शशांक / खंड 2 / भाग-11 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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अदृष्ट गणना

पाटलिपुत्र के नए राजभवन के ऑंगन की फुलवारी में एक पुराना शिव मन्दिर था। एक दिन प्रात:काल मन्दिर के बाहर बैठकर एक युवती गीली धोती पहने महादेव की पूजा कर रही थी। युवती तन्वी थी और उसका वर्ण तपाए सोने का सा था। उसके भींगे कपड़े से होकर उसकी गोराई फूटी पड़ती थी। कटि के नीचे तक पहुँचते हुए घने घुँघराले काले भँवर केश हवा के झोंकों से लहराकर माथे पर से वस्त्र हटाहटा देते थे। युवती एक हाथ से वस्त्र थामे हुए एकाग्रचित्ता से पूजा कर रही थी। अर्घ्य, चन्दन, पुष्प, बिल्वपत्र और नैवेद्य विधिपूर्वक चढ़ा कर सुन्दरी घुटना टेक और हाथ जोड़ मनाने लगी-

“भगवन्! युद्धमें जय प्राप्त हो। महानायक कुशलपूर्वक लौट आएँ, युवराज शशांक युद्धमें विजय प्राप्त करके कुशल मंगल से राजधानी में आएँ, और और “

पीछे से न जाने कौन बोल उठा “और सेठ वसुमित्र कुशल मंगल से पूर्ण यौवन सहित आकर यूथिका को गले लगाएँ। कैसी कही? न कहोगी”।

युवती ने चकपकाकर पीछे ताका, देखा तरला खड़ी है। वह कब धीरे धीरे दबे पाँव आई युवती को पता न लगा। उसकी बात सुनकर उसके मुँह पर लाली झलक पड़ी। देखते देखते गोल कपोलों पर की ललाई सारे शरीर में दौड़ गई। छवि देखकर तरला मोहित हो गई। वह बोल उठी “हाय! हाय! इस समय नायक पास नहीं है। उसके भाग्य में ही नहीं कि यह अपूर्व शोभा देखे”। युवती ने कुन्दकली से दाँतों से लाल लाल ओठ दबाकर घूँसा ताना और फिर महादेव को प्रणाम किया। तरला फिर बोल उठी “हे महादेव बाबा! मेरे मन में जो है उसे लाज के मारे कह नहीं सकती हूँ। मेरे हृदय का रत्न कुशल मंगल से लौट आए तो हम दोनों एक साथ कृष्ण चतुर्दशी को विधिपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे”।

यूथिका ने महादेव को प्रणाम कर तरला की ओर ताक कर कहा “तू मर भी”। तरला हँसते हँसते बोली “तुम्हारा शाप यदि लगता तो मैं नित्य न जाने कितनी बार मरती। पर मैं मर जाऊँगी तो नायक पकड़ कर कौन लाएगा?”

“देख तरला! तू अब बहुत बढ़ती चली जा रही है। भला, महादेवी सुनेंगी तो मन में क्या कहेंगी?”

“महादेवी मानो तुम्हारी सब करतूत नहीं जानती”।

“जानें या न जानें। तू बार बार यह सब बकती है, मुझे बड़ी लाज आतीहै”।

“मन की बात खोलकर कहने ही में इतना पाप लग गया। तुम्हारी बात तो अब घर घर फैल गई है। मैं तुम्हें एक बड़ा अच्छा तमाशा देखने के लिए बुलाने आई थी, पर तुम्हारी छवि देखकर सब कुछ भूल गई। क्या कहें, इस समय सेठ का लड़का न जाने कहाँ है। बेचारा कहीं शिविर में पड़ा होगा”।

तरला की बात पर यूथिका की ऑंखें भर आईं, पर वह अपनी अवस्था छिपाने के लिए बोली “क्या दिखाएगी? बोल”। तरला ने कहा “जल्दी आओ। श्यामामन्दिर में एक और कोई तुम्हारे ही समान पूजा करने बैठा है”। दोनों फुलवारी के बाहर निकलीं।

गंगाद्वार पर भागीरथी के किनारे श्यामा देवी का मन्दिर था। पत्थर के पुराने मन्दिर के भीतर पुजारी बैठा पूजा कर रहा है। बाहर महादेवी हाथ जोड़े खड़ी हैं। मन्दिर के द्वार के सामने चित्रा विचित्रा खम्भों का मण्डप है जिसमें पट्टवस्त्र धारण किए कई युवती और किशोरी स्त्रियाँ खड़ी हैं। मण्डप के एक कोने में एक युवती बैठी देवी फूल में लाल चन्दन लगा लगाकर एकाग्रचित्ता से पूजा कर रही थी। उसके सामने जया के फूलों का ढेर लगा हुआ था। यूथिका और तरला ने श्यामामन्दिर के ऑंगन में आकर उसको देखा। दोनों धीरे धीरे दबे पाँव जाकर उसके पीछे खड़ी हो गईं। युवती उस समय पूजा समाप्त करके हाथ जोड़कर मना रही थी “हे देवि! कुमार कुशलक्षेम से लौट आएँगे तो मैं अपना रक्त निकाल कर तुम्हें चढ़ाऊँगी। यही माँगती हूँ कि कुमार कुशल मंगल से विजयी होकर लौटें और उनके साथ भैया, अनन्तवर्मा, माधववर्मा, यशोधावलदेव और वीरेन्द्रसिंह सबके सब भले चंगे लौटें। कोई मरे न, यदि किसी का मरना आवश्यक ही हो तो मैं तुम्हारे चरणों में अपने को बलि चढ़ाने के लिए तैयार हूँ। अब मुझे मरने से डर नहीं लगता है। बार बार यही भिक्षा चाहती हूँ कि कुमार शीघ्र घर लौटें”।

तरला पीछे से बोल उठी “चित्रादेवी! किसको कुमार कुमार कहकर पुकार रही हो?” चित्रा चौंककर उठ खड़ी हुई और उसने देखा कि तरला और यूथिका पीछे खड़ी हैं। लज्जा से दबकर चित्रा भाग खड़ी हुई। उसके पैरों की आहट सुनकर महादेवी ने पूछा “कौन है?” तरला ने उत्तर दिया “चित्रादेवी हैं”।

महादेवी-चित्रा तो बैठी पूजा कर रही थी, उठकर भागी क्यों?

तरला-वे पूजा समाप्त करके देवी से कुछ मना रही थीं इतने में हम लोग पहुँच गईं। उनका मनाना हम लोगों ने कुछ सुन लिया, इसी पर वे भागीं।

महा -क्यों? वह क्या मना रही थी?

तरला-वे मना रही थीं कि कुमार यदि कुशलक्षेम से लौट आएँगे तो मैं अपना रक्त चढ़ाकर महाकाली की पूजा करूँगी।

तरला की बात सुनकर महादेवी हँस पड़ीं। गंगा, यूथिका आदि भी हँसते हँसते लोट गईं। महादेवी की आज्ञा से लतिका चित्रा को ढूँढ़ने गई। महादेवी ने पूछा “यूथिका कहाँ है? वह आज मेरे पास नहीं आई”। चित्रा की मनौती सुनकर यूथिका की ऑंखें डबडबा आई थीं। वह अपने प्रिय के धयान में मग्न हो रही थी। वह अपनी मनौती की बात मन में सोच रही थी और भीतर ही भीतर अपने प्रिय के मंगल की प्रार्थना कर रही थी। तरला और महादेवी की एक बात भी उसके कान में नहीं पड़ी। हँसीठट्ठा सुनकर सेठ की बेटी का धयान भंग हुआ। महादेवी के फिर पूछने पर यूथिका लज्जा से दब गई। तरला ने उत्तर दिया “यहीं तो बैठी हैं”।

यूथिका ने धीरे से उठकर महादेवी को जाकर प्रणाम किया। उसको लजाई देख महादेवी ने पूछा। “तुम आज आई क्यों नहीं, क्या हुआ है?” यूथिका कोई उत्तर न देकर पैर के अगूठे की ओर देखने लगी। तरला आगे बढ़कर बोली “देवि! श्रेष्ठि कन्या महादेव के मन्दिर में पूजा कर रही थीं”।

महा -यूथिका, इतनी लजाई क्यों है?

तरला-चित्रा देवी की सी बात इनकी भी है।

यूथिका ने लजाकर और भी सिर झुका लिया। इतने में लतिका चित्रा का हाथ पकड़े उसे खींचती हुई ले आई। महादेवी ने उससे पूछा “चित्रा! तू क्या मना रही थी?” चित्रा लज्जा के मारे कुछ बोल न सकी। महादेवी उसे अपने पास खींचकर बोली “लजाने की क्या बात है? मुझसे धीरे से कह दो, कोई सुनेगा नहीं”। चित्रा महादेवी की गोद में मुँह ढाँककर सिसकने लगी। महादेवी ने उसे शान्त करके तरला से पूछा “तरला! ये तो सबकी सब बड़ी भारी भक्तिन हो गईं तुम्हारा साथ अब कौन देगा?” तरला मुसकराती हुई बोली “मेरा साथ अब कौन देगा? मेरा साथ देंगे यमराज”। लतिका महादेवी के पास उनके कान में धीरे से बोली “नहीं माँ, इनका एक और साथी है, उसका नाम है वीरेन्द्रसिंह। तरला ने एक दिन अपनी कोठरी की दीवार पर वीरेन्द्रसिंह का नाम लिखा था पर मुझे देखते ही उसे मिटा दिया”। यद्यपि यह बात धीरे से कही गई थी पर सब ने सुन ली और बड़ी हँसी हुई। तरला सकुचाकर पीछे जा खड़ी हुई। इतने में एक दासी ने आकर कहा “महादेवी! महाप्रतीहार विनयसेन श्रीमती का दर्शन चाहते हैं”। महादेवी ने कहा “उन्हें यहीं बुला लाओ”।

क्षण भर में विनयसेन मन्दिर के ऑंगन में आ पहुँचे और उन्होंने सिर झुका कर प्रणाम किया। महादेवी ने पूछा “विनय, कहो क्या है?”

विनय ?-महादेवी की आज्ञा से महामन्त्रीजी ने एक ज्योतिषी भेजा है।

महादेवी-ज्योतिषीजी कहाँ हैं?

विनय -उन्हें मैं गंगाद्वार के बाहर बिठा आया हूँ।

महादेवी-उन्हें यहाँ ले आओ।

विनयसेन प्रणाम करके चले गए और थोड़ी देर में एक वृद्धब्राह्मण को साथ लिए लौट आए। ब्राह्मण देवता श्यामामन्दिर के सामने एक कुशासन पर बैठे। महादेवी ने सामने जाकर उन्हें प्रणाम किया। ब्राह्मण ने उन्हें अपना हाथ दिखाने के लिए कहा। बहुत देर तक महादेवी का हाथ देखकर ब्राह्मण ने कहा “देवी! आपको थोड़े ही दिनों में कुछ कष्ट होगा, पर वह कष्ट बहुत दिनों तक न रहेगा”।

महादेवी-मेरा पुत्र तो कुशल मंगल से घर लौट आएगा न।

गणक ने भूमि पर कई रेखाएँ खींची, फिर थोड़ी देर पीछे वे बोले “युवराज युद्धमें विजय प्राप्त करके लौटेंगे। उन्हें गहरी चोट आएगी, पर उस चोट से उनका कुछ होगा नहीं”।

“कितने दिनों में लौटेंगे?”

“अभी बहुत दिन हैं”।

“मेरे जीते जी तो लौट आएँगे न? मैं उन्हें देखूँगी न?”

“हाँ, हाँ! आप राजमाता होंगी”।

महादेवी सन्तुष्ट होकर ज्योतिषीजी की विदाई का प्रबन्ध करने के लिए अन्त:पुर में गईं। अवसर पाकर तरला यूथिका का हाथ पकड़े उसे खींचती खींचती ज्योतिषी के पास ले आई और कहने लगी “महाराज! इस स्त्री का कहीं विवाह नहीं होता है, देखिए तो इसका विवाह कभी होगा।

ज्योतिषी ने यूथिका का हाथ देखकर कहा “होगा”।

“कब”

“पाँच बरस में”

यूथिका ने कण्ठ से बहुमूल्य जड़ाऊ हार उतारकर ज्योतिषीजी के सामने रख दिया। ब्राह्मण देवता बहुत प्रसन्न होकर बोले “बेटी! तुम राजरानी होगी”। इसके उपरान्त चित्रा का हाथ देखकर ज्योतिषी ने कहा “तुम एक रात के लिए राजरानी होगी”। लतिका का हाथ देखकर उन्होंने कहा तुम्हारा विवाह किसी परदेसी के साथ होगा। लतिका और चित्रा ज्योतिषी की बात ठीक ठीक न समझ उदास खड़ी रहीं।

यूथिका तरला का हाथ पकड़कर उसे ज्योतिषी के पास ले आई। ज्योतिषीजी बहुत देर तक उसका हाथ देखकर बोले “तुम्हें कुछ दिनों तक तो कष्ट रहेगा, पर आगे चलकर तुम एक बड़े भारी सेनानायक की पत्नी होगी”। तरला हँसकर बोली “महाराज! आप कुछ पागल तो नहीं हुए हैं, भला मैं एक दासी होकर सेनानायक की पत्नी कैसे हो जाऊँगी?”

इतने में महारानी विदाई लेकर आ पहुँची। ज्योतिषीजी आशा से कहीं अधिक द्रव्य पाकर प्रसन्नमुख विदा हो रहे थे। इसी बीच गंगा, लतिका आदि मण्डप के एक कोने में जा छिपीं। यूथिका ने भी सिर पर का वस्त्र नीचे सरका लिया। महादेवी ने चकित होकर देखा कि पीछे प्रांगण के द्वार पर सम्राट खड़े हैं। महासेनगुप्त ने पूछा “देवि! क्या हो रहा है?”

महादेवी-ज्योतिषी से फल बिचरवा रही हूँ।

“क्या फल बताया?”

“शशांक युद्धमें विजय प्राप्त करके लौटेंगे”।

महासेनगुप्त ने आगे जाकर अपना हाथ बढ़ाया और ज्योतिषीजी से देखने के लिए कहा। ज्योतिषीजी हाथ देख ही रहे थे कि सम्राट ने पूछा “मेरे जीवनकाल में शशांक लौटकर आ जायँगे या नहीं?” ज्योतिषीजी सम्राट का हाथ देखते देखते कुछ अधीर से हो पड़े और भूमि पर बैठकर रेखाएँ खींचने लगे। सम्राट ने फिर पूछा “क्या हुआ?” ज्योतिषीजी ने कुछ सहमकर उत्तर दिया “कुछ समझ में नहीं आता है”।

सम्राट सिर नीचा किए उदास मन मन्दिर के ऑंगन के बाहर गए।