शशांक / खंड 1 / भाग-20 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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तरला और यशोधावल

तरला उसी रात वसुमित्र को लिए अपनी मासी के घर लौटी। द्वार पर खड़ी खड़ी वह घण्टों चिल्लाई, तब जाकर कहीं बुङ्ढी की ऑंख खुली। वह न जाने क्या क्या बड़बड़ाती हुई उठी और आकर किवाड़ खोला। तरला वसुमित्र को लिए घर के भीतर गई। वे दोनों किस वेश में थे, बुङ्ढी अधेरे में कुछ भी न देख सकी। वसुमित्र को एक कोठरी में सोने के लिए कह कर तरला अपनी मासी की खाट पर जाकर पड़ रही। बुढ़िया बहुत चिड़चिड़ाई। बुढ़ापे मे एक तो नींद यों ही नहीं आती, उस पर से यदि बाधा पड़ी तो फिर जल्दी नींद कहाँ? बुढ़िया बकने लगी “तू न जाने कैसी है; इतनी रात को एक आदमी को साथ लाई और उसे एक कोठरी में ढकेल कर आप मेरे सिर पर आ पड़ी। अपने घर किसी को लाकर उसके साथ ऐसा ही करना होता है?” तरला ने धीरे से कहा “उस घर में मच्छड़ बहुत हैं, ऑंख नहीं लगती।” बुङ्ढी यह सुनते ही झल्ला उठी और चिल्ला चिल्लाकर कहने लगी “अब तू ऐसी बड़ी ठकुरानी हो गई कि मच्छड़ लगने से तुझे नींद नहीं आती? तब तू किसी के घर का कामधन्धा कैसे करती होगी? तेरे बाप दादा तेरे लिए राज न छोड़ गए हैं; जो तू पैर पर पैर रखे रानी बनी बैठी रहेगी।” बुढ़िया मनमाना बर्राती रही, तरला चुपचाप खाट के किनारे पड़ी रही। पर बुढ़िया की बातों की चोट और चिन्ता से उसे रात भर नींद नहीं आई।

सूर्योदय के पहिले ही चिड़ियों की चहचह सुनकर तरला उठ बैठी और अपनी मासी को सोते देख धीरे से चारपाई के नीचे उतरी। रात भर पड़े उसने सोचा था कि वसुमित्र की रक्षा तभी हो सकती है जब सम्राट तक किसी प्रकार उसकी पहुँच हो जाय। यों तो दिन मे जब कभी भिक्खु उसे देख पावेंगे, तुरन्त पकड़ ले जायँगे। और किसी को कुछ बोलने का साहस न होगा। उसने मन ही मन स्थिर कर रखा था कि सबेरा होते ही उसे लेकर मैं प्रासाद में जाऊँगी और अन्त:पुर के द्वार पर बैठी रहूँगी। वहाँ से उसे कोई पकड़ कर नहीं ले जा सकेगा। तरला ने अपना भेस बदला और जो कपड़े वह उस दिन मोल लाई थी उन्हें वसुमित्र को देकर पहनने के लिए कहा। भिक्खुओं का जो पहिनावा था उसे घर के एक कोने में छिपा कर रख दिया। यह देख कि मासी अभी पड़ी सो रही है, वह दबे पाँव घर के बाहर निकली।

राजपथ पर अभी तक लोग आते जाते नहीं दिखाई देते थे। पूर्व की ओर प्रकाश की कुछ कुछ आभा दिखाई पड़ रही थी, पर मार्ग में अंधेरा ही था। दोनों जल्दी जल्दी चल कर प्रासाद के तोरण पर पहुँचे। तोरण पर अभी तक प्रकाश जल रहा था। चारों ओर प्रतीहार पड़े सो रहे थे। उनमें से केवल एक भाला टेककर खड़ा नींद में झूम रहा था। तरला चुपचाप उसकी बगल से होकर निकल गई और उसे कुछ आहट न मिली। तोरण के इधर उधार कई कुत्तो पड़े सो रहे थे। वे आदमी की आहट पाकर भाँव भाँव करने लगे। प्रतीहार जाग पड़े। उन्होंने सामने वसुमित्र को देख उसका हाथ पकड़ कर पूछा “कहाँ जाता है?” इतने में तरला प्रतीहार का पैर पकड़कर रो रो कर कहने लगी 'हम लोगों पर बड़ी भारी विपत्ति है, हम लोगों को जाने दो। मैं अपने भाई की प्राण रक्षा के लिए महाराजाधिराज के पास जा रही हूँ। दिन को जहाँ भिक्खु इसे देख पावेंगे पकड़ ले जायँगे और मार डालेंगे। हम लोग और कुछ न करेंगे, अन्त:पुर के द्वार पर जाकर बैठे रहेंगे। जब सम्राट बाहर निकलेंगे तब उनसे इसके प्राण की भिक्षा माँगूँगी”। बातचीत सुनकर और प्रतीहार भी जाग पड़े। उनमें से एक तरला के पास आकर बोला “तुम लोगों को क्या हुआ है?”

तरला-यह मेरा भाई है। भिक्खु इसे जबरदस्ती पकड़ ले गए और सिर मूँड़ कर भिक्खु बना दिया। कल रात को यह किसी प्रकार उनके चंगुल से निकल कर भाग आया है। इसी से आज इसे लेकर महाराजाधिराज की शरण में आई हूँ। दिन को यदि इसे भिक्खु कहीं देख पावेंगे तो पकड़ ले जायँगे और मार डालेंगे। अब महाराज यदि शरण देंगे तभी इसकी रक्षा हो सकती है। नगर में किसी की सामर्थ्य नहीं है जो भिक्खुओं के विरुद्ध चूँ कर सके।

जो पुरुष खड़ा पूछ रहा था वह एक दण्डधार था। प्रतीहारों ने उससे पूछा 'तो इसे जाने दें?' दण्डधार ने तरला से पूछा “तुम दोनों कहाँ जाओगे?”

तरला-बाबा! हम लोग कहीं न जायँगे, कुछ न करेंगे, केवल अन्त:पुर के द्वार पर खड़े रहेंगे। जब महाराज निकलेंगे तब उनसे अपना दु:ख निवेदन करेंगे।

यह कहकर तरला ऑंसू गिराने लगी। रमणी के, विशेषत: किसी सुन्दर रमणी के, कपोलों पर ऑंसू की बूँदें देख पत्थर भी पिघल सकता है, सामान्य प्रतीहारों और दण्डधारों के हृदय में यदि करुणा का उद्रेक हो तो आश्चर्य क्या? तरला ने उन्हें चुप देख रोने की मात्रा कुछ बढ़ा दी। दण्डधार का हृदय अन्त में पसीजा। वह बोला “ये दोनों कोई बुरे आदमी नहीं जान पड़ते, इन्हें जाने दो”। प्रतीहार रास्ता छोड़कर अलग खड़ा हो गया। तरला वसुमित्र को लेकर प्रासाद के भीतर घुसी।

पहले तोरण के आगे विस्तृत ऑंगन पड़ता था जिसके उत्तर दूसरा तोरण था। जब वे दूसरे तोरण के सामने पहुँचे तब उजाला हो चुका था। दूसरे तोरण पर के प्रतीहारों ने उनकी बात सुनते ही रास्ता छोड़ दिया। यहाँ पर भी तरला को दो चार बूँद ऑंसू टपकाने पड़े थे। द्वितीय तोरण के आगे ही सभामण्डप पड़ता था। क्रमश: धर्माधिकरण, अस्त्रशाला आदि को पार करके तरला और श्रेष्ठिपुत्र तीसरे तोरण पर पहुँचे। वहाँ के प्रतीहारों ने उन्हें किसी प्रकार आगे न बढ़ने दिया, कहा कि सम्राट की आज्ञा नहीं है। अन्त में विवश होकर वे दोनों तोरण के पास बैठ रहे। धीरे धीरे दिन का उजाला फैल गया। ऑंगन के लोगों से भर गया। एक एक करके राजकर्म्मचारी आने लगे। दिन चढ़ते चढ़ते प्रतीहाररक्षी सेना का एक दल तोरण पर आ पहुँचा और रात के प्रतीहार अपने अपने घर गए। तरला को अब भीतर जाने की आज्ञा मिल गई। तीसरे तोरण के भीतर जाकर नए और पुराने प्रासाद पड़ते थे। पश्चिम की ओर तो पुराना प्रासाद था जो संस्कार के अभाव से जीर्ण हो रहा था, चारों ओर घास पात से ढक रहा था। उत्तर ओर गंगा के तट पर नया प्रासाद था। नए प्रासाद के अन्त:पुर के द्वार पर जाकर तरला के जी में जी आया, उसका उद्वेग दूर हुआ। यहाँ से अब कोई वसुमित्र को पकड़कर नहीं ले जा सकता। वह निश्चिन्त बैठकर सम्राट का आसरा देखने लगी।

तृतीय तोरण के बाहर का ऑंगन अब लोगों से खचाखच भर गया। नए और पुराने प्रासाद की निद्रा अभी नहीं टूटी थी। जो दो एक आदमी आते जाते दिखाई भी देते थे वे बहुत धीरे धीरे सँभाल सँभाल कर पैर रखते थे। तरला बैठी बैठी बहुतसी बातें सोच रही थी। सम्राट के सामने क्या कहकर शरण माँगूगी, यही अपने मन में बैठा रही थी। यदि कहीं सम्राट ने आश्रय न दिया तो फिर क्या होगा? वसुमित्र को लेकर मैं कहाँ जाऊँगी? सेठ की बेटी से क्या कहूँगी? इन्हीं सब बातों की चिन्ता से वह अधीर हो रही थी। रात भर की वह जागी हुई थी, इससे बीच बीच में उसे झपकी भी आ जाती थी। एक बार झपकी लेकर जो उसने सिर उठाया तो देखा कि पुराने प्रासाद के सामने कुछ दूर पर लम्बे डील का वृद्ध पुरुष इधर उधर टहल रहा है। उसने घबराकर वसुमित्र से पूछा “सम्राट निकले क्या?” वसुमित्र ने कहा “अभी तो नहीं”। तरला ने फिर पूछा “तो वह टहल कौन रहा है?” वसुमित्र ने कहा “मैं नहीं जानता”।

तरला अब चुपचाप बैठी न रह सकी। वह उठकर धीरे धीरे उस दीर्घकाय वृद्ध पुरुष की ओर बढ़ी और उसने दूर से उसे प्रणाम किया। वृद्ध ने पूछा “तुम कौन हो? क्या चाहती हो?” तरला सचमुच रो पड़ी और सिसकती सिसकती बोली “धर्म्मावतार! आप कौन हैं, यह तो मैं नहीं जानती। पर यह देखती हूँ कि आप पुरुष हैं और निस्सन्देह कोई ऊँचे पदाधिकारी हैं। मैं बड़ी विपत्ति में पड़कर सम्राट की शरण में आई हूँ।” सम्राट यदि रक्षा न करेंगे तो किसी प्रकार रक्षा नहीं हो सकती। मैं इस नगर के एक सेठ की दासी हूँ। मेरे सेठ की लड़की के साथ सेठ चारुमित्रा के एकमात्र पुत्र वसुमित्र के विवाह की बातचीत थी। चारुमित्रा बौद्ध हैं, इससे वे यह सम्बन्ध नहीं होने देना चाहते थे। मेरे सेठ वैष्णव हैं। चारुमित्रा ने द्वेष के वशीभूत होकर और बौद्ध भिक्खुओं की लम्बी चौड़ी बातों में आकर अपने एकमात्र पुत्र को बलि चढ़ा दिया। उन्होंने जन्म भर की संचित सारी सम्पत्ति बौद्ध संघ को दान करने का संकल्प करके अपने पुत्र को भिक्खु हो जाने के लिए विवश किया, क्योंकि भिक्खु हो जाने पर फिर सम्पत्ति पर अधिकार नहीं रह जाता। वसुमित्र के वियोग में अपने सेठ की कन्या को प्राण देते देख मैं उनकी खोज में निकली। नगर के बाहर एक बौद्ध मठ में वसुमित्र का पता पाकर मैं कल रात को उन्हें वहाँ से बड़े बड़े कौशल से निकाल लाई। पर अब कहीं शरण ढूँढ़ती हूँ तो नहीं पाती हूँ। मैं इस समय सम्राट के सामने खड़ी हूँ या और किसी राजपुरुष के, यह नहीं जानती; पर इतना श्रीमान् के मुखारविन्द को देख समझ रही हूँ कि श्रीमान् दया-माया-शून्य नहीं हैं, अपने चरण में स्थान देकर तीन तीन जीवों की रक्षा करेंगे। दिन में जहाँ कहीं भिक्खु लोग हम दोनों को देख पावेंगे, मठ में पकड़ लें जायँगे और मार डालेगे। नगर में अब भी बौध्दों की प्रधानता है। ऐसा कोई नहीं है जो हम लोगों को भिक्खुओं के हाथ से बचा सके।” यह कहकर तरला रोने लगी और उसने उस पुरुष के दोनों पैर पकड़ लिए। उन्होंने उसे आश्वासन देकर कहा “कुछ डर नहीं है, सेठ का लड़का कहाँ है?” तरला ने हाथ उठाकर वसुमित्र की ओर दिखाया। उस पुरुष ने उसे निकट बुलाया। वसुमित्र ने सामने आकर झुककर प्रणाम किया। वृद्ध पुरुष ने तरला से पूछा “तुमने इन्हें किस प्रकार संघराम के बाहर निकाला?” तरला ज्यों ही उत्तर देने को थी कि किसी ने पीछे से पुकारा “आर्य! पिताजी आपको स्मरण कर रहे हैं।” उस दीर्घाकार पुरुष ने पीछे फिरकर देखा कि कुमार शशांक खड़े हैं। कुमार को देख वृद्ध ने पूछा “सम्राट ने मुझे क्यों स्मरण किया है?”

शशांक-जान पड़ता है, नगरप्राकार के संस्कार के लिए।

दीर्घाकार पुरुष-नगरप्राकार के संस्कार से बढ़कर भारी बात इस समय सामने है। किसी दण्डधार को भेज दो।

कुमार का संकेत पाते ही तोरण से एक दण्डधार आकर सामने खड़ा हो गया। वृद्ध पुरुष ने कहा “सम्राट की सेवा में जाकर निवेदन करो कि मैं एक काम में फँसा हूँ, थोड़ी देर में आऊँगा। कुमार! सामने जो ये स्त्री और पुरुष खड़े हैं दोनों तुम्हारी प्रजा हैं। ये दुर्बल हैं, प्रबल के अत्याचार से पीड़ित होकर सम्राट की शरण में आए हैं।” फिर तरला की ओर फिर कर वे बोले “ये युवराज शशांक हैं। तुमने जो जो बातें मुझसे कही हैं, सब इनके सामने निवेदन करो।” परिचय पाते ही दोनों ने कुमार को साष्टांग प्रणाम किया और तरला ने जो जो बातें कही थीं, उन्हें वह फिर कुमार के सामने कह गई। वृद्ध पुरुष ने फिर पूछा “तू किस प्रकार सेठ के लड़के को संघाराम से छुड़ा लाई?” तरला ने देशानन्द के साथ प्रथम परिचय से लेकर उसके स्त्री वेश धारण तक की सब बातें एक एक करके कह सुनाईं। जिस समय उसनेर् कीत्तिधावल की मृत्यु का वृत्तान्त कहा, वृद्ध पुरुष का मुँह लाल हो गया और वह चौंककर बोल उठा “क्या कहा? फिर तो कह।” मन्दिर में मूर्ति के पीछे छिपकर तरला जो वृत्तान्त बन्धुगुप्त के मुँह से सुन चुकी थी, सब ज्यों का त्यों कह गई। उसकी बात पूरी होने पर वृद्ध पुरुष ने एक लम्बी साँस भरकर वसुमित्र से पूछा “जो बात यह कहती है, सत्य है?”

वसुमित्र-सब सत्य है।

वृद्ध पुरुष-तुम लोगों को कोई भय नहीं; भिक्खु तुम लोगों का एक बाल तक बाँका नहीं कर सकते। हमारे साथ आओ, हम तुम्हें आश्रय के स्थान पर पहुँचाए देते हैं।

तरला कृतज्ञता प्रकट करती हुई वृद्ध के चरणों पर लोट पड़ी। वसुमित्र के मुँह से कोई बात न निकल सकी, वह रो पड़ा। वृद्ध ने कुमार की ओर दृष्टि फेरी, देखा तो वे क्रोध के मारे काँप रहे थे, अपने को किसी प्रकार सँभाल नहीं सकते थे; खड़े दाँत पीस रहे थे। वृद्ध पुरुष बोले “कुमार!”

शशांक-आर्य!

वृद्ध पुरुष-अपने को सँभालो, कोई बात मुँह से न निकालो।

युवराज जब अपने मन का वेग न रोक सके तब रोने लगे। वृद्ध ने उन्हें अपनी गोद में खींचकर शान्त किया और कहा “पुत्र! स्मरण रहेगा?” कुमार ने कहा “जब तक जीऊँगा तब तक स्मरण रहेगा।” वृद्ध पुरुष के पीछे पीछे कुमार, वसुमित्र और तरला अन्त:पुर में गए।

बताने की आवश्यकता नहीं कि वृद्ध पुरुष महानायक यशोधावलदेव थे।