शशांक / खंड 1 / भाग-14 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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चित्रा का अधिकार

प्रासाद से लगा हुआ गंगा के तीर पर एक छोटा सा उद्यान है। सेवायत्न के बिना प्रासाद का प्रांगण और उद्यान जंगल सा हो रहा है। पर यह छोटा उद्यान अच्छी दशा में है, इनमें झाड़ झंखाड़ नहीं हैं, सुन्दर सुन्दर फूलों के पौधो ही लगे हैं। फुलवारी के चारों ओर जो घेरा है उस पर अनेक प्रकार की लताएँ घनी होकर फैली हैं जिनमें से कुछ तो रंग बिरंग के फूलों से गुछी हैं, कुछ स्निग्धश्यामल दलों के भार से झुकी पड़ती हैं। इस चौखूँटी पुष्पवाटिका के बीचोबीच श्वेतमर्मर का एक चबूतरा है जिसके चारों ओर रंग बिरंग के फूलों से लदे हुए पौधो की कई पंक्तियाँ हैं। सूर्योदय के पूर्व का मन्द समीर गंगा के जलकणों से शीतल होकर पेड़ों की पत्तियाँ धीरे धीरे हिला रहा है। इधर उधर पेड़ों के नीचे फूल झड़ रहे हैं। अन्धकार अभी पूर्ण रूप से नहीं हटा है, उषा के आलोक के भय से प्रासाद के कोनों में और घने पेड़ों की छाया के नीचे छिपा बैठा है। जब तक र्मात्तांड के करोड़ों ज्वलन्त किरण बाणों की वर्षा न होगी तब तक वह वहाँ से न हटेगा।

पुष्पवाटिका का द्वार खुला जिससे उसके ऊपर छाई हुई माधावीलता एकबारगी हिल गई। एक बालिका फुलवारी में आई। उसके भौंरे के समान काले केश मन्द समीर के झोंकों से लहरा रहे थे। उसने देखा कि फुलवारी में कोई नहीं है। इतने में एक और बालिका हँसती हँसती वहाँ आ पहुँची और चिल्लाकर कहने लगी “युवराज! चोर पकड़ लिया”। पहली बालिका भागने का यत्न करने लगी, किन्तु दूसरी बालिका ने उसे पकड़ रखा। हँसते हँसते शशांक और माधवगुप्त वहाँ आ पहुँचे। शशांक ने पहले आई हुई बालिका से पूछा “चित्रा! तू भागी क्यों?” चित्रा ने कुछ उत्तर न दिया। दूसरी बालिका ने कहा “चित्रा रूठ गई है।”

शशांक-क्यों?

बालिका-तुमने मुझे फूल तोड़ कर देने को कहा इसीलिए।

शशांक हँस पड़े। चित्रा का मुँह लज्जा और क्रोधा से लाल हो गया। दूसरी बालिका उसका क्रोध देख सकुचा गई और माधव को पुकारकर कहने लगी “चलो कुमार, हम लोग फूल तोड़ने चलें।” दोनों फुलवारी में जाकर अदृश्य हो गए। शशांक बोले “चित्रा! तुम रूठ क्यों गई?”

चित्रा कुछ न बोली, मुँह फेरकर खड़ी हो गई। युवराज ने जाकर उसका हाथ थामा, उसने झटक दिया। शशांक ने फिर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा “क्या हुआ, बोलती क्यों नहीं?” चित्रा मुँह दूसरी ओर करके रोने लगी। धीरे धीरे किसी प्रकार शशांक ने उसे मनाया। उसने अन्त में कह दिया कि लतिका को फूल तोड़कर देने को कहते थे, इसी से मुझे बुरा लगा। शशांक ने कहा “लतिका चार दिन के लिए हमारे घर आई है। माँ ने उसके साथ खेलने के लिए मुझसे कहा है। यदि मैं न खेलूँगा तो वे चिढ़ेंगी।” चित्रा की आकृति कुछ गम्भीर हो गई। वह बोली “तुम उसे फूल तोड़कर क्यों दोगे?” इस 'क्यों' का क्या उत्तर था? शशांक ने उसे बहुत तरह से समझाया, पर बात उसके गले के नीचे न उतरी।

कुमार ने कोई उपाय न देख कहा “अच्छा, तो मैं फूल तोड़कर तुम्हीं को दूँगा। लतिका को न दूँगा।” चित्रा के जी में जी आया।

फुलवारी में जितने फूल खिले थे, बालक बालिका उन्हें तोड़ तोड़कर चबूतरे पर रखने लगे। शशांक फूल तोड़ तोड़कर चित्रा की झोली में डालते जाते थे और माधव लतिका को देते जाते थे। इतने में फुलवारी के द्वार पर से न जाने कौन बोल उठा “अरे! कुमार यह हैं। इधर आओ, इधर”। कुमार ने पूछा “कौन है?” उस व्यक्ति ने कहा “प्रभो! मैं हूँ अनन्त। नरसिंह आपको ढूँढ़ रहे हैं।” दो बालक वाटिका का द्वार खोल भीतर आए। इनमें से एक को तो पाठक जानते ही हैं। वह चरणाद्रि के गढ़पति यज्ञवर्म्मा का पुत्र है। दूसरा बालक चित्रा का बड़ा भाई नरसिंहदत्त है। नरसिंह ने पूछा “कुमार! यहाँ क्या हो रहा है?” शशांक ने हँसकर उत्तर दिया “तुम्हारी बहिन की नौकरी बजा रहा हूँ। रोहिताश्वगढ़ से लतिका आई है। उसे फूल तोड़कर देने जाता था, इस पर यह बहुत रूठ गई। लतिका का संगी माधव है”। कुमार की बात सुनकर अनन्त और नरसिंह जोर से हँस पड़े। चित्रा ने लजाकर सिर नीचा कर लिया। नरसिंह ने कहा “चित्रा, कुमार बड़े होंगे, दस विवाह करेंगे, तब तू क्या करेगी?” बालिका मुँह फेरकर बोली “मैं नहीं करने दूँगी।” सबके सब फिर हँस पड़े।

नरसिंह ने फिर कहा “फुलवारी में तो अब एक फूल न रहा; जान पड़ता है, डाल पत्तो भी न रह जायँगे। दिन इतना चढ़ आया, नदी पर कब चलेंगे। तीन-चार घड़ी से कम में तो नहाना होगा नहीं। महादेवी के यहाँ से दो दो तीन तीन आदमी आ आकर जब लौट जायँगे, तब जाकर कहीं खाने पीने की सुध होगी।” उसकी बात पर सब हँस पड़े। कुमार बोले “नरसिंह, हम लोगों की मंडली में तुम सबसे चतुर निकल पड़े।” उनकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि एक दासी उद्यान में आई और कुमार को प्रणाम करके बोली “महादेवीजी आप लोगों को स्नान करने के लिए कह रही हैं।” उसकी बात सुनकर नरसिंह हँसा और कहने लगा “देखिए! मैं झूठ कहता था?” सब लोग फुलवारी से निकलकर प्रासाद के भीतर गए। ऑंगन के किनारे एक लम्बे डील के वृद्धटहल रहे थे। लतिका ने उन्हें देखते ही झट उनका हाथ जा पकड़ा। उसके पीछे शशांक और माधव ने भी पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। और लोग कुछ दूर खड़े रहे। लम्बे डील के वृद्धरोहिताश्व के गढ़पति यशोधावलदेव थे। यशोधावल ने शशांक के भूरे भूरे बालों पर हाथ फेरते हुए पूछा “युवराज! ये लोग कौन हैं?” शशांक ने हाथ हिलाकर नरसिंह, अनन्त और चित्रा को बुलाया। उन लोगों ने भी पास आकर वृद्धको प्रणाम किया। शशांक ने उनका परिचय दिया। वृद्धअनन्त और चित्रा को गोद में लेकर न जाने क्या-क्या सोचने लगे।

वृद्धसोच रहे थे कि साम्राज्य का अभिजातवर्ग, बड़े बड़े उच्च वंशों के लोग आश्रय के अभाव से राजधानी में आकर पड़े हैं। साम्राज्य में इस समय सब भिखारी हो रहे हैं, भीख देनेवाला कोई नहीं है। वृद्धसम्राट ही सब के आश्रय हो रहे हैं। पर वे भी अब बुङ्ढे हुए। उनके दोनों पुत्र अभी छोटे हैं, राज्य की रक्षा करने में असमर्थ हैं। चारों ओर प्रबल शत्रु घात लगाए वृद्धसम्राट की मृत्यु का आसरा देख रहे हैं। क्या उपाय हो सकता है? दासी दूर खड़ी गढ़पति को चिन्तामग्न देख बोली “प्रभो! दिन बहुत चढ़ आया है; महादेवीजी कुमारों को स्नान करने के लिए कह रही हैं।” वृद्धने झट अनन्त और चित्रा को गोद से नीचे उतार दिया। सब लड़के प्रणाम करके प्रासाद के भीतर चले गए। वृद्धफिर चिन्ता में डूबे।

वे सोचने लगे “मैं भी अपनी पौत्री का कुछ ठीक ठिकाना लगाने के लिए सम्राट के पास आया हूँ। पर यहाँ आकर देखता हूँ कि सबकी दशा एक सी हो रही है। राज कार्य की सारी व्यवस्था बिगड़ गई है। सम्राट बुङ्ढे हो गए, अधिक परिश्रम कर नहीं सकते। बाहरी शत्रुओं का खटका उन्हें बराबर लगा रहता है, थोड़ी थोड़ी बातों से वे घबरा उठते हैं। दोनों कुमार भी अभी राजकाज चलाने के योग्य नहीं हुए हैं। ऋषिकेशशर्मा और नारायणशर्मा ही सारा भार अपने ऊपर उठाए हुए हैं, पर वे भी अब बहुत वृद्धहो गए हैं। अब उनके परिश्रम करने के दिन नहीं रहे। क्या किया जाय”?

चिन्ता करते करते वृद्धका चेहरा एकबारगी दमक उठा। उन्होने मन ही मन स्थिर किया “मैं स्वयं राज्य के मंगल के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करूँगा। कीर्तिधावल ने साम्राज्य के लिए रणक्षेत्र में अपने प्राण दे दिए, मैं भी अपना शेष जीवन कर्मक्षेत्र में ही बिताऊँगा। जापिल1 के महानायक सदा से साम्राज्य की सेवा में तन मन देते आए हैं। उनका अन्तिम वंशधार होकर मैं भी उन्हीं का अनुसरण करूँगा।”

वृद्धइस प्रकार दृढ़ संकल्प करके कर्मक्षेत्र में आने के लिए आतुर हो उठे। उन्होंने पुकारा “कोई है”? अलिंद के एक कोने से एक प्रतीहार प्रणाम करके सामने आ खड़ा हुआ। यशोधावलदेव ने उससे पूछा “सम्राट इस समय कहाँ हैं? मैं अभी उनसे मिलना चाहता हूँ”। प्रतीहार ने कहा “महाराजाधिराज गंगाद्वार की ओर गए हैं”? यशोधावलदेव ने कहा “अच्छा, उन्हें संवाद दे दो”। प्रतीहार अभिवादन करके चला गया।


1. रोहिताश्वगढ़ के पास का एक ग्राम। इसे आजकल जपला कहते हैं। यशोधावलदेव के पूर्वज इसी ग्राम के थे।