शशांक / खंड 2 / भाग-7 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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समुद्रगुप्त का गीत


पुराने राजप्रासाद के निचले खण्ड की एक कोठरी में यदुभट्ट भोजन करके लेटा हुआ है। जान पड़ता है बुङ्ढे को झपकी आ गई है क्योंकि यशोधावलदेव कोठरी में आए और उसे कुछ पता न लगा। यशोधावलदेव ने उसकी चारपाई के पास जाकर ज्यों ही नाम लेकर पुकारा वह चकपकाकर उठ बैठा और महानायक को सामने खड़ा देख घबराकर नीचे खड़ा हो गया। महानायक ने पूछा “तुम्हारा भोजन हो गया?” यदु ने कहा “हाँ, धार्मावतार! कभी का। प्रभु ने इतनी दूर आने का कष्ट “।

यशो -हाँ! तुमसे कुछ काम है।

यदु -तो मैं बुला लिया गया होता।

यशो -बात बहुत गुप्त रखने की है, इसी से मैं ही टहलता टहलता इधर चला आया।

यदु -प्रभु! विराजेंगे?

यदु ने एक फटा सा आसन लाकर भूमि पर बिछा दिया। महानायक उस पर बैठ गए और भट्ट से बोले “यदु! तुम्हें एक काम करना होगा”।

यदु -जो आज्ञा हो, प्रभु!

यशो -हम लोगों के युद्धयात्रा करने के पहले एक दिन तुम्हें समुद्रगुप्त का गीत सुनाना होगा। तुम्हें स्मरण होगा कि जब हम लोग युवा थे तब यात्रा के पहले तुम गीत सुनाया करते थे।

यदु -यह तो कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी, प्रभु! समुद्रगुप्त की विजययात्रा के गीत मैं सैकड़ों बार गा चुका हूं।

यशो -सब कथा तो तुम्हें स्मरण है, न?

यदु -स्मरण कहाँ तक रह सकती है? अब तो महाराज की आज्ञा से भट्ट चारणों का गाना बन्द ही हो गया है; यदि भूल जाऊँ तो आश्चर्य ही क्या है? महाराजाधिराज समुद्रगुप्त की प्रशस्तियाँ तो बहुत लोगों ने लिखी हैं, किसकी गाऊँ?

यशो -मैं तो समझता हूँ कि हरिषेण की प्रशस्ति सब से अच्छी है। तुम्हें स्मरण है, न?

यदु -पूरी पूरी। इतने दिनों तक कोई सुनने वाला ही न था। महाराज के निषेध करने पर भी मैंने कई बार युवराज के बहुत कहने से उन्हें गुप्तवंश कीर् कीत्तिकथा गाकर सुनाई है। कभी कभी मैंने कहानी के बहाने बहुत सी बातें कह सुनाई हैं। पर महाराज इसके लिए भी एक दिन मुझपर बहुत बिगड़े थे।

यशो -वे सब दिन अब गए, यदु! अच्छा बताओ, कब गाओगे?

यदु -आज्ञा हो तो इसी समय सुनाऊँ।

यशो -केवल मुझे सुनाने से नहीं होगा, यदु! जो लोग अपने जीवन भर में पहले-पहले लड़ाई पर जा रहे हैं उन्हें सुनना होगा।

यदु -तो फिर जिन्हें जिन्हें सुनना हो उन्हें आप इकट्ठा करें।

यशो -अच्छी बात है, अभी लो।

यशोधावलदेव ने ताली बजाई। एक प्रतीहार बाहर खड़ा था, उसने कोठरी में आकर प्रणाम किया। यशोधावलदेव ने नरसिंहदत्त को बुलाने की आज्ञा दी। प्रतीहार के चले जाने पर महानायक ने भट्ट से पूछा “यदु! तुम अकेले गा सकते हो न? गंगातट पर शिविर में चलकर गाना होगा”। यदु ने आनन्द में फूलकर कहा “प्रभु किसी बात की चिन्ता न करें। यदु के कण्ठ में अब तक बल है, किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं”। थोड़ी देर में प्रतीहार नरसिंह को साथ लिए आ पहुँचा। नरसिंहदत्त के प्रणाम का उत्तर देकर महानायक ने पूछा “कुमार कहाँ हैं?”

नर -महादेवी के मन्दिर में।

यशो -उनसे जाकर कहो कि अभी इसी समय शिविर में चलना होगा। यात्रा के पहले मंगलगीत सुनना है। आज यदुभट्ट समुद्रगुप्त की विजय यात्रा का गीत गायँगे; सब लोग तैयार रहें।

नर -हम सब लोग अभी युवराज के साथ शिविर में चलते हैं।

नरसिंहदत्ता चले गए। महानायक भट्ट से बोले “यदु चलो अब हम लोग भी चलें”। यदुभट्ट ने अपना उत्तरीय लिया और दोनों पुराने प्रासाद से चलकर नए प्रासाद में पहुँचे।

तीसरे पहर जब महानायक यशोधावलदेव का रथ गंगातट पर शिविर के बीच पहुँचा उसके पहले ही युवराज शशांक और उनके साथी वहाँ पहुँच चुके थे। मैदान में सारी अश्वारोही और पदातिक सेना सशस्त्रा होकर कई पंक्तियों में खड़ी थी। सब मिलाकर बीस सह पदातिक और सात सह अश्वारोही नए नए अस्त्र शस्त्रो और नए नए परिधानों से सुसज्जित आसरे में खड़े थे। गंगा में गौड़ देश के माझियोंवाली तीन सौ नावें दस पंक्तियों में खड़ी थीं। महानायक को देखते ही तीस सह मनुष्यों ने एक स्वर से जयध्वनि की। महानायक यशोधावलदेव और यदुभट्ट रथ पर से उतरे। युवराज की आज्ञा से तीनों सह गौड़ीय नाविक भी नावों पर से उतर कर अलग श्रेणीबद्ध होकर खड़े हुए। रामगुप्त, यशोधावलदेव, युवराज शशांक, कुमार माधवगुप्त, नरसिंहदत्ता माधववर्म्मा और अनन्तवर्म्मा इत्यादि नायक सेनादल के बीच में खड़े हुए। वृद्ध भट्ट वीणा लेकर सबके सामने बैठा।

वीणा बजने लगी। पहले तो धीरे धीरे, फिर द्रुत, अतिद्रुत झनकार निकल कर एकबारगी बन्द हो गई। फिर झनकार उठी और उसके साथ साथ वृद्ध का गुनगुनाना सुनाई पड़ा। वीणा के साथ गीत का स्वर मिलकर क्रमश: ऊँचा होने लगा। एकत्रा जनसमूह चुपचाप खड़ा सुनने लगा। भट्ट गाने लगा।

“यह कौन चला है? आर्यर्वत्त और दाक्षिणात्य को कम्पित करता यह कौन चला है? सैकड़ों नरपतियों के मुकुटमणि जिसके गरुड़धवज को अलंकृत कर रहे हैं, समुद्र से लेकर समुद्र तक, हिमालय से लेकर कुमारिका तक सारा जम्बूद्वीप जिसकी विजय वाहिनी के भार से काँप उठा है वह कौन है? महाराजाधिराज समुद्रगुप्त”।

“मागधा वीरो! समुद्रगुप्त का नाम सुना है? खेत की घास के समान जिसने अच्युत और नागसेन को उखाड़ फेंका, जिसके पदचिद्द का अनुसरण करके सैकड़ों वर्ष पीछे तक मागधा सेना निरन्तर विजययात्रा के लिए निकलती रही वह समुद्रगुप्त ही थे।”

“सात सौ वर्ष पर मगधराज फिर विजययात्रा के लिए निकले हैं। आर्यर्वत्त में रुद्रदेव, मतिल, नागदत्ता, नन्दी, बलवर्म्मा प्रभृति राजाओं के अधिकार लुप्त हो गए, दिग्विजयाभिलाषी चन्द्रवर्म्मा छड़ी खाए हुए कुत्तो के समान भाग खड़े हुए, नलपुर में गणपतिनाग का ऊँचा सिर नीचा हुआ, आर्यर्वत्त फिर एक छत्रा के नीचे आया। आटविक राजाओं ने सिर झुकाकर सेवा स्वीकार की, सारा आर्यर्वत्त जीत लिया गया, अब समुद्रगुप्त की विजयवाहिनी दक्षिण की ओर यात्रा कर रही है”।

“महाकोशल में महेन्द्र का प्रताप अस्त हुआ, भीषण महाकान्तार में व्याघ्रराज ने कुत्तो के समान पूँछ हिलाते हुए दासत्व स्वीकार किया। पूर्व समुद्र के तट पर मेघमंडित महेन्द्रगिरि पर स्थित दुर्जय कोट्ट दुर्गाधिपति स्वामिदत्त, पिष्टपुरराज महेन्द्र, केरल के मंटराज, एरंडपल्ल के दमन ने अपना अपना सिंहासन छोड़ सामन्तपद ग्रहण किया।”

“मागध सेना दाक्षिणात्य की ओर चली है। सैकड़ों लड़ाइयाँ जीतने वाले पल्लवराज ने कांचीपुरी में आश्रय लिया, किन्तु कांची का पाषाणप्राचीर और शंकर का त्रिशूल भी विष्णुगोप की रक्षा न कर सका। नगर के तोरण पर गरुड़धवज स्थापित हो गया। अविमुक्तक्षेत्र में नीलराज, वेंगीनगर में हस्तिवर्म्मा और पलक्क में उग्रसेन ने दाँतों तले तृण दबाकर अपनी पगड़ी महाराजाधिराज के पैरों पर रख दी। पर्वतवेष्टित देवराष्ट्र में कुबेर और कुस्थलपुर में धानंजय राज्यच्युत हुए। डर के मारे समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल और कर्तृपुर के नरपतियों ने अधीनता स्वीकार करके कर दिया।”

“विजयवाहिनी अब मगध लौट रही है। अवन्तिका के मालव, आभीर और प्रार्जुन; आटविक प्रदेश के सनकानीक, काक और खरपरिक; सप्तसिन्धु के उर्जनायन, यौधोय और मद्रक गणों ने भी, जिन्होंने कभी राजतन्त्रा स्वीकार नहीं किया था, महाराजाधिराज के चरणों पर सिर झुकाया”।

“महाराजाधिराज पाटलिपुत्र लौट आए हैं। दैवपुत्रसाहि, साहानुसाहि, शक, मुरुण्ड आदि बर्बर म्लेच्छ राजाओं ने भयभीत होकर अनेक प्रकार के अलभ्य रत्न भेजे हैं। समुद्र पार सिंहलराज का सिंहासन भी काँप उठा है। शत्रु ओं की कुलांगनाओ ने सब लोक लज्जा छोड़ विजयी सेनादल की अभ्यर्थना की है। सैकड़ों राजाओं के मुकुटों से रत्न निकाल निकाल कर महाराजाधिराज पाटलिपुत्र नगर के राजपथ पर भिक्षुओं की झोली में फेंकते जा रहे हैं। नृग, नहुष, ययाति, अम्बरीष आदि राजाओ ने भी ऐसा दिग्विजय न किया होगा”।

“कलि में अश्वमेधा यज्ञ किसने किया? जिन्होंने दासीपुत्र के वंश को मगध के पवित्र राजसिंहासन पर से हटाया, जिसके भय से वायव्य दिशा के पर्वतों के यवन तक काँपते रहते थे उन्होंने किया। और दूसरा कौन करेगा? किसका अश्व दिगन्त से दिगन्त तक घूम कर आया है? किसके यज्ञ की दक्षिणा पाकर ब्राह्मण फिर ब्राह्मण हुए हैं? ऐसा कौन है? महाराजाधिराज समुद्रगुप्त”।

गीत की ध्वनि थम गई। सह कंठों से जयध्वनि उठी। भीषण नाद सुनकर कपोतिक संघाराम की गढ़ी में बैठे महास्थविर बुद्धघोष दहल उठे।

फिर गीत की ध्वनि उठी-

“भाइयो! दो सौ वर्ष बीत गए, पर मगध मगध ही है। फिर विजययात्रा के लिए मगधसेना निकला चाहती है। पूरा भरोसा है कि तुम प्राचीन मगध का मान, इस प्राचीन साम्राज्य का मान, अपने पुराने महानायक का मान रखोगे। समुद्रवत् मेघनाद के तट पर तुम्हारे बाहुबल की परीक्षा होगी, मेघनाद के काले जल को शत्रुओं के रक्त से लाल करना होगा, वैरियो की वधुओं की माँग पर की सिन्दूर रेखा मिटानी होगी। मागधा वीरो! सन्नद्ध हो जाओ”।

गीत बन्द हुआ। तीस सहò कण्ठों से फिर भीषण जयध्वनि उठी। सेनापति के आदेश से सेनादल शिविर की ओर लौटा। यशोधावलदेव धीरे धीरे भट्ट के पास जाकर बोले “यदु! हरिषेण का गीत आज उतना अच्छा क्यों न लगा?” यदु ने चकपका कर कहा “ मैंने तो भरसक चेष्टा की”। यशोधावलदेव ने कहा “फिर न जाने क्यों नहीं अच्छा लगा?” उस दिन स्कन्दगुप्त के गीत ने जैसा मर्मस्थल स्पर्श किया था वैसा आज यह गीत न कर सका”। भावी विपत्ति की आशंका से वृद्ध महानायक का हृदय व्याकुल हो उठा। सब लोग शिविर से नगर की ओर लौट पडे।