शशांक / खंड 2 / भाग-5 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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सखी-संवाद

एक पहर दिन चढ़ चुका है। शरद ऋतु की धूप अभी उतनी प्रचण्ड नहीं हुई है। पाटलिपुत्र के राजपथ पर ओहार से ढकी एक पालकी वेग से पूर्व की ओर जा रही है। नगर के जिस भाग में सेठ और महाजन बसते थे वहाँ की सड़क बहुत पतली थी। राजभवन की पालकी और आगे पीछे दण्डधार देखकर नागरिक सम्मान दिखाते हुए किनारे हट जाते थे। फिर भी कभी कभी पालकी को रुक जाना पड़ता था क्योंकि रथ, छकड़े और घोड़े आते जाते मिल जाते थे। बीच बीच में पालकी के भीतर बैठी हुई स्त्री कहारों को मार्ग भी बताती जाती थी। इस प्रकार कुछ दूर चलने पर स्त्री की आज्ञा से पालकी रखी गई। पालकी के भीतर से घूँघट डाले एक स्त्री बाहर निकली। उसे देख दो दण्डधार पास आ खड़े हुए। उनमें से एक बोला “आप उतर क्यों पड़ीं? महाप्रतीहार ने तो आज्ञा दी थी कि सेठ के अन्त:पुर के द्वार पर पालकी ले जाना”।

स्त्री-इसका कुछ विचार न करो और न यह बात महाप्रतीहार से कहने की है। मैं सेठ के घर पालकी पर बैठ कर न जाऊँगी। एक बार जिसकी मैं दासी रह चुकी हूँ अब राजभवन मे दासी हो जाने के कारण उसके यहाँ राजरानी बनकर पालकी पर तो मुझसे जाते नहीं बनेगा। पालकी और कहार यहीं रहें, हाँ, तुम में से कोई दो आदमी मेरे साथ चले चलें।

इतना कहकर वह स्त्री आगे बढ़ी। कुछ दूर जाकर वह एक अट्टालिका के भीतर घुसी, और दोनों दण्डधारों को द्वार पर ठहरने के लिए कहती गई। घर के ऑंगन में एक दासी हाथ में झाड़ई लिए खड़ी थी। वह स्त्री को भीतर आते देख पास आकर पूछने लगी “बहूजी! कहाँ से आ रही हो?” स्त्री ने हँसकर घूँघट हटा दिया और कहा “अरे वाह, बसन्तू की माँ! इतने ही दिनों में मनुष्य मनुष्य को भूल जाता है? इस घर में कितने दिन एक साथ रही, तीन ही बरस में ऐसी भूल गई मानो कभी की जान पहचान ही नहीं”। दासी के हाथ से झाड़ई छूट पड़ी, वह चकपका कर आनेवाली स्त्री का मुँह ताकती रह गई, फिर बोली “अरे कौन, तरला? पहचानूँ कैसे, भाई, तू जिस ठाट बाट से आई है उसे देख तुझे कौन पहचान सकता है? मैं तो समझी कि कोई सेठानी यहाँ मिलने के लिए आई है। तेरे सम्बन्ध में तो बड़ी बड़ी बातें यहाँ सुनने में आती हैं। तू इस समय बड़े लोगों में हो गई है, राजभवन की दासी हो गई है; तेरा इस समय क्या कहना है! रूप यौवन का गर्व कहीं समाता नहीं है। अब अपने पुराने मालिक का घर तेरे धयान में क्यों आने लगा?”

तरला-बसन्तू की माँ! देखती हूँ कि झगड़ा करने की तेरी बान अब तक नहीं गई। अरे! तेरा रूप यौवन नहीं रहा तो क्या किसी का न रहे?

बसन्तू की माँ-अरे बाप रे बाप! मुँहजली राजभवन में जाकर दासी क्या हुई है कि धारती पर पाँव ही नहीं पड़ते हैं। मेरा रूप यौवन रहा या न रहा, तुझको क्या?

तरला-रहा या नहीं रहा, यह तो तू आप पानी में अपना मुँह देखकर समझ सकती है।

बसन्तू माँ -तू ही अपना मुँह जाकर पानी में देख, मुझे क्या पड़ी है? मुँहजली घर छोड़कर गई फिर भी स्वभाव न छूटा। सबेरे सबेरे यहाँ लड़ने आई है।

ज्यों ज्यों बसन्तू की माँ का क्रोध बढ़ता गया त्यों त्यों उसका स्वर भी ऊँचा होता गया। उसे सुनकर अन्त:पुर से किसी युवती ने पूछा “बसन्तू की माँ! किसके साथ झगड़ा कर रही है?” बसन्तू की माँ ने सुर सप्तम तक चढ़ा कर उत्तर दिया “यह है, तुम्हारी तरला, बड़ी चहेती तरला”। फिर प्रश्न हुआ “क्या कहा?” बसन्तू की माँ गला फाड़ कर बोली “अरे तरला, तरला” सदा यौवन के उमंग में रहने वाली तरला। अब सुना?”

अन्त:पुर से एक कृशांगी रमणी ने आकर तरला का हाथ थाम लिया और कहने लगी “अरी वाह री, राजरानी! इतने दिनों पीछे सुधा हुई”। तरला ने प्रभुकन्या को प्रणाम करके कहा “बहिन! ऐसी बात न कहो”। युवती ने उदास स्वर से कहा “तू इस घर का मार्ग ही भूल गई थी क्या, तरला?”

तरला-बहिन! जो कुछ हुआ सब तुम्हारे ही लिए तो!

युवती ने ऑंचल से ऑंसू पोंछे और तरला का हाथ पकड़कर अन्त:पुर के भीतर ले गई। बसन्तू की माँ ने अपना गर्जन क्रमश: धीमा करते करते झाड़ई फिर हाथ में लिया और वह अपने काम में लग गई। तरला ने अपने पुराने अन्नदाता के घर में जाकर सबको यथायोग्य प्रणाम किया और फिर उनसे बातचीत करने लगी। यूथिका कुछ काल तक तो चुपचाप बैठी रही, फिर तरला का हाथ पकड़कर उसे अपनी कोठरी में ले गई और किवाड़ भिड़ा लिए। तरला भूमि पर ही बैठने जाती थी पर सेठ की बेटी ने उसे जोर से खींचकर पलंग पर बिठाया और उसके गले में हाथ डालकर बोली “तरला! अब मेरा क्या होगा?” तरला ने हँसकर कहा “विवाह”। यूथिका उसका मुँह चूमकर पूछा “कब?”

तरला-अभी।

यूथिका-किसके साथ?

तरला-क्यों? मेरे साथ।

यूथिका-तेरे साथ ब्याह तो न जाने कब का हो चुका है।

तरला-तो फिर अब और क्या होगा? क्या दो के साथ करोगी?

यूथिका-तेरे मुँह में लगे आग, तुझे जब देखो रसरंग ही सूझा रहता है। बोल! क्या मैं अब यों ही मरूँगी?

तरला-मरे तुम्हारा बैरी। तुम मर जाओगी तो सेठ के कुल में रासलीला कौन करेगा ?

यूथिका-रासलीला करेंगे यमराज। तरला, सच कहती हूँ अब मैं मरा ही चाहती हूँ। मैं देखती हूँ कि मेरे दिन अब पूरे हो गए। तीन बरस बीत गए; इस बीच में एक क्षण के लिए भी उनके साथ देखा देखी नहीं हुई। अब अन्तिम बार देख लेती, यही बड़ी भारी इच्छा है।

यूथिका से और आगे कुछ बोला न गया, उसका गला भर आया। वह अपनी बाल्यसखी की गोद में मुँह छिपाकर रोने लगी। तरला ने किसी प्रकार उसे समझाकर शान्त किया और कहा “छि: बहिन, इतनी अधीर क्यों होती हो? वे छूट गए हैं, कुशल आनन्द से हैं। तुम्हारे ही लिए इतना सब करके मैंने उन्हें छुड़ाया है। इस समय वे श्रीयशोधावलदेव के सबसे अधिक विश्वास पात्र हैं। महानायक उन्हें बहुत चाहते हैं। यह सब समाचार मैं तुम्हारे पास पहिले भेज चुकी हूँ”।

यूथिका-ये सब बातें तो मैं सुन चुकी हूँ। पर उनका छूटना तो इस समय विष हो रहा है। पिताजी कहते हैं कि स्त्री के लिए जिसने संघ का आश्रय छोड़ दिया, पवित्र कषाय वस्त्र त्याग दिया उसे मैं कन्यादान नहीं दे सकता।

तरला-यह मैं सुन चुकी हूँ।

यूथिका-तब फिर क्या होगा?

तरला-घबराओ न।

यूथिका-तुझे पता नहीं है, पिताजी भीतर ही भीतर मेरे सर्वनाश का उपाय कर रहे हैं। वे मेरे विवाह की कई जगह बातचीत कर रहे हैं। यदि उन्होंने मेरा विवाह और कहीं कर दिया तो मैं प्राण दे दूँगी। अब फिर मैं उन्हें देख सकूँगी या नहीं, नहीं कह सकती। पर इतनी बात जाकर उनसे कह देना कि यह शरीर अब दूसरे का नहीं हो सकता, दूसरा इसे छूकर कलंकित नहीं कर सकता। प्राण रहते तो पिताजी इसे दूसरे को अर्पित नहीं कर सकते। एक बार उन्हें देखने की बड़ी इच्छा है। तरला! यदि मैं मर जाऊँ तो उनसे कहना कि तुम्हें देखने का अभिलाष हृदय में लिए ही यूथिका मर गई।

चित्ता के वेग से सेठ की कन्या का गला भर आया। तरला से भी कुछ कहते सुनते न बना। वह यूथिका का सिर अपनी गोद में लेकर उसके लम्बे लम्बे केशों पर अपना हाथ फेरने लगी। बहुत देर पीछे तरला के मुँह से शब्द निकला। उसने कहा “यह बात भी मैं सुन चुकी हूँ। इसके भीतर बन्धुगुप्त का चक्र भी चल रहा है, इसका पता यशोधावलदेव को गुप्तचरों से लग चुका है। उन्होंने मुझे तुम्हारे पास भेजा है”। यूथिका ने सिर उठाकर कहा “मैं क्या कर सकती हूँ?”

तरला-भाग सकती हो?

यूथिका-किसके साथ? बड़ा डर लगता है।

तरला-डरो न, मेरे साथ नहीं भागना होगा, तुम्हारे साथ रास रचनेवाले ही तुम्हें आकर ले जायँगे।

यूथिका-दुत!

लज्जा से यूथिका के मुँह पर ललाई दौड़ गई। तरला हँसती हँसती बोली “तो क्या करोगी, न जाओगी?”

यूथिका-पिताजी क्या कहेंगे?

तरला-अब दोनों ओर बात नहीं रह सकती। बोलो, तुम्हारे केवट से जाकर क्या कह दूँ। कह दूँ कि तुम्हारी नाव दलदल में जा फँसी है और दूसरे माझी ने उस पर अधिकार कर लिया है?

यूथिका-तेरा सिर।

तरला-क्या करोगी, बोलो न।

यूथिका-जाऊँगी।

तरला-मैं भी यही उत्तर पाने की आशा करके आई थी।

यूथिका अपनी सखी को हृदय से लगाकर बार बार उसका मुँह चूमने लगी। अवसर पाकर तरला बोली “अरे उस बेचारे के लिए भी कुछ रहने दो, सब मुझको ही न दे डालो”। यूथिका ने हँसकर उसे एक घूँसा जमाया। तरला बोली “तो फिर अब विलम्ब करने का काम नहीं”।

यूथिका-क्या आज ही जाना होगा?

तरला-हाँ! आज ही रात को।

यूथिका-किस समय?

तरला-दो पहर रात गए।

यूथिका-वे किस मार्ग से आयँगे?

तरला-अन्त:पुर के उद्यान का द्वार खोल रखना , मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी। बाहर वे घोड़ा लिए खड़े रहेंगे। घोड़े पर चढ़ सकोगी न?

यूथिका-घोड़े पर मैं कैसे चढ़ईँगी।

तरला-तब तो फिर तुम जा चुकी।

यूथिका-अच्छा तो उनसे जाकर कह दो कि वे जो जो कहेंगे मैं करूँगी।

तरला-अच्छा, तो फिर मैं आऊँगी।

तरला यूथिका को गले लगा और सेठ के घर के और लोगों से बिदा हो अट्टालिका के बाहर निकली।

सेठ के घर के द्वार से निकल तरला ने देखा कि बसन्तू की माँ कहीं से लौटकर आ रही है। वह उसे देखते ही हँसकर बोली “बसन्तू की माँ, मुझसे रूठ गई हो क्या?” बसन्तू की माँ तो पहले से ही खलबलाई हुई थी। जब तक झगड़े में उसकी पूरी जीत न हो जाय तब तक वह चुप बैठनेवाली नहीं थी। वह तरला की बात सुन गरज कर बोली “अरे तेरा सत्यानाश हो, सबेरे सबेरे तुझे कोई काम धन्धा नहीं जो तू घर घर झगड़ा मोल लेने निकली है?” तरला ने देखा कि बसन्तू की माँ के समान कलहकलाकुशल स्त्री से पार पाना सहज नहीं है, व्यर्थ समय खोना ठीक नहीं। उसने बहुत सी मीठी मीठी बातें कहकर बसन्तू की माँ को अपने पराजय का निश्चय करा दिया। इसके पीछे वह दोनों दण्डधारों के साथ पालकी की ओर चली गई। बसन्तू की माँ भी गर्जन तर्जन छोड़ कुछ बड़बड़ाती हुई सेठ के घर में घुस गई।