शशांक / खंड 1 / भाग-19 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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साम्राज्य का मन्त्रागृह

नए प्रासाद के अलिंद में खड़े महाप्रतीहार विनयसेन किसी चिन्ता में हैं। दोपहर का समय है, प्रासाद के ऑंगन में सन्नाटा है। दो एक द्वारपाल इधर उधर छाया में खड़े हैं। अलिंद के भीतर खम्भों के बीच दो चार दण्डधार भी दिखाई पड़ते हैं। एक पालकी ऑंगन में आई और अलिंद के सामने खड़ी हुई। कहारों ने पालकी रखी, उसमें से वृद्ध ऋषिकेशशर्म्मा उतरे। जान पड़ता है, विनयसेन उन्हीं का आसरा देख रहे थे, क्योंकि उन्हें देखते ही वे अलिंद से नीचे आए और प्रणाम करके बोले “प्रभो! आपको बहुत विलम्ब हुआ। सम्राट और यशोधावलदेव आपके आसरे बहुत देर से बैठे हैं।” वृद्ध ने क्या उत्तर दिया, विनयसेन नहीं समझे। वे उन्हें लिए सीधो प्रासाद के अन्त:पुर में घुसे। विनयसेन ज्यों ही अलिंद से हटे, एक दण्डधार आकर उनके स्थान पर खड़ा हो गया। चलते चलते ऋषिकेशशर्म्मा ने पूछा “और सब लोग आ गए हैं?”

विनय -महाधार्म्माधयक्ष और महाबलाधयक्ष के अतिरिक्त और किसी को संवाद नहीं दिया गया है।

ऋषि -क्यों?

विनय -महाराज की इच्छा।

अन्त:पुर के द्वार पर जाकर विनयसेन ने एक परिचारिका को बुलाया और महामन्त्री को सम्राट के पास पहुँचाने की आज्ञा देकर वे लौट आए। अलिंद के सामने एक और पालकी आई थी जिस पर से उतर कर नारायणशर्म्मा दण्डधार से कुछ पूछ रहे थे। विनयसेन ने ज्योंही जाकर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने पूछा “क्यों भाई विनय! आज यह असमय की सभा कैसी? कुछ कारण ऐसे आ पड़े कि मुझे आने में बहुत विलम्ब हो गया”।

विनय -सम्राट और यशोधावलदेव दो घड़ी से बैठे आसरा देख रहे हैं और अब तक सब लोग नहीं आए। क्षण भर हुआ कि महामन्त्रीजी आए हैं और अब आप आ रहे हैं। महाराजाधिराज की आज्ञा से सब लोगों को संवाद नहीं दिया गया।

नारायण -और कौन कौन आवेंगे?

विनय -महाबलाधयक्ष हरिगुप्त।

नारायण -रामगुप्त भी नहीं?

विनय -मैं तो समझता हूँ नहीं, पर ठीक कह नहीं सकता।

नारायण-अच्छा, चलो।

दोनों प्रासाद के भीतर घुसे। इतने में एक भिखारी आकर द्वारपाल से पूछने लगा 'क्यों भाई! प्रासाद में आज भिक्षा मिलेगी?' द्वारपाल ने कहा “नहीं।”

भिखारी-तो फिर कहाँ मिलेगी?

द्वार -आज न मिलेगी।

भिखारी इस उत्तर से कुछ भी उदास न होकर ऑंगन से होता हुआ धीरे धीरे चला गया। अलिंद के एक खम्भे की आड़ से एक दण्डधार उसे देख रहा था। उसने चट बाहर आकर पूछा “वह कौन था और क्या कहता था?”

द्वार -एक भिखमंगा था, भिक्षा के लिए आया था।

दण्ड.-कुछ पूछता था?

द्वार -नहीं।

दण्ड.-देखने में वह भिक्खु ही सा लगता था।

द्वार -अच्छी तरह देखा नहीं।

दण्ड.-कोई आकर कुछ पूछे तो बहुत समझ बूझकर उत्तर देना।

द्वारपाल ने अभिवादन किया। इसी बीच में एक अश्वारोही ऑंगन में आ पहुँचा। उसे देखते ही एक दण्डधार जाकर विनयसेन को बुला लाया। द्वारपालों और दण्डधारों ने प्रणाम किया। विनयसेन अभिवादन करके घोड़े पर से उतरे हुए व्यक्ति को अन्त:पुर के भीतर ले गए।

इतने में एक द्वारपाल उसी भिखारी का हाथ पकड़े हुए अलिंद के नीचे आ खड़ा हुआ और अलिंद के एक द्वारपाल से पूछने लगा “महाप्रतीहार जी कहाँ हैं?” द्वारपाल बोला “महाबलाधयक्ष के साथ अन्त:पुर में गए हैं”।

पहला द्वार -अच्छा किसी दण्डधार को बुला दो।

दूसरा द्वार -क्यों, क्या हुआ?

पहला द्वार -यह मनुष्य आड़ में छिप कर राज कर्मचारियों की गतिविधि देख रहा था, इसी से इसे पकड़ कर लाया हूँ।

एक दूसरा द्वारपाल जाकर पूर्वोक्त दण्डधार को बुला लाया। उसने आते ही पूछा “यही न भिक्षा माँगने के लिए आया था?”

दूसरा द्वार -हाँ

दंड -इसे क्यों पकड़ लाए हो?

दूसरा द्वार -यह छिप कर महाधार्माधयक्ष और महाबलाधयक्ष की गतिविधि देख रहा था, इसी से इसे पकड़ रखा है।

दंड.-बहुत अच्छा किया। इसे बाँध रखो; मैं अभी जाकर महाप्रतीहार को संवाद देता हूँ।

दूसरे द्वारपाल ने भिखारी की पगड़ी खोलकर उसके हाथ पैर कसकर बाँधो। पगड़ी खुलते ही भिखारी की मुँड़ी खोपड़ी देख दण्डधार बोल उठा “अरे! यह तो बौद्ध भिक्खु है! निश्चय यह कोई गुप्तचर है।” यही कहता हुआ वह अन्त:पुर की ओर दौड़ा और थोड़ी देर में विनयसेन को लिए लौट आया। विनयसेन ने आते ही भिक्षुक से पूछा “तू यहाँ क्या करने आया था?”

भिक्षुक-भिक्षा माँगने।

विनय -अन्त:पुर में भिक्षा कहाँ मिलती है?

भिक्षुक-बाबा! मैं परदेसी हूँ, नया नया आया हूँ। यहाँ की रीतिनीति नहीं जानता।

विनयसेन-तेरा सिर क्यों मुँड़ा है?

भिक्षुक-मुझे सँबलबाई का रोग है।

एक दंडधार ने आकर विनयसेन से कहा 'महाराज आपको स्मरण कर रहे हैं।' विनयसेन ने भिक्षुक को प्रासाद के कारागार में रखने की आज्ञा दी और द्वारपाल से कहा 'देखो! अब मेरी आज्ञा बिना कोई प्रासाद के ऑंगन तक भी न आने पावे।' इतना कह कर वे दण्डधार के साथ अन्त:पुर में गए।

अन्त:पुर के एक छोटे से घर में एक पलंग के ऊपर सम्राट महासेनगुप्त बैठे हैं। कुछ दूर पर एक आसन लेकर ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा बैठे हैं।

कोठरी के द्वार पर हरिगुप्त खड़े हैं। द्वार से कुछ दूर पर कई दण्डधार खड़े हैं। विनयसेन ने आकर हरिगुप्त से पूछा “महाराजाधिराज ने मुझे स्मरण किया है?” हरिगुप्त ने कहा “हाँ, भीतर जाओ।” विनयसेन ने कक्ष में जाकर अभिवादन किया। सम्राट ने उन्हें देख कर भी कुछ नहीं कहा। तब यशोधावल ने सम्राट को सम्बोधान करके कहा “महाराजाधिराज! विनयसेन आ गए हैं। अब कुमार क्यों न बुलाए जायँ?” वृद्ध सम्राट ने झुका हुआ सिर उठा कर कहा “यशोधावलदेव! गणना का फल कभी झूठ नहीं हो सकता। तुम शशांक को अभी से साम्राज्य के कार्य में न फँसाओ।”

यशो -महाराजाधिराज! युवराज को राजकाज में दक्ष करने को छोड़ साम्राज्य की रक्षा का और कोई उपाय नहीं है। वृद्ध महामन्त्ीज ऋषिकेशशर्म्मा, पुराने धार्माधयक्ष नारायणशर्म्मा, युद्ध क्षेत्रा में दीर्घजीवन बितानेवाले महाबलाधयक्ष और मैं महाराजाधिराज के चरणों में यह बात कई बार निवेदन कर चुका। इस समय साम्राज्य की जो दुर्दशा हो रही है, वह महाराज से छिपी नहीं है। होराशास्त्रा की बातों को लेकर राज्य चलाना असम्भव है। यदि कुमार के हाथों से साम्राज्य का नाश ही विधाता को इष्ट होगा तो उसे कौन रोक सकता है? विधि का लिखा तो मिट नहीं सकता। किन्तु यही सोचकर हाथ पर हाथ रखे बैठे रहना, अपनी रक्षा का कुछ उपाय न करना कहाँ तक ठीक है? कहीं कुमार का राष्ट्रनीति न जानना ही आपके पीछे साम्राज्य के धवंस का प्रधान कारण न हो जाय।

सम्राट चुपचाप बैठे रहे। उन्हें निरुत्तार देख ऋषिकेशशर्म्मा धीरे धीरे बोले “महाराजाधिराज! महानायक का प्रस्ताव बहुत उचित जान पड़ता है। हम सब लोग अब बुङ्ढे हुए। हम लोगों का समय अब हो गया। अब ऐसा कुछ करना चाहिए जिसमें महाराज के पीछे युवराज को राजनीति के घोर चक्र में पड़कर असहाय अवस्था में इधर उधार भटकना न पड़े। यदि विधााता की यही इच्छा होगी कि युवराज के हाथ से यह प्राचीन साम्राज्य नष्ट हो तो कोई कहाँ तक बचा सकेगा? किन्तु विधााता की यही इच्छा है, पहले से ऐसा मान बैठना बुध्दिमानी का काम नहीं है”। सम्राट फिर भी कुछ न बोले। यह देख नारायणशर्म्मा ने कहा “महाराजाधिराज !” उनका कण्ठस्वर कान में पड़ते ही सम्राट का धयान टूटा और वे बोले “अच्छा, यशोधावल! तो फिर यही सही। विधााता का लिखा कौन मिटा सकता है?”

यशो -महाराजाधिराज ! विनयसेन आज्ञा के आसरे खड़े हैं।

सम्राट-महाप्रतीहार! तुम युवराज शशांक को चुपचाप यहाँ बुला लाओ।

विनयसेन प्रणाम करके बाहर निकले। सम्राट ने यशोधावलदेव से कहा “यशोधावल! अच्छा अब बताओ, क्या क्या करना चाहते हो”।

यशो -मेरे चार प्रस्ताव हैं जिन्हें मैं महाराज की सेवा में पहले ही निवेदन कर चुका हूँ। इस समय साम्राज्य के संचालक यहाँ एकत्रा हैं, उनके सम्मुख भी उपस्थित कर देना चाहता हूँ।

सम्राट-तुम्हारे प्रस्तावों को मैं ही सुनाए देता हूँ। महानायक ने मेरे सामने चार प्रस्ताव रखे हैं। प्रथम-प्रान्त1 और कोष्ठ2 की रक्षा; द्वितीय-अश्वारोही, पदातिक और नौसेना का पुनर्विधाान; तृतीय-राजस्व और राजषष्ठ के संग्रह का उपाय; चतुर्थ-बंगदेश पर फिर अधिकार। ये चारों प्रस्ताव, मैं समझता हूँ, सबको मनोनीत होंगे। अब विचारने की बात है उपयुक्त कर्म्मचारियों का निर्वाचन और अर्थसंग्रह। राजकोष तो, आप लोग जानते ही हैं, शून्य हो रहा है। आवश्यक व्यय भी बड़ी कठिनता से निकलता है। रहे कर्म्मचारी, सो पुराने और नए दोनों अयोग्य हैं। उनमें न अनुभव है न कार्यतत्परता।

यशो -इन चारों प्रस्तावों के अनुसार जब तक व्यवस्था न होगी तब तक साम्राज्य की रक्षा असम्भव समझिए। प्रान्त और कोष्ठ की रक्षा के लिए सुशिक्षित सेना और बहुत सा धान चाहिए। सेना और अर्थसंग्रह के लिए राजस्व और राजषष्ठ संग्रह की सुव्यवस्था आवश्यक है।

सम्राट-यशोधावल! तुम्हारी एक बात इस समय मेरे लिए एक एक विकट समस्या है। मैं देखता हूँ कि मेरे किए इनमें से एक बात भी नहीं हो सकती।

यशो -महाराजाधिराज के निकट मैंने जिस प्रकार ये समस्याएँ उपस्थित कीं, उसी प्रकार इनकी पूर्ति का उपाय भी पहले से सोच रखा है। कुमार आ जायँ तो मैं निवेदन करूँ। तीन कार्य तो इस समय हो सकते हैं, पर उनके लिए बहुत धान की आवश्यकता है।

ऋषिकेश-यशोधावल! इसी अर्थाभाव के कारण ही तो हाथ पैर नहीं चल सकता। तुम इतना धान कहाँ से लाओगे?

हरिगुप्त द्वार पर खड़े थे। वे बोल उठे “कुमार आ रहे हैं।” विनयसेन युवराज शशांक को साथ लिए कोठरी में आए। युवराज अपने पिता के चरणों में प्रणाम करके और समादृत पुरुषों को प्रणाम करके खड़े रहे। सम्राट ने उन्हें बैठने की आज्ञा दी। यशोधावल ने बढ़कर उन्हें अपनी गोद में बैठा लिया।

सम्राट बोले “यशोधावल! क्या कहते थे, अब कहो।” महानायक कहने लगे “युवराज! साम्राज्य की बड़ी दुर्दशा हो रही है। प्राचीनगुप्त साम्राज्य का दिन दिन पतन होता चला जा रहा है। उसकी रक्षा का यत्न सबका सब प्रकार सेर् कत्ताव्यहै। अब तक साम्राज्य की रक्षा का धयान छोड़कर सब लोग चुपचाप बैठे थे, आज चेतरहे हैं। इस प्राचीन साम्राज्य के साथ करोड़ों प्रजा का धान, मान और प्राण गुथा हुआ


1. प्रान्त = सीमा। सरहद।

2. कोष्ठ = प्राचीर से घिरे हुए नगर, दुर्ग आदि।

है। इसका धवंस होते ही पूर्व देश में महाप्रलय सी आ पड़ेगी। इधर सैकड़ों वर्ष से पाटलिपुत्र की ऐसी दशा कभी नहीं हुई थी। शकों के समय की दुर्दशा की बात जनपदवासी भूल गए हैं। हूणों के प्रबल प्रवाह में पड़ कर पुरुषपुर और कान्यकुब्ज धवस्त हो गए, किन्तु पाटलिपुत्र के दुर्ग प्राकार की छाया तक वे स्पर्श न कर सके। साम्राज्य का धवंस होते ही देश का सर्वनाश हो जायगा। तुम्हारे पिता वृद्ध हैं, तुम दोनों कुमार अभी बालक हो। पूर्व में सुप्रतिष्ठित वर्म्मा और पश्चिम में प्रभाकरवर्ध्दन घात लगाए केवल सम्राट की मृत्यु का आसरा देख रहे हैं। कोई उपाय न देख तुम्हारे पिता चुपचाप बैठ गए थे। पर क्या इस प्रकार हाथ पर हाथ रख कर बैठ रहना पुरुषोचित कार्य है? जो आत्मरक्षा में तत्पर न रह भाग्य के भरोसे पर बैठे रहते हैं मैं समझता हूँ, उनके समान मूर्ख संसार में कोई नहीं। यत्न के बिना साम्राज्य की क्या दशा हो रही है, थोड़ा सोचो तो। सीमा पर के जितने दुर्ग हैं, संस्कार और देखरेख के बिना निकम्मे हो रहे हैं। सेना और अर्थ के अभाव से वे शत्रु का अवरोधा करने योग्य नहीं रह गए हैं। नियमित रूप से राजस्व राजकोष में नहीं आ रहा है। भाूमि के जो साम्राज्य प्रतिष्ठित अधिाकारी थे वे अधिकारच्युत हो रहे हैं, उनके स्थान पर जो नए अधिाकारी बन बैठे हैं वे राजकर्म्मचारियों की आज्ञा पर धयान नहीं देते। फल यह है कि राजकोष शून्य हो रहा है। बहुत दिनों से इधर पाटलिपुत्र के दुर्गप्राकार और नगरप्राकार का संस्कार नहीं हुआ है। खाइयों में जल नहीं रहता है, कुछ दिनों में वे पटकर खेत हुआ चाहती हैं। इस समय यदि कहीं से कोई चढ़ आवे तो हम लोगों की पराजय निश्चय है।

“मैं सम्राट के पास पितृहीना लतिका के लिए अन्न की भिक्षा माँगने आया था। किन्तु मैंने आकर देखा कि जो अन्नदाता हैं, उन्हीं के यहाँ अन्न का अभाव हो रहा है। बहुत दिन पहले जब तुम्हारे पिताजी राजसिंहासन पर बैठे थे, तब एक बार मैंने साम्राज्य का कार्य चलाया था। आज फिर साम्राज्य की दुर्दशा देखकर कार्य का भार अपने ऊपर लेता हूँ। किन्तु हम सब लोग अब वृद्ध हुए, अधिक दिन इस संसार में न रहेंगे। अपने पिता के पीछे तुम्हीं इस सिंहासन पर बैठोगे। तुम्हारे ही ऊपर राज्यभार पड़ेगा; इसलिए तुम्हें अभी से राज्यकार्य की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। तुम्हारी सहायता से हम लोगों का परिश्रम भी बहुत कुछ हलका रहेगा। आज से तुम्हें राज्यकार्य का व्रत लेना पड़ेगा।”

महानायक की गोद में बैठे बैठे युवराज बोले 'यदि पिताजी आज्ञा देंगे तो क्यों न करूँगा?” इतना कहकर वे पिता का मुँह ताकने लगे। सम्राट ने कुछ उदास होकर कहा “शशांक! सबकी यही इच्छा है कि आज से तुम साम्राज्य के कार्य की दीक्षा लो। अत: बालक होकर भी तुम्हें यह भार अपने ऊपर लेना पड़ेगा। यशोधावल ही तुम्हें दीक्षित करेंगे, तुम सदा इन्हीं की आज्ञा में रहना।”

यशोधावल का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने फिर कहना आरम्भ किया-”साम्राज्य की रक्षा के लिए मैंने चार प्रस्ताव किए थे, प्रथम-राजस्व संग्रह की व्यवस्था; द्वितीय प्रान्त और कोष्ठ संरक्षण; तृतीय-अश्वारोही, पदातिक और नौसेना का पुनर्विधान और चतुर्थ-बंगदेश का अधिकार। जब पहले तीन कार्य सुसम्पन्न हो लेंगे तब चौथे में हाथ लग सकता है, उसके पहले नहीं। पर इन तीनों काय्र्यों के लिए बहुत धान चाहिए और राजकोष इस समय शून्य हो रहा है। अभी कार्य के आरम्भ कर देने भर के लिए जितने धान की आवश्यकता होगी, उतने के संग्रह का एक उपाय मैंने सोचा है। नगर और राज्य के भीतर जो बहुत से लखपती श्रेष्ठी (सेठ) और स्वार्थवाह (महाजन) हैं उनसे ऋण लेकर कार्य आरम्भ कर देना चाहिए, यही मेरी समझ मे ठीक होगा”।

ऋषिकेश-हम लोगों की इस समय जैसी अवस्था हो रही है, उसे देखते कोई कैसे ऋण देगा?

यशो -अवश्य देंगे। राज्य में श्रेष्ठियों का काम अर्थसंचय मात्रा है। पुरुष परम्परा से उन्हें इसका अभ्यास रहता है, इसी से राज्य की ओर से उन्हें इसके लिए पूरापूरा सुबीता कर दिया जाता है। अत: वे अपने धान का कुछ अंश राज्य की सेवा में देकर अपना परम गौरव समझेंगे। साम्राज्य की छत्राछाया के नीचे ही उनका पालन होता है, साम्राज्य की रक्षा के पीछे उनकी रक्षा है, साम्राज्य के नाश के आरम्भ के साथ ही साथ उनका सर्वनाश है, यह वे जानते हैं, और उन्हें इसकी सूचना भी दे दी जायगी। इस प्रकार कार्य आरम्भ कर देने भर के लिए धान उनसे सहज में निकल सकता है।

सम्राट-अच्छी बात है। तुमने आज से राज्य के कार्य का भार अपने ऊपर लिया है, इसकी सूचना साम्राज्य के सब कर्म्मचारियों को तो देनी होगी न?

यशो -नहीं महाराजाधिराज! इससे सारा काम बिगड़ जायगा। मैं चुपचाप महामन्त्रीजी की ओट में सब काय्र्यों की व्यवस्था करूँगा।

सम्राट-एवमस्तु।