शशांक / खंड 2 / भाग-9 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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विजययात्रा

आश्विन शुक्लपक्ष के प्रारम्भ में महाधार्म्माधयक्ष नारायणशर्म्मा ने कुमार माधवगुप्त को साथ लेकर स्थाण्वीश्वर की यात्रा की। चरणाद्रि से हरिगुप्त ने समाचार भेजा कि बिना युद्ध के ही दुर्ग पर अधिकार हो गया पर थानेश्वर की सेना अभी तक प्रतिष्ठानपुर में पड़ी हुई है। यशोधावलदेव निश्चिन्त होकर बंगदेश की चढ़ाई की तैयारी करने लगे। हेमन्त के अन्त में पदातिक सेना और नावों का बेड़ा बंग की ओर चला। यह स्थिर हुआ कि पदातिक सेना चलकर गिरिसंकट पर अधिकार जमाए, युवराज शशांक और यशोधावलदेव अश्वारोही सेना लेकर यात्रा करें। उस काल में गौड़ या बंग में घुसने के लिए मंडला के संकीर्ण पहाड़ी पथ पर अधिकार करना आवश्यक था। हजार वर्ष पीछे बंगाल के अन्तिम स्वाधीन नवाब कासिमअली खाँ इसी पहाड़ी प्रदेश में पराजित होकर, और अपना राजपाट खोकर भिखारी हुए थे। गुप्त सम्राटों के समय में जो अत्यन्त विश्वासपात्र सेनापति होता था उसी के हाथ में मंडलादुर्ग का अधिकार दिया जाता था। नरसिंहदत्त के पूर्व पुरुषों के अधिकार में बहुत दिनों से यह दुर्ग चला आता था। उनके पिता तक्षदत्ता की मृत्यु के पीछे जंगलियों ने मंडलादुर्ग पर अधिकार कर लिया था। सम्राट ने एक दूसरे सेनापति को दुर्ग की रक्षा के लिए भेजा था, क्योंकि नरसिंहदत्ता उस समय बहुत छोटे थे। नरसिंहदत्ता ने यशोधावलदेव की आज्ञा लेकर पदातिक सेना के साथ मंडलागढ़ की ओर यात्रा की। सम्राट कह चुके थे कि बंगदेश का युद्ध समाप्त हो जाने पर नरसिंहदत्ता को उनके पूर्व पुरुषों का अधिकार दे दिया जायगा।

यूथिका को यशोधावलदेव ने महादेवी के साथ अन्त:पुर में भेज दिया था। उन्होंने स्थिर किया था कि बंगदेश से लौट आने पर उसका विवाह वसुमित्र के साथ होगा, तब तक सेठ की कन्या राजभवन में ही रहेगी। तरला यशोधावलदेव के बहुत पीछे पड़ी थी कि युद्धयात्रा के पहिले ही वसुमित्र और यूथिका का विवाह हो जाय पर उन्होंने एक न सुनी। उन्होंने कहा “नई ब्याही स्त्री घर में छोड़ युद्धयात्रा करना योध्दा के लिए कठिन बात है। एक ओर युद्धयात्रा की तैयारी हो रही है दूसरी ओर ब्याह की तैयारी करना ठीक नहीं है”। तरला चुप हो रही।

कुछ दिन पीछे संवाद आया कि गिरिसंकट पर अधिकार हो गया, पदातिक सेना ने पहाड़ियों और जंगलियों को मार भगाया। उस पहाड़ी प्रदेश में थोड़ी सी सेना रखकर नरसिंहदत्ता ने गौड़ देश की ओर यात्रा की। इतना सुन यशोधावलदेव ने भी शुभ दिन देख कुमार शशांक को साथ ले पाटलिपुत्र से प्रस्थान किया। महाराजाधिराज की आज्ञा से राजधानी अनेक प्रकार से सजाई गई। पूर्व तोरण से होकर दो सहò अश्वारोही सेना के साथ युवराज ने बंगदेश की यात्रा की। माधववर्म्मा और अनन्तवर्म्मा उनके पार्श्वचर होकर चले। वृद्ध सम्राट ने तोरण तक आकर अपने बाल्यसहचर यशोधावलदेव के हाथ में पुत्र को सौंपा। उनकी बाईं ऑंख फरक रही थी। यशोधावलदेव उन्हें ढाँढ़स बँधाकर विदा हुए।

युवराज ठीक समय पर मण्डलादुर्ग पहुँच गए। पदातिक सेना लेकर नरसिंहदत्ता गौड़देश में जा निकले। वे मार्ग में मण्डलादुर्ग को छोड़ते गए। गौड़ उस समय एक छोटा सा नगर था, एक प्रदेश मात्रा की राजधानी था। नावों का बेड़ा जब गौड़ पहुँचा तब गौड़ीय महाकुमारामात्य1 ने बड़े समारोह के साथ युवराज की अभ्यर्थना की। घाट की नावों पर रंग बिरंग की पताकाएँ फहरा रही थीं, नगर के मार्गों पर स्थान स्थान पर फूलपत्तो से सजे हुए तोरण बने थे। सन्धया होते होते दीपमाला से गौड़ नगर जगमगा उठा। गौड़ की बहुत सी सुशिक्षित सेना आपसे आप साम्राज्य की सेना के साथ हो गई। समुद्रगुप्त के वंशधार स्वयं विजययात्रा के लिए निकले हैं यह सुन दल के दल गौड़ीय अमात्य अपनी अपनी शरीररक्षी सेना लेकर गरुड़धवज के नीचे आ जुटे। युवराज जिस समय गौड़ देश से चले उस समय उनके साथ दो सह के स्थान पर दस सह अश्वारोही सेना हो गई।

पौंड्रवर्ध्दनभुक्ति की सीमा पार होने पर विद्रोही सामन्तों का शासन आरम्भ हुआ। निरीह प्रजा ने बड़े आनन्द से सम्राट के पुत्र की अभ्यर्थना की। पदातिक सेना गाँव पर गाँव अधिकार करती चली। दो एक स्थान पर कुछ भूस्वामियों ने मिट्टी के कोट के भीतर से साम्राज्य की सेना को रोकने का प्रयत्न किया, पर यशोधावल ने उनके गढ़ों पर अधिकार करके उन्हे ऐसा कठोर दण्ड दिया कि अधिकांश महत्तर2 और महत्व अधीन होकर महानायक की शरण में आए। इस प्रकार मेघनाद के पश्चिम तट तक सारा प्रदेश अधिकार में आ गया। पूस के अन्त में मेघनाद के तट पर सारी पदातिक, अश्वारोही और नौसेना इकट्ठी हुई। बहुदर्शी महानायक ने शरण मे आए हुए सामन्तों को फिर अपने अपने पदों पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से बहुत दिनों के संचित राजस्व का युवराज के सामने ढेर लगा दिया। लाख से ऊपर सुवर्णमुद्रा पाटलिपुत्र भेजी गई। पराजित सामन्तों की दशा सुनकर मेघनाद के उस पार के सामन्त भी धीरे धीरे महानायक के पास दूत भेजने लगे।

मेघनाद के पूर्व तट तथा समुद्र से लगे हुए समतट प्रदेश पर जिन सामन्त राजाओं का अधिकार था वे अधिकतर महायान शाखा के बौद्ध थे और ब्राह्मणों के घोर विद्वेषी थे। पश्चिम तट के आसपास के सामन्त राजा भी बौद्ध थे पर ब्राह्मणों से उन्हें द्वेष नहीं था क्योंकि वे बहुत काल से ब्राह्मणों के साथ रहते आए थे।


1. शासनकत्तरा की उपाधि।

2. महत्तार = जमींदार।

3. महत्ताम = उच्च वर्ग के भूपधामी, तअल्लुकेदार।

उनके भाव कुछ उदार थे। उस समय वज्राचार्य्य, शक्रसेन, संघस्थविर बन्धुगुप्त आदि बौद्ध संघ के नेता बंगदेश में पहुँच गए थे। उनके उद्योग से विद्रोहियों को थानेश्वर से बहुत कुछ धान और उत्साह मिलता था। कान्यकुब्ज में बुद्धभद्र और स्थाण्वीश्वर में अमोघरक्षित, शक्रसेन और बन्धुगुप्त आर्यर्वत्त में एक छात्र बौद्ध राज्य प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न कर रहे थे। बंग और समतट प्रदेश के सामन्तों को दूत भेजते देख युवराज ने सोचा कि अब बहुत सहज में बंगदेश पर अधिकर हो जायगा पर व्यवहारकुशल वृद्ध महानायक का ऐसा विश्वास नहीं था। वे जानते थे कि इधर मेघनाद के पश्चिम तट पर तो केवल सामन्त राजा ही विद्रोही हो गए हैं पर नद के उस पार के सामान्य किसान तक गुप्त साम्राज्य के विरोधी हैं।

मेघनाद के तट पर शिविर में यशोधावलदेव को संवाद मिला कि उत्तर में कामरूप के राजा खुल्लमखुल्ला विद्रोहियों की सहायता कर रहे हैं। कामरूप के भगदत्तावंशीय राजाओं के साथ गुप्तराजवंश का बहुत दिनों से झगड़ा चला आता था। इस झगड़े के कारण बंग और कामरूप की सीमा पर का बहुत सा उपजाऊ प्रदेश उजाड़ जंगल हो रहा था। सम्राट महासेन गुप्त ने युवावस्था में कामरूपराज सुस्थितवर्म्मा को पराजित करके कुछ काल के लिए शान्ति स्थापित की थी। सुस्थितवर्म्मा के पुत्र सुप्रतिष्ठितवर्म्मा के राजत्वकाल में इधर गुप्तसम्राट के साथ कोई झगड़ा न था। पर बंग में युद्ध छिड़ जाने पर कामरूपराज चुपचाप न बैठेंगे, यह बात यशोधावलदेव सम्राट से कह आए थे। मेघनाद के किनारे सारी सेना पड़ाव डाले यों ही दिन काट रही थी। यशोधावलदेव कामरूपराज की गतिविधि का ठीक ठीक पता पाए बिना मेघनाद के पार उतरना ठीक नहीं समझते थे। अत: कामरूपराज के प्रत्यक्ष शत्रुताचरण का संवाद पाकर वे एक प्रकार से निश्चिन्त हुए।

यशोधावलदेव ने गुप्तचरों के मुँह से सुना कि सुप्रतिष्ठितवर्म्मा के छोटे भाई महाराज पुत्र भास्करवर्म्मा बंगदेश के विद्रोहियों की सहायता के लिए ससैन्य बढ़ रहे हैं। अग्रगामी कामरूपसेना ब्रह्मपुत्र का पश्चिमी किनारा पकड़े जल्दी जल्दी बढ़ती आ रही है। भास्करवर्म्मा अपने द्वितीय सेनादल के साथ बंगदेश में आ पहुँचे हैं, फिर भी वहाँ के सामन्तगण दूत भेजकर सन्धि की प्रार्थना कर रहे हैं। यशोधावलदेव ने सेनापतियों के साथ परामर्श करने के लिए मन्त्रणा सभा बिठाई। मेघनाद के किनारे आम और कटहल के लम्बे चौड़े वन में सेना डेरा डाले पड़ी थी। एक बड़े भारी आम के पेड़ के नीचे एक नया पटमण्डप खड़ा किया गया। महानायक यशोधावलदेव, युवराज शशांक, नरसिंहदत्ता, माधववर्म्मा, वीरेन्द्रसिंह और अनन्तवर्म्मा उस स्थान पर इकट्ठे हुए। यशोधावलदेव ने सबको उपस्थित दशा समझा कर पूछा “अब हम लोगों को क्या करना चाहिए?” युवराज ने तुरन्त उत्तर दिया “शत्रु की सेना आकर विद्रोहियों से मिले इसके पहले ही दोनों पर आक्रमण हो जाना चाहिए”। महानायक प्रसन्न होकर बोले “साधु! साधु! पुत्र यही युद्धनीति है। पर यह तो बताओ कि दोनों दलों के मिलने के पूर्व किस उपाय से आक्रमण करके उन्हें पराजित किया जाय”।

“क्यों? आप सेना को दो दलों में बाँट दीजिए। बंगदेश के लिए कोई दो सह अश्वारोही और नावों का सारा बेड़ा रख कर शेष अश्वारोही और पदातिक सेना का आधा कामरूप की ओर भेज दिया जाय”।

“इस सेना का परिचालन कौन करेगा?”

“आपकी आज्ञा हो तो मैं कर सकता हूँ, अथवा नरसिंह या माधव कर सकतेहैं।

“पुत्र! इस युद्ध में तुम्हीं सेनापति होकर जाओ। भगदत्ता का वंश यद्यपि समुद्रगुप्त के वंश के जोड़ का नहीं है, पर बहुत प्राचीन राजवंश है। भास्करवर्म्मा भी अवस्था में तुम्हारे ही समान तरुण हैं। विद्रोह दमन में अर्थ का लाभ तो है, पर उतना यश नहीं है। तुम आगे बढ़कर यदि भास्करवर्म्मा को पराजित कर सकोगे तो युद्ध शीघ्र ही समाप्त हो जायगा। सबकी सब सेना यदि एक साथ बंगदेश पर आक्रमण करेगी तो विद्रोह का दमन करने में अधिक दिन न लगेंगे। यदि किसी कारण से तुम पराजित हुए तो तुम्हारी रक्षा के लिए मैं पहुँच जाऊँगा। तुम्हारे साथ कौन कौन जायगा?”

नरसिंह, माधव, वीरेन्द्र, वसुमित्र इत्यादि सबके सब एक स्वर से बोल उठे “मैं जाऊँगा”। पीछे से नितान्त नवयुवक अनन्तवर्म्मा भी बोल उठे “प्रभो! मैं भी जाऊँगा?” यशोधावल ने हँसकर कहा “भाई! तुम लोग सबके सब चले जाओगे तो फिर मेरे साथ यहाँ कौन रहेगा?”

महानायक की इस बात पर सब ने सिर नीचा कर लिया, कोई कुछ न बोला। यशोधावलदेव बोले “सुनो, तुम सब लोग अभी नवयुवक हो। युवराज के साथ किसी पुराने और अनुभवी सैनिक को जाना चाहिए व उनके साथ वीरेन्द्रसिंह जायँगे। नरसिंह, माधव और अनन्त इन तीनों में से कोई एक और भी जा सकता है।”

बहुत तर्क वितर्क के पीछे स्थिर हुआ कि नरसिंहदत्ता ही कुमार के साथ यात्रा करें। उसी समय पीछे से अनन्तवर्म्मा बोल उठे “प्रभो! मुझे भी आज्ञा दीजिए, मैं भी युवराज के साथ युद्ध में जाऊँगा”। यशोधावलदेव ने पूछा “अनन्त! तुम जाकर क्या करोगे?” उनका इतना आग्रह देख युवराज ने उन्हें भी साथ चलने के लिए कहा।

दूसरे दिन बड़े तड़के दस सह पदातिक, आठ सह अश्वारोही और पचास नावें लेकर युवराज ने यात्रा की।

नौसेना धीरे धीरे चलने लगी। युवराज नरसिंहदत्ता को शंकरनद के किनारे प्रतीक्षा करने के लिए कहकर अश्वारोही सेना लेकर आगे बढ़े। उस समय कामरूप की सेना सीमा लाँघकर बंगदेश के उत्तर प्रान्त के गाँवों में लूटपाट कर रही थी। पर भास्करवर्म्मा अब तक शंकरनद के इस पार तक नहीं पहुँच सके थे। इधर युवराज के साथ जो लोग आए थे उनमें से अधिकांश लोग गौड़ के थे और अपना सारा जीवन युद्ध में ही बिता चुके थे। शत्रुसेना को बेटक लूटपाट में लिप्त देख युवराज और वीरेन्द्रसिंह गौड़ीय सामन्तों के परामर्श के अनुसार सारी सेना लेकर उस पर टूट पड़े। कामरूप सेना इधर उधर कई खण्डों में होकर लूटपाट कर रही थी। उसके सेनापतियों को युवराज के चलने का संवाद मिल चुका था पर वे इतनी जल्दी सीमा पार करके आ धामकेंगे इस बात का उन लोगों को स्वप्न में भी धयान न था। अकस्मात् इतने अश्वारोहियों से घिरकर कामरूप सेना बार बार परास्त हुई। जो सेना बची वह लूट का सारा धान छोड़छाड़ कर भागी। सेनापतियों ने बहुत यत्न किया पर सेना एकत्र न हुई।

अन्त में परास्त कामरूप सेना शंकरनद के किनारे फिर इकट्ठी हुई। पर बार बार हार खाते खाते वह इतनी व्याकुल हो गई कि वीरेन्द्रसिंह केवल दो सह अश्वारोही लेकर उसे शंकरनद के पार भाग आए। भास्करवर्म्मा ने दूत के मुँह से सुना कि स्वयं युवराज शशांक बड़ी भारी सेना लेकर कामरूप पर चढ़ाई करने आ रहे हैं। वे जल्दी जल्दी बढ़ने लगे। मार्ग में भागते हुए सैनिकों के मुँह से उन्होंने अपनी सेना के हारने की बात सुनी। शंकरनद के किनारे पहुँचकर उन्होंने देखा कि जितने घाट हैं सब पर मागध सेना डटी हुई है, बिना युद्ध के पार जाना असम्भव है।

एक लाख से ऊपर सेना लेकर युवराज भास्करवर्म्मा ने शंकरनद के उत्तर तट पर स्कन्धवार स्थापित किया। वे वीर पुत्र थे। वे उसी समय जिस प्रकार से होकर नदी पार करना चाहते थे; पर युद्ध मे निपुण सेनापतियों के बहुत समझाने पर वे रुक गए। उन्होंने कहा कि बहुत दूर से चल कर आने के कारण सेना थकी हुई है। पराजित सेना ने आकर यह बात फैला रखी है कि मगध साम्राज्य की सेना दुर्जय है और युवराज शशांक में कोई अद्भुत दैव शक्ति है। शंकरनद बहुत चौड़ा न होने पर भी गहरा और तीव्र वेग का है। इसे पार करना सहज नहीं है। जबकि उस पार शत्रु सेना का अधिकार है तब अपनी सेना को बिना विश्राम दिए पार उतारने की चेष्टा करना ठीक नहीं है। युवराज भास्करवर्म्मा तरुण होने पर भी धीर, शान्त और युद्ध विद्या में दक्ष थे। वृद्ध सेनापतियों की बात मान उन्होंने शंकरनद के किनारे ही पड़ाव डाला।

उस पार डेरों को खड़े होते देख युवराज शशांक समझ गए कि भास्करवर्म्मा सुयोग देख रहे हैं। तीन दिन तीन रात दोनों पक्ष की सेनाएँ तट पर पड़ी एक दूसरे के आक्रमण का आसरा देखती रहीं। चौथे दिन बड़े सबेरे मगध सेना ने उठ कर देखा कि उस पार डेरों की संख्या कुछ कम हो गई है। शशांक समझ गए कि कामरूप की सेना नद उतरने की चेष्टा कर रही है, और युद्ध विद्याविशारद भास्करवर्म्मा अपनी सेना को बहुत से खण्डों में बाँटकर एक ही समय में अनेक स्थानों से उसे उतारने का यत्न करेगे। युवराज और वीरेन्द्रसिंह चिन्ता में पड़ गए। बात यह थी कि नरसिंहदत्ता सेना लेकर अब तक न पहुँच सके थे।

दोनों ने लेख लगाकर देखा कि घायल और निकम्मी सेना को छोड़ साढ़े सात हजार अश्वारोही बच रहे हैं। इस सेना को दो भागों में बाँट कर युवराज और वीरेन्द्रसिंह कामरूप की एक लाख सेना को रोकने के लिए तैयार हुए। वीरेन्द्रसिंह और गौड़ीय सामन्तों ने बहुतेरा समझाया पर युवराज शशांक ने युद्ध क्षेत्र से हटना स्वीकार न किया। वीरेन्द्रसिंह आदि ने समझ लिया कि मुट्ठी भर सैनिक लेकर कामरूप की इतनी बड़ी सेना का सामना करना पागलपन है और इसका परिणाम मृत्यु है। उन लोगों ने यशोधावलदेव के पास एक अश्वारोही और नरसिंहदत्ता के पास एक सामन्त को चटपट भेजा। नरसिंहदत्ता पदातिक सेना लिए अभी चालीस कोस पर थे और यशोधावलदेव का शिविर मेघनाद के तट पर था। शंकरनद से शिविर एक महीने का मार्ग था।

सामन्तों ने जब देखा कि युवराज किसी प्रकार युद्ध क्षेत्र से न हटेंगे तब वे भी उनके साथ मरने के लिए प्रस्तुत हुए। प्रधान सामन्त, नायकों के हाथ से सैन्य परिचालन का भार देकर, युवराज के शरीररक्षी दल में जा मिले। सौ शरीर रक्षियों के स्थान पर तीन सौ शरीररक्षी साथ लेकर युवराज शिविर से निकल पड़े। विदा होते समय ऑंख में ऑंसू भरे वीरेन्द्रसिंह युवराज का हाथ थामकर बोले “कुमार! यदि लौटकर मुझे इस स्थान पर न देखना तो जान लेना कि वीरेन्द्रसिंह जीता नहीं है। यदि कभी देश लौटकर जाना तो महानायक से कहना कि महेन्द्रसिंह का पुत्र उनकी सेवा में जीवन देकर कृतार्थ हुआ। एक अश्वारोही भी प्राण रहते घाट पर से न हटेगा”।

युवराज चार हजार से भी कुछ कम सवार लेकर पर्वत की ओर चले। उस समय शंकरनद के दोनों ओर घना जंगल था। ब्रह्मपुत्र के संगम से लेकर दो तीन कोस तक के बीच केवल दो तीन स्थानों को छोड़ और कहीं से नद पार नहीं किया जा सकता था। युवराज के शिविर से निकलने पर आकाश बादलों से ढक गया। सेनादल धीर -धीरे नदी का किनारा पकड़े चलने लगा। शिविर से बारह कोस निकल आने पर कामरूप की सेना की आहट मिली। कुछ और बढ़ने पर दिखाई पड़ा कि प्राय: दस हजार सेना नद के उस पार एकत्र है। सेना के लोग वन से लकड़ी ला लाकर सेतु बाँधने का उद्योग कर रहे हैं। उस स्थान पर नद दो चट्टानों के बीच से होकर बहता था, इससे उसका पाट चौड़ा न था। युवराज ने सेना ठहराकर सामन्तों से परामर्श किया। सब ने एक स्वर से कहा “इस स्थान पर तो बहुत थोड़ी सेना लेकर बहुत बड़ी सेना का मार्ग रोका जा सकता है”। उनके उपदेश के अनुसार युवराज उस स्थान पर एक हजार अश्वारोही रखकर शेष सेना को लेकर आगे बढ़े।

सन्धया हो जाने पर युवराज ने नदी तट पर विश्राम के लिए शिविर खड़ा कराया। साथ में डेरा केवल एक ही था। युवराज ने सामन्तों और नायकों सहित उसमें आश्रय लिया। सैनिक लोग पेड़ों के नीचे ठहर कर भीगने लगे। वन में कहीं सूखी लकड़ी भी न मिली कि आग जलाते। रात अधिक बीतने पर मूसलाधार पानी बरसने लगा। माघ का महीना था, टिकने का कहीं ठिकाना न पाकर सेना ने अत्यन्त कष्ट से रात काटी। सबेरा होते ही युवराज फिर आगे बढ़े। पानी अपनी धार बाँधकर बरस रहा था, सारा वन जल से भर गया था। तुषार सी ठण्डी वायु प्रचण्ड वेग से बह रही थी इससे घोड़ों को दौड़ाना असम्भव हो रहा था। इस प्रकार दो पहर तक चलकर युवराज की सेना जंगल के बाहर हुई। नायकों ने देखा कि सामने भारी मैदान है और हरे भरे खेत दूर तक फैले हुए हैं। नदी का पाट उस स्थान पर चौड़ा था, पर गहराई अधिक नहीं जान पड़ती थी। उस पार के हरे भरे मैदान में सेना का पड़ाव दिखाई पड़ता था। देखने से पचास हजार सेना का अनुमान होता था। युवराज के सेनानायकों ने थकी माँदी सेना को नदी तट पर एकत्र किया। भूख से व्याकुल और शीत से ठिठुरे हुए सैनिक घोड़ों पर से उतर युद्ध के लिए खड़े हुए। पर युद्ध करता कौन? उस पार शत्रु के शिविर में तो कहीं कोई मनुष्य दिखाई ही नहीं पड़ता था।

तीसरा पहर बीत जाने पर एक अश्वारोही ने आकर युवराज को संवाद दिया कि कई ग्रामीण उनसे मिलना चाहते हैं। युवराज ने उन्हें सामने लाने के लिए कहा। सैनिक तुरन्त कई नाटे और चपटी नाकवाले किसानों को सामने लाए। उन्होंने हाथ जोड़कर निवेदन किया “हजारों घोड़े खेती का सत्यानाश कर रहे हैं। यदि दया करके उन्हें खेतों से हटाने की आज्ञा दी जाय तो हम लोग सैनिकों और घोड़ों के लिए पूरा पूरा भोजन और दाना चारा अभी पहुँचा जायँ”। युवराज की आज्ञा से भूखे घोड़े खेतों से हटा लिए गए। ग्रामवासी अनेक आशीर्वाद देते हुए बहुत सा अन्न और चारा लेकर आए। आहार मिलने से घोड़ों और सैनिकों की रक्षा हुई। सन्धया होते होते नद के दोनों तटों के हजार स्थानों पर अलाव जले। पानी लगातार बरस रहा था। उस दिन भी युद्ध न हुआ।

सैनिकों ने किनारे के जंगल से लकड़ी ला लाकर बहुत से झोपड़े खड़े किए। दो पहर रात गए युवराज और अनन्तवर्म्मा डेरे से निकल कर लकड़ी के घर में गए। आकाश में अब तक बादल घेरे हुए थे। वायु का वेग बढ़ गया था, पर पानी बहुत कुछ थम गया था। युवराज ने पूछा “अनन्त! जान पड़ता है कि नदी बढ़ आया है”। अनन्तवर्म्मा देखकर आए और कहने लगे, “हाँ, बहुत बढ़ आया है”। युवराज बोले “अच्छी बात है, तुम यहाँ आओ”।

रात के पिछले पहर दृष्टि बन्द हुई, हवा भी रुकी और नदी का जल भी धीरे धीरे घटने लगा। युवराज ने सेनानायकों को युद्ध के लिए प्रस्तुत होने की आज्ञा दी। नद के किनारे रक्षा के लिए अश्वारोहियों का प्रयोजन नहीं था इससे युवराज की आज्ञा से पाँच सौ अश्वारोही शेष सेना के घोड़ों को लेकर वन के भीतर जा रहे। ढाई हजार सेना युद्ध के लिए प्रस्तुत होकर नदी के तट पर आ खड़ी हुई।

सबेरा होने के पहले ही कामरूप की सेना नद पार करने के लिए उठ खड़ी हुई। स्वयं भास्करवर्म्मा उस सेनादल का परिचालन करते थे। वे रात को आग जलती देख समझ गए थे कि उस पार शत्रु सेना पहुँच गई है। सर्य्योदय के पहले ही उन्होंने सेना को बढ़ने की आज्ञा दी। सह सैनिक जय ध्वनि करते हुए एक साथ नदी के शीतल जल में उतरे।