शशांक / खंड 2 / भाग-1 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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स्कन्दगुप्त का गीत

पूर्वोक्त घटना हुए तीन वर्ष हो गए। इन तीन वर्षों के बीच मगध राज्य और पाटलिपुत्र में अनेक परिर्वतन हुए हैं। प्राचीन नगरी की शोभा मानो फिर लौट आई है। नगरप्राकार का पूर्ण संस्कार हो गया है, पुराने प्रासाद का जीर्णोध्दार हो गया है, राज्यकार्य सुव्यवस्थित रूप से चल रहा है, मगध साम्राज्य में फिर से नई शक्ति सी आ गई है, सीमा पर के सब दुर्ग सुदृढ़ और सुरक्षित हैं, साम्राज्य के दारिद्रग्रस्त होने से जो सेना पहले विशृंखल हो रही थी वह अब पूर्ण सुशिक्षित और सुसज्जित हो गई है, उसे अब वेतन के लिए या अन्न के लिए गौल्मिकों का घर नहीं घेरना पड़ता। घोर नींद में सोए हुए मगधवासी अब जाग गए हैं। उनके मन में अब आशा के अंकुर दिखाई पड़ने लगे हैं। जान पड़ता है चन्द्रगुप्त और समुद्रगुप्त का समय फिर आया चाहता है, फिर पाटलिपुत्र के नागरिकों की जयध्वनि गान्धार के तुषारधावल गिरिशृंगों के बीच सुनाई देगी, फिर मगध का गरुड़धवज वक्षु1 के तट पर दिखाई देगा, फिर केरल देश तक के शत्रुओं की स्त्रियाँ अकाल वैधव्य के सन्ताप से कोसेंगी। इस कायापलट के प्रत्यक्ष कारण हैं युवराज शशांक और परोक्ष कारण हैं वृद्ध महानायक यशोधावलदेव।

यशोधावलदेव फिर लौटकर रोहिताश्वगढ़ नहीं गए। वे तब से अपनी पौत्री को लेकर बराबर प्रासाद ही में रहते हैं। सम्राट महासेनगुप्त अब बहुत वृद्ध हो गए हैं, किन्तु अब तक वे दिन में एक बार सन्धया के समय सभामंडप में आ जातेहैं।

1. आक्सस नदी या सर दरिया जो मधय एशिया में है।

सभा का सारा कार्य युवराज शशांक और महानायक यशोधावलदेव करते हैं। शशांक के संगी साथी अब ऊँचे ऊँचे पदों पर हैं। नरसिंहदत्ता इस समय प्रधान सेनानायकों में हैं। माधववर्म्मा नौसेना के अधयक्ष हुए हैं और अनन्तवर्म्मा युवराज के शरीररक्षी हैं। युवराज किशोरावस्था पार कर अब युवावस्था को प्राप्त हुए हैं। कैशोर की चपलता अब उनमें नहीं है, अब युवराज धीर, शान्त और चिन्ताशील हैं।

यशोधावलदेव के तीनों प्रस्ताव तो कार्य रूप में परिणत हो चुके-दुर्ग सुदृढ़ हो गए, सेना सुशिक्षित हो गई और राजस्वसंग्रह की व्यवस्था हो गई। अब बंगदेश पर अधिकार करने का आयोजन हो रहा है। किस प्रकार उक्त तीनों बातों की व्यवस्था हुई इसे बहुत दिनों तक राजकर्म्मचारी भी न समझ सके। वृद्ध महानायक ने अपने और युवराज के हस्ताक्षर से एक सूचनापत्र राज्य के सब धनिकों, श्रेष्ठियों और भूस्वामियों के पास भेजकर उन्हें साम्राज्य की सहायता के लिए उत्साहित किया। साम्राज्य की रक्षा से अपनी रक्षा समझ सब ने प्रसन्न चित्ता से साम्राज्य को ऋण दिया। इस प्रकार बहुत सा धन एकत्र हो गया। उसी धन से उक्त तीन प्रस्ताव कार्य रूप में परिणत हुए। एक बड़ी सेना खड़ी करके यशोधावल ने चरणाद्रिगढ़ पर फिर से अधिकार किया। मण्डला और गौड़ पर साम्राज्य की सेना ने अधिकार स्थापित किया। सरयू नदी से लेकर करतोया नदी तक के विस्तृत प्रदेश के सामन्त सिर झुकाकर राजकर भेजने लगे। सब सीमाएँ सुरक्षित हो गई थीं। इससे तीन ही वर्ष में यशोधावलदेव ने सारा ऋण चुका दिया। पर बड़े बड़े नदों से घिरा हुआ बंगदेश अब तक अधीन नहीं हुआ था। बौध्दाचाय्र्यों की कुमन्त्रणा में पड़कर बंगदेशवासियों ने यशोधावलदेव के भेजे हुए सन्देशों पर कुछ भी धयान नहीं दिया। पूर्व में कामरूप के राजा औरपश्चिम में स्थाण्वीश्वर के राजा चकित नेत्रा से प्राचीन साम्राज्य में फिर से इस नई शक्ति के संचार को देख रहे थे। उन्हीं के संकेत से उद्धत बंगवासी राजस्व देना बन्द किए हुए थे। इसी से यशोधावलदेव बंगदेश पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहे हैं।

सन्धया के पहले गंगा किनारे घाट की सीढ़ी पर बैठे यशोधावलदेव अनेक बातों की चिन्ता कर रहे थे, कुछ दूर पर बालू के बीच चित्रा और लतिका घूम रही थीं। शशांक नीचे की सीढ़ी पर खड़े गंगा के जल पर पड़ती हुई डूबते सूर्य्य की लाल और सुनहरी किरणों की छटा देख रहे थे। घाट पर दो वृद्ध बैठे थे-एक तो लल्ल था, दूसरा यदुभट्ट। यशोधावल कहने लगे 'भट्ट! बहुत दिनों से तुम्हारा गीत नहीं सुना। युवावस्था में युद्ध यात्रा के समय तुम्हारा मांगलिक गीत सुनकर प्रासाद से प्रस्थान करता था। अब तक मेरे कानों में तुम्हारा वह मधुर स्वर गूँज रहा है। भट्ट! आज पचास वर्ष पर एक बार फिर गीत सुनाओ।” वृद्ध भट्ट का चमड़ा झूल गया था, दाँत गिर गए थे और बाल सन हो गए थे। वह ऑंखों में ऑंसू भरकर बोला “प्रभो! भट्टचारणों का अब वह दिन नहीं रहा। साम्राज्य में अब तो भट्टचारण कहीं ढूँढ़े नहीं मिलते। नागरिक अब मंगल गीत भूल गए। अब तो कवि लोग विधुवदनी नायिकाओ के चंचल नयनों का वर्णन करके उनका मनोरंजन करते हैं। अब युद्ध के गीत उन्हें नहीं अच्छे लगते। जब मेरे गाने के दिन थे तब तो मैं गाने ही नहीं पाता था। अब वे दिन चले गए; न तो शरीर में अब वह बल रहा, न अब वह गला है। अब मैं क्या गाऊँ?”

यशो -भट्ट! मैं भी तो अपनी युवावस्था कभी का खो चुका हूँ। तरुण कण्ठ अब मुझे अच्छा न लगेगा। मैं भी अपने जीवन अस्ताचल के निकट आ चुका हूँ। अहा! यौवन की स्मृति क्या मधुर होती है? युवावस्था के गीत एक बार फिर गाओ। गला अब वैसा नहीं है तो क्या हुआ? अमरकीर्ति तो अमर ही है, जब तक स्मृति रहेगी तब तक अमर रहेगी।

यदु -प्रभु, क्या गाऊँ?

वृद्ध गुनगुनाने लगा। लल्ल के कानों से अब सुनाई नहीं पड़ता था, वह भट्ट के पास सरक आया। सीढ़ी के नीचे से कुमार ने पूछा “यदु दादा! कौन सा गीत गा रहे हो?”

यशो -शशांक! यहाँ आओ। भट्ट स्कन्दगुप्त के गीत गावेंगे।

युवराज इतना सुनते ही सीढ़ियों पर लम्बे लम्बे डग रखते हुए भट्ट के पास आ बैठे। वृद्ध भट्ट बहुत देर तक गुनगुनाता रहा, फिर उसने गाना आरम्भ किया। पहले तो गीत का स्वर अस्फुट रहा, फिर धीमा चलता रहा, देखते देखते घी पाकर उठी हुई लपट के समान वह एकबारगी गगनस्पर्श करने लगा।

“नागर वीरो! आलस्य छोड़ो, हूण फिर आते हैं। गान्धार की पर्वतमाला भेदकर हूणवाहिनी आर्यर्वत्त में फिर घुस आई है। नागर वीरो! व्यसन छोड़ो, वर्म्म धारण करो, हूण फिर आते हैं। अब स्कन्दगुप्त नहीं हैं, कुमार सदृश पराक्रमी कुमारगुप्त के कुमार अब नहीं हैं जो तुम्हारी रक्षा करेंगे।”

“दूर गंगा जमुना के संगम पर प्रतिष्ठान दुर्ग में सम्राट ने तुम्हारे लिए अपना शरीर त्याग किया। जिन्होंने वितस्ता के तट पर, शतद्रु के पार, मथुरा के रक्तवर्ण दुर्ग कोट पर ब्रह्मर्वत्त के भीषण युद्ध क्षेत्र में साम्राज्य का मान, ब्राह्मण और देवता का मान, आर्यर्वत्त का मान रखा था, अब वे भी नहीं हैं। स्कन्दगुप्त की सेना भीरु और कायर नहीं थी, कृतघ्न और विश्वासघातिनी नहीं थी जो लौटकर चली आती। उनके सहचर प्रभु के पास प्राण्ा रहते तब तक जमे रहे, अपने रक्त से कालिंदी की काली धारा उन्होंने लाल कर दी, वे घर लौटकर नहीं आए। प्रतिष्ठान के भीषण दुर्ग के सामने उन्होंने तोरण को रोका था। वे स्कन्दगुप्त के चिर सहचर थे, इस जीवन में अन्त तक साथ देकर परलोक में भी उन्होंने साथ दिया। हूण आते हैं, नागर वीरो! उठो, कटिबन्ध कसो, हूण आ रहे हैं।

“वृद्ध सम्राट तरुणी के रूप पर मुग्धा होकर जब अपना मंगल, राज्य का मंगल और प्रजा का मंगल भूल रहे थे उस समय आर्यर्वत्त की रक्षा किसने की? ब्राह्मणों और श्रमणों, स्त्रियों और बच्चों, मठों और मन्दिरों, नगरों और खेतों को किसने बचाया था, जानते हो? बालू की भीत उठाकर किसने महासमुद्र की बढ़ती हुई गति को रोका था? नगर वीरो! जानते हो? कुमार सदृश पराक्रमी स्कन्दगुप्त ने। नागर वीरो उठो, आलस्य छोड़ो, हूण आ रहे हैं।

“हूण आ रहे हैं, आत्मरक्षा के लिए कटिबद्ध हो, नहीं तो हूणों की प्रबल धारा में देश डूब जायगा। स्त्री, बालक और वृद्ध किसी की रक्षा न होगी। घर का झगड़ा छोड़ो, देवता और ब्राह्मण की रक्षा करो। घर के झगड़े से ही साम्राज्य की यह दशा हुई है। कुमारगुप्त यदि सचेत रहते तो साम्राज्य का धवंस न होता। वितस्ता के तट पर यदि सेना रहती तो हूण हार मानकर कुरुवर्ष लौट जाते। कटिबन्ध कसो, अपना कल्याण सोचो, हूण आ रहे हैं।

“जिन्होंने शतद्रु के किनारे केवल दस सह सेना लेकर सौ सह को रोका था, उनका नाम था स्कन्दगुप्त। जिन्होंने केवल एक सह सेना लेकर शौरसेन दुर्ग में लाखों को शिथिल कर दिया था, उनका नाम स्कन्दगुप्त था। कोशल में जिसकी पाँच सह सेना का मार्ग हूणराज न रोक सके उनका नाम स्कन्दगुप्त था। नगर वीरो! उठो, अपने नामों को चिरस्मरणीय करो, कोष से खड्ग खींचो, हूण आ रहेहैं।”

“ऑंख उठाकर देखो, सूर्य्य को छिपानेवाले मेघ छँटे दिखाई पड़ते हैं। वृद्ध सम्राट शरीर छोड़ चुके हैं। अब जिन गोविन्दगुप्त और स्कन्दगुप्त ने खंग धारण किया है उनके हाथ निर्बल नहीं हैं। राजश्री फिर लौटती दिखाई देती है। हूणधारा रुकी जान पड़ती है, ब्रह्मर्वत्त में गंगा की श्वेतसैकतराशि के बीच हूणसेना की श्वेत अस्थिराशि इसका आभास दे रही है, गोपाचल के नीचे नासिकाविहीन हूणों की मुण्डमाला इसका आभास दे रही है। उत्तरापथ में अब शान्ति स्थापित हो गई है, हूण देश से बाहर कर दिए गए हैं, स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठे हैं। हूण फिर आ रहे हैं, उत्तर कुरु की विस्तृत मरुभूमि हूणधारा में मग्न हो गई है, गान्धार की पर्वतमाला अब उस धारा को नहीं रोक सकती। हूण फिर आ रहे हैं, कोई भय नहीं, स्कन्दगुप्त ने फिर खंग उठाया है। उनका नाम सुनकर हूण काँप रहे हैं। पर स्कन्दगुप्त रहकर ही क्या करेंगे? उत्तरापथ में विश्वासघात है, आर्यर्वत्त में कृतघ्नता है। हूण फिर आ रहे हैं। नगर वीरो! अपनी रक्षा के लिए उठो, देवों और ब्राह्मणों, स्त्रियों और बच्चों, मठों और मन्दिरों, नगरों और खेतों की रक्षा करो”।

“विश्वासघात ही के कारण आर्यर्वत्त का बहुत दिनों से नाश होता आ रहा है। ऑंख उठा कर देखो, साम्राज्य का सर्वनाश हो गया; भीरु और कायर पुरगुप्त सिंहासन पर जा बैठा है। हूणों ने प्रतिष्ठान दुर्ग घेर लिया है, सम्राट सेना सहित दुर्ग के भीतर घिर गए हैं, इस इतने बड़े आर्यर्वत्त में ऐसा कोई नहीं है जो उनकी सहायता के लिए जाय, अग्नि की लपट आकाश में उठ रही है, हूणों ने सौराष्ट्र, र्आनत्ता, मालव, मत्स्य और मधयदेश में आग लगा दी है। छोटे से मगध देश का राजसिंहासन पाकर ही पुरुगुप्त सन्तुष्ट बैठा है। समुद्रगुप्त का विशाल साम्राज्य तिनके के समान बाढ़ में डूब गया। प्रतिष्ठान दुर्ग के भीतर दस सह सेना है, पर दो दिन से अधिक के लिए पीने का जल नहीं है। वृद्ध सम्राट जल लाने के लिए आप निकल खड़े हुए हैं, श्वेत बालू की भूमि रक्त से रंग गई है। हूण सेना ने उन पर आक्रमण किया है, अब रक्षा नहीं है। एक भारी बाण सम्राट की दाहिनी ऑंख में आकर लगा है। साम्राज्य की सेना स्वामी की रक्षा के लिए लौट पड़ी है; पर जिन्होंने बितस्ता और शतद्रु के तट पर, शौरसेन, ब्रह्मर्वत्त और आर्यर्वत्त में मान रखा था, वे अब लौटने के लिए नहीं हैं”।

बुङ्ढे का गला भर आया, ऑंसुओं से उसकी छाती भींग गई। उसके पास बैठा वृद्ध लल्ल भी चुपचाप ऑंसू गिरा रहा था। यशोधावल के नेत्रा भी गीले थे। सीढ़ी के नीचे चित्रा और लतिका पड़ी रो रही थी। गीत बन्द हुआ। आधो दण्ड तक किसी के मुँह से कोई बात न निकली। पूर्व की ओर अधेरा छा जाता था। देखते देखते चारों दिशाएँ अन्धकारमय हो चलीं। यशोधावल ने कुमार की ओर दृष्टि फेरी, देखा तो उनका मुखमंडल पीला पड़ गया है, दोनों ऑंखें डबडबाई हुई हैं। वे स्थिर दृष्टि से अन्धकार की ओर देख रहे हैं। यशोधावलदेव ने पुकारा पुत्र,-शशांक!'। कोई उत्तर नहीं। लल्ल घबरा कर उठा। उसने कुमार के कन्धो पर हाथ रखकर पुकारा “कुमार!” जैसे कोई नींद से जाग पड़े उसी प्रकार चौंक कर वे बोले 'क्या?' यशोधावलदेव ने पूछा 'पुत्र! क्या सोच रहे हो?'

शशांक-स्कन्दगुप्त की बात! आप जिस दिन पाटलिपुत्र आए थे-

यशो -उस दिन क्या हुआ था?

शशांक-मैंने तो सोचा था कि किसी से न कहूँगा। उस दिन एक व्यक्ति ने मुझे स्कन्दगुप्त की बात सुनाई थी।

यशो -वह कौन था?

शशांक-शक्रसेन।

लल्ल-यह कैसा सर्वनाश! उसने तुम्हें कैसे देख पाया?

शशांक-तुम उस दिन कहीं चले गए थे। मैंने तुम्हें जब कहीं न देखा तब माधव और चित्रा के साथ बालू में जाकर खेलने लगा। ठीक है न चित्रा?

चित्रा उठकर सीढ़ी के ऊपर आ बैठी थी। उसने सिर हिलाकर कहा 'हाँ।' यशोधावलदेव ने पूछा 'शक्रसेन ने तुम से क्या कहा था?'

शशांक-उसकी सब बातों का तो मुझे स्मरण नहीं है, केवल उसका यही कहना अब तक नहीं भूला है कि शशांक, तुम कभी सुखी न रहोगे। तुम जिस पर विश्वास करोगे वही विश्वासघात करेगा। तुम बिना किसी संगी साथी के अकेले विदेश में मरोगे।

यशो -पुत्र! वज्राचार्य्य शक्रसेन बौद्धसंघ का एक प्रधान नेता और साम्राज्य का घोर शत्रु है। तुम कभी उसकी बात का विश्वास न करना और न कभी उसके पास जाना।

लल्ल-प्रभो! पर वज्राचार्य्य ज्योतिष की विद्या में पारदर्शी प्रसिद्ध है।

यशो -लल्ल! स्वार्थ के लिए बौद्ध जो न करें सो थोड़ा है।

देखते देखते घोर अन्धकार चारों ओर छा गया। दीपक हाथ में लिए एक परिचारक ने कहा 'युवराज! महाराजाधिराज आपको स्मरण कर रहे हैं।' सब लोग घाट पर से उठ कर प्रासाद के भीतर गए।