शशांक / खंड 1 / भाग-21 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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देशानन्द की दशा

जिस समय तरला वसुमित्र के मंगल के लिए अन्त:पुर के द्वार पर बैठी थी पाटलिपुत्र नगर के बाह्य प्रान्त के बौद्ध मन्दिर में एक और ही लीला हो रही थी। सबेरे उठकर भिक्खुओं ने देखा कि मन्दिर के किवाड़ बन्द हैं, बाहर से कुण्डी चढ़ी हुई है, और भीतर से न जाने कौन किवाड़ ठेल रहा है। यह अद्भुत व्यापार देख एक एक दो दो करके धीरे धीरे सैकड़ों भिक्खु आकर मन्दिर के द्वार पर इकट्ठे हो गए। देखते देखते संघस्थविर और वज्राचार्य्य भी वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखते ही प्रणाम करके भिक्खु लोगों ने मार्ग दे दिया। वज्राचार्य्य ने पूछा “क्या हुआ?” एक तरुण भिक्खु सामने आकर बोला “प्रभो! मन्दिर का द्वार बाहर से बन्द है पर भीतर से न जाने कौन किवाड़ ठेल रहा है।” बन्धुगुप्त और शक्रसेन ने किवाड़ के पास खड़े होकर देखा कि सचमुच भीतर से कोई किवाड़ खींच रहा है। शक्रसेन ने आज्ञा दी “ताला तोड़कर किवाड़ खोल लो।” आज्ञा होते ही ताला तोड़कर फेंक दिया गया। किवाड़ खुले-सबने विस्मित होकर देखा कि मन्दिर के भीतर आचार्य देशानन्द स्त्रीवेश धारण किए खड़े हैं।

शक्रसेन ने आगे बढ़कर पूछा “देशानन्द! यह क्या हुआ?” देशानन्द समझे था कि किवाड़ खुलते ही मैं भाग खड़ा हूँगा, किन्तु इतनी भीड़ सामने देख उसे भागने का साहस न हुआ। वह हताश होकर बैठ रहा। उसे चुपचाप देख बन्धुगुप्त ने आगे बढ़कर पूछा “क्यों आचार्य्य! कुछ बोलते क्यों नहीं? यह वेश तुम कहाँ से लाए?” देशानन्द को फिर भी चुप देख शक्रसेन पुकारने लगे “देशानन्द, ओ देशानन्द!” देशानन्द ने वस्त्र से सिर ढाँक स्त्री का सा महीन स्वर बनाकर कहा “मैं तरला हूँ।” इस बात पर क्रुद्ध होकर शक्रसेन ने सिर का वस्त्र हटा दिया और कहा “तरला तेरी कौन है?” देशानन्द रो पड़ा और बोला “तरला ने मेरा सर्वनाश किया।” इस पर शक्रसेन और भी क्रुद्ध होकर पूछने लगा “तरला कौन?”

देशा -”तरला मेरी मेरी “

शक्र -तुम्हारी कौन है, वही तो पूछता हूँ।

देशा -तरला मेरा सर्वस्व है।

इतने में पीछे से कोई बोल उठा “प्रभो! जिनानन्द कल रात को आचार्य्य के साथ बाहर गया, और फिर लौटकर संघाराम में नहीं आया।” बन्धुगुप्त घबरा कर बोले 'देखो तो जिनानन्द मन्दिर के भीतर तो नहीं है।” कई भिक्खु जिनानन्द को ढूँढ़ने मन्दिर के भीतर घुस पड़े और एक एक कोना ढूँढ़ डाला। अन्त में सबने आकर कहा कि नए भिक्खु जिनानन्द का कहीं पता नहीं है। रोष और क्षोभ से संघस्थविर का मुँह लाल हो गया। वे देशानन्द का गला पकड़ कर पूछने लगे “जिनानन्द को कहाँ रख छोड़ा है, बोल, नहीं तो अभी तेरे प्राण लेता हूँ।” देशानन्द डर के मारे रोने लगा। यह देख वज्राचार्य्य ने संघस्थविर का हाथ थाम लिया और कहा 'संघस्थविर! तुम भी पागल हुए हो? इस प्रकार भय दिखाने से कहीं किसी बात का पता लग सकता है?” बन्धुगुप्त कुछ ठण्ढे पड़कर पीछे हट गए। शक्रसेन ने भिक्खुओं को सम्बोधन करके कहा “तुम लोग इसे पकड़कर संघाराम में ले चलो, हम लोग पीछे पीछे आते हैं।” भिक्खु लोग स्त्री वेशधारी देशानन्द को लिए हँसी ठट्ठा करते मन्दिर के बाहर निकले। केवल शक्रसेन और बन्धुगुप्त खड़े रह गए।

सबके चले जाने पर बन्धुगुप्त ने कहा 'वज्राचार्य्य! बात क्या है कुछ समझे? जिनानन्द क्या सचमुच भाग गया। कितने कितने उपायों से चारुमित्रा को वश में करके उसके पुत्र को संघ में लिया था वह सब परिश्रम क्या व्यर्थ जायगा?”

शक्र -क्या हुआ कुछ भी समझ में नहीं आता। पर सेठ वसुमित्र भागकर हम लोगों के हाथ से जा कहाँ सकता है? जो कोई सुनेगा कि उसने प्रव्रज्या ग्रहण की है उसे अपने यहाँ ठहरने न देगा। पर देशानन्द ने क्या किया, किसने उसे स्त्री का वेश धारण कराके मन्दिर के भीतर बन्द कर दिया यह सब कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। देशानन्द पर इस समय बिगड़ना मत, नहीं तो उससे किसी बात का पता न चलेगा। जिनानन्द किस प्रकार भागा, देशानन्द का किसने स्त्री वेश बनाया, तरला उसकी कौन होती है इन सब बातों का पता उसी से लेना चाहिए।

बन्धु -वज्राचार्य्य! कल रात को जिस समय हम लोग यहाँ आए थे मन्दिर का द्वार खुला पड़ा था और देशानन्द मन्दिर के भीतर नहीं था।

शक्र -ठीक है। तुम जिस समयर् कीत्तिधावल की हत्या का वृत्तान्त कह रहे थे उस समय मन्दिर में कोई नहीं था। मन्दिर का द्वार भी खुला था।

बन्धु -तो क्या कोई छिपकर हम लोगों की बातें सुन रहा था।

शक्र-ऐसा तो नहीं जान पड़ता।

बन्धुगुप्त-वज्राचार्य्य! अब तो मुझे बड़ा भय हो रहा है, अब मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। तुम यहाँ रहकर देशानन्द की बातों का पता लगाओ, मैं तो अब इसी समय बंगदेश का रास्ता लेता हूँ। यशोधावल इस समय नगर में है, यदि कहीं किसी ने हम लोगों की बातें सुनकर उससे कह दीं तो फिर रक्षा का कोई उपाय नहीं।

शक्र -बात तो बहुत कुछ ठीक कहते हो। यहाँ से हम लोगों का चला जाना ही ठीक है। यदि किसी प्रकार यशोधावल को अपने पुत्र की हत्या की बात विदित हो गई तो फिर वह बिना प्रतिशोधा लिए कभी नहीं रह सकता। पर तुम्हारे बंगदेश चले जाने से नहीं बनेगा, सब काम बिगड़ जायगा। चलो हम लोग देशानन्द को लेकर कपोतिक संघाराम में चले चलें। वहाँ बुद्ध घोष हम लोगों की पूरी रक्षा कर सकेंगे।

बन्धु -तो फिर चलो, अभी चलो।

शक्र -मन्दिर और संघाराम का कुछ प्रबन्धा करता चलूँ।

बन्धु -भगवान् का मन्दिर है, वे अपनी व्यवस्था आप कर लेंगे। तुम इसकी चिन्ता छोड़ो, बस अब यहाँ से चल ही दो।

शक्र -देखता हूँ कि तुम डर के मारे बावले हो रहे हो।

बन्धु -जिस समय मेरा सिर काट कर नगर तोरण के सामने लोहे की छड़ पर टाँगा जायगा उस समय बुद्ध, धार्म और संघ कोई रक्षा करने नहीं जायगा।

शक्र -अच्छा तो चलो, संघाराम से देशानन्द को साथ ले लें।

दोनों मन्दिर से निकल कर संघाराम की ओर चले। वहाँ जाकर देखा कि भिक्खुओं ने देशानन्द का स्त्री वेश उतारकर उसे एक स्थान पर बिठा रखा है। शक्रसेन ने देशानन्द से कहा 'आचार्य्य! तुम्हें कपोतिक संघाराम चलना होगा।” देशानन्द ने रोते रोते पूछा “क्यों?” वज्राचार्य्य ने कहा “कोई डर की बात नहीं है। महास्थविर ने भोजन का निमन्त्राण दिया है।' देशानन्द को विश्वास न पड़ा, वह छोटे बच्चे के समान चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा। उसने मन में समझ लिया कि मेरी हत्या करने के लिए ही मुझे कपोतिक संघाराम ले जा रहे हैं। शक्रसेन ने एक भिक्खु को बुलाकर कहा “जिनेन्द्र बुध्दि?” तुम यहाँ मन्दिर और संघाराम की रखवाली के लिए रहो, हम लोग एक विशेष कार्य से कपोतिक संघाराम जा रहे हैं। तुम दो भिक्खुओं के साथ देशानन्द को तुरन्त वहाँ भेज दो।” बन्धुगुप्त और शक्रसेन संघाराम के बाहर निकले। भिक्खु लोग आचार्य्य के साथ बुरे बुरे शब्दों में हँसी ठट्ठा करने लगे। उसने किसी की बात का कोई उत्तर न दिया, चुपचाप रोने लगा और मन ही मन कहने लगा “तरला। तेरे मन में यही था?”

आधी घड़ी भी न बीती थी कि सहò से अधिक अश्वारोहियों ने आकर मन्दिर और संघाराम को घेर लिया। वसुमित्र को साथ लेकर महाबलाधयक्ष हरिगुप्त और स्वयं यशोधावलदेव बन्धुगुप्त को ढूँढ़ने लगे। जब बन्धुगुप्त कहीं नहीं मिला तब वे लोग भिक्खुओं से पूछने लगे; पर किसी ने ठीक ठीक उत्तर न दिया। उसी समय वसुमित्र देशानन्द को देख बोल उठा “प्रभो! इस व्यक्ति ने मेरे छुड़ाने में सहायता दी थी, इससे पूछने से कुछ पता चल सकता है।” देशानन्द को ज्यों ही छोड़ देने का लोभ दिखाया गया उसने तुरन्त कह दिया कि बन्धुगुप्त कपोतिक संघाराम को गए हैं। क्षण काल का भी विलम्ब न कर यशोधावलदेव अश्वारोही सेना लेकर कपोतिक संघाराम की ओर दौड़ पड़े। हरिगुप्त की आज्ञा से दो सवार देशानन्द और जिनेन्द्रबुध्दि को बाँधकर प्रासाद की ओर ले चले।