शशांक / खंड 2 / भाग-3 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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दु:संवाद

नए प्रासाद के भीतर एक सुसज्जित भवन में सम्राट महासेनगुप्त, महानायक यशोधावलदेव, महामन्त्री ऋषिकेशशर्म्मा, प्रधान विचारपति नारायणशर्म्मा, महाबलाधयक्ष हरिगुप्त, महानायक रामगुप्त प्रभृति प्रधान राजपुरुष बैठे हैं। सब उदास और चिन्तामग्न हैं। महाप्रतीहार विनयसेन चुपचाप भवन के द्वार पर खड़े हैं। वे भी उदास हैं। कुछ दूर पर दण्डधार और प्रतीहार चुपचाप खड़े हैं। अन्त:पुर से रह रहकर थोड़ा थोड़ा रोने का शब्द भी आता है। कुमार गंगाद्वार से एक दण्डधार के साथ अन्त:पुर में आए। दुश्चिन्ता से वे सन्न हो गए थे, रोने का शब्द सुनकर वे और भी दहल उठे। दण्डधार से उन्होंने पूछा “सब लोग रोते क्यों हैं? क्या हुआ, कुछ कह सकते हो”? दण्डधार बोला “प्रभो! मैं कुछ भी नहीं जानता”।

उन्हें दूर ही से देख विनयसेन भीतर जाकर बोले 'महाराजाधिराज! युवराज आ रहे हैं।” सम्राट हाथ पर सिर रखे रखे ही बोले “भीतर बुलाओ”। विनयसेन बाहर निकलकर कुमार को लिए फिर भीतर आए। कुमार पिता के चरणों में प्रणाम करके खड़े रहे। सम्राट के मुँह से कोई शब्द नहीं निकला। यह देख ऋषिकेशशर्म्मा बोले “महाराजाधिराज! युवराज आए हैं”। सम्राट फिर भी चुप। कुमार उनकी उदासी और मौन का कुछ कारण न समझ भौंचक खड़े रहे। अन्त में यशोधावलदेव ने सम्राट को सम्बोधान करके कहा “महाराजाधिराज! युवराज शशांक बहुत देर से खड़े हैं, उन्हें बैठने की आज्ञा हो”। सम्राट सिर नीचा किए ही बोले “पुत्र! बैठ जाओ। हम लोगों का सर्वनाश हो गया। स्थाण्वीश्वर में तुम्हारी बुआ का परलोकवास हो गया”। समाचार सुनकर युवराज सिर नीचा करके बैठ रहे। बहुत बिलम्ब के उपरान्त यशोधावलदेव बोले “महाराजाधिराज! अब शोक में समय खोना व्यर्थ है। पाटलिपुत्र से थानेश्वर कई दिनों का मार्ग है, पर थानेश्वर की सेना चरणाद्रिगढ़ के पास ही है। प्रभाकरवर्ध्दन यदि साम्राज्य पर आक्रमण करना चाहें तो बहुत सहज में कर सकते हैं। महाराजाधिराज अब शोक परित्याग कीजिए, साम्राज्य की रक्षा का उपाय कीजिए”। सम्राट ने कहा “यशोधावल! साम्राज्य की रक्षा का तो मुझे कोई उपाय नहीं सूझता थानेश्वर के साथ युद्ध करने में तो पराजय निश्चय है। बालक और वृद्ध कभी लड़ कर विजयी हो सकते हैं?”

यशो -उपाय न सूझने पर भी कोई उपाय करना ही होगा। जो अपनी रक्षा का उपाय नहीं करता वह आत्मघाती है।

सम्राट-महादेवी की मृत्यु के पहले मैं ही क्यों न मर गया? अपनी ऑंखों से साम्राज्य का धवंस तो न देखता।

रामगुप्त-प्रभो! विलाप करने का कुछ फल नहीं। इस समय जहाँ तक शीघ्र हो सके, चरणाद्रिदुर्ग में सेना भेजनी चाहिए।

यशो -रामगुप्त! सेना कै दिन में चरणाद्रिदुर्ग पहुँचेगी?

राम -अश्वारोही सेना तो तीन दिन में पहुँच सकती है, किन्तु पदातिक सेना दस दिन से कम में नहीं पहुँच सकती।

सम्राट-चरणाद्रिगढ़ कितनी सेना भेजना चाहते हो?

यशो -कम से कम दस सह; पाँच सह पदातिक और पाँच सह अश्वारोही।

सम्राट-चरणाद्रिगढ़ गंगा के तट पर है, गढ़ की रक्षा के लिए कुछ नौसेना भी चाहिए।

यशो -बंगदेश की चढ़ाई के लिए जो नौसेना इकट्ठी की गई है, उसका कुछ अंश भेज देने से कोई विशेष हानि न होगी।

सम्राट-शिविर में कितनी सेना होगी?

हरिगुप्त-पन्द्रह सह अश्वारोही, पचीस सह पदातिक और पाँच सह नौसेना।

सम्राट-नई नावें कितनी होंगी?

हरिगुप्त-पाँच सौ से कुछ कम। इनमें से दो सौ के माँझी तो मगधदेश के ही हैं।

सम्राट-बंगदेश में अश्वारोही सेना ले जाना तो व्यर्थ होगा, अत: चरणाद्रिदुर्ग पर दस सह अश्वारोही भेज देने से इधर कोई हानि न होगी। पर नौसेना अधिक नहीं भेजी जा सकती, क्योंकि बंगदेश में नौसेना ही लड़ेगी।

यशो -प्रभो! कम से कम दो सह अश्वारोही बंगदेश में भी रहने चाहिए क्योंकि कामरूप के राजा क्या करेंगे, नहीं कहा जा सकता।

सम्राट-तो ठीक है। आठ सह अश्वारोही, पाँच सह पदातिक और दो सौ नावें इसी समय चरणाद्रिगढ़ भेज दी जायँ। मगध के माँझियों को बंगयुद्ध में ले जाना व्यर्थ ही होगा। अच्छा, चरणाद्रिगढ़ सेना लेकर जायगा कौन।

यशो -हरिगुप्त और रामगुप्त को छोड़ और तीसरा कौन जा सकता है? पर दो में से किसी एक का पाटलिपुत्र में रहना भी आवश्यक है।

सम्राट-अच्छा तो हरिगुप्त को ही भेजो।

हरिगुप्त-महाराजाधिराज की आज्ञा सिर माथों पर है। पर मैं इस बात का बहुत आसरा लगाए था कि एक बार फिर यशोधावलदेव के अधीन युद्ध यात्रा करूँगा।

यशो -हरिगुप्त! तुम्हारी यह आशा थोड़े ही दिनों में पूरी होगी।

हरि -किस प्रकार, प्रभो!

यशो -अभी कई युद्ध यात्राएँ होंगी।

सम्राट-हरिगुप्त! यशोधावल ठीक कहते हैं। बहुत शीघ्र इतनी अधिक चढ़ाइयाँ करनी पड़ेंगी कि उपयुक्त सेनापति ढूँढ़े न मिलेंगे।

वृद्ध ऋषिकेशशर्म्मा अब तक चुपचाप बैठे थे। बुढ़ापे के कारण उन्हें अब बहुत कम सुनाई पड़ता था। जो बातें हुईं, अधिकांश उन्होंने नहीं सुनीं। वे बैठे बैठे बोल उठे “यशोधावल! तुम लोगों ने क्या स्थिर किया, मुझे बताया नहीं”। यशोधावलदेव ने उनके कान के पास मुँह ले जाकर चिल्लाकर कहा “महाराज ने स्थिर किया है कि आठ सह अश्वारोही, पाँच सह पदातिक और दो सौ नावें लेकर हरिगुप्त इसी समय चरणाद्रिगढ़ की ओर प्रस्थान करें और रामगुप्त नगर की रक्षा के लिए रहें। बंग की चढ़ाई में दो सह अश्वारोही भी जायँगे, क्योंकि कामरूप के राजा क्या भाव धारण करेंगे, नहीं कहा जा सकता”। वृद्ध ने कई बार सिर हिला कर कहा 'बहुत ठीक, बहुत ठीक! पर स्थाण्वीश्वर जाने के सम्बन्ध में क्या व्यवस्था की गई?'

सम्राट-हरिगुप्त चरणाद्रिगढ़ जाते ही हैं, जो व्यवस्था उचित समझेंगे, करेंगे।

ऋषि -प्रभो? वृद्ध की वाचलता क्षमा की जाय। स्थाण्वीश्वर की सेना के आक्रमण से देश की रक्षा करने के अतिरिक्त एक कर्तव्य और भी है। स्थाण्वीश्वरराज आपके भांजे हैं, उन्होंने आपकी भगिनी की मृत्यु का संवाद दूत द्वारा भेजा है। यद्यपि दूत के पाटलिपुत्र पहुँचने के पहिले ही श्राद्ध आदि कृत्य हो चुके होगे, पर सम्राट वंश के किसी व्यक्ति का इस समय वहाँ जाना परम आवश्यक है।

प्रधान सचिव का यह प्रस्ताव सुन यशोधावलदेव, नारायणशर्म्मा और रामगुप्त आदि राज पुरुष धन्य धन्य कहने लगे। सम्राट बोले “अमात्य! आपका प्रस्ताव बहुत ही उचित है, पर स्थाण्वीश्वर किसको भेजूँ। यदि कोई दूर का सम्बन्धी या आत्मीय भेजा जायगा तो प्रभाकरवर्ध्दन अपना अपमान समझेंगे”।

ऋषि -किसी सम्बन्धी को भेजना किसी प्रकार ठीक नहीं; ऐसा करने से तुरन्त झगड़ा खड़ा हो जायगा। युवराज शशांक से प्रभाकरवर्ध्दन मन ही मन बुरा मानते हैं, इसलिए उन्हें भेजना तो बुध्दिमानी का काम नहीं। कुमार माधवगुप्त ही भेजे जा सकते हैं, और कोई उपाय मैं नहीं देखता।

सम्राट-माधव तो अभी निरा बच्चा है।

यशो -महाराजाधिराज! ऐसे स्थान पर बच्चे को भेजना ही ठीक है, क्योंकि इससे किसी प्रकार के विवाद आदि की उतनी सम्भावना नहीं रहती।

सम्राट-तो फिर माधव का जाना ही ठीक है, पर उनके साथ जायगा कौन?

यशो -कुमार माधवगुप्त के साथ किसी बड़े चतुर मनुष्य को भेजना चाहिए। नारायणशर्म्मा यदि जाते तो बहुत ही अच्छा होता, पर

नारायण -यदि महाराजाधिराज की आज्ञा हो तो इस वृध्दावस्था में भी मैं शास्त्रा छोड़कर अभी शस्त्रा धारण करने को प्रस्तुत हूँ, स्थाण्वीश्वर जाना तो कोई बड़ी बात नहीं है।

सम्राट-बहुत अच्छी बात है। अच्छा तो महाधार्माधिकार ही कुमार के साथ जायँगे।

ऋषिकेशशर्म्मा सब बातें नहीं सुन सके थे। वे पूछने लगे “यशोधावल, क्या स्थिर किया?”

यशो -कुमार माधवगुप्त ही स्थाण्वीश्वर जायँगे। महाधार्म्माधिकार नारायणशर्म्मा उनके साथ जायँगे।

ऋषि -साधु! साधु! किन्तु यशोधावलदेव, एक बात तो बताओ। हरिगुप्त तो चरणाद्रि जायँगे, नारायण स्थाण्वीश्वर जाते हैं, रामगुप्त नगर की रक्षा के लिए रहते हैं, मैं वृद्ध हूँ, किसी काम का ही नहीं हूँ। तुम युद्ध में किसे लेकर जाओगे?

यशो -प्रभो! सेनापति का क्या अभाव है? नरसिंह, माधव, युवराज शशांक यहाँ तक कि अनन्तवर्म्मा भी अब युद्ध विद्या में पूर्ण शिक्षित हो चुके हैं। बंगदेश की चढ़ाई मं् ये ही लोग हमारी पृष्ठरक्षा करेंगे। यदि साम्राज्य की रक्षा होगी, यदि बंगदेश पर अधिकार होगा, तो इन्हीं लोगों के द्वारा। हम लोग अब वृद्ध हुए, कर्मक्षेत्र से अब हम लोगों के छुट्टी लेने का समय है। यदि आगे का सब कार्य इन लोगों के हाथ में देकर हम लोग छुट्टी पा जायँ तो इससे बढ़कर भगवान् की कृपा क्या होगी?

ऋषि -साधु! यशोधावल, साधु! आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारा यह साधु उद्देश्य सफल हो।

यशो -महाराजाधिराज! अब विलम्ब करने का काम नहीं। आज रात को ही सेना सहित हरिगुप्त को प्रस्थान करना होगा।

सम्राट-अच्छी बात है। हरिगुप्त! प्रस्तुत हो जाओ और आज रात को ही सेना सहित नगर परित्याग करो।

हरिगुप्त प्रणाम करके बिदा हुए। सम्राट ने विनयसेन को बुलाकर कहा “तुम इसी समय शिविर में जाओ। अंग और तीरभुक्ति की अश्वारोही सेना को आज रात को ही हरिगुप्त के साथ चरणाद्रिगढ़ जाना होगा। आठ सह अश्वारोही और पाँच सह पदातिक दो पहर रात बीते ही प्रस्थान करेंगे, शेष सेना नगर में ही रहेगी। तुम जाकर सेनानायकों को तैयार होने के लिए कहो”। विनयसेन अभिवादन करके चले गए। सम्राट ने फिर कहा “रामगुप्त! जिन दो सौ नावों पर मगधके माझी हैं वे हरिगुप्त के साथ चरणाद्रि जायँगे।, उन्हें तैयार होने के लिए कहो।” रामगुप्त प्रणाम करके गए।

रात का तीसरा पहर बीता चाहता है, यह देख ऋषिकेशशर्म्मा और नारायणशर्म्मा सम्राट से विदा होकर अपने अपने घर गए। यशोधावलदेव और कुमार शशांक भी बाहर निकल आए। यशोधावलदेव ने कहा “पुत्र मैं शिविर में जा रहा हूँ। तुम भी सेना की यात्रा देखने चलोगे?” युवराज ने कहा “आर्य! मैं बहुत थका हुआ हूँ।” यशोधावलदेव उन्हें विश्राम करने के लिए कहकर चले गए। उनके ऑंखों की ओट होते ही चित्रा दौड़ी दौड़ी आई और कुमार के गले लगकर कहने लगी “कुमार! तो फिर क्या तुम युद्ध में न जाओगे?” कुमार ने चकित होकर पूछा “क्यों?”

चित्रा-हरिगुप्त न जा रहे हैं।

शशांक-तुमने कैसे सुना?

चित्रा-मैं कोठरी के उधार कोने में छिपी छिपी सब सुन रही थी।

शशांक-चित्रा! तुम अभी सोई नहीं?

चित्रा-मुझे नींद नहीं आती। तुम भी युद्ध में जाओगे, यह सुनकर मेरा जी न जाने कैसा करता है।

शशांक-मैं युद्ध में जाऊँगा, यह बात तो तुम बहुत दिनों से सुनती आतीहो।

चित्रा-युद्ध में मनुष्य मारे जाते हैं, यह तो तुमने कभी कहा नहीं था।

मन्त्रणा-सभा में आकर कुमार को मृत्यु की बात भूल ही गई थी। चित्रा की बात से फिर उन्हें दुश्चिन्ता ने आ घेरा। वे चित्रा की बात का कोई उत्तर न देकर सोच विचार में डूब गए। उन्हें चुप देखकर चित्रा ने पुकारा-”कुमार!”

शशांक-क्या है चित्रा?

चित्रा-कहो कि मैं युद्ध में न जाऊँगा।

शशांक-पिताजी की बात भला कैसे टाल सकता हूँ?

चित्रा-तुम्हारे पिता क्या तुम्हें जानबूझकर मरने देंगे?

शशांक-वे जानबूझकर मुझे कैसे मरने देंगे?

चित्रा-तो फिर!

शशांक-तो फिर क्या?

चित्रा-तो फिर तुम्हें मरना न होगा?

कुमार हँस पड़े और बोले “मरना भी क्या किसी के हाथ में रहता है”?

चित्रा ने कुछ सुना नहीं, वह बार बार कहने लगी “अच्छा, कहो कि मैं न मरूँगा”। कुमार ने हँसते हँसते कहा “अच्छा, लो न मरूँगा”।

चित्रा-यह नहीं, तुम मेरी शपथ खाकर कहो।

शशांक-अच्छा तुम्हारी शपथ खाकर कहता हूँ, चित्रा! कि मैं बंगदेश के इस युद्ध में न मरूँगा।

चित्रा-कहो कि लौटकर आऊँगा।

शशांक-कहाँ?

चित्रा-मेरे पास, और कहाँ? नहीं, नहीं, इस पाटलिपुत्र नगर में।

शशांक-तुम्हारे सिर की सौगन्धा खाकर कहता हूँ कि बंगदेश के युद्ध से मैं लौटकर तुम्हारे पास पाटलिपुत्र नगर में आऊँगा।

चित्रा ने अपने मन की बात होने पर कुमार के गले पर से हाथ हटा लिया और दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े महादेवी के शयनागार की ओर गए।