शशांक / खंड 2 / भाग-4 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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संवाद प्रेरणा

दो पहर रात बीत गई है। नगर के तोरणों पर दूसरे पहर का बाजा बज रहा है। राजधानी में बिलकुल सन्नाटा है। एक पतली गली में एक छोटी सी दूकान पर तेल का एक दीया जल रहा है। दूकान पर बैठी सहुवानी पान चबा रही है और एक पुरुष के साथ धीरे धीरे बातचीत भी करती जाती है। पुरुष कह रहा है “अब मैं यहाँ और अधिक न रहूँगा, देश को जाऊँगा। बहुत दिन हो गए; अब और विलम्ब करूँगा तो प्रभु रुष्ट होंगे”। रमणी रूठने का भाव बना कर कह रही है 'पुरुष जाति ऐसी ही होती है। यदि देश का ऐसा ही प्रेम था तो परदेश में आए क्यों? मुझसे इतनी बातचीत क्यों बढ़ाई?”

पुरुष मल्लिका! तुम रूठ गई। मैं क्या तुम्हारा विरह बहुत दिनों तक सह सकूँगा? कभी नहीं। एक बरस के भीतर ही लौट आऊँगा।

रमणी-तुम्हारी बात का कोई ठिकाना नहीं।

पुरुष-मैं तुम्हारे सिर की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि अगली शरद पूर्णिमा तक आ जाऊँगा। इसमें रत्ती भर भी झूठ न समझना।

रमणी उसकी बात को अनसुनी करके दूसरी ओर मुँह फेरे बैठी थी। पुरुष काठ के एक पाटे पर बैठा था। मान दूर होता न देख वह आसन पर से उठा और रमणी की ओर बढ़ा। इतने में गली में किसी के चलने का शब्द सुनाई पड़ा। पुरुष सहमकर अपने आसन पर आ बैठा। रमणी भी अपना मुँह पुरुष की ओर फेर कर बैठी। एक सैनिक ने दूकान पर आकर रमणी से कहा “मल्लिका! मेरे यहाँ तुम्हारा जो कुछ निकलता हो उसे चुकाने आया हूँ। तुम्हारी दूकान अब तक खुली हुई है। मैं तो समझता था कि तुम दूकान बन्द करके सोई होगी, मुझे बहुत पुकारना पड़ेगा”। रमणी ने हँसते हँसते कहा “देखना मल्लिका को एकबारगी भूल न जाना, कभी कभी स्मरण करना। उधार चुकाने की इतनी जल्दी क्या थी, सबेरे आकर चुकाते”।

सैनिक-मुझे रात को ही नगर छोड़ कर जाना होगा। सेनापति आकर हम लोगों को तैयार होने के लिए कह गए हैं। दो पहर रात गए ही जाने की बातचीत थी, पर कई कारणों से विलम्ब हो गया। अब तीन पहर रात बीतने पर प्रस्थान होगा।

रमणी-खड़े ही रहोगे? थोड़ा बैठ न जाओ।

सैनिक-बैठने का समय नहीं है, अभी और कई दूकानों पर जाना है।

रमणी-तब फिर यहाँ आने का क्या प्रयोजन था? जब लौटकर आते तब उधार चुकाते।

सैनिक-न, न मल्लिका, रूठो मत, मैं आज बहुत हड़बड़ी में हूँ, बैठ नहीं सकता। तुम्हारा कितना निकलता है, बतलाओ।

रमणी-अरे, कितना क्या? सब मिलाकर पन्द्रह सोलह द्रम्म1 होगा।

सैनिक ने अपने टेंट से एक स्वर्णमुद्रा निकालकर फेंक दी। रमणी ने उसे दीपक के उजाले के पास ले जाकर देखा और चकित होकर बोली “अरे, यह तो दीनार2


1. द्रम्म प्राचीन काल का चाँदी का सिक्का है।

2. दीनार स्वर्णमुद्रा, जिसका मूल्य 15 से 20 द्रम्म तक होता था।

है। नया दीनार। तुम कहाँ से पा गए?”

सैनिक-किसी बात की चिन्ता न करो, जाली नहीं है, राजकोष से मिला है। यात्रा की आज्ञा के साथ ही तीन मास का वेतन सब को मिल गया है।

रमणी-कहाँ जाना होगा?

सैनिक-यह नहीं बता सकता, बताने का निषेधा है।

रमणी अपना मुँह फेरे हुए सैनिक के आगे चार द्रम्म फेंककर बोली “अच्छा तो जाओ”। सैनिक ने कहा “जाऊँ कैसे? तुम तो रूठी जाती हो”।

रमणी-मेरे रूठने से तुम्हारा क्या बनता बिगड़ता है। जब तुम इतना तक नहीं बता सकते कि कहाँ जाते हो तब मेरे रूठने की तुम्हें क्या चिन्ता?

सैनिक-मुझ पर इतना कोप न करो। स्थान बताने का बहुत कड़ा निषेध है, पर तुमसे तो किसी बात का छिपाव नहीं है, तुम्हारे कान में कहे जाता हूँ।

सैनिक ने रमणी के कान के पास मुँह ले जाकर कुछ कहा। पास बैठे हुए पुरुष ने कुछ भी न सुना। अन्त में रमणी ने 'जाओ' कहकर सैनिक को ढकेल दिया। वह रुपए उठा कर हँसता हँसता चला गया। पुरुष चुपचाप अपने आसन पर बैठा रहा। जब सैनिक चला गया तब रमणी फिर पहिले की तरह मुँह फेर कर बैठी। पुरुष यह देख हँसकर बोला 'हैं! फिर वही बात”।

स्त्री चुप रही। पुरुष फिर उठकर स्त्री के पास पहुँचा और उसका माथा छूकर शपथ खाने लगा। वह प्रसन्न होकर उसकी ओर मुँह करके बैठी। सहुवानी पाठकों की पूर्व परिचिता वही परचूनवाली है जिसके यहाँ यज्ञवर्म्मा के पुत्र अनन्तवर्म्मा ने आश्रय लिया था। महादेवी जिस समय प्रासाद में विचार करने बैठी थीं तब महाप्रतीहार विनयसेन इसी को पकड़ लाए थे। रमणी का मानभंजन हो चुकने पर दोनों वात्तर्लाप में प्रवृत्ताहुए। पुरुष ने ढंग से उस सैनिक की बातचीत चला कर उसका परिचय जान लिया; किन्तु वह सैनिक कहाँ जायगा, इस विषय में कुछ न पूछा। सैनिक के चले जाने के प्राय: दो दण्ड पीछे वह पुरुष भी अपने आसन से उठा। रमणी ने पूछा “अब तुम कहाँ चले?”

पुरुष-दक्षिण तोरण के पास मैं अपने एक मित्र के घर एक बहुमूल्य वस्तु भूल आया हूँ। यदि इसी समय जाकर पता न लगाऊँगा तो फिर न मिलेगी।

रमणी-अब इतनी रात को जाना ठीक नहीं।

पुरुष-क्यों?

रमणी-मार्ग में चोर डाकू मिलेंगे।

पुरुष-मेरे पास अस्त्र है।

रमणी-बहुत सावधान होकर जाना। रात को लौटोगे न?

पुरुष-अवश्य लौटूँगा।

दुकान से उठकर वह पुरुष एक पतली गली से होता हुआ राजपथ पर आ निकला और दक्षिण की ओर जल्दी जल्दी चलने लगा। कुछ दूर चलने पर जब उसने अच्छी तरह समझ लिया कि कोई पीछे पीछे नहीं आ रहा है, तब वह पश्चिम की ओर मुड़ा। कई पतली अधेरी गलियों से होता हुआ वह पश्चिम तोरण पर पहुँचा। उसने देखा कि फाटक अभी खुला है, मार्ग के किनारे बहुत से दीपक जल रहे हैं और अश्वारोही सेना के दल पर दल तोरण से होकर नगर के बाहर निकल रहे हैं। उसने यह भी देखा कि प्रतीहार लोग और किसी को नगर के बाहर नहीं जाने देते। तोरण के इधर उधर बहुत से नागरिक सेना की यात्रा देख रहे हैं। उस पुरुष ने भीड़ में से एक व्यक्ति से पूछा “भाई, कह सकते हो कि ये लोग कहाँ जा रहे हैं”? उसने कहा “न, यह कोई नहीं जानता”। वह भी भीड़ में मिलकर सेना की यात्रा देखने लगा। अश्वारोहियों का एक दल निकल गया, उसके पीछे कई सेनानायक धीरे धीरे जाते दिखाई पड़े। उनमें से एक नवयुवक ने पास के एक पुराने सेनानायक से पूछा “इस समय चरणाद्रि दुर्ग में सेना भेजने की क्या आवश्यकता है, कुछ समझ में नहीं आता”। वह प्रवीण सेनानायक कुछ हँसकर बोला “इसी से लोग कहते हैं कि बालकों के सामने कोई गुप्त बात नहीं कहनी चाहिए। इतनी ही देर में सेनापति की आज्ञा भूल गए?” वह पुरुष अधेरे में तोरण के एक कोने में छिपा हुआ यह बात सुन रहा था। सेनानायकों के निकल जाने पर अश्वारोहियों का दूसरा दल आया। उसके आते ही वह व्यक्ति अधेरा पकड़े हुए पूर्व की ओर जाने लगा।

तीन पहर रात जाते जाते वह पुरुष कपोतिक संघाराम के तोरण के भीतर घुसा। पहर बीतने पर नगर के तोरणों पर से बाजे की ध्वनि सुनाई देने लगी। संघाराम के भीतर विहारों में भी पूजा के शंख और घण्टे की ध्वनि हो रही थी। संघाराम में दल के दल भिक्खु और उपासिकाएँ एकत्र हो रही थीं। उस पुरुष को एक भिक्खु ने पहचाना और पूछा “क्यों नयसेन! इतनी रात को कहाँ से आ रहे हो?” उसने कोई उत्तर न देकर पूछा “महास्थविर कहाँ है?” भिक्खु ने धीरे से कहा “वज्रतारा के मन्दिर में”। वह पुरुष उसे छोड़कर भीड़ में मिल गया।

संघाराम के बीचो बीच बुद्धदेव का बड़ा मन्दिर था। उसके दक्खिन लोकनाथ का मन्दिर था। लोकनाथ विहार के ईशान कोण पर वज्रतारा का मन्दिर था। मन्दिर के भीतर अष्टधातु के एक अष्टदल पद्म के ऊपर देवी की एक धातुप्रतिमा थी। कमल के प्रत्येक दल पर धूप घण्टा, वज्रघण्टा आदि देवियों की मूर्ति थीं। बड़ी धूमधाम से इन नवों देवियों की पूजा हो रही थी। एक भिक्खु धूप तारा की आरती कर रहा था। मन्दिर के एक कोने में कुशासन पर बैठे महास्थविर बुद्धघोष पूजन की विधि बोल रहे थे। मन्दिर के द्वार पर उपासक उपासिकाओं की भीड़ खड़ी थी। वह पुरुष द्वार पर मार्ग न पाकर झाँकी के पास गया। वहाँ से उसने देखा कि महास्थविर खिड़की के पास हीबैठे हैं। उस पुरुष ने झाँककर देखा कि पूजन में श्वेत पुष्प ही चढ़ रहे हैं, केवल दोचारलाल देवीफूल (रक्त जवा) इधर उधर दिखाई पड़ते हैं। वह खिड़की पर से हटकर फिर मन्दिर


1. विहार = बौद्ध मन्दिर।

के द्वार पर आया और उसने एक भक्त से एक देवीफूल लिया। खिड़की के पास फिर जाकर उसने फूल महास्थविर के ऊपर फेंका। महास्थविर ग्रन्थ पढ़ पढ़कर पूजन की विधि बोल रहे थे। पोथी पर लाल फूल पड़ते देख उन्होंने सिर उठाकर देखा। खिड़की पर एक मनुष्य खड़ा देख उन्होंने फूल फिर खिड़की की ओर फेंका। इसके पीछे एक भिक्खु को बुलाकर वे बोले “पाठ में कुछ व्याघात पड़ गया, तुम बैठकर पाठ करो”। वह भिक्खु आसन पर आ जमा और महास्थविर मन्दिर के बाहर निकले। महास्थविर को उठते देख वह व्यक्ति खिड़की के पास से हट गया और भीड़ में जा मिला।

महास्थविर को बाहर आते देख उपासक उपासिकाओ ने मार्ग छोड़ दिया। वे किसी ओर न देख धीरे धीरे चले। भीड़ में से निकल उस पुरुष ने महास्थविर को प्रणाम किया। वे आशीर्वाद देकर फिर चलने लगे। इसी बीच उस पुरुष ने उनके कान में न जाने क्या कहा। उन्होंने कहा “तितल्ले की कोठरी में चलो”। वह पुरुष फिर भीड़ में मिल गया। महास्थविर संघाराम के भीतर गए।

संघाराम के तीसरे तले की एक कोठरी में महास्थविर बुद्धघोष आसन पर बैठे हैं। कोठरी का द्वार बन्द है। भीतर घृत का एक दीपक जल रहा है। देखने से तो जान पड़ता है कि महास्थविर जप कर रहे हैं, पर सच पूछिए तो वे उत्सुक होकर उस पुरुष का आसरा देख रहे हैं। आधी घड़ी पीछे कोठरी का किवाड़ किसी ने खटखटाया। महास्थविर ने उठकर किवाड़ खोले, वह पुरुष भीतर आया। महास्थविर ने सावधानी से किवाड़ फिर भिड़ाकर उससे पूछा “नयनसेन! इतनी रात को क्यों आए? कोई नया समाचार है?”

नय -विशेष समाचार न होता तो इतनी रात को कष्ट न देता। अभी बहुतसी अश्वारोही सेना पश्चिम तोरण से होकर चरणाद्रि गई है।

महा -कितने अश्वारोही रहे होंगे?

नय -मैं अच्छी तरह देख न सका, पर पाँच सह से ऊपर जान पड़ते थे।

महा -सेनापति कौन था?

नय -इसका पता तो नहीं लगा सका।

महा -संवाद कहाँ भेजना चाहिए?

नय -कान्यकुब्ज या प्रतिष्ठानपुर।

महा -अच्छी बात है।

नय -पर संवाद भेजना सहज नहीं है, क्योकि इस समय नगर से कोई बाहर नहीं निकलने पाता।

महा -तब तो चिन्ता की बात है। अच्छा तुम बैठो, मैं उपाय सोचता हूँ।

महास्थविर के सामने एक वेदी के ऊपर एक घण्टा रखा था। उसे उठाकर उन्होंने दो बार बजाया। क्षण भर भी नहीं हुआ था कि बाहर से किसी ने किवाड़ खटखटाया। नयनसेन ने उठकर किवाड़ खोला। एक वृद्ध भिक्खु ने कोठरी में आकर वृद्ध को प्रणाम किया। महास्थविर बोले “जाकर देखो तो मृगदाव के आचार्य्य बुद्धश्री चले गए कि अभी हैं”। भिक्खु प्रणाम करके बाहर गया और फिर थोड़ी देर में लौटकर बोला “आचार्य्य बुद्धश्री अभी संघाराम में ही हैं”। महास्थविर ने उन्हें बुला लाने के लिए कहा।

भिक्खु के कोठरी से बाहर चले जाने पर महास्थविर ने नयनसेन से कहा “चरणाद्रिगढ़ क्यों जा रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आता”।

नय -मैंने तो संयोग से एक सैनिक के मुँह से यह बात सुनी। सुनते ही मैं पश्चिम तोरण की ओर दौड़ा। वहाँ जाकर देखा कि सचमुच बहुत से अश्वारोही जा रहे हैं। वहीं से मैं सीधो आपके पास संवाद देने आ रहा हूँ।

महा -जब से यशोधावल आए हैं तब से इधर कोई संवाद मुझे नहीं मिल रहा है। नगर में, शिविर में, राजभवन में हमारे सैकड़ों गुप्तचर हैं, पर उनमें से एक भी कोई संवाद लेकर मेरे पास नहीं आया। सम्राट1 के पास भी मैंने एक निवेदन भेजा है कि संघ के कार्य में बड़ी बाधा पड़ रही है, उसका भी कुछ फल नहीं। बात यह है कि महादेवी अभी जीवित हैं।

महास्थविर की बात पूरी भी न हो पाई थी कि पूर्वोक्त भिक्खु एक और बुङ्ढे और दुबले पतले भिक्खु को साथ लिए कोठरी में आया। साथ आए हुए भिक्खु ने महास्थविर को प्रणाम किया। उन्होंने कहा “आचार्य्य! तुम्हें एक विशेष कार्य से इसी समय बाहर जाना होगा। एक संवाद है जिसे प्रतिष्ठानपुर या कान्यकुब्ज पहुँचाना होगा। आज रात को बहुत-से अश्वारोही चरणाद्रि की ओर गए हैं, यह बात स्थाण्वीश्वर के किसी सेनानायक के कान में डालनी होगी। प्रतीहार आज रात को किसी को नगर के बाहर नहीं जाने देते हैं, पर संवाद लेकर आज रात को ही जाना चाहिए। तुम किसी युक्ति से रात ही को प्रस्थान कर सकते हो?”

आचार्य्य-मैं चेष्टा करके देखता हूँ।

महा -किस मार्ग से जाओगे?

आचार्य्य-स्थल मार्ग से जाना तो सम्भव नहीं, नदी के मार्ग से निकलने का प्रयत्न करूँगा।

महा -बहुत ठीक। नयसेन! तुम गंगातट तक आचार्य्य को पहुँचा आओ।

आचार्य्य बुद्धश्री और नयसेन महास्थविर को प्रणाम करके कोठरी से बाहर निकले।


1. थानेश्वर के प्रभाकरवर्ध्दन।