शशांक / खंड 2 / भाग-2 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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जलविहार

चारों ओर नदियों से घिरे हुए बंगदेश पर चढ़ाई करने के लिए अश्वारोही या पदातिक सेना की अपेक्षा नौसेना अधिक आवश्यक है, यशोधावलदेव इस बात को जानते थे। उन्होंने जल सेना खड़ी करने का भार अपने ऊपर लिया। मगध देश मे ऐसी नदियाँ बहुत कम थीं जिनमें सब ऋतुओं में नावें चल सकती हों, इससे मगध देश के नाविकों को लेकर पूर्व की ओर चढ़ाई करने में सफलता की कम आशा थी। यह सोचकर यशोधावलदेव ने गौड़ देश से माझी बुलवा कर नौसेना खड़ी की। गौड़ देश के काले और नाटे नाटे माझियों की नाव चलाने में फुरती देख पाटलिपुत्र के नागरिक दंग रह जाते थे। प्रतिदिन सर्य्योदय से लेकर सर्य्यास्त तक नई नई नौसेना गंगा की धारा में नाव चलाने और युद्ध करने का अभ्यास करती थी। मगधवासी नागरिक तीर पर खड़े होकर उनकी अद्भुत क्रीड़ा और शिक्षा देखते थे। शशांक, यशोधावलदेव, अनन्तवर्म्मा, नरसिंहगुप्त और लल्ल तीसरे पहर नौसेना की शिक्षा में योग देते थे। कभी कभी सम्राट भी रनिवास की स्त्रियों को साथ लेकर नौका पर भ्रमण करने निकलते थे। कुमार भी कभी कभी अपने संगी साथियों के साथ चित्रा, लतिका और गंगा को लेकर चाँदनी रात में जलविहार करने जाते थे। उस समय नाव पर तरुण कोमल कण्ठ के साथ मधुर संगीत ध्वनि सुनाई देती थी। कुमार की बालसंगिनी भी अब तरुणावस्था में पैर रख चुकी थी। महादेवी अब उन्हें बिना किसी सहचरी के अकेले नहीं जाने देती थीं। प्राय: तरला उनके साथ रहती थी। इन कई वर्षों के बीच तरला प्रासाद के अन्त:पुर में सबको अत्यन्त प्रिय हो गई थी। घर के काम काज में चतुर, आलस्य शून्य, हँसमुख तरुणी तरला दासियों में प्रधान हो गई थी। वसुमित्र को छुड़ाने के पीछे यशोधावल ने उसे अपने सेठ के घर न जाने दिया। तब से बराबर वह प्रासाद ही में बनी हुई है। श्रेष्ठि पुत्र वसुमित्र, संघाराम से छूटने पर बराबर तन मन से यशोधावलदेव की सेवा में ही रहते हैं। इस समय वे नौसेना के एक प्रधान अधयक्ष हैं। यशोधावल के आदेशानुसार जलविहार के समय कुमार वसुमित्र को सदा साथ रखते थे।

वर्षा के अन्त में गंगा बढ़कर करारों से जा लगी है। नावों का बेड़ा तैयार हो चुका है। नौसेना सुशिक्षित हो चुकी है। हेमन्त लगते ही बंगदेश पर चढ़ाई होगी। सामान्य सैनिक से लेकर यशोधावल तक उत्सुक होकर जाड़े का आसरा देख रहे थे। वर्षा काल में तो सारा बंगदेश जल में डूबकर महासमुद्र हो जाता था, शरद ऋतु में जल के हट जाने पर सारी भूमि कीचड़ और दलदल से ढकी रहती थी। इससे हेमन्त के पहले युद्ध के लिए उस ओर की यात्रा नहीं हो सकती थी। बंगदेश की इसी चढ़ाई पर ही साम्राज्य का भविष्य बहुत कुछ निर्भर था। यही सोचकर यशोधावलदेव बहुत उत्सुक होते हुए भी उपयुक्त समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

शरत् के प्रारम्भ में शुक्लपक्ष की चाँदनी रात में कुमार शशांक अपने संगी साथियों सहित जलविहार के लिए निकले हैं। नरसिंहदत्ता, अनन्तवर्म्मा, माधवगुप्त, चित्रा, लतिका और गंगा के साथ कुमार एक नौका पर चन्द्रातप (चँदवा) के नीचे बैठे हैं। चन्द्रातप के बाहर तरला, लल्ल और वसुमित्र बैठे हैं। सैकड़ों गौड़ माझी एक स्वर से गीत गाते हुए नावें छोड़ रहे हैं। उज्ज्वल निखरी हुई चाँदनी चारों ओर छिटककर आभा सी डाल रही है। गंगा की विस्तृत धारा के हिलोरों के बीच चन्द्रमा की उज्ज्वल निर्मल किरनें पड़कर झलझला रही हैं। कुमार की नाव धारा में पड़कर तीर की तरह सन सन बढ़ती चली जाती थी। चित्रा का मुँह उदास था, वह प्रसन्न नहीं थी। सब लोग मिलकर उसे प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहे हैं, पर कुछ फल नहीं हो रहा है। चित्रा ने सुन पाया था कि युद्ध में जाने से मनुष्य मारना पड़ता है।

कुमार भी जायँगे, इसकी चिन्ता में वह दिन दिन सूखती जाती थी, पर पीछे यह सुनकर कि वे शीघ्र लौट आवेंगे उसका जी कुछ ठिकाने आ गया था। पर आज न जाने किसने उससे कह दिया कि युद्ध में मनुष्य मारे जाते हैं, रक्त से धारती लाल हो जाती है। जो युद्ध यात्रा में जाता है वह लौटने की आशा छोड़कर जाता है। यही बात सुनकर वह रोती रोती कुमार के पैरों के नीचे लोट पड़ी और कहने लगी, मैं तुम्हें युद्ध में न जाने दूँगी। तरुणावस्था लगने पर भी चित्रा अभी बालिका ही थी। उसकी बाल्यावस्था का भोलापन और चपलता जरा भी नहीं दूर हुई थी। उसकी इस बात पर सब लोग हँस रहे थे, इसी से वह रूठकर मुँह फुलाए बैठी थी।

कुछ काल तक इस प्रकार चुप रहकर वह एकबारगी पूछ उठी “तुम लोग क्यों युद्ध करने जाओगे?” अनन्तवर्म्मा अवस्था में छोटे होने पर भी गम्भीर स्वभाव के थे। उन्होंने धीरे से उत्तर दिया “देश जीतने।”

चित्रा-देश जीतकर क्या होगा?

शशांक-देश जीतने से राज बढ़ेगा, राजकोष में धन आवेगा।

चित्रा-मनुष्य भी तो मरेंगे?

शशांक-दो तीन सौ मरेंगे।

चित्रा-जो लोग मरेंगे उन्हें पीड़ा न होगी?

शशांक-होगी।

चित्रा-तब फिर उन लोगों को क्यों मारोगे?

शशांक-वे सम्राट की प्रजा होकर उनकी आज्ञा नहीं मानते इसीलिए मारे जायँगे।

चित्रा-क्या ऐसे मनुष्य नहीं हैं जो सम्राट की प्रजा नहीं हैं?

शशांक-हैं क्यों नहीं, बहुत से हैं।

चित्रा-तो उन्हें भी समझ लो कि सम्राट की प्रजा नहीं हैं।

शशांक-यह नहीं हो सकता। चित्रा! विद्रोही प्रजा का शासन करना राज धर्म है। विद्रोह का दमन न करने से राजा का मान नहीं रह जाता। आर्य यशोधावलदेव कहते हैं कि आत्मसम्मानहीन राजशक्ति कभी स्थिर नहीं रह सकती।

चित्रा अब और आगे न चल सकी, मुँह लटकाए बैठी रही। उसे देख नरसिंह बोल उठे 'अच्छा होता, इन्हीं लोगों के हाथ में राज्य का भार सौंप दिया जाता। हम लोग झंझट से बचते।' सब लोग हँस पड़े, पर चित्रा ने कुछ धयान न दिया। वह गहरी चिन्ता में डूबी हुई थी। वह सोच रही थी कि जिसे इतना बड़ा राज्य है वह राज्य और बढ़ाना क्यों चाहता है? राज्य लेने में यदि इतने मनुष्यों को मारना पड़ता है तो राज्य लेने की आवश्यकता ही क्या है? इतनी नरहत्या, इतना रक्तपात करके नया राज्य लेने की आवश्यकता क्या है, यह बात चित्रा की समझ में न आई।

अकस्मात् न जाने कौनसी बात सोचकर वह एकबारगी चिल्ला उठी। 'कुमार ने घबराकर पूछा क्या हुआ ?' चित्रा की दोनों ऑंखें डबडबाई हुई थीं। रुँधो हुए कण्ठ से वह बोल उठी 'तुम जिन लोगों को मारोगे वे भी तुम लोगों को मारेंगे?'

शशांक-मारेगे ही।

चित्रा-तुम्हारी ओर के लोग भी मरेंगे?

शशांक-न जाने कितने लोग मरेंगे, कोई ठिकाना है। शत्रु के अस्त्र शस्त्र की चोट से न जाने कितने सैनिक लँगड़े लूले हो जायँगे।

चित्रा-तो फिर तुम लोग क्यों जाते हो?

शशांक-क्यों जाते हैं, यह बतलाना बड़ा कठिन है। सनातन से ऐसी प्रथा मनुष्य समाज में चली आ रही है, यही समझ कर जायँगे। सैकड़ों मारे जायँगे, हजारों लँगड़े लूले होगे, पीड़ा से तड़पेंगे, न जाने कितने लोग अनाथ हो जायँगे, इतना सब होने पर भी हम लोग जायँगे।

लतिका अब तक चुपचाप बैठी थी। वह बोल उठी 'कुमार! तुम लोग जिन्हें मारने जाओगे वे लोग भी तुम्हें मारेंगे। क्या तुम लोगों को भी वे मार सकेंगे?'

शशांक-सुयोग पावेंगे तो अवश्य मारेंगे, क्या छोड़ देंगे?

लतिका और कुछ न बोली। चित्रा का रोने का रंग ढंग दिखाई पड़ा। कुमार की बात सुन लतिका की गोद में मुँह छिपाकर चित्रा सिसकने लगी। कुमार और नरसिंह उसे शान्त करने लगे। इस बातचीत में जलविहार का सारा प्रमोद भूल गया, मृत्यु के प्रसंग ने सारा आनन्द किरकिरा कर दिया। बहुत देर तक यों ही चुपचाप रहकर कुमार ने माझियों को नगर लौट चलने की आज्ञा दी। नाव लौट पड़ी।

धार में पड़कर नाव बहुत दूर निकल आई थी, चढ़ाव पर प्रासाद तक आने में उसे बहुत विलम्ब लगा। चित्रा के प्रश्न पर कुमार के मन में एक नया भाव उठ रहा था। इसके पहिले उनके मन में और कभी मृत्यु का धयान नहीं आया था। युद्ध में मृत्यु की भी सम्भावना है, यह बात अब तक किसी ने उनके सामने नहीं कही थी। कुमार सोचते थे कि युद्ध में जय और पराजय दोनों सम्भव है, यह बात तो आर्य यशोधावलदेव कई बार कह चुके हैं; पर जय और पराजय के साथ मृत्यु की सम्भावना भी लगी हुई है, यह उन्होंने कभी नहीं कहा। मरने पर तो सब बातों का अन्त हो जाता है। जीवन की जितनी आशाएँ हैं उन सबकी जीवन के साथ ही इतिश्री हो जाती है। जो लोग युद्ध में जायँगे, हो सकता है कि उनमें से अधिकतर लोग लौट कर न आवें, उनके आत्मीय और घर के प्राणी उन्हें फिर न देखें। युद्ध क्षेत्र में न जाने कितने असहाय अवस्था में प्राण छोड़ेंगे, बहुतों को एक घूँट जल भी मरते समय न मिलेगा।

सम्भव है मुझे भी मरना पड़े। मैं भी घायल होकर गिरू और सेना दल मुझे छोड़कर चल दें। मैं तड़पता पड़ा रहूँ और विजयोल्लास में उन्मत्ता सह अश्वारोहियों के घोड़ों की टापों से टकरा कर मेरी देह खण्ड खण्ड हो जाय, कोई मुझे उठाने के लिए न आवे। फिर तो यह सुन्दर पाटलिपुत्र नगर सब दिन के लिए छूट जायगा, बाल्यकाल के क्रीड़ा स्थल, बन्ु बान्धाव, इष्ट-मित्र देखने को न मिलेंगे। मृत्यु कितनी भयावनी है! कुमार की दोनों ऑंखों में जल आ गया, पर किसी ने देखा नहीं।

एक पहर रात बीते नाव पाटलिपुत्र पहुँची। गंगा द्वार पर पहुँचते पहुँचते दो दण्ड और बीत गए। गंगा द्वार के चारों ओर बहुत सी नावें लगी थीं। ये सब नावें बंगदेश की चढ़ाई के लिए ही बनी थीं। नावों के जमघट से थोड़ी दूर पर एक नाव लंगर डाले खड़ी थी। उस पर से एक प्रतीहार ने पुकार कर पूछा 'किसकी नाव है?' वसुमित्र ने चिल्लाकर उत्तर दिया-'साम्राज्य की नौका है।'

प्रतीहार-नाव पर युवराज हैं?

वसुमित्र-हाँ।

प्रतीहार-युवराज से निवेदन करो कि स्वयं महाराजाधिराज और महानायक यशोधावलदेव उन्हें कई बार पूछ चुके।

युवराज अब तक चिन्ता में ही डूबे हुए थे। वे सोच रहे थे कि यदि कहीं युद्ध में मैं मारा गया तो वृद्ध पिता की क्या दशा होगी? साम्राज्य की क्या दशा होगी? जिन्होंने मेरे ही भरोसे पर इस बुढ़ापे में राजकाज का जंजाल अपने ऊपर ओढ़ा है, उन पितृतुल्य यशोधावलदेव का क्या होगा? और भी लोग हैं-माता हैं, वे भी मुझे देखकर ही जीती हैं। चित्रा -

वसुमित्र धीरे से आकर कुमार के सामने खड़ा हो गया, पर उन्हें चिन्ता में देख कोई बात न कह सका। अनन्तवर्म्मा ने पूछा “क्यों सेठ! प्रतीहार ने क्या कहा है?”

वसुमित्र-कहा है कि सम्राट और महानायक कुमार को पूछ रहे हैं।

कुमार मानो सोते से जाग पड़े। उन्होंने पूछा “क्या हुआ?”

वसुमित्र-प्रभो! गंगाद्वार के प्रतीहार ने कहा है कि स्वयं महाराजाधिराज और महानायक यशोधावलदेव कुमार को कई बार पूछ चुके।

अब नाव गंगाद्वार के घाट की सीढ़ियों पर आ लगी। कुमार नाव पर से उतरे। नरसिंहदत्त बोले “चित्रा रोते रोते सो गई है।” पीछे से माधववर्म्मा बोल उठे “लतिका भी सो गई है।” इसी बीच में लल्ल कहने लगा “कुमार! महाराजाधिराज बुला रहे हैं। आप चलें, हम लोग पीछे से आते हैं।”

कुमार धीरे-धीरे प्रासाद के भीतर गए।