शशांक / खंड 1 / भाग-13 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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राजद्वार

सम्राट महासेनगुप्त तीसरे पहर सभामण्डप में बैठे हैं। सम्राट के सामने नागरिक लोग अपना अपना दु:ख निवेदन कर रहे हैं। विशाल सभामण्डप के चारों ओर अपने अपने आसनों पर प्रधान प्रधान राजपुरुष और अमात्य बैठे हैं। प्रधान-प्रधान नागरिक और भूस्वामी उनके पीछे बैठे हैं। सब के पीछे नगर के साधारण नागरिक दल के दल खडे हैं।

सम्राट का मुख प्रसन्न नहीं है। वे चिन्ता में मग्न जान पड़ते हैं। स्थाण्वीश्वरराज के आगमन के पीछे उनके मुँह पर और भी अधिक चिन्ता छाई रहती थी। सिंहासन के दाहिने, वेदी के नीचे गुप्त साम्राज्य के प्रधान अमात्य ऋषिकेश शर्म्मा कुशासन पर बैठे हैं। उनके पीछे प्रधान विचारपति महाधार्म्माधयक्ष1 नारायणशर्म्मा सुखासन पर विराजमान हैं। उनके पीछे महादण्डनायक2 रविगुप्त, प्रधान सेनापति महाबलाधयक्ष3


1. महाधार्म्माधयक्ष = प्रधान विचारपति (Chief Justice)

2. महादण्डनायक = प्रधान दण्डविधानकत्तर। (Chief Magistrate)

3. महाबलाधयक्ष = प्रधान सेनापति।

हरिगुप्त, नौसेना के अधयक्ष महानायक रामगुप्त इत्यादि प्रधान राजपुरुष बैठे हैं। ये सब लोग अब वृद्धहो गए हैं, राजसेवा में ही इनके बाल पके हैं। ये सम्राट के वंश के ही हैं। सिंहासन के दूसरी ओर नवीन राजपुरुष बैठे हैं। अलिंद में अभिजात सम्प्रदाय के लिए जो सुखासन हैं वे खाली हैं। उत्सव आदि के दिनों में ही उस वर्ग के लोग राजसभा में दिखाई पड़ते हैं।

सभामण्डप के चारों द्वारों पर सेनानायक पहरों पर थे। उत्तर द्वार के प्रतीहार ने विस्मित होकर देखा कि युवराज शशांक के कन्धो का सहारा लिए एक वृद्धयोध्दा नदी तट से सभामण्डप की ओर आ रहा है। उसका दहिना हाथ पकड़े आठ नौ बरस की एक लड़की और पीछे पीछे एक युवा योध्दा आ रहा है। प्रतीहार के विस्मय का कारण था। बात यह थी कि नगर के साधारण लोग नदी के मार्ग से प्रासाद के भीतर नहीं आ सकते थे। उच्चपदस्थ कर्मचारियों और राजवंश के लोगों को छोड़ और कोई गंगाद्वार में नहीं प्रवेश करने पाता था। गंगाद्वार से होकर आने का जिन्हें अधिकार प्राप्त था, वे कभी अकेले और पैदल नहीं आते थे। वे बड़े समारोह के साथ हाथी, घोड़े या पालकी पर बैठकर और इधर उधार शरीररक्षक सेना के साथ आते थे। पर उनमें से भी कभी कोई वात्सल्यभाव से भी युवराज के ऊपर हाथ नहीं रख सकता था।

वृद्धसैनिक जो बातें कहते आ रहे थे युवराज उन्हें बडे धयान से सुनते आ रहे थे। प्रतीहार और उनके नायक बड़े आश्चर्य्य से उनकी ओर देख रहे हैं, इसका उन्हें कुछ भी धयान नहीं था। वृद्धकह रहे थे “कामरूप से लौटने पर इस पथ से होकर मैं प्रासाद में गया था। अब मेरा वह दिन नहीं है। सुस्थितवर्म्मा1 को सीकड़ में बाँधकर मैं लाया था। उन्हें देखकर उल्लास से उछलकर नागरिक जयध्वनि करते थे। तुम्हारे पिता युद्धमें घायल हुए थे। वे पालकी पर आते थे। युवराज! यह तुम्हारे जन्म से पहले की बात है। उस समय साम्राज्य की ऐसी दशा नहीं हुई थी। उस समय मैं सचमुच महानायक था, एक मुट्ठी अन्न के लिए रोहिताश्व के गाँवगाँव नहीं घूमता था”। कहते कहते वृद्धका गला भर आया, शशांक के नीले नेत्रो में भी ऑंसू भर आए।

अब वे लोग सभामंडप के तोरण पर आ पहुँचे। प्रतीहार रक्षकों के नायक ने युवराज का अभिवादन किया और फिर बड़ी नम्रता से वृद्धका परिचय पूछा। वृद्धने कहा “मेरा नाम यशोधावल है। मैं युवराज भट्टारकपादीय महानायक हूँ।” सुनते ही प्रतीहार रक्षकों का नायक भय और विस्मय से दो कदम पीछे हट गया। मार्ग में विषधार सर्प को देख पथिक जैसे घबड़ाकर पीछे भागता है वही दशा उस


1. सुस्थिवर्म्मा-कामरूप के राजा। महासेनगुप्त ने उन्हें ब्रह्मपुत्र के किनारे पराजित किया था। वे भास्करवर्म्मा के पिता थे।

समय उसकी हुई। उसकी यह दशा देख वृद्धमहानायक हँस पड़े। इतने में प्रतीहार रक्षी सेनादल में से एक वृद्धसैनिक बढ़कर आगे आया, आनेवाले को अच्छी तरह देखा, फिर म्यान से तलवार खींच उसे सिर से लगाकर बोला “महानायक की जय हो! मैंने मालवा और कामरूप में महानायक की अधीनता में युद्धकिया है।” उसकी जयध्वनि सुनकर उत्तर तोरण पर की सारी सेना ऊँचे स्वर से जयध्वनि कर उठी। वृद्धने आगे बढ़कर सैनिक को हृदय से लगा लिया। फिर गहरी जयध्वनि हुई। युवराज और वृद्धने तोरण से होकर सभामण्डप में प्रवेश किया। प्रतीहाररक्षी सेना का नायक भौंचक खड़ा रहा। सभामण्डप में तोरण के सामने दो दण्डधार खडे थे। उन्होंने युवराज को देख प्रणाम किया और उनके साथी का परिचय पूछा। फिर उनमें से एक ने सभामण्डप के बीच में खड़े होकर पुकार कर कहा “परमेश्वर परम वैष्णव युवराजभट्टारक1 महाकुमार शशांक नरेन्द्रगुप्तदेव उत्तर तोरण पर खड़े हैं और उनके साथ रोहिताश्व के महानायक युवराजभट्टारकपादीय यशोधावलदेव सम्राट से मिलने की प्रार्थना कर रहे हैं”।

सम्राट महासेनगुप्त आधे लेटे हुए एक नागरिक का आवेदन सुन रहे थे। सिंहासन की वेदी के नीचे एक करणिक2 सम्राट का आदेश लिख रहा था। यशोधावलदेव का नाम कान में पड़ते ही सम्राट चौंककर उठ बैठे। यह देख डर के मारे करणिक के हाथ से लेखनी और ताड़पत्र छूट पड़ा, मसिपात्र भी उलट गया। महाधर्माधयक्ष नारायणशर्म्मा ने उसकी ओर त्योरी चढ़ाई। बेचारा करणिक सन्न हो गया। सम्राट ने ऊँचे स्वर से पूछा “क्या कहा?”

“परमेश्वर परण वैष्णव-”

“यह तो सुना, उनके साथ कौन आता है?”

“रोहिताश्वगढ़ के महानायक युवराजभट्टारकपादीय यशोधावलदेव।”

“यशोधवलदेव!”

दण्डधार ने सिर हिला कर 'हाँ' किया। महामन्त्री ने ऋषिकेशशर्म्मा से पूछा “महाधार्माधयक्ष जी, कौन आया है? महाराज इतने आतुर क्यों हुए?” नारायणशर्म्मा गरदन ऊँची किए बातचीत सुन रहे थे। उन्होंने महामन्त्री की बात न सुनी। सम्राट उस समय कह रहे थे “यह कभी हो ही नहीं सकता। रोहिताश्व के यशोधावलदेव अब कहाँ हैं! रामगुप्त जाकर देखो तो जान पड़ता है कि किसी धूर्त ने रोहिताश्वगढ़ पर अधिकार कर लिया।” रामगुप्त आसन से उठ उत्तर तोरण की ओर चले। दण्डधार उनके पीछे पीछे चला। वे थोड़ी दूर भी नहीं गए थे कि युवराज के कन्धो पर हाथ


1. 'परमेश्वर परम वैष्णव' आदि उपाधिा राजा और ज्येष्ठ राजपुत्र की होती थी। युवराजभट्टारक और महाकुमार ज्येष्ठ राजपुत्र के नाम के पहले लगता था। राजा या सम्राट के नाम के साथ 'परमभट्टारक महाराजाधिराज ' आता था।

2. करणिक = लेखक, मुंशी।

रखे वृद्धमहानायक धीरे धीरे आते दिखाई पड़े। रामगुप्त उन्हें देख खड़े हो गए। क्षण भर में वे पास आ गए और साम्राज्य के नौबलाधयक्ष1 महानायक रामगुप्त दीन हीन वृद्धके चरणों पर लोट गए। सभा में एकत्र नागरिकों ने कुछ न समझकर जयध्वनि की। दण्डधार उन्हें रोक न सके। सम्राट व्यस्त होकर उठ खड़े हुए, यह देख सभा के सब लोग खड़े हो गए। नए सभासदों और राजपुरुषों ने चकित होकर देखा कि एक लम्बे डीलडौल का वृद्धयुवराज शशांक के कन्धो का सहारा लिए चला आ रहा है और नौबलाधयक्ष महानायक रामगुप्त अनुचर के समान उसके पीछे आ रहे हैं।

इधर ऋषिकेशशर्म्मा बात ठीक ठीक समझ में न आने से बहुत चिड़चिड़ा रहे थे। इतने में वृद्धको उन्होंने सामने देखा और वे लड़खड़ाते हुए वेदी के सामने आ खड़े हुए और कहने लगे “कौन कहता था कि यशोधावलदेव मर गए?” वृद्धउन्हें प्रणाम कर ही रहे थे कि उन्होंने झपटकर उन्हें गले से लगा लिया। नागरिकों ने फिर जयध्वनि की। सब ने चकित होकर देखा कि वृद्धसम्राट महासेनगुप्त डगमगाते हुए पैर रख रखकर वेदी के नीचे उतर रहे हैं। पिता को देख युवराज ने दूर ही से प्रणाम किया, किन्तु सम्राट ने न देखा। छत्र और चँवरवाले सम्राट के पीछे पीछे उतर रहे थे, पर महाबलाधयक्ष हरिगुप्त ने उन्हें संकेत से रोक दिया। सम्राट को देखकर ऋषिकेश और रामगुप्त एक किनारे हट गए। वृद्धयशोधावलदेव अभिवादन के लिए कोष से तलवार खींच ही रहे थे कि सम्राट ने दोनों हाथ फैलाकर उन्हें हृदय से लगा लिया। यह देख राजकर्मचारी, सभासद और नागरिक सबके सब उन्मत्ता के समान बार बार जयध्वनि करने लगे। काँपते हुए स्वर में सम्राट ने कहा “सचमुच तुम यशोधावल ही हो?” वृद्धचुपचाप ऑंसू बहा रहे थे। ऋषिकेशशर्म्मा और रामगुप्त की ऑंखों से भी ऑंसुओं की धारा बह रही थी। हरिगुप्त चुपचाप जाकर सम्राट के पीछे खड़े थे। युवराज शशांक भी कुछ दूर पर खड़े एकटक यह नया सम्मिलन देख रहे थे।

सम्राट महासेनगुप्त यशोधावल को लिए वेदी की ओर बढ़े। युवराज ऋषिकेशशर्म्मा, रामगुप्त, हरिगुप्त और नारायणशर्म्मा प्रभृति प्रधान राजपुरुष उनके पीछे पीछे चले। सम्राट ने जब वेदी की सीढ़ी पर पैर रखा तब वृद्धयशोधावल नीचे ही खड़े रह गए और बोले “महाराजाधिराज अब आसन ग्रहण करें और मैं अपना कर्तव्य करूँ।” सम्राट ने बहुत चाहा पर वे वेदी के ऊपर नहीं गए। सम्राट के सिंहासन पर सुशोभित हो जाने पर वृद्धने हाथ थामकर युवराज को वेदी पर चढ़ाया। युवराज भी अपने सिंहासन पर बैठ गए। तब वृद्धने वेदी के सामने खड़े होकर कोश से तलवार

खींची और अपने मस्तक से लगाकर सम्राट के चरणों के नीचे रख दी। जयध्वनि से फिर सभामण्डप गूँज उठा। सम्राट ने तलवार उठाकर अपने मस्तक से लगाई और

1. नौबलाधयक्ष = नावों पर की सेना का नायक।

वृद्धके हाथ में फिर दे दी। वृद्धतलवार लेकर युवराज की ओर देख बोले 'महाकुमार! मैं सबसे पिछली बार जब सम्राट की सेवा में उपस्थित हुआ था तब भी यह सिंहासन खाली था। यशोधावल ने बहुत दिनों से साम्राज्य के महाकुमार का अभिवादन नहीं किया है। बाल्यकाल में जब आपके पिताजी महाकुमार थे तब एक बार इस सिंहासन के सामने अभिवादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आज वृध्दावस्था में फिर प्राप्त हुआ है”। इतना कहकर वृद्धने तलवार मस्तक से लगाकर युवराज शशांक के पैरों तले रख दी। युवराज ने तलवार उठा ली और वेदी के नीचे उतरकर वृद्धको प्रणाम किया। चारों ओर सबके मुँह से 'जय जय' की ध्वनि निकल पड़ी। चिन्ता से विह्नल सम्राट का मुखमण्डल भी खिल उठा और वे भी 'धन्य धन्य' बोल उठे। वृद्धयशोधावल ने युवराज को गोद में लेकर बार बार उनका मस्तक चूमा और उन्हें ले जाकर उनके सिंहासन पर बिठाया।

सिंहासन के सामने खड़े होकर वृद्धयशोधावलदेव बोले “महाराजाधिराज! आज बहुत दिनों पर मैं सम्राट की सेवा में क्यों आया हूँ, यही निवेदन करता हूँ। मेघनाद (मेघना नदी) के उस पार साम्राज्य की सेवा में कीर्तिधावल ने अपने प्राण निछावर किए। अब उसकी कन्या का पालन मैं नहीं कर सकता। उसके भरणपोषण की सामर्थ्य अब मुझ में नहीं है। जिस हाथ में साम्राज्य का गरुड़धवज लेकर विजय यात्राओं का नायक होकर निकलता था, जिस हाथ में सदा खड्ग लिए साम्राज्य की सेवा में सन्नद्धरहता था, अब उसी हाथ को रोहिताश्ववालों के आगे एक मुट्ठी अन्न के लिए फैलाते मुझसे नहीं बनता। अब इस अवस्था में नई बात का अभ्यास कठिन है। कीर्तिधावल ने सम्राट की सेवा में ही अपना जीवन उत्सर्ग किया है। सम्राट यदि उसकी कन्या के अन्न वस्त्र का ठिकाना कर दें तो यह बूढ़ा यशोधावल निश्चिन्त हो जाय। साम्राज्य में अभी अस्त्र शस्त्र की पूछ है, वृद्धकी भुजाओं में अभी बल है, खड्गधारण करने की क्षमता है, उससे वह अपना पेट भर लेगा, उसे अन्न का अभाव न होगा। वृद्धमृगमांस से भी अपना शरीर रख सकता है। पर महाराज! इस कोमल बालिका से पशुमांस नहीं खाया जाता। इसके लिए गेहूँ भीख माँगा, अन्नाभाव से दुर्गस्वामिनी का कंगन बेचा। कई पुराने सेवक मेरी यह दशा सुन भीख माँग माँगकर कुछ धान इकट्ठा कर लाए। उसी धान से मैंने कंगन छुड़ाया और किसी प्रकार पाटलिपुत्र आया। महाराजाधिराज! लतिका प्रासाद में दासी होकर पड़ी रहेगी, उसे मुट्ठी भर अन्न मिल जाया करेगा, उससे हिरन का मांस नहीं खाया जाता। यशोधावल से अब इस बुढ़ापे में भीख नहीं माँगी जाती। मालव गया, बंग गया, पुत्रहीन यशोधावल के पास अब ऐसा कोई नहीं है जो पहाड़ी गाँवों में जाकर षष्ठांश ले आए या दुर्ध्दर्ष पहाड़ी जातियों को रोके। महाराज! धावलवंश लुप्त हो गया, यशोधावल सचमुच मर गया, रोहिताश्वगढ़ इस समय खाली पड़ा है। मैं अब यशोधावल नहीं हूँ, यशोधावल का प्रेत हूँ; एक मुट्ठी अन्न के लिए तरस रहा हूँ। मैं अब दुर्गस्वामी होने योग्य नहीं रहा”। दूर पर वीरेन्द्रसिंह यशोधावलदेव की पौत्री को लिए खड़ा था। यशोधावल ने उसे पास आने का संकेत किया। उसके आने पर वृद्धने कहा “लतिका! महाराजाधिराज को प्रणाम करो।” बालिका ने प्रणाम किया। वीरेन्द्रसिंह ने भी सैनिक प्रथा के अनुसार अभिवादन किया। वृद्धयशोधावल फिर कहने लगे-

“महाराजाधिराज! यह लड़की कीर्तिधावल की कन्या है। इसका पिता बंगयुद्धमें मारा गया, माता भी छोड़कर चल बसी। अब मैं इसे पेट भर अन्न तक नहीं दे सकता। सम्राट अब इसका भार अपने ऊपर लें। सनातन से मृत सैनिकों के पुत्र कलत्रा का पालन राजकोष से होता आया है। इसी आसरे पर इस मातृपितृविहीन बालिका के लिए मुट्ठीभर अन्न की भिक्षा माँगने आया हूँ।”

अश्रुधारा से सम्राट का शीर्ण गंडस्थल भीग रहा था। यशोधावल की बात पूरी होने के पहले ही वे सिंहासन छोड़ उठ खड़े हुए और बोले “यशोधावल-बाल्यसखा”- उनका गला भर आया, आगे और कोई शब्द न निकला। वे काठ की तरह सिंहासन पर बैठ गए। सभामंडप में सन्नाटा छा गया था। सबके सब चुपचाप खड़े थे। नारायणशर्म्मा ने वेदी के सामने जाकर कहा “महाराज! अब आज और कोई काम असम्भव है। आज्ञा हो तो विचारप्रार्थी नागरिक अपने अपने घर जायँ”। सम्राट ने सिर हिलाकर अपनी सम्मति प्रकट की। यशोधावलदेव कुछ और कहना चाहते थे कि ऋषिकेशशर्म्मा आकर उन्हें वेदी के एक किनारे ले गए। धीरे धीरे सभामण्डप खाली हो गया। राजकर्म्मचारी अब तक ठहरे थे। प्रथा यह थी कि सभा विसर्जित होने पर मन्त्राणासभा बैठती थी जिसमें केवल प्रधान राजकर्म्मचारी रहते थे। ऋषिकेशशर्म्मा ने पुकारकर कहा “आज महाराजाधिराज अस्वस्थ हैं इससे मन्त्राणासभा नहीं हो सकती।” सम्राट ने यह सुनकर कहा “आज तो मन्त्राणासभा बहुत ही आवश्यक है। सन्ध्या हो जाने के पीछे समुद्रगृह1 में मन्त्राणासभा का अधिवेशन होगा। बहुत ही आवश्यक कार्य है जो कर्म्मचारी यहाँ उपस्थित नहीं हैं उनके पास भी दूत भेजे जायँ”।

रामगुप्त यशोधावलदेव को अपने घर ले जाने की चेष्टा कर रहे थे। यशोधावलदेव उनका आतिथ्य स्वीकार करके सम्राट के पास विदा माँगने गए। सम्राट ने कहा “यशोधावल! मेरी भी कुछ इच्छा है। तुम मेरे साथ आओ, आज तुम साम्राज्य के अतिथि हो”।

सम्राट, यशोधावलदेव और शशांक सभास्थल से उठे।

1. समुद्रगृह = प्रासाद के एक भाग का नाम।