शशांक / खंड 2 / भाग-8 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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राजकुमारी का अभिसार

रात के सन्नाटे में तरला ने प्रासाद के बाहर निकल देशानन्द की कोठरी के किवाड़ खटखटाए। देशानन्द तो जागता ही था, उसने झट उठकर किवाड़ खोले और कहा “भीतर आ जाओ”। तरला बोली “विलम्ब बहुत हो गया है, अब भीतर आने का समय नहीं है। जल्दी तैयार होकर आओ”। देशानन्द बाहर आ खड़ा हुआ। उसका ठाट बाट देख तरला चकित हो गई। वह देर तक उसका मुँह ताकती रही। वृद्ध ने मजीठ में रँगा वस्त्र धारण किया था, सिर पर चमचमाती पगड़ी बँधी थी, कटिबन्धा में तलवार लटक रही थी और हाथ में शूल था। वृद्ध सोचने लगा कि तरला मेरे वीरवेश पर मोहित हो गई है। उसने धीरे से पूछा “मैं कुछ अच्छा लग रहा हूँ?” तरला बोली “अच्छे तो तुम न जाने कितने दिनों से लग रहे हो। यह तो बताओ, यह सब पहिनावा तुम्हें मिला कहाँ?”

देशा -कुछ मोल लिया है, कुछ महानायक ने दिया है।

तरला-रुपया कहाँ मिला?

देशा -आते समय तुम्हारे लिए संघाराम के भण्डार से धन निकाल लाया था।

देशानन्द तरला के साथ साथ चलने लगा। अकस्मात् एक गहरी ठोकर खाकर गिर पड़ा। तरला ने पूछा “क्या हुआ”? देशानन्द बोला “कुछ नहीं, पैर फिसल गया था”। पर बात यह थी कि रात को देशानन्द को अच्छी तरह सुझाई नहीं पड़ता था। पर प्राण जाय तो जाय देशानन्द भला यह बात कभी तरला के सामने कह सकता था? कुछ दूर चलते चलते एक पेड़ की मोटी जड़ को न देख देशानन्द फिर टकरा कर गिरा। तरला समझ गई कि बुङ्ढे को रतौंधी होती है। उसने मन में सोचा, चलो अच्छी बात है। बुङ्ढा रात को कुछ देख न सकेगा, सेठ की लड़की को ही राजकुमारी समझेगा। तरला देशानन्द को साथ लिए प्रासाद के तोरण के बाहर हुई। यह देख देशानन्द बोला “तुम अन्त:पुर में तो गई नहीं?” तरला ने हँसकर कहा “तुम्हारी बुध्दि तो चरने गई है। भला इतने लोगों के बीच मैं तुम्हें लेकर अन्त:पुर में जाऊँगी तो तुम्हारी तो जो दशा होगी वह होगी ही, मैं भी प्राण से हाथ धोऊँगी”। देशानन्द सिटपिटा गया, पर फिर भी उसने पूछा “तो फिर राजकुमारी कैसे आएँगी?” तरला ने वस्त्र के नीचे से रस्सियों की एक सीढ़ी निकाल कर दिखाई और बोली “राजकुमारी इसी के सहारे नीचे उतरेंगी”। इतने में दोनों राजपथ छोड़कर सेठ की कोठी के पास पहुँचे। यूथिका के पिता के घर पहुँचते ही तरला पीछे की फुलवारी में घुसी वह यूथिका से फुलवारी की ओर का द्वार खोलने के लिए कह आई थी, पर पास जाकर उसने देखा कि किवाड़ भीतर से बन्द है।

देशानन्द के सहारे तरला दीवार पर चढ़ी और रस्सी की सीढ़ी लटका कर नीचे उतर गई। देशानन्द रस्सी का छोर पकड़े दीवार के उस पार ही खड़ा रहा। थोड़ी देर में तरला लौट आई और बोली “बाबाजी! तुम इस पर आओ। फुलवारीवाले द्वार पर न जाने किसने ताला चढ़ा दिया है, वह किसी प्रकार खुलता नहीं है। देशानन्द दीवार पर चढ़कर तरला के पास गया। बहुत चेष्टा करने पर भी द्वार न खुल सका। अन्त में तरला बोली-”बाबाजी! तुम दीवार से लग कर उधर अधेरे में छिपे रहो, मैं राजकुमारी के नागर को बुलाने जाती हूँ”।

दो पहर रात बीते चन्द्रोदय हुआ। चाँदनी धुधली रहने पर भी देशानन्द की दृष्टि को बहुत कुछ सहारा था। तरला के आदेशानुसार वह उजाले से हटकर दीवार की छाया में छिपकर खड़ा हुआ। तरला फिर उसी प्रकार दीवार पर चढ़कर बाहर फुलवारी में उतरी। धीरे धीरे फुलवारी से निकलकर वह सेठ के घर से लगी हुई एक गली मेंर् गई। वहाँ अधेरे में एक आदमी पहले से छिपा था, उसने पूछा “कौन, तरला?” तरला बोली “हाँ, जल्दी आइए”।

“घोड़ा लिए चलें?”

“डर क्या है?”

“क्या हुआ?”

“अभी मैं भीतर नहीं जा सकी हूँ। सेठ ने फुलवारी के द्वार पर ताला लगा रखा है”।

तरला फिर फुलवारी की ओर चली, वसुमित्र घोड़े पर पीछे पीछे चला। दोनों रस्सी के फन्दे के सहारे दीवार लाँघकर सेठ के घर में पहुँचे। वसुमित्र ने भी ताला खोलने का बहुत यत्न किया, पर वह न खुला। यह देख तरला बोली “तो फिर सेठ की बेटी को भी दीवार लाँघनी पड़ेगी, अब और विलम्ब करना ठीक नहीं। रात बीत चली है। मैं अन्त:पुर में जाने का एक और मार्ग जानती हूँ”। वसुमित्र ने उसकी बात मान ली। तरला ने देशानन्द से कहा “देखो! बाबाजी! तुम यहीं छिपे रहना, और किसी को आते देखना तो रस्सी की सीढ़ी हटा लेना”। देशानन्द ने उत्तर दिया “तुम लोग बहुत देर न लगाना। रात को भूत प्रेत निकलते हैं, कहीं “ तरला ने हँसकर कहा “तुम्हें कोई भय नहीं है, मैं अभी लौटती हूँ” दोनों घर के भीतर घुसे। चलते चलते वसुमित्र ने पूछा तरला! तुम्हारे साथ वह कौन है?

“तरला-नहीं पहिचाना?”

वसु -न।

तरला-इतने दिन एक साथ रहे, फिर भी नहीं पहिचानते।

वसु -बताओ, कौन है?

तरला-देशानन्द।

वसु -तुम कहती क्या हो?

तरला-लौटते समय देख लेना।

दोनों धीरे धीरे पैर रखते सेठ की लड़की के शयनकक्ष में गए।

इधर तरला और वसुमित्र घर के भीतर गए उधार देशानन्द बड़े संकट में पड़ा। तरला जब वसुमित्र को बुलाने गई थी तभी से वह मन में डर रहा था। पर तरला के सामने वह यह बात मुँह से न निकाल सका। देशानन्द ने कोष से तलवार निकाल कर सामने रखी, बरछे का फल देखा भाला। इससे उसके मन में कुछ ढाँढ़स हुआ। पर थोड़ी देर में जो पीछे फिर कर देखा तो दो एक आम के पेड़ों के नीचे गहरा अधेरा दिखाई पड़ा। उसके जी में फिर डर समाया। वह धीरे धीरे अन्त:पुर के द्वार पर जा खड़ा हुआ। उसने फुलवारी की ओर उचक कर देखा कि वसुमित्र का घोड़ा ज्यों का त्यों चुपचाप खड़ा है। उसके मन में फिर ढाँढ़स हुआ। उसने सोचा कि कोई भूत प्रेत होता तो घोड़े को अवश्य आहट मिलती।

देखते देखते एक दण्ड हो गया, फिर भी तरला लौटकर न आई। उद्यान में ओस से भीगी हुई डालियाँ धीरे धीरे झूम रही थीं। पत्तो पर बिखरी हुई ओस की बूँदों पर पड़कर चाँदनी झलझला रही थी। देशानन्द को ऐसा जान पड़ा कि श्वेत वस्त्र लपेटे एक बड़ा लम्बा तड़ंगा मनुष्य उसे अपनी ओर बुला रहा है। उसका जी सन्न हो गया, उसे कुछ न सूझा। बरछा और तलवार दूर फेंक जिधार तरला और वसुमित्र गए थे एक साँस में उसी ओर दौड़ पड़ा। थोड़ी दूर पर एक गली थी जो सीधे अन्त:पुर तक चली गई थी। गली के छोर पर एक छोटा सा द्वार था जिसे वसुमित्र भीतर जाते समय खोलता गया था। देशानन्द उसी द्वार से भागा भागा सेठ के अन्त:पुर में जा पहुँचा। उसे कुछ सुझाई न पड़ा। अधेरे में वह इधर उधर भटकने लगा।

उधर चार वर्ष पर वसुमित्र और यूथिका का मिलन हुआ। पहले अभिमान, फिर मान, उसके पीछे मिलन का अभिनय होने लगा। तरला द्वार पर खड़ी खड़ी उन दोनों को झटपट बाहर निकलने के लिए बार बार कह रही थी। पर उसकी बात उन दोनों प्रेमियों के कानों में मानो पड़ती ही न थी। यूथिका बीचबीच में यह भी सोचती थी कि पिता का घर सब दिन के लिए छूट रहा है। वह कभी अपनी प्यारी बिल्ली को प्यार करने लगती कभी फिर प्रेमालाप में डूब जाती। कभी पिंजड़े में सोए हुए सुए को चुमकारने लगती, कभी तरला की फटकार सुनकर पिता का घर सब दिन के लिए छोड़ने की तैयारी करने लगती। इसी में तीन पहर रात बीत गई। नगर के तोरणों पर और देव मन्दिरों में मंगल वाद्य बजने लगा। उसे सुनते ही तरला यूथिका का हाथ पकड़ उसे कोठरी के बाहर खींच लाई। वसुमित्र पीछे पीछे चला। सेठ की बेटी ने ऑंसू गिराकर पिता का घर छोड़ा।

तरला ने फुलवारी की दीवार के पास आकर देखा कि देशानन्द नहीं हैं। अन्त:पुर के द्वार के पास उसका भाला और तलवार पड़ी है। वसुमित्र यूथिका को चुप कराने में लगा था। तरला ने उससे धीरे से कहा “हमारे बाबाजी तो नहीं हैं!” वसुमित्र बोला “बड़ा आश्चर्य्य है, गया कहाँ?”

इसी समय सेठ के घर में किसी भारी वस्तु के गिरने का धामाका हुआ और उसके साथ बसन्तु की माँ 'चोर' 'चोर' करके चिल्ला उठी। उसे सुन तरला बोली “भैयाजी! बड़ा अनर्थ हुआ। बुङ्ढा अवश्य हम लोगों को ढूँढ़ता ढूँढ़ता अन्त:पुर में जा पहुँचा। उसे रात को दिखाई नहीं पड़ता, वह निश्चय किसी के ऊपर जा गिरा। अब चटपट यहाँ से भागो”। तरला की बात पूरी भी न हो पाई थी कि यूथिका न जाने क्या कहकर मर्च्छित हो गई। यदि वसुमित्र उसे थाम न लेता तो वह गिर जाती। वसुमित्र ने पूछा “तरला, अब क्या किया जाय?” तरला ने कहा “यूथिका को मैं थामे हूँ, आप चटपट दीवार पर चढ़ जाइए”। तरला ने अचेत यूथिका को थामा। वसुमित्र उछल कर दीवार पर चढ़ गया और उसने यूथिका को ऊपर खींच लिया। तरला भी देखते देखते यूथिका को थामने के लिए दीवार पर जा पहुँची। वसुमित्र धीरे से उस पार उतर गया और उसने यूथिका को हाथों पर ले लिया। तरला नीचे उतर कहने लगी “भैयाजी! झट घोड़े पर चढ़ो और अपनी बहूजी को भी ले लो”। वसुमित्र घोड़े पर बैठा और उसने यूथिका को गोद में ठहरा लिया। तरला बोली “अब चल दो, घर के सब लोग जाग पड़े हैं। सीधो महानायक की कोठरी में चले जाना, वहाँ सब प्रबन्ध पहले से है”। वसुमित्र कुछ आगे पीछा करने लगा और बोला “और तुम?” तरला ने कहा “मेरी चिन्ता न करो। यदि मैं भागना चाहूँ तो पाटलिपुत्र में अभी ऐसा कोई नहीं जन्मा है जो मुझे पकड़ ले।” वसुमित्र तीर की तरह घोड़ा छोड़कर देखते देखते अदृश्य हो गया।

इधर बसन्तु की माँ का चिल्लाना सुन घर और टोले के सब लोग जाग पड़े। यूथिका के पिता के आदमी दीया जलाकर चोर को ढूँढ़ने लगे। तरला यह रंग ढंग देख धीरे से खिसक गई। सचमुच अंधेरे में देशानन्द बसन्तू की माँ के ऊपर जा गिरा था। बसन्तू की माँ कोई ऐसी वैसी स्त्री तो थी नहीं। वह देशानन्द को दोनों हाथों से कस कर पकड़े रही और 'चोर' 'चोर' करके टोले भर का कान फोड़ती रही। घर के लोगों ने जाग कर देखा कि सचमुच एक नया आदमी घर में घुस आया है और बसन्तु की माँ उसे पकड़े हुए है। बिना कुछ पूछे पाछे पहले तो सबके सब मिलकर चोर को मारने लगे। मार खाते खाते घबरा कर देशानन्द कहने लगा “भाई! मैं चोर नहीं हूँ, मुझे मत मारो। मैं महानायक यशोधावलदेव का शरीर रक्षी हूँ, मुझे मत मारो। राजकुमारी अभिसार को आई थीं इससे मुझे संग ले आई थीं”। उसकी बात सुनकर कई लोग पूछने लगे “राजकुमारी कौन?” देशानन्द ने कहा “सम्राट महासेनगुप्त की कन्या और कौन?” उसकी इस बात पर सबके सब हँस पड़े, क्योंकि सम्राट के कोई कन्या नहीं थी। किसी किसी ने कहा “अरे यह पक्का चोर है इसे खूब पीटो और सबेरे ले जाकर नगररक्षकों के हाथ में दे दो”।

पाठक इतने ही से समझ लें कि देशानन्द पर कितने प्रकार की मार पड़ी होगी। सबेरा होते ही नगररक्षक आकर उसे कारागार में ले गए। सेठ के आदमी सब नींद से ऑंख मलते उठे थे, इससे वे फिर अपने अपने स्थान पर जाकर सो रहे। उस रात घरवालों में से किसी को यह पता न चला कि यूथिका घर में नहीं है।

वसुमित्र वेग से घोड़ा फेंकता प्रासाद में आ पहुँचा। मार्ग में शीतल वायु के स्पर्श से यूथिका को चेत हुआ। तोरण पर के रक्षक वसुमित्र को पहचानते थे, इससे उन्होंने कुछ रोक टोक न की। वसुमित्र नवीन प्रासाद के सामने पहुँच घोड़े से उतरा और सीधो यशोधावलदेव की कोठरी में गया। यशोधावलदेव सोए नहीं थे, जान पड़ता था कि उसका आसरा देख रहे थे। उनकी आज्ञा से एक दासी आकर सेठ की कन्या को अन्त:पुर में ले गई और वसुमित्र भी महानायक को प्रणाम करके अपने स्थान पर गया।