शशांक / खंड 2 / भाग-6 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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विरहलीला

तरला प्रासाद में लौटकर अन्त:पुर की ओर नहीं गई, सीधो यशोधावलदेव के भवन में घुसी। प्रतीहार और दण्डधार उसे पहचानते थे इससे उन्होंने कुछ रोक टोक न की। सम्मान दिखाते हुए वे किनारे हट गए। महानायक के विश्राम करने की कोठरी के द्वार पर स्वयं महाप्रतीहार विनयसेन हाथ में बेंत लिए खड़े थे। उन्होंने तरला का मार्ग रोककर पूछा “क्या चाहती हो?” तरला ने उत्तर दिया “महानायक को एक बहुत ही आवश्यक संवाद देने जाती हूँ”। विनयसेन ने बेंत से उसका मार्ग रोककर कहा “भीतर महाराजाधिराज हैं, अभी तुम वहाँ नहीं जा सकती”। तरला ने कहा “संवाद बहुत ही आवश्यक है”। विनयसेन ने कहा “तो संवाद मुझसे कह दो मैं जाकर दे आऊँ, नहीं तो थोड़ी देर ठहरो”। एक बार तो तरला के मन में हुआ कि विनयसेन अत्यन्त विश्वासपात्रा कर्म्मचारी हैं उनसे यूथिका की बात कह देने में कोई हानि नहीं। पर पीछे उसने सोचा कि ऐसी बात न कहना ही ठीक है। बहुत आगे पीछा करके वह महाप्रतीहार से बोली “अपराध क्षमा करना। संवाद बहुत ही गोपनीय है, उसे प्रकट करने का निषेध है। मैं तब तक यहीं खड़ी हूँ। जब महाराज बाहर निकलें तो मुझे पुकार लीजिएगा”।

तरला एक खम्भे की ओट में जा बैठी और सोचने लगी कि किस उपाय से यूथिका को बाहर लाऊँगी और लाकर कहाँ रखूँगी। बहुत देर सोचते सोचते जब मन में कुछ ठीक न कर सकी तब वह उठ खड़ी हुई और उसने यही निश्चय किया कि ऐसी ऐसी बातें सुलझाना एक सामान्य दासी का काम नहीं, सिर खपाना व्यर्थ है। अपनी बुध्दि को धिक्कारती हुई वह महानायक के स्थान की ओर बढ़ी, पर दो ही चार कदम गई होगी कि उसने देखा कि द्वार पर सम्राट, यशोधावलदेव, युवराज, कुमार माधवगुप्त और महामन्त्ी ऋषिकेशशर्म्मा खड़े हैं। तरला उन्हें देख फिर एक खम्भे की आड़ में छिप गई।

सम्राट ने पूछा “तो तुम लोग कब जाना चाहते हो?” यशोधावलदेव बोले “र्कात्तिक शुक्ला त्रायोदशी को”।

सम्राट-अच्छी बात है। माधव क्या तुम लोगों के पहिले ही जायँगे? मैं तो समझता हूँ कि जब तक चरणाद्रि से कोई संवाद न आ जाय तब तक माधव का प्रस्थान करना उचित नहीं है।

यशो -महाराज! प्रभाकरवर्ध्दन यदि खुल्लम खुल्ला लड़ाई ठान दें तो भी महादेवी के सांवत्सरिक श्राद्ध पर किसी सम्राट वंशीय पुरुष को जाना ही होगा। मार्ग बहुत दिनों का है। माधवगुप्त इतनी लम्बी यात्रा शीघ्र न कर सकेंगे, उन्हें थानेश्वर पहुँचने में 6-7 महीने लग जायँगे। इससे शीघ्र यात्रा करना ही उचित है। मैं चाहता हूँ बंगदेश की चढ़ाई पर जाने के पहले मैं कुमार को उधार भेज दूँ।

सम्राट ने लम्बी साँस भरकर कहा “अच्छा, यही सही। यात्रा का कोई दिन स्थिर किया है?” यशोधावलदेव ने उत्तर दिया “आश्विन के शुक्लपक्ष की किसी तिथि को जाना ठीक होगा”। ऋषिकेशशर्म्मा कुछ न सुन सके थे। वे विनयसेन को पुकारकर पूछने लगे “कहो भाई! क्या ठीक हुआ?” विनयसेन के उत्तर देने के पूर्व ही यशोधावलदेव ने चिल्लाकर कहा “अश्विन शुक्लपक्ष में कुमार माधवगुप्त को थानेश्वर भेजना स्थिर किया है”। महामन्त्रीजी हँसकर बोले 'साधु! साधु”! यह सब हो चुकने पर सब लोग सम्राट को अभिवादन करके चले गए, केवल यशोधावल सम्राट से कहने लगे “महाराज! कल रात को एक गुप्तचर पकड़ा गया है, सुना है?”

सम्राट-न। कहाँ पकड़ा गया?

यशो -वह पिछली रात को नाव पर चढ़कर नगर से निकलने का यत्न कर रहा था, पर गौड़ीय नौसेना नाव समेत उसे पकड़ लाई।

सम्राट-वह क्या मगध का ही रहने वाला है ?

यशो -हमारे गुप्तचरों ने उसे पहचाना है। उसका नाम बुद्धश्री है। वह मगध का न होने पर भी साम्राज्य की प्रजा है। पिछली रात को जब महाराजाधिराज की आज्ञा से नौसेना प्रस्थान कर रही थी उसी समय साम्राज्य की नावों के साथ वह अपनी नाव मिलाकर नगर त्याग करने का प्रयत्न कर रहा था। पकड़े जाने पर बुद्धश्री कहने लगा कि मैं अंगदेश से वाराणसी जा रहा हूँ, वह मार्ग में ही पकड़ लिया गया है। गुप्तचरों ने संवाद दिया है कि वह इधर दो वर्ष से बराबर कपोतिक संघाराम में महास्थविर बुद्धघोष के पास रहता है। उसका क्या दण्डविधान किया जाय ?

सम्राट-क्या दण्ड देना चाहते हो?

यशो -वह गुप्तचर है इसमें तो कोई सन्देह नहीं। गुप्तचर न होता तो भेष बदलकर रात को चुपचाप नगर से निकलने की चेष्टा क्यों करता? मेरा अनुमान है कि बुद्धघोष ने किसी उपाय से यह पता पाकर कि सेना चरणाद्रिगढ़ जा रही है इस पुरुष के द्वारा थानेश्वर संवाद भेजा था। बुद्धश्री बड़ा भयंकर मनुष्य है। पकडेज़ाने के समय उसने दो मनुष्यों को घायल किया और कारागार में बड़ी साँसत सहकर भी अपना भेद नहीं दिया। मैं उसे वही दण्ड देना चाहता हूँ जो गुप्तचरों को देना चाहिए।

सम्राट-क्या, प्राणदण्ड?

यशो -महाराजाधिराज की जैसी आज्ञा हो।

सम्राट-क्या कोई और दण्ड देने से न होगा?

यशो -वह यदि जीता बचेगा तो आगे चलकर साम्राज्य का बहुत कुछ अनिष्ट करेगा।

सम्राट-अभी न जाने कितनी नरहत्या करनी होगी। व्यर्थ किसी का प्राण लेने से क्या लाभ?

यशो -तो फिर महाराजाधिराज की क्या आज्ञा होती है?

सम्राट-उसे छोड़ देना ठीक न होगा?

यशो -किसी प्रकार नहीं।

सम्राट-तो फिर कारागार में डाल दो।

सम्राट इतना कहकर चले गए। यशोधावलदेव फिर घर के भीतर जाना ही चाहते थे कि तरला खम्भे की ओट से निकलकर आई और उसने प्रणाम किया। महानायक ने पूछा “तरला! क्या क्या कर आई?”

तरला ने हँसकर कहा “प्रभु के आशीर्वाद से सब कार्य सिद्ध कर आई”।

यशो -अच्छी बात है। सेठ की लड़की घर से निकलना चाहती है?

तरला-इसी क्षण।

यशो -तब फिर विलम्ब किस बात का?

तरला-प्रभु की यदि आज्ञा हो तो आज रात को ही सेठ की कन्या को ले आऊँ।

यशो -अच्छा, तो फिर तुम्हारे साथ एक तो वसुमित्र जायगा, और कौन कौन जायँगे?

तरला-बहुत-से लोगों को ले जाने की क्या आवश्यकता है?

यशो -एक किसी और विश्वासी आदमी का साथ रहना अच्छा है।

तरला-तो फिर किसको जाना होगा?

यशो -तुम अपना किसी को ठीक कर लो।

तरला-भला, मैं आदमी कहाँ पाऊँगी?

यशोधावलदेव हँसते हँसते बोले “ढूँढ़कर देखो, कोई न कोई मिल जायगा”। इतना कहकर वे कोठरी के भीतर चले गए।

तरला मन ही मन सोचने लगी कि यह क्या पहेली है, मैं आदमी कहाँ पाऊँगी? महानायक की बात का अभिप्राय न समझ वह ठगमारी सी खड़ी रही। अकस्मात् उसे आचार्य्य देशानन्द का धयान आया। वह हँस पड़ी। जब से देशानन्द संघाराम से छूटकर आया है तब से बराबर प्रासाद ही में रहता है। यशोधावलदेव ने उसे अभयदान देकर उसके निर्वाह का प्रबन्ध कर दिया है। देशानन्द अपने प्राण के भय से प्रासाद के बाहर कभी पैर नहीं रखता और किसी बौद्ध को देखते ही गाली देने लगता है। वह सदा अपने बनाव सिंगार में ही लगा रहता है। उसने सिर पर लम्बे लम्बे केश रखे हैं। कई पत्तियों का लेप चढ़ाकर वह सिर, मूँछ और दाढ़ी के बाल रँगे रहता है। जब कोई उससे उसका परिचय पूछता है तब वह कहता है कि महानायक यशोधावलदेव ने मेरी वीरता देख मुझे अपना शरीर रक्षी बनाया है, इसी से मैं प्रासाद के बाहर नहीं जाता। जब महानायक बंगदेश की चढ़ाई पर जायँगे तब मुझे भी जाना होगा। बहुत दिनों पर तरला को अपने पुराने सेवक का धयान आया। वह अपनी हँसी किसी प्रकार न रोक सकी। वह झट से यशोधावलदेव के वासस्थान से निकल तोरण की ओर चली। प्रासाद के दूसरे और तीसरे खंड को पार करती वह प्रथम खण्ड के तोरण पर पहुँची जहाँ प्रतीहारों और द्वारपालों का डेरा था।

तरला ने कई कोठरियों में जाकर देखा, पर देशानन्द का कहीं पता न लगा। उसे न पाकर वह कुछ चिन्ता में पड़ गई क्योंकि समय बहुत कम रह गया था। दो चार और कोठरियो में देखकर तरला प्रथम खंडवाले तोरण के बाहर निकल इधर उधार ताकने लगी। उसने देखा कि खाई के किनारे एक बड़े पीपल के नीचे देशानन्द बैठा है। उसके सामने एक बड़ा सा दर्पण रखा है और वह अपने बाल सँवार रहा है।

प्रासाद में आने के पीछे तरला और देशानन्द की देखादेखी कभी नहीं हुई थी। तरला को देखने की सदा उत्कण्ठा बनी रहने पर भी देशानन्द को यह भरोसा नहीं था कि कभी प्रासाद के अन्त:पुर में जाने का अवसर मिलेगा। बहुत दिनो पर तरला को आते देख देशानन्द आनन्द के मारे आपे से बाहर हो गया। तरला ने उसका स्त्री वेश बनाकर उसे मन्दिर में बन्द कर दिया था, उसके कारण उसका प्राण जातेजाते बचा था, यशोधावलदेव यदि समय पर न पहुँच जाते तो भिक्खु लोग उसे सीधे यमराज के यहाँ पहुँचा देते, ये सब बातें क्षण भर में वृद्ध देशानन्द भूल गया। तरला को देखते ही उसकी नस नस फड़क उठी। उसे तनमन की सुधा न रही। पहिले तो वह समझा कि तरला किसी काम से प्रासाद के बाहर जा रही है, पर तरला को अपनी ओर आते देख उसका भ्रम दूर हो गया। अब तो उसे मानलीला सूझने लगी। वह समझ गया कि तरला उसी की खोज में निकली है। वृद्ध सिर नीचा करके अपने पके बालों को सँवारने में लग गया।

तरला ने देशानन्द के पास आकर साष्टांग दंडवत की और मुसकराती हुई बोली “बाबाजी! कैसे हैं? दासी को पहिचानते हैं?” देशानन्द ने कोई उत्तर न दिया, मुँह फेरकर बैठ रहा। तरला समझ गई कि बाबाजी ने मान किया है, मान किसी प्रकार छुड़ाना होगा। वह हँसती हुई देशानन्द के और पास जा बैठी। अब तो वृद्ध का चित्ता डाँवाडोल हो गया, पर उसने अपना मुँह न फेरा। तरला ने देखा कि देशानन्द को मना लेना बहुत कठिन नहीं है। उसने एक ठण्ढी साँस भरकर कहा “पुरुष की जाति ऐसी ही होती है, मैं तीन वर्ष से जिसे देखने के लिए मर रही हूँ वह मेरी ओर ऑंख उठाकर देखता तक नहीं है”। अब तो देशानन्द से न रहा गया, वह मुँह फेरकर बोला “तुम-तुम-फिर कैसे?” तरला ने वृद्ध की ओर कटाक्ष करके कहा “अब क्यों न ऐसा कहोगे? तुम्हारे लिए मेरी जाति गई, मान गया, लोक लज्जा गई अब तुम ऐसा न कहोगे तो फिर कलिकाल की महिमा ही क्या रहेगी?” देशानन्द चकित होकर कहने लगा “तुम क्या कह रही हो, मेरी समझ में नहीं आता। अब क्या बन्धुगुप्त की गुप्तचर बनकर मुझे पकड़ाने आई हो?” तरला ने देखा कि देशानन्द का मान कुछ गहरा है। अब तो उसने स्त्रियों का अमोघ अस्त्रा छोड़ा। अंचल से वह अपनी ऑंखें पोंछने लगी। देखते देखते उसके नीलकमल से नेत्रो में जल झलकने लगा। देशानन्द घबरा कर उठा और बार बार पूछने लगा “क्या हुआ? क्या हुआ?”

तरला ने जाना कि इतनी देर पीछे अब मानभंग हुआ। वह देशानन्द की बात का कोई उत्तर न देकर रोने लगी। अब तो बुङ्ढा एकबारगी पिघल गया। एक दण्ड पीछे जब तरला ने रोने से छुट्टी पाई तब देशानन्द को उसने अच्छी तरह समझा दिया कि उसके मन्दिर में बन्द होने का कारण वह न थी, अदृष्ट था। तरला ने कहा “मैंने ही तुम्हें छुड़ाने के लिए दूसरे दिन सबेरे यशोधावलदेव को भेजा था। देशानन्द को अपने भ्रम का पूर्ण निश्चय हो गया और वह खिल उठा। तरला ने अवसर देख धीरे से कहा “बाबाजी! आज मैं एक बड़े काम के लिए तुम्हारे पास आई हूँ”।

देशा -कहो, कहो, क्या काम है?

तरला-बात बहुत ही गुप्त रखने की है, पर तुमसे कोई बात छिपाना तो ठीक नहीं। पर देखना किसी पर प्रकट न होने पावे।

देशा -न, न, भला ऐसा कभी हो सकता है?

तरला-देखो, आज राजकुमारी अभिसार को जायँगी। मेरे साथ किसी विश्वासपात्रा को चलना चाहिए। बोलो, चलोगे?

देशा -अकेले?

तरला-नहीं, नहीं, मैं साथ रहूँगी।

देशा -तब तो अवश्य चलूँगा।

तरला-राजकुमारी को कुंजकानन में पहुँचाकर हम दोनों को लौट आना होगा। समझ गए न?

देशानन्द बहुत अच्छी तरह समझ गया, कुछ समझना बाकी न रह गया। उसने हँसते हँसते तरला का हाथ पकड़ा। तरला हाथ छुड़ा दूर जा खड़ी हुई और बोली, “तो मैं रात को आकर तुम्हें धीरे से बुला ले जाऊँगी, जागते रहना”। देशानन्द बोला “बहुत अच्छा”।