शशांक / खंड 1 / भाग-18 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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देशानन्द का अभिसार

तरला अपने सेठ के घर से निकलकर राजपथ पर आई और तीन दूकानों पर से उसने पुरुषों के व्यवहार योग्य वस्त्र, उत्तरीय, उष्णीश और एक जोड़ा जूता मोल लिया। इन सबको अपने वस्त्र के नीचे छिपा कर वह अपने घर की ओर गई। नगर के बाहर तरला की मासी की एक झोपड़ी थी, यही तरला का घर था। वह प्राय: रात को सेठ ही के घर रहती थी। बीच बीच में कभी कभी अपने प्रभु से आज्ञा लेकर दो तीन दिन आकर मासी के घर भी रह जाती थी। मासी झगड़ालू थी, इससे वह अधिक दिन उसके यहाँ नहीं ठहरती थी। तरला की मासी में अनेक गुण थे। वह अन्धी, बहरी और झगड़ालू थी। घर में आकर उसने सब सामान एक कोठरी में छिपाकर रख दिया और खा पीकर सो रही। तीसरे पहर उठकर वह बड़ी सावधानी से अपने कार्य साधन के लिए चली। जाते समय वह अपनी मासी से कहती गई कि “मैं सेठ से दो दिन की छुट्टी लेकर आई हूँ। बहुत रात बीते घर लौटूँगी। साथ में अपनी एक सखी को भी लाऊँगी”।

घर से निकलकर वह नगर के दक्षिण की ओर चली। दिन ढल चला था, सन्धया पहुचना ही चाहती थी। चलते हुए राजपथ को छोड़ तरला नगर के छोर पर पहुँची। उस दिन जिस रास्ते से होकर वह पुराने मठ से लौटी थी, वही रास्ता पकड़े धीरे धीरे चली। कुछ दूर जाने पर उसने देखा कि मार्ग से थोड़ा हटकर एक बावली के किनारे ताड़ के पेड़ों की आड़ में खड़ा कोई मनुष्य चलने वालों की ओर एकटक देख रहा है। उसे देखते ही तरला तालबन में घुसी और दबे पाँव धीरे धीरे उसके पीछे पहुँच उसने अपने दोनों हाथों से उसकी ऑंखें ढाँप लीं। वह व्यक्ति तरला का हाथ टटोलकर हँस पड़ा और बोला “तरला! मैं पहचान गया। ऐसा कोमल हाथ पाटलिपुत्र में और हो किसका सकता है?” तरला ने हँसकर हाथ हटा लिए और बोली “बाबाजी! बावली के किनारे खड़े खड़े तुम क्या करते थे?”

देशानन्द-तृषित चकोर के समान तुम्हारे मुखचन्द्र का आसरा देखता था। अच्छा, अब चलो।

तरला-कहाँ चलोगे?

देशा -कुंज में।

तरला-बाबाजी! तुम तो संन्यासी हो। तुम्हारा कुंज कहाँ है?

देशा -क्यों? संघाराम में।

तरला-यह कैसी बात? संघाराम क्या कोई निर्जन स्थान है? अभी उस दिन मैंने कुछ नहीं तो पचीस मुण्डी तो देखे होंगे। वे सब तुम्हें पकड़कर तुम्हारे सिर का सनीचर उतारने लगेंगे।

देशा -संघाराम में निर्जन स्थान भी है। तुम चलो तो।

तरला-अच्छा, तुम आगे चलो।

देशानन्द आगे बढ़ा, तरला कुछ दूर पर उसके पीछे पीछे चली। उस समय सन्धया हो गई थी। नगर के बाहर के राजपथ पर कोई आता जाता नहीं दिखाई देता था। देशानन्द नित्य के अभ्यास के कारण अधेरे में ही चलते चलते उस पुराने मन्दिर के सामने पहुँच गया। वस्त्र के एक कोने से कुंजी निकाल कर उसने ताला खोला और मन्दिर का किवाड़ खोल कर तरला से कहा “भीतर आओ”। तरला बड़े संकट में पड़ी? उसने देखा कि सचमुच निर्जन स्थान है। वह सोचने लगी कि अब क्या करूँ। किस प्रकार अपना कार्य सिद्ध करूँ। अथवा कम से कम इसके हाथ से छुटकारा पाऊँ। देशानन्द उसे विलम्ब करते देख अधीर हो उठा और बोला “भीतर निकल आओ, भीतर। बाहर खड़ी खड़ी क्या करती हो? कहीं कोई देख लेगा तो “। तरला कोई उपाय न देख सीढ़ी पर चढ़ी और चौखट पर जाकर बैठ गई। देशानन्द ने यह देख घबराकर कहा “द्वार पर क्या बैठ गई? झट से भीतर निकल आओ, मैं किवाड़ बन्द करूँगा”। तरला ने धीरे धीरे कहा “मुझे डर लगता है, दीया जलाओ”।

देशा -दीया जलाने से सब लोग देखेंगे।

तरला-यहाँ है कौन जो देखेगा?

देशानन्द अधेरे में दीया टटोलने लगा। तरला द्वार का कोना पकड़े बाहर खड़ी रही। इतने में कुछ दूर पर मनुष्य का कण्ठस्वर सुनाई पड़ा। तरला ने उसे सुनते ही धीरे से कहा “बाबाजी, जल्दी आओ। देखो किसी के बोलने का शब्द सुनाई पड़ रहा है”।

देशानन्द झट द्वार पर आया और सिर निकालकर झाँकने लगा। अधेरे में दो मनुष्य मन्दिर की ओर आते दिखाई पड़े। देशानन्द ने और कुछ न कहकर तरला का हाथ पकड़ कर उसे भीतर खींच लिया और उसे प्रतिमा के पीछे ले जाकर वहीं आप भी छिप रहा।

दोनों मनुष्य मन्दिर के द्वार पर आ पहुँचे। उनमें से एक बोला “चक्रसेन! मन्दिर का द्वार तो खुला दिखाई पड़ता है”। दूसरे व्यक्ति ने सीढ़ी पर चढ़कर देखा और कहा “हाँ, द्वार तो सचमुच खुला पड़ा है। बन्ुईगुप्त! देशानन्द दिन पर दिन विक्षिप्त होता जाता है। अब तुरन्त किसी दूसरे को मन्दिर की रक्षा पर नियुक्त करो”।

दोनों ने मन्दिर के भीतर घुसकर किवाड़ बन्द कर लिए। बन्धुगुप्त ने दीयट पर से दीया उठाकर जलाया। दोनों आसन लेकर बैठ गए। प्रतिमा के पीछे अन्धकार रहने पर भी देशानन्द बेंत की तरह काँप रहा था। शक्रसेन ने पूछा “संघस्थविर! तुम्हारा मुँह इतना सूखा हुआ क्यों है?”

बन्धुगुप्त-केवल यशोधावल के डर से।

शक्रसेन-यशोधावल से तुम इतना डरते क्यों हो?

बन्धु-क्या तुम सारी बातें भूल गए? यशोधावल मर गया, यह समझकर मैं इतने दिन निश्चिन्त था।

शक्र -पहले तो तुम मरने से इतना नहीं डरते थे।

बन्धु-मरने से तो मैं अब भी नहीं डरता हूँ और किसी के हाथ से मरना हो तो कोई चिन्ता नहीं, पर यशोधावल का नाम सुनते ही मैं थर्रा उठता हूँ। जिस समय उसे सब बातों का ठीक ठीक पता लगेगा, वह असह्य यन्त्रणा दे देकर मेरी हत्या करेगा-बड़ी साँसत से मेरे प्राण निकलेंगे। एक एक बोटी काट काटकर वक मेरा तड़पना देखेगा। सोचते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

शक्र -तुमने कीर्तिधावल को किस प्रकार मारा था?

बन्धु-यह क्या तुम जानते नहीं, जो पूछते हो?

शक्र -तुमने तो मुझसे कभी कहा नहीं।

बन्धु-ठीक है, मैंने किसी से भी नहीं कहा है। अच्छा सुनो, कहता हूँ।

बहुत देर तक चुप रहकर बन्धुगुप्त बोला “न, वज्राचार्य्य! इस समय न कहूँगा। मुझे बहुत डर लग रहा है”। उसकी बात सुनकर शक्रसेन हँस पड़ा और बोला “बन्धु! मैं देखता हूँ कि तुम्हारी बुध्दि लुप्त होती जा रही है। मन्दिर का द्वार बन्द है मन्दिर के भीतर की बात बाहर सुनाई नहीं पड़ सकती, सामने दीपक जल रहा है। तुम अपनी ऑंख से देख रहे हो कि मन्दिर में हमें, तुम्हें और इस देवप्रतिमा को छोड़ और कहीं कोई नहीं है। इतने पर भी तुम्हें इतना भय घेरे हुए है!”

बन्धु -”ठीक है, मैं व्यर्थ डर रहा हूँ। कीर्तिधावल जिस समय बंगदेश में कर संग्रह करने गए थे, उस समय वहाँ के संघ पर बड़ी विपत्ति थी। धावल वंशवाले सबके सब बड़े ही नीतिकुशल और युद्ध विद्याविशारद होते आए हैं। बार बार पराजित होकर जब विद्रोही प्रजा ने सन्धि की प्रार्थना की तब उसने बिना किसी प्रकार का दण्ड दिए उसे छोड़ दिया जिससे सब लोग उसके वश में हो गए। मैं उस समय बंगदेश में ही था। लाख चेष्टा करने पर भी मैं सद्धर्मियों (बौध्दों) को कीर्तिधावल के विरुद्ध न भड़का सका। उस समय मैंने विचार किया कि यशोधावल के पुत्र के वध के अतिरिक्त संघ की कार्यसिध्दि का और कोई उपाय नहीं है। बंगदेश का कोई मनुष्य उस पर हाथ छोड़ने को तैयार न हुआ। वह भी सदा रक्षकों से घिरा रहता था, उससे मुझे भी दाँव न मिलता था। बहुत दिनों पीछे मुझे पता लगा कि वह नित्य सन्धया को तारादेवी के मन्दिर में दर्शन करने जाता है। तब से मैं बराबर सन्धया को उसके पीछे पीछे जाता, पर उस पर आक्रमण न कर सकता। एक दिन देवयात्रा के समय सद्धर्मियों और ब्राह्मणों के बीच झगड़ा हुआ। उसी हुल्लड़ में मैंने दूर से छिप कर उस पर बाण चलाया। वह गिर पड़ा। उस भीड़भाड़ में किसी ने मुझको या उसको न देखा। वह तारा मन्दिर के सामने अचेत पड़ा था। अधेरे में जब उसके अनुचर उसे चारों ओर ढूँढ़ रहे थे, तब मैंने उसके पास जाकर देखा कि वह जीता है, और चोट ऐसी नहीं है कि वह मर जाय। मैंने झट देवी के हाथ का खंग लेकर उसके हाथ और पैर की नस काट दी। असह्य पीड़ा से वह छटपटाने लगा, घोर यन्त्रणा और रक्त से व्याकुल होकर वह क्षीण कण्ठ से बार बार जल माँगने लगा। उसका रुधिर देख देखकर मैं आनन्द से उन्मत्ता हो रहा था। उसकी बात पर मैंने कुछ भी धयान न दिया। इस प्रकार एक महाशत्रु का मैंने वध किया”।

इस भीषण हत्या की बात सुनकर तरला प्रतिमा के पीछे बैठी बैठी काँप उठी। बहुत देर तक चुप रह कर शक्रसेन ने कहा 'बन्धुगुप्त! तुम मनुष्य नहीं राक्षस हो। किसने बौद्धसंघ में लेकर तुम्हें धर्म की दीक्षा दी?”

बन्धु -वज्राचार्य्य! अब उस बात को मुँह पर न लाओ। बहुत दिनों तक मैं बराबर यही स्वप्न देखता कि तारा मन्दिर के सामने पड़ा वह बालक मृत्युयन्त्रणा से तड़प और चिल्ला रहा है और मैं रक्त देख देख कर नाच रहा हूँ। पर जब से सुना है कि यशोधावल फिर आया है, तब से इधर नित्य रात को देखता हूँ कि मैं इसी मन्दिर पर पड़ा मृत्यु की घोर यन्त्रणा से छटपटा रहा हूँ और रक्त से डूबी तलवार हाथ में लिए यशोधावल आनन्द से नाच रहा है।

आधो दण्ड तक तो दोनों चुपचाप रहे। फिर बन्धुगुप्त बोला 'वज्राचार्य्य! चलो संघाराम लौट चलें, मन्दिर का यह सन्नाटा देख मेरा जी दहल रहा है।” दीया बुझा कर दोनों मन्दिर के बाहर निकले।

प्रतिमा की ओट में देशानन्द अब तक थरथर काँप रहा था। बन्धुगुप्त और शक्रसेन के चले जाने पर तरला बोली। “बाबाजी! अब बाहर निकलो।” हाथ पर सिर पटक कर देशानन्द बोला “तरला, अब प्राण बचता नहीं दिखाई देता, तुम्हारे प्रेम में मेरे प्राण गए”।

तरला-तो क्या यहीं बैठे बैठे प्राण दोगे?

देशानन्द हताश होकर बोला “चलो, चलता हूँ।” दोनों मन्दिर के बाहर आ खड़े हुए। तरला ने देखा कि बुङ्ढा बेतरह डरा हुआ है। उसे ढाँढ़स बँधााने के लिए उसने कहा “तुम इतना डरते क्यों हो? ये सब तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकते। तुम यहाँ से भाग चलो, तुम्हें मैं ऐसे स्थान में ले जाकर छिपाऊँगी जहाँ ये जन्म भर ढूँढ़ते मर जायँ तो भी न पा सकें।” देशानन्द का जी कुछ ठिकाने आया। वह अधीर होकर कहने लगा “तब फिर यहाँ ठहरने का अब काम नहीं, चलो भागें”। तरला ने कहा “घबराओ न, मेरा थोड़ा सा काम है, उसे करती चलूँ।

देशा -तुम्हारा अब कौन सा काम है?

तरला-जिनानन्द से एक बार मिलकर कुछ कहना है।

देशा -जिनानन्द तो इस समय संघाराम में बन्द होगा। वहाँ तुम्हारा जाना ठीक न होगा। यहीं रहो, मैं अभी उसे बुलाए लाता हूँ”।

देशानन्द गया, तरला ने मन ही मन सोचा, चलो अच्छा हुआ। वह मन्दिर की ओट में अधेरा देख छिप रही। थोड़ी ही देर में जिनानन्द को लिए देशानन्द आ पहुँचा और तरला से बोला “जो कुछ काम हो जल्दी निबटा लो। जिनानन्द देर तक बाहर रहेगा। तो भिक्खुओं को सन्देह होगा”।

तरला-बाबाजी! तुम थोड़ा मन्दिर के भीतर ही रहो। कुछ गुप्त बात है।

देशानन्द मन्दिर के भीतर गया। तरला ने किवाड़ बन्द कर दिए और जिनानन्द से कहा “भैयाजी! मुझे पहचाना? मैं वही तरला हूँ। तुम्हें छुड़ा ले चलने के लिए आई हूँ। अब और कोई बात न पूछो। चुपचाप जो मैं कहती हूँ, करते चलो।”

जिनानन्द वा वसुमित्र मुँह ताकता रह गया। तरला ने मन्दिर के द्वार पर जाकर धीरे से पुकारा “बाबाजी!” उत्तर मिला “क्या है।”

“अपने वस्त्र बाहर निकाल दो, मैं उन्हें पहनूँगी। यदि तुम भिक्खु के वेश में रात को बाहर निकलोगे तो लोग तुम्हें पहचान जायँगे”।

देशानन्द ने एक एक करके सब वस्त्र मन्दिर के बाहर फेंक दिए। तरला ने वसुमित्र से वेश बदल डालने के लिए कहा। वसुमित्र ने देशानन्द के वस्त्र पहन लिए और अपने वस्त्र उतारकर तरला के हाथ में दे दिए। तरला ने अधेरे में भिक्खु का वेश धारण किया और अपने वस्त्र मन्दिर के भीतर फेंक दिए और देशानन्द से उन्हें पहनने को कहा। देशानन्द ने मन्दिर के भीतर ही भीतर तरला के सब वस्त्र पहन लिए। मन्दिर के भीतर जाकर तरला ने अपने सब गहने भी उसे पहना दिए और कहा “तुम यहीं चुपचाप बैठे रहो, मैं अभी आती हूँ।” देशानन्द अधेरे में बैठा रहा। तरला ने बाहर आकर मन्दिर के किवाड़ लगा दिए और कुण्डी भी चढ़ा दी। यह सब कर चुकने पर वसुमित्र को लेकर वह चल खड़ी हुई और देखते देखते अधेरे में बहुत दूर निकल गई।