन्सांग के अनुसार मिहिरगुल (मिहिरकुल) को धवस्त किया। वे वालादित्य कुछ पीछे हुए हैं। नरसिंहगुप्त के पीछे उनके पुत्र द्वितीय कुमारगुप्त (क्रमादित्य) ने तीन ही चार वर्ष राज्य किया। उसके पीछे हमें सिक्कों में बुधागुप्त का नाम मिलता है जो सम्भवत: कुमारगुप्त (प्रथम) के ही सबसे छोटे पुत्र थे। बुधागुप्त ने बीस वर्ष तक-सन् 477 से 496 ई तक-राज्य किया। उस समय के प्राप्त शिलालेखों और ताम्रपत्रो मे पाया जाता है कि बुधागुप्त के साम्राज्य के अन्तर्गत पुंड्रवर्ध्दनभुक्ति (उत्तर-पूर्व बंगाल), काशी, अरिकिण विषय (सागर जिले में एरन नामक स्थान) आदि प्रदेश थे। हुएन्सांग के अनुसार बुधागुप्त के पुत्र तथागतगुप्त हुए जिनके पुत्र वालादित्य के समय में हूणों का फिर प्रबल आक्रमण हुआ और उनके राजा तुरमानशाह1 (सं तोरमाण) ने मधयप्रदेश पर अधिकार किया। पर तोरमाण का अधिकार बहुत थोड़े दिनों तक रहा, क्योंकि सन् 510-11 ई में अरिकिण (एरन) के गोपराज को हम गुप्तसम्राट की ओर से युद्ध में प्रवृत्ता पाते हैं। इसी प्रकार दभाला के राजा संक्षोभ को भी हम सन् 518 और 528 ई में गुप्तसम्राट के सामन्त के रूप में पाते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि त्रिपुरविषय वा मधयप्रदेश पर उस समय हूणराज का अधिकार नहीं था। वह प्रदेश गुप्तों की ही अधीनता में था। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि पालादित्य ने तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल को अच्छी तरह धवस्त किया। पीछे मन्दसोर के जनेन्द्र यशोधार्मन् ने सन् 533 ई के पहले ही उसे उत्तर की ओर (काश्मीर में) भगा दिया। इस प्रकार हूणों का उपद्रव सब दिन के लिए शान्त हुआ। संक्षोभ के दोनों लेखों से हम मधयप्रदेश में सन् 528 ई तक गुप्तों का आधिपत्य पाते हैं। इसके उपरान्त जान पड़ता है कि यशोधार्मन् प्रबल हुए और उन्होंने वालादित्य के पुत्र वज्र को अधिकारच्युत किया। हुएन्सांग ने भी लिखा है कि मगध और पुंड्रवर्ध्दन में वज्र के पीछे मधयप्रदेश के एक राजा का अधिकार हुआ। गुप्तों के सामन्त दत्तावंशवालों का

1 हूण यद्यपि आरम्भ में चीन की पश्चिम सीमा पर बसनेवाली एक बर्बर तातारी जाति थी पर पीछे जब वह वंक्षु नद (आक्सस नदी) के किनारे फ़ारस की सीमा पर आ बसी तब उसने बहुत कुछ फ़ारसी सभ्यता ग्रहण की। सन् 450 के पहले से ही वे पारसी नाम रखने लगे थे। हूणों को फ़ारसवाले हैताल कहते थे। हूणों पर विजय प्राप्त करनेवाले फ़ारस के प्रसिद्ध बादशाह बहरामगोर के पौत्रा फीरोज़ को हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज़ था। तुरमालशाह और मिहिरगुल भी फ़ारसी नाम हैं।

2 विष्णुवर्ध्दन ने शिलालेख का संवत् जिसमें जनेन्द्र यशोधार्मन् की विजय का वर्णन है।

अधिकार उस समय हम पुंड्रवर्ध्दन में नहीं पाते हैं। पर यह स्पष्ट है कि यशोधार्मन् का अधिकार बहुत थोड़े दिनों तक रहा, क्योंकि सन् 533-34 ई (गुप्त संवत् 214) में हम फिर पुण्ड्रवर्ध्दन (उत्तर पूर्व बंगाल) को किसी "गुप्तपरमभट्टारक महाराजाधिराज पृथ्वीपति" के एक सामन्त के अधिकार में पाते हैं।

इस काल के पीछे हमें माधवगुप्त के पुत्र परम प्रतापी आदित्यसेन के पूर्वजों के नाम मिलते हैं। आदित्यसेन का जो शिलालेख अफसड़ गाँव (गया जिले में) में मिला है उसके अनुसार उनके पूर्वजों का क्रम इस प्रकार है:

महाराज कृष्णगुप्त, उनके पुत्र श्रीहर्षगुप्त, उनके पुत्र जीवितगुप्त (प्रथम) और उनके पुत्र कुमारगुप्त (तृतीय) हुए जिन्होंने मौखरिराज ईशानवर्म्मा को पराजित किया। कुमारगुप्त के पुत्र श्रीदामोदरगुप्त भी मौखरी राजाओं से लड़ते रहे। दामोदरगुप्त के पुत्र महासेनगुप्त ने कामरूप के राजा सुस्थितवर्म्मा को पराजित किया। महासेनगुप्त के पुत्र माधवगुप्त हुए जो श्री हर्षदेव के सहचर थे। इन्हीं माधवसेन के पुत्र आदित्यसेन हुए।

उपर्युक्त राजाओं में कुमारगुप्त (तृतीय) के काल का पता ईशानवर्म्मा के हड़हावाले शिलालेख से लग जाता है जिसके अनुसार ईशानवर्म्मा सन् 554 ई में राज्य करते थे। माधवगुप्त के पूर्वजों के सम्बन्धा में यह ठीक ठीक नहीं निश्चित होता कि वे मगध में राज्य करते थे या मालवा में। बाण के हर्षचरित में मालवा के दो राजकुमारों, कुमारगुप्त और माधवगुप्त का, थानेश्वर के राज्यवर्ध्दन और हर्षवर्ध्दन का सहचर होना लिखा है-

मालवराजपुत्रौ भ्रातरौ भुजाविव मे शरीरादव्यतिरिक्तौ कुमारगुप्तमाधवगुप्त- नामानावस्माभिर्भवतोरनुचरत्वार्थमिमौ निर्दिष्टौ। (हर्षचरित, चतुर्थ उच्छ्वास)

माधवगुप्त हर्षवर्ध्दन के अत्यन्त प्रिय सहचर थे। अपने बहनोई कान्यकुब्ज के राजा ग्रहवर्म्मा के मालवराज द्वारा और अपने बड़े भाई राज्यवर्ध्दन के गौड़ाधिपति द्वारा मारे जाने पर जब हर्षवर्ध्दन अपनी बहिन राज्यश्री को ढूँढते ढूँढते 'विन्धयाटवी' में बौद्ध आचार्य दिवाकरमित्र के आश्रम पर गए थे तब वे अपना दाहिना हाथ माधवगुप्त के कन्धो पर रखे हुए थे-

अवलंब्य दक्षिणेन हस्तेन च माधवगुप्तमंसे (अष्टम उच्छ्वास)A माधवगुप्त के हर्ष के सहचर होने का उल्लेख अफसड़ के लेख में भी इस प्रकार है-श्रीहर्षदेवनिजसङ्मवाछया च।

सारांश यह कि हर्षचरित के अनुसार माधवगुप्त के पिता महासेनगुप्त मालवा में राज्य करते थे। बाणभट्ट हर्षवर्ध्दन के सभा पण्डित थे अत% उनकी बात तो ठीक माननी ही पड़ती है। हो सकता है कि महासेनगुप्त पहले स्वयं मालवा में ही रहते रहे हों और मगध में उनका कोई पुत्र या सामन्त रहता हो। यह भी सम्भव है कि जिस समय बुधागुप्त, भानुगुप्त (वालादित्य) आदि मगध में राज्य करते थे उस समय गुप्तवंश की दूसरी शाखा, माधवगुप्त के पूर्वज, मालवा में राज्य करते रहे हों। पीछे मौखरियों के यहाँ राज्यवर्ध्दन की बहिन राज्यश्री का सम्बन्धा हो जाने पर महासेनगुप्त मगध में अपना अधिकार रक्षित रखने के लिए पाटलिपुत्र में रहने लगे हों और उन्होंने मालवा को देवगुप्त के अधिकार में छोड़ दिया हो। पर कुछ इतिहासवेत्ता माधवगुप्त के पूर्वज कृष्णगुप्त को वज्रगुप्त का भाई मान कर सम्राटों की शृंखला जोड़ कर पूरी कर देते हैं।

हर्षचरित में राज्यवर्ध्दन के बहनोई ग्रहवर्म्मा को मार कर कान्यकुब्ज पर अधिकार करनेवाले और राज्यश्री को कैद करनेवाले मालवराज का नाम स्पष्ट नहीं मिलता। उसमें इस प्रकार इस घटना का उल्लेख है- देवो ग्रहवर्म्मा दुरात्मना मालवराजेन जीवलोकमात्मन: सुकृतेन सह त्याजित:। भर्तृदारिकापि राज्यश्री: कालायसनिगड़युगलचुम्बितचरणा चौराङ्गनेव संयता कान्यकुब्जे कारायां निक्षिप्ता।

दूसरे स्थल पर भंडि ने कान्यकुब्ज पर अधिकार करनेवाले को 'गुप्त' कहा है-देव! देवभूयं गते देवे राज्यवर्ध्दने गुप्तनाम्नाचगृहीते कुशस्थले। हर्षवर्ध्दन के एक ताम्रपत्र में राज्यवर्ध्दन का देवगुप्त नामक राजा को परास्त करना लिखा है। इससे यह अनुमान ठीक प्रतीत होता है कि ग्रहवर्म्मा को मारनेवाले राजा का नाम देवगुप्त था। यह घटना महासेनगुप्त के पाटलिपुत्र चले आने के पीछे हुई होगी, क्योंकि जिस समय वे मालवा में थे उस समय उनके दो कुमार कुमारगुप्त और माधवगुप्त राज्यवर्ध्दन और हर्षवर्ध्दन के सहचर थे। श्रीयुत हेमचन्द्र रायचौधारी, एम ए , ने अपने लेख में (J.A.S.B. New Series, Vol. XVI. 1920, No.7) देवगुप्त को महासेनगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र मान लिया है। इस प्रकार उन्होंने महासेनगुप्त के तीन पुत्र माने हैं-देवगुप्त, कुमारगुप्त और माधवगुप्त। इस मत से कुछ और इतिहासज्ञ भी सहमत हैं।

अब इस उपन्यास के नायक शशांक की ओर आइए। हर्षचरित में राज्यवर्ध्दन को धोखे से मारनेवाले गौड़ के राजा का इस प्रकार उल्लेख है-

तस्माच्च हेलानिर्जितमालवानीकमपि गौड़ाधिपेन मिथ्योपचारोपचितविश्वासं मुक्तशस्त्रामेकाकिनं विश्रब्धां स्वभवन एव भ्रातरं व्यापादितमश्रौषीत्।

इसमें गौड़ाधिप के नाम का कोई उल्लेख नहीं है। फिर यह शशांक नाम मिला कहाँ? हर्षचरित की एक टीका शंकर नाम के एक पंडित की है जो ईसा की बारहवीं शताब्दी से पहले हुए हैं। उन्होंने अपनी टीका में गौड़ाधिप का नाम शशांक लिखा है। इस नाम का समर्थन हुएन्सांग के विवरण से भी हो गया है। उसने लिखा है कि राज्यवर्ध्दन को शे-शंग-किय ने मारा था। शशांक की राजधानी का नाम कर्णसुवर्ण भी हुएन्सांग के कि-ए-लो-न-सु-फ-ल-न से निकाला गया है। मुर्शिदाबाद जिले के राँगामाटी नामक स्थान में जो भीटे हैं उन्हीं को विद्वानों ने कर्णसुवर्ण का ख़डहर माना है।

यह सब तो ठीक, पर शशांक गुप्तवंश के थे यह कैसे जाना गया? बूलर साहब को हर्षचरित की एक पुरानी पोथी मिली थी जिसमें गौड़ाधिप का नाम 'नरेन्द्रगुप्त' लिखा था। प्राचीन कर्णसुवर्ण (मुर्शिदाबाद जिले में) के ख़डहरों में रविगुप्त, नरेन्द्रादित्य, प्रकटादित्य, विष्णुगुप्त आदि कई गुप्तवंशी राजाओं की जो मुहरें मिली हैं उनमें नरेन्द्रादित्य के सिक्के नरेन्द्रगुप्त या शशांक के ही अनुमान किए गए हैं। इनमें एक ओर तो धवजा पर नन्दी बना रहता है और राजा के बाएँ हाथ के नीचे दो अक्षर बने होते हैं और दूसरी ओर 'नरेन्द्रादित्य' लिखा रहता है। पर इस विषय में धयान देने की बात यह है कि ऐसे सिक्के भी मिले हैं जिनमें 'श्री शशांक:' लिखा हुआ है। इन पर एक ओर तो बैल पर बैठे शिव की मूर्ति है; बैल के नीचे 'जय' और किनारे पर 'श्री शशांक ' लिखा मिलता है। दूसरी ओर लक्ष्मी कीर् मूर्ति है जिसके एक हाथ में कमल है। लक्ष्मी के दोनों ओर दो हाथी अभिषेक करते हुए बने हैं। बाएँ किनारे पर 'श्रीशशांक' लिखा है। रोहतासगढ़ के पुराने किले में मुहर का एक साँचा मिला है जिसमें दो पंक्तियाँ हैं-एक में 'श्रीमहासामंत' और दूसरी में 'शशांकदेवस्य' लिखा है। रोहतासगढ़ में यशोधावलदेव का भी लेख है जो इस उपन्यास में महासेनगुप्त और शशांक के सामन्त महानायक माने गए हैं। शशांक गुप्तवंशी होने का उल्लेख प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विंसेंट स्मिथ ने भी किया है-

The king of Central Bengal, who was probably a scion of the Gupta dynasty, was a worshiper of Shiva.

इस प्रकार ऐतिहासिक अनुमान तो शशांक को गुप्तवंश का मान कर ही रह जाता है। पर इस उपन्यास के विज्ञ और प्रयत्नतत्तवदर्शी लेखक शशांक को महासेनगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र और माधवगुप्त का बड़ा भाई मानकर चले हैं। यदि और कोई उपन्यास लेखक ऐसा मान कर चलता तो उसे हम कोरी कल्पना कहते-जिसे उपन्यास या नाटक लिखनेवाले प्राय: अपने अधिकार के भीतर समझते हैं-पर राखाल बाबू ऐसे पुरातत्तव व्यवसायी के इस मानने को हमें अनुमान कोटि के भीतर ही रखना पड़ता है। भारत के इतिहास में वह काल ही ऐसा है जिसमें अनुमान की बहुत जगह है। देवगुप्त किस प्रकार महासेनगुप्त के पुत्र अनुमित हुए हैं इसका उल्लेख पहले हो चुका है।

सन् 606 ई में राज्यवर्ध्दन मारे गए और हर्षवर्ध्दन थानेश्वर के राजसिंहासन पर बैठे। इस काल में हम शशांक को गौड़ या कर्णसुवर्ण का अधीश्वर पाते हैं। अपने बड़े भाई के वधा का बदला लेने के निमित्ता हर्ष के चढ़ाई करने का उल्लेख भर बाण ने अपने हर्षचरित में किया है। यहीं पर उनकी आख्यायिका समाप्त हो जाती है। इससे निश्चय है कि मगध और गौड़ पर अधिकार तो उन्होंने किया पर शशांक को वे नहीं पा सके। गंजाम के पास सन् 619-20 का एक दानपत्रा मिला है जो शशांक के एक सामन्त सैन्यभीति का है। इससे जान पड़ता है कि माधवगुप्त के मगध में प्रतिष्ठित हो जाने पर वे दक्षिण की ओर चले गए और कलिंग, दक्षिण कोशल आदि पर राज्य करते रहे। सन् 620 में हर्षवर्ध्दन परम प्रतापी चालुक्यराज द्वितीय पुलकेशी के हाथ से गहरी हार खाकर लौटे थे। सन् 620 के कितने पहिले शशांक दक्षिण में गए इसका ठीक ठीक निश्चय नहीं हो सकता। सन् 630 ई में चीनी यात्री हुएन्सांग भारतवर्ष में आया और 14 वर्ष रहा। उस समय शशांक कर्णसुवर्ण में नहीं थे। शशांक कब तक जीवित रहे इसके जानने का भी कोई साधान नहीं है। हर्षवर्ध्दन से अवस्था में शशांक बहुत बड़े थे। हर्षवर्ध्दन की मृत्यु सन् 647 या 648 में हुई। इससे पहले ही शशांक की मृत्यु हो गई होगी क्योंकि हर्षवर्ध्दन ने अनेक देशों को जय करते हुए सन् 643 में गंजाम पर जो चढ़ाई की थी उसके अन्तर्गत शशांक का कोई उल्लेख नहीं है। यदि अपने परम शत्रु शशांक को वे वहाँ पाते तो इसका उल्लेख बड़े गर्व के साथ होता। शशांक मारे नहीं गए और बहुत दिनों तक राज्य करते रहे इसे सब इतिहासज्ञों ने माना है। विंसेंट स्मिथ अपने इतिहास में लिखते हैं-

The details of the campaign against Sasanka have not becen recorded, and it seems clear that he escaped with little loss, He is known to have been still in power as late as the year 619 but his kingdom probably became subject to Harsha at a later date.

इतिहास में शशांक कट्टर शैव, घोर बौद्ध विद्वेषी और विश्वासघाती प्रसिद्ध है। पर यइ इतिहास है क्या? हर्ष के आश्रित बाणभट्ट की आख्यायिका और सीधोसादे पर कट्टर बौद्धयात्री (हुएन्सांग) का यात्रा विवरण। इस बात का धयान और उस समय की स्थिति पर दृष्टि रखते हुए यही कहना पड़ता है कि इस उपन्यास में शशांक जिस रूप में दिखाए गए हैं वह असंगत नहीं है। उपन्यासकार का काम ही यही है कि वह इतिहास के द्वारा छोड़ी हुई बातों का अपनी कल्पना द्वारा आरोप करके सजीव चित्र खड़ा करे। बौद्ध धर्म वैराग्य प्रधान धर्म था। देश भर में बड़े बड़े संघ स्थापित थे। बहुत भारी भारी मठ और विहार थे जिनमें बहुत सी भूसम्पत्ति लगी हुई थी और उपासक गृहस्थों की भक्ति से धन की कमी नहीं रहती थी। इन विशाल मठों और विहारों में सैकड़ों, सह भिक्षु बिना काम धन्धो के भोजन और आनन्द करते थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि इनमें सच्चे विरागी तो बहुत थोड़े ही रहते होंगे, शेष आज कल के संडे मुसंडे साधुओं के मेल के होते होंगे। महास्थविर आदि अपने सुदृढ़ विहारों में उसी प्रकार धन जन से प्रबल और सम्पन्न होकर रहते होंगे जिस प्रकार हनुमानगढ़ी के महन्त लोग। ये हिन्दू राजाओं के विरुद्ध षडयन्त्र में अवश्य योग देते रहे होंगे। हिन्दुओं में उस समय संन्यासियों का ऐसा दल नहीं था, इस प्रकार की संघ व्यवस्था नहीं थी। यही देख शंकराचार्य ने संन्यासियों के संघ का सूत्रापात किया जिसके पल्लवित रूप आजकल के बड़े बड़े अखाड़े और संगते हमारे सामने हैं।

एक बात और भी कही जा सकती है। बौद्ध धर्म का प्रचार भारतवर्ष के बाहर शक, तातार, चीन, भोट, सिंहल आदि देशों में पूरा पूरा था। कनिष्क आदि शक राजाओं से बौद्ध धार्म को बड़ा भारी सहारा मिला था। इससे जब विदेशियों का आक्रमण इस देश पर होता तब ये बौद्ध भिक्षु उसे उस भाव से नहीं देखते थे जिस भाव से भारतीय जनता देखती थी। अपने मत की वृध्दि के सामने अपने देश का उतना धयान उन्हें नहीं रहता था। इसी कारण भारतीय प्रजा का विश्वास उन पर से क्रमश: उठने लगा। बौद्ध धर्म के इस देश से एक बार उच्छिन्न होने का यह राजनीतिक कारण भी प्रतीत होता है। जैन मत के समान बौद्ध मत हिन्दू धार्म का द्वेषी नहीं है, उसमे हिन्दुओं की निन्दा से भरे हुए पुराण आदि नहीं हैं, बल्कि स्थान स्थान पर प्राचीन ऋषियों और ब्राह्मणों की प्रशंसा है। पर जैन मत भारत में रह गया और बौद्ध धर्म अपना संस्कार मात्रा छोड़ सब दिन के लिए विदा हो गया।

मैंने इस उपन्यास के अन्तिम भाग में कुछ परिवर्तन किया है। मूल लेखक ने हर्षवर्ध्दन की चढ़ाई में शशांक की मृत्यु दिखाकर इस उपन्यास को दु:खान्त बनाया है। पर जैसा कि सैन्यभीति के शिलालेख से स्पष्ट है शशांक मारे नहीं गए, वे हर्ष की चढ़ाई के बहुत दिनों पीछे तक राज्य करते रहे। अत: मैंने शशांक को गुप्तवंश के गौरवरक्षक के रूप में दक्षिण में पहुँचा कर उनके नि:स्वार्थ रूप का दिग्दर्शन कराया है। मूल पुस्तक में करुणरस की पुष्टि के लिए यशोधावल की कन्या लतिका का शशांक पर प्रेम दिखाकर शशांक के जीवन के साथ ही उस बालू के मैदान में उसके जीवन का भी अन्त कर दिया गया है। कथा का प्रवाह फेरने के लिए मुझे इस उपन्यास में दो और व्यक्ति लाने पड़े हैं-सैन्यभीति और उसकी बहिन मालती। लतिका का प्रेम सैन्यभीति पर दिखा कर मैंने उसके प्रेम को सफल किया है। शशांक के नि:स्वार्थ जीवन के अनुरूप मैंने मालती का अद्भुत और अलौकिक प्रेम प्रदर्शित किया है। कलिंग और दक्षिण कोशल में बौद्ध तान्त्रिकों के अत्याचार का अनुमान मैंने उस समय की स्थिति के अनुसार किया है। बंग और कलिंग में बौद्ध मत की महायान शाखा ही प्रबल थी। शशांक के मुख से माधवगुप्त के पुत्र आदित्यसेन को जो आशीर्वाद दिलाया गया है वह भी आदित्यसेन के भावी प्रताप का द्योतक है।

काशी, रामचन्द्र शुक्ल

12 फरवरी, 1922