शशांक / खंड 1 / भाग-22 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बन्धुगुप्त की खोज

तरला के मुँह से कीर्तिधावल की हत्या का ब्योरा सुनकर यशोधावलदेव आपे से बाहर हो गए थे। बहुत कष्ट से अपने को किसी प्रकार सँभालकर वे वसुमित्र और तरला को प्रासाद के भीतर सम्राट के पास ले गए। वृद्ध सम्राट हत्या का पूरा ब्योरा सुनकर बालकों की तरह रोने लगे। महाबलाधयक्ष हरिगुप्त वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने और यशोधावलदेव ने मिलकर किसी प्रकार सम्राट को शान्त किया। उसके पीछे हरिगुप्त बोले “जहाँ तक मैं समझता हूँ बन्धुगुप्त को अभी तक यह पता न होगा कि कीर्तिधावल की हत्या की बात फैल गई है। हम लोग यदि इसी समय अश्वारोही सेना लेकर पुराने मन्दिर और संघाराम को जा घेरें तो वह अवश्य पकड़ा जायगा। वह यदि भागा भी होगा तो कितनी दूर गया होगा, हम लोग उसे पकड़ लेंगे।” सम्राट ने बड़े उत्साह के साथ इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और कहा “तुम लोग सेठ के लड़के को साथ लेकर अभी जाओ, इसके द्वारा सब स्थानों का ठीक ठीक पता लगेगा।” यशोधावलदेव ने वसुमित्र से पूछा “तुम घोड़े पर चढ़ सकते हो?”

वसु -हाँ, मुझे घोड़े पर चढ़ने का अभ्यास है।

यशो -संघाराम में फिर लौटकर जाने में तुम डरोगे तो नहीं?

वसु -प्रभो! मैं अकेला, निरस्त्र, असहाय और निरुपाय होकर तो संघाराम में रहता ही था, अब महाराजाधिराज की छत्राछाया के नीचे मुझे किस बात का भय है?

यशो -तुम शस्त्रा चला सकते हो?

वसु -मेरी परीक्षा कर ली जाय।

यशो -बहुत अच्छी बात है, आओ, तुम्हें मैं अस्त्रा देता हूँ।

वसुमित्र और यशोधावल प्रासाद के भीतर गए। तरला भय से व्याकुल होकर उसी स्थान पर खड़ी रही। उसकी ऑंखों में ऑंसू देख सम्राट ने उसे धीरज बँधाने के लिए कहा “कोई डर की बात नहीं है। सेठ के लड़के के साथ एक सहस्त्रा अश्वारोही रहेंगे, कोई उसे बल से पकड़ नहीं सकता। फिर विनयसेन से उन्होंने कहा “इसेले जाकर अन्त:पुर में महादेवी के यहाँ कर आओ।” इतना धीरज बँधाने पर भी तरला के जी का खटका न मिटा। वह चुपचाप विनयसेन के साथ अन्त:पुर के भीतरगई।

दूसरे तोरण के बाहर सुसज्जित शरीर रक्षी अश्वारोही सेना आसरे में खड़ी थी। फाटक के सामने ही तीन अश्वपाल तीन सजे सजाए घोड़े लिए खड़े थे। बात क्या है कुछ न समझकर बहुत से लोग फाटक के बाहर खड़े आपस में बातचीत कर रहे थे। इतने ही में यशोधावलदेव युवराज शशांक और वसुमित्र को लिए फाटक के बाहर आए। उन्हें देख सैनिकों ने सामरिक प्रथा के अनुसार अभिवादन किया। तीनों पुरुष अश्वपालों से घोड़े लेकर उन पर सवार होकर तीसरे तोरण से होकर निकले। सह अश्वारोही सेना भी उनके साथ साथ चली। तोरण पर इकट्ठे लोगों ने चकित होकर देखा कि महाबलाधयक्ष हरिगुप्त स्वयं सेना का परिचालन कर रहे हैं। उन लोगों की समझ में कुछ भी नहीं आया कि सेना कहाँ जा रही है। वे खड़े ताकते रह गए।

अश्वारोही सेना लिए यशोधावलदेव ने उस पुराने बौद्ध मन्दिर में जाकर क्या किया यह पहले कहा जा चुका है। संघाराम में वसुमित्र को किसी ने नहीं पहचाना। बात यह थी कि प्रासाद से प्रस्थान करते समय यशोधावल ने उसे सिर से पैर तक लौहवर्म्म से मढ़ दिया था। उस पुराने मन्दिर में बन्धुगुप्त को न पाकर युवराज और यशोधावलदेव सेना सहित कपोतिक संघाराम की ओर चले। मन्दिर से दो कोस पर, नगर के बीचोबीच, कपोतिक संघाराम था। हरिगुप्त की आज्ञा से सेनादल ने बड़े वेग से नगर की ओर घोड़े फेंके। घोड़ों की टाप से उठी हुई धूल से नगर तटस्थराजपथ पर अधेरा सा छा गया।

संघाराम से निकलकर शक्रसेन और बन्धुगुप्त बहुत दूर न जा पाए थे कि वे एकबारगी चौंक पड़े। शक्रसेन ने कहा “बन्धुगुप्त! पीछे बहुत से घोड़ों की टाप सी सुनाई देती है।” बन्धुगुप्त ठिठककर खड़े हो गए। शब्द सुनकर दोनों ने जाना कि बहुत से अश्वारोही वेग से उनकी ओर बढ़ते चले आ रहे हैं। बन्धुगुप्त ने कहा “हाँ! यही बात है?”

शक्रसेन-तो अब छिप रहना ही ठीक है। वसुमित्र ने भागकर क्या अनर्थ किया देखते हो न।

बन्धु -वज्राचार्य्य! जान पड़ता है यशोधावलदेव को मेरा पता लग गया है और वह मुझे पकड़ने आ रहा है, अब क्या होगा?

शक्र -भाई, घबराओ मत। बड़ी भारी विपत्ति है। धर्य्य छोड़ने से सचमुच मारे जाओगे और तुम्हारे साथ मुझे भी मरना होगा। वह जो सामने ताड़ों का जंगल सा दिखाई पड़ता है चलो उसी में छिप रहें। बढ़ो, जल्दी बढ़ो।

उस स्थान से थोड़ी दूर पर एक छोटे ताल के किनारे से होता हुआ राजपथ चला गया था। ताल के किनारे छोटे बड़े बहुत से ताड़ के पेड़ थे। दोनों दौड़ते हुए जाकर उन ताड़ों की ओट में छिप रहे। देखते देखते सवार पास पहुँच गए। सब के आगे सिन्धुदेश के एक काले घोड़े पर युवराज शशांक थे। उनका सारा शरीर स्वर्ण खचित लौहवर्म्म से आच्छादित था; चमकते हुए रुपहले शिरस्त्राण के बाहर इधर उधर सुनहरे घुँघराले बाल लहरा रहे थे। सर्य्य के प्रकाश में लौहवर्म्म आग की लपट के समान झलझला रहा था। उनके पीछे महानायक यशोधावलदेव थे, वे भी सिर से पैर तक लौहवर्म्म से ढके थे, पर धावलवंश का चिद्द ऊपर दिखाई देता था। उसे देखते ही बन्धुगुप्त काँप उठे। उन्होंने धीरे से पूछा “जान पड़ता है यही यशोधावल है।” शक्रसेन ने कहा “हाँ”। यशोधावल के पीछे दो और वर्म्मावृत अश्वारोही थे जिन्हें बन्धुगुप्त और शक्रसेन न पहचान सके। ताल के किनारे पहुँचने पर उनमें से एक का शिरस्त्रााण हट गया। पेड़ की आड़ से बन्धुगुप्त और शक्रसेन ने भय और विस्मय के साथ देखा कि वह श्रेष्ठपुत्र वसुमित्र था। क्रमश: पाँच पाँच सवारों की अनेक पंक्तियाँ निकल गईं। वसुमित्र ने घोड़े को थोड़ा रोक टोप पहना और फिर वेग से घोड़ा छोड़ता हुआ वह सेनादल में जा मिला। पेड़ों की झुरमुट में बैठे ही बैठे बन्धुगुप्त बोले “वज्राचार्य्य! अब क्या उपाय हो?”

शक्र-तुम तो इसी समय बंगदेश की ओर चल दो। पाटलिपुत्र में रहना अब तुम्हारे लिए अच्छा नहीं।

बन्धु -तुम क्या करोगे?

शक्र -मैं यही नगर में रहूँगा।

बन्धु -तो फिर मैं भी यहीं मरूँगा।

शक्र -क्यों?

बन्धु -मैं अकेला अब कहीं नहीं जा सकता।

शक्रसेन ने बन्धुगुप्त के मुँह की ओर देखा। वह एकबारगी पीला पड़ गया था। उन्होंने यह निश्चय करके कि अब इसे समझाना बुझाना व्यर्थ है, कहा “तो फिर चलो, इसी समय चल दें।” दोनों ताल वन से निकलकर गंगा के किनारे किनारे चले।

सबेरे ही से संघाराम के ऑंगन में बैठे महास्थविर बुद्धघोष गुप्तचरों से संवाद सुन रहे थे। गुप्तचर सबके सब बौद्ध भिक्खु थे। एक आचार्य्य महास्थविर के सामने खड़े होकर उन सबका परिचय दे रहे थे और महास्थविर चुपचाप धयान लगाए सब बातें सुनते जाते थे। एक गुप्तचर कह रहा था “उस दिन मगध में सम्राट गंगा किनारे घाट पर बैठे थे, इसी बीच में यशोधावलदेव ने आकर राजकाज का सारा भार अपने ऊपर लेने की इच्छा प्रकट की। मैं एक पेड़ की आड़ में छिपा सब बातें सुनता रहा।” गुप्तचर इसके आगे कुछ और कहा ही चाहता था कि संघाराम के तोरण पर से एक भिक्खु घबराया हुआ आया और कहने लगा “प्रभो! बहुत से अश्वारोही वेग से संघाराम की ओर बढ़ते चले आ रहे हैं।” सुनते ही महास्थविर ने कहा “संघाराम का फाटक तुरन्त बन्द करो।” भिक्खु आज्ञा पाकर तुरन्त फाटक पर लौट गया। महास्थविर उठकर फाटक की ओर चले। कपोतिक संघाराम एक प्राचीन गढ़ी के तुल्य था। लोग कहते थे कि वह महाराज अशोक का बनवाया हुआ था। नीचे ऊपर तक वह पत्थर का बना था। उसके चारो ओर बहुत ही दृढ़ पत्थर का ऊँचा परकोटा था। इस बृहत् संघाराम के भीतर पाँच सह से ऊपर भिक्खु सुख से रह सकते थे और उस समय भी एक हजार से अधिक भिक्खु उसमें निवास करते थे। संघाराम के चारों ओर चार फाटक (तोरण) थे जो सदा खुले रहते थे। विप्लव के समय कई बार नागरिकों ने संघाराम को तोड़ा था इससे लोहे के असंख्य कीलों से जड़े हुए भारी भारी किवाड़ तोरणों पर लगा दिए गए थे। जब तक कोई भारी आशंका नहीं होती थी महास्थविर किवाड़ों को बन्द करने की आज्ञा नहीं देते थे, क्योंकि नगरवासी बराबर संघाराम में दर्शन के लिए आते जाते रहते थे। महास्थविर ने फाटक पर जाकर देखा कि असंख्य अश्वारोही संघाराम को चारों ओर से घेरे हुए हैं। तोरण के सामने खड़े तीन वर्म्मधारी पुरुष उनकी व्यवस्था कर रहे हैं। एक अश्वारोही उनके घोड़ों को थामे कुछ दूर पर खड़ा है।

तोरण के ऊपर चढ़कर महास्थविर ने उन तीनो वर्म्मधारी पुरुषों को सम्बोधान करके कहा “तुम लोग कौन हो? किसलिए देवता का अपमान कर रहे हो? किसकी आज्ञा से इतने अधिक अधारी अश्वारोही लेकर शान्तिसेवी निरीह भिक्खुओं के आश्रम को आ घेरा है?” वर्म्मधारी पुरुषों में से एक ने उनकी ओर अच्छी तरह देखा और कहा “तुम कौन हो?” महास्थविर ने उत्तर दिया। “भगवान् बुद्ध के आदेश से मैं इस संघाराम का प्रधान हूँ, मेरा नाम बुद्धघोष है।” वर्म्मावृत पुरुष हँसकर बोला “अच्छा, तब तो आप मुझे पहचान सकते हैं। मेरा नाम यशोधावल है। मैं रोहिताश्वगढ़ का हूँ। मैं इस साम्राज्य का महानायक हूँ। इस समय अपने पुत्रघातक की खोज में यहाँ आया हूँ। फाटक खोलने की आज्ञा दीजिए। हम लोग संघाराम में नरघाती बन्धुगुप्त को ढूँढेंगे।” कोठे के ऊपर रहने पर भी यशोधावलदेव का नाम सुनते ही महास्थविर डर के मारे दहल गए, पर अपने को सँभालकर धीरे धीरे बोले “महानायक! पाटलिपुत्र में ऐसा कौन होगा जिसने यशोधावल की विमल कीत्ति न सुनी हो? आप भ्रम में पड़कर ही इस कपोतिक संघाराम में हत्यारे का पता लगाने आए हैं। संघाराम संसार त्यागी निरीह भिक्खुओं का आश्रम है। यहाँ कभी नरघाती पिशाच को ठिकाना मिल सकता है? पुत्रहन्ता कहकर आपने जिनका नाम लिया है वे उत्तरापथ के बौद्धसंघ के एक स्थविर हैं। आर्यर्वत्त में बन्धुगुप्त का नाम कौन नहीं जानता? भला, ऐसे बोधिसत्तवपाद ऋषिकल्प पुरुष कभी नरघाती हो सकते हैं? आप कहते क्या हैं?”

यशोधावल-महास्थविर! आप मेरे इन पके बालों पर विश्वास कीजिए। बिना विशेष प्रमाण पाए यशोधावल देवस्थान में आकर उत्पात करने का साहस कभी नहीं कर सकता। बन्धुगुप्त यदि संघाराम में कहीं छिपा हो तो आप तुरन्त उसे हम लोगों के हाथ में दीजिए, हम लोग उसे सम्राट के सामने ले जायँगे।

बुद्धघोष-संघस्थविर बन्धुगुप्त ने आज इस संघाराम में पैर ही नहीं रखा। आप मेरी बात का विश्वास कीजिए। यदि उन्हीं की खोज में आप आए हों, और कोई बात न हो, तो जाकर कहीं और देखिए।

यशो -बन्धुगुप्त यदि संघाराम में नहीं है तो आपने फाटक क्यों बन्द कराए?

बुद्ध -अस्त्रधारी अश्वारोहियों के भय से।

यशो -हम लोग सम्राट की आज्ञा से बन्धुगुप्त का पता लगाने के लिए संघाराम में आए हैं। हम लोगों को भीतर जाने देने में आपको कुछ आपत्ति है?

बुद्ध -रत्ती भर भी नहीं।

यशो -तो फिर द्वार खोलने की आज्ञा दीजिए।

महास्थविर की आज्ञा से द्वार खोल दिया गया। पाँच सौ सवार लेकर यशोधावलदेव, युवराज शशांक और हरिगुप्त ने संघ के भीतर प्रवेश किया, शेष पाँच सौ सवार संघाराम को घेरे रहे। एक एक कोना ढूँढ़ने पर भी जब बन्धुगुप्त न मिला तब हताश होकर यशोधावलदेव प्रासाद को लौट गए।

उस समय गंगा की बीच धारा में एक छोटी सी नाव बड़े वेग से पूरब की ओर जा रही थी। उसमें बैठे बैठे शक्रसेन बन्धुगुप्त से कह रहे थे “भाई! न जाने किस जन्म का पुण्य उदय हुआ कि आज रक्षा हुई।”