शशांक / खंड 2 / भाग-12 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेघनाद तट का युद्ध

शंकर के तट पर युवराज की दुरवस्था का संवाद पाकर यशोधावलदेव ने दो अश्वारोहियों के साथ सुमित्रा को युवराज की सहायता के लिए भेजा। उन्होंने स्वयं मेघनाद के उस पार आक्रमण किया और बिना किसी विघ्न बाधा के मेघनाद के पूर्वीय तट पर शिविर स्थापन किया। पहले तो दो तीन लड़ाइयों मे विद्रोहियों ने बड़े साहस के साथ यशोधावल का मार्ग रोका। जलयुद्धका अभ्यास न होने के कारण मागधा सेना घबरा उठी। बड़ी कठिनता से गौड़ नाविकों ने मागधा सेना का मान रखा। युद्धकी अवस्था देख यशोधावलदेव को कुछ आशंका हुई। पदातिक सेना को शिविर में छोड़ तीन गौड़ीय सेना की सहायता से उन्होंने एक ग्राम पर अधिकार किया। युद्धविद्या में अनभ्यस्त ग्रामवासी जिस प्रकार पग पग पर बाधा दे रहे थे उससे यशोधावलदेव ने सोचा कि इस प्रकार तो सैकड़ों वर्ष में भी बंगदेश पर अधिकार न हो सकेगा।

यशोधावल इधर इस संकट में पड़े थे कि उधार शंकरनद के युद्धका संवाद बंगदेश में पहुँचा। विद्रोही सामन्त राजा कामरूप की सेना का आसरा देख रहे थे। जब उन्होंने देखा कि अब इधर कामरूप से कोई सहायता नहीं मिल सकती तब वे सबके सब महानायक की शरण में आए। अब रही उनकी प्रजा। बन्धुगुप्त, शक्रसेन और जिनेन्द्रबुध्दि की उत्तोजना से बंगदेश के बौद्धनिवासियोें ने अधाीनता स्वीकार नहीं की। यह देख सामन्त राजा बड़े असमंजस में पड़े। उन्होंने अपना अपना प्रदेश और घरबार छोड़ यशोधावलदेव के शिविर में आकर आश्रय लिया।

युद्धछिड़ गया। भास्करवर्म्मा के पराजित होकर लौट जाने पर भी बन्धुगुप्त स्थाण्वीश्वर से सहायता का वचन पाकर युद्धचलाने लगे। किन्तु नेताओं के अभाव से अशिक्षित विद्रोही सेना बार बार पराजित होने लगी। मागधा सेना उत्साहित होकर युद्धकरने लगी। गाँव पर गाँव, नगर पर नगर अधिाकृत होकर उजाड़ होने लगे। पर बौद्धप्रजा वशीभूत न हुई। बहुदर्शी यशोधावलदेव ने सोचकर देखा कि इस प्रकार के युद्धसे कोई फल न होगा। देश को उजाड़ने से न उनका और न सम्राट का कोई लाभ होगा। तब वे सामन्त राजाओं की सहायता से सन्धि का प्रयत्न करने लगे।

सन्धि न हो सकी। बन्धगुप्त के बहकाने से प्रजा ने कहला भेजा कि हम सब लोग तो थानेश्वर की प्रजा हैं, पाटलिपुत्र की अधीनता नहीं स्वीकार कर सकते।

वसन्त के आरम्भ में फिर युद्धका आयोजन होने लगा। इसी बीच युवराज अपनी सेना सहित आकर यशोधावलदेव के साथ मिले। महानायक का शिविर अब धावलेश्वर के तट पर खड़ा हुआ। लम्बी यात्रा के पीछे युवराज की सेना विश्राम चाहती थी। यशोधावलदेव की भी इच्छा थी कि कुछ दिन युद्धबन्द रख कर सेना को थोड़ा विश्राम दिया जाय। पर गौड़ के सामन्तों ने कहा कि यदि ग्रीष्म के पहले युद्धसमाप्त न हो जाएगा तो फिर एक वर्ष और बढ़ जायगा, क्योंकि वर्षाकाल में बंगदेश में युद्धकरना असम्भव है।

युद्धचलने लगा। चैत बीतते बीतते सुवर्णग्राम पर अधिकार हो गया। महानायक और युवराज ने विक्रमपुर पर आक्रमण किया। गौड़ीय सामन्तों की सहायता से छोटी बड़ी बहुत सी नावों का बेड़ा इकट्ठा हो गया था। पदातिक सेना को भी धीरे धीरे जल युद्धका अभ्यास हो गया था। अश्वारोही सेना को शिविर में रख कर महानायक, युवराज, वीरेन्द्रसिंह, वसुमित्र और माधववर्म्मा ने नावों को बहुत से दलों में बाँट कर विद्रोहियों पर चारों ओर से आक्रमण किया। विद्रोही सेना घबरा कर पीछे हटने लगी।

वैशाख लगते ही युद्धप्राय: समाप्त हो चला था। विजय प्राप्त करके युवराज बड़े वेग से दक्षिण की ओर बढ़ रहे थे। अकस्मात् विद्रोहियों की एक सह से अधिक नौसेना मेघनाद के तट पर उन पर टूट पड़ी। युवराज के साथ बीस नावें और चार सौ सैनिक थे। वीरेन्द्रसिंह की सेना उस समय वहाँ से पन्द्रह कोस पर थी और यशोधावलदेव का शिविर वहाँ से दस दिन का मार्ग था। प्रस्थान के समय महानायक ने विद्याधारनन्दी नाम के एक वृद्धसामन्त को युवराज के साथ कर दिया था। उन्होंने कुमार से धीरे धीरे पीछे हटके चलने को कहा। पर उनके परामर्श पर धयान नहीं दिया गया। युवराज और अनन्त युद्धकरने पर तुले हुए थे। उन्होंने स्थिर किया कि पिछली रात को शत्रुसेना पर छापा मारा जाय क्योंकि जब तक किसी उपाय से व्यूह का भेद न किया जायगा तब तक लौटना नहीं हो सकता।

सुनसान मैदान में जैसे मरते हुए पशु को देख दूर दूर से गिध्दों का झुण्ड आकर उसके मरने की प्रतीक्षा में चारों ओर घेर कर बैठता है उसी प्रकार विद्रोही सेना युवराज को चारों ओर से घेर कर आसरा देख रही थी। क्षण क्षण पर उसकी संख्या बढ़ती जाती थी। गाँव गाँव से छोटी बड़ी नावों पर विद्रोहियों का दल शत्रु की समाप्ति करने के उल्लास में उमड़ा चला आता था। विलम्ब करना अच्छा न समझ युवराज ने सबेरा होते होते उन पर धावा कर दिया, पर उद्देश्य सफल न हुआ-व्यूह का भेद न हो सका।

तीसरा पहर होते होते तट पर सेना इकट्ठी करके युवराज ने सबसे बिदा ली और कहा “यदि व्यूह का भेद हो गया तब तो फिर देखा देखी होगी, नहीं तो नहीं”। प्रत्येक नाव व्यूह भेदकर निकलने का प्रयत्न करे, कोई किसी का आसरा न देखे” युवराज के बहुत निषेधा करने पर भी अनन्त और विद्याधारनन्दी उनकी नाव पर हो रहे। बीस रणदक्ष नाविक नौका लेकर चले। बड़े प्रचण्ड वेग से बीसों नावों ने व्यूह पर धावा किया। उस वेग को न सँभाल सकने के कारण विद्रोहियों का नौकादल पीछे हटा, पर व्यूहभेद न हुआ।

युवराज की आज्ञा से नौकादल लौट आया। सुशिक्षित अश्वारोहियों के समान मुट्ठी भर मागधा सेना ने फिर व्यूह पर आक्रमण किया। सबके आगे युवराज की नाव थी जिस पर खड़े होकर युवराज हाथ में परशु लिए युद्धकर रहे थे। इस बार व्यूहभेद हुआ। प्रबल वेग न सह सकने के कारण अशिक्षित ग्रामवासी अपनी अपनी नावें लेकर भाग खड़े हुए। बिजली की तरह युवराज की नाव व्यूह के चारों ओर घूम रही थी। परशु की तीक्ष्ण धार खाकर सैकड़ों विद्रोही काल के मुख में जा पड़े। बाणों से जर्जर होकर विद्याधारनन्दी नाव पर मर्च्छित पड़े थे। अनन्त और दस नाविक युवराज की पृष्ठरक्षा पर थे।

युवराज जिधार विद्रोहियों की नौका देखते उधार ही टूट पड़ते। वे या तो नाव सहित डुबा दिए जाते अथवा आत्मसमर्पण करते। इस प्रकार व्यूह भेद हो गया, शत्रुपक्ष का बेड़ा तितर बितर हो गया, बहुत-सी नावें भाग खड़ी हुईं। सन्धया होतेहोते युद्धप्राय: समाप्त हो चला। युवराज ने देखा कि एक स्थान पर विद्रोहियों की कई नावें इकट्ठी होकर युद्धकर रही हैं और गौड़ीय नाविक उन्हें किसी प्रकार पराजित नहीं कर सकते हैं। युवराज ने तुरन्त नाविकों को उधार बढ़ने की आज्ञा दी। उन्हें देख गौड़ीय नाविक दूने उत्साह से युद्धकरने लगे। एक के पीछे एक नावें डूबती जाती थीं, पर युवराज ने चकित होकर देखा कि बचे हुए शत्रु किसी प्रकार आत्मसमर्पण नहीं कर रहे हैं।

युद्धके कलकल, अस्त्रों की झनकार, और घायलों की पुकार के बीच युवराज ने सुना कि कोई चिल्ला कर कह रहा है “शुक्र! युवराज की नाव अब पास आ रही है”। युवराज ने भय और आश्चर्य्य से देखा कि नावों के जमघट के बीच एक छोटी सी नाव पर दो बौद्धभिक्खु खड़े हैं। उनमें से एक को तो उन्होंने पहचाना। वह वज्राचार्य्य शक्रसेन था। देखते देखते दूसरे भिक्खु ने एक शूल छोड़ा, जिसके लगते ही कुमार का एक नाविक नदी के जल में गिर पड़ा। पीछे से अनन्त ने चिल्लाकर कहा “सावधान!”

उनकी बात पर कुछ धयान न देकर युवराज ने अपनी नाव बढ़ाने की आज्ञा दी। उन्होंने नाव पर से देखा कि दूसरे भिक्खु ने उन पर ताक कर शूल फेंका। उन्होंने अपने वर्म्म को सामने किया। पर शूल उन्हें छू तक न गया, नाव से दस हाथ दूर पानी में जा पड़ा। इतने में बाणों से घायल होकर एक और नाविक मारा गया। युद्धअब प्राय: समाप्त हो चुका था। केवल दो नावें प्राणों पर खेल भिक्षुओं की रक्षा कर रही थीं। युवराज की आज्ञा से सब नावों ने एक साथ उन पर आक्रमण किया। युवराज ने सुना कि दूसरा भिक्षु कह रहा है “शक्र! तुम कर क्या रहे हो?” शक्रसेन बोला “मेरे अंग वश में नहीं हैं, हाथ नहीं उठता है”। सुनते ही दूसरे भिक्खु ने युवराज को ताककर शूल चलाया। पर शूल युवराज को लगा नहीं। अनन्तवर्म्मा चट दौड़कर आगे हो गए और शूल के आघात से मूर्च्छित होकर नाव पर गिर पड़े।

युवराज की नाव अब भिक्खुओं की नाव के पास पहुँच गई थी, इससे वे अनन्त को जाकर देख न सके। हाथ में खंग लेकर दूसरा भिक्खु बड़े वेग से युवराज की ओर झपटा। युवराज ने बचाव के लिए अपना परशु उठाया। परशु यदि भिक्खु के सिर पर पड़ता तो वह वहीं ठण्डा हो जाता पर एक वर्म्मधारी सैनिक ने उसे अपने ऊपर रोक लिया। परशु ने वर्म्म को भेदकर सैनिक का सिर उड़ा दिया। इतने में दूसरे भिक्खु का खंग युवराज के शिरस्त्राण पर पड़ा जिससे वे अचेत होकर मेघनाद के जल में गिर पड़े। उनके गिरने के साथ ही वज्राचार्य्य जल में धाड़ाम से कूद पड़ा।

सन्धया के पहले ही से ईशान कोण पर बादल घेर रहे थे। जिस समय युवराज अचेत होकर मेघनाद के काले जल में गिरे उसी समय बड़े जोर से ऑंधी और पानी आया। दोनों पक्ष युद्धछोड़कर आश्रय ढूँढ़ने लगे। शत्रु और मित्रा की खोज करने का समय किसी को न मिला।