शशांक / खंड 2 / भाग-13 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल
धीवर के घर
शीतला नदी के किनारे आम और कटहल के पेड़ों की घनी छाया के बीच एक छोटासा झोपड़ा है। झोपड़े के गोबर से लीपे हुए ऑंगन में बैठी एक साँवली युवती जल्दीजल्दी जाल बुन रही थी। उसके सामने बैठा एक गोरा गोरा युवक चकित होकर उसके हाथ को देख रहा था। झोपड़े को देखने से जान पड़ता था कि वह किसी मछुवे का घर है। चारों ओर छोटे बड़े जाल पड़े थे। एक ओर सूखी मछलियों का ढेर लगा था। नदी तट पर उजली बालू के बीच दो तीन छोटी छोटी मछली मारने की नावें पड़ी थीं। आसपास और कोई बस्ती नहीं थी। चारों ओर जल ही जल था; बीचबीच में हरे हरे पेड़ों का झापस था। युवती साँवली होने पर भी बड़ी सुन्दरी थी। उसके अंग अंग साँचे में ढले से जान पड़ते थे। युवती बड़े बाँकपन के साथ गरदन टेढ़ी किए दोनों हाथों से झट झट जाल बुनती जाती थी और बीच बीच में कुछ मुसकरा कर चाह भरी दृष्टि से पास बैठे युवक की ओर ताकती भी जाती थी। उस दृष्टिपात का यदि कुछ अर्थ हो सकता था तो केवल हृदय का अनिवार्य वेग, चाह की गहरी उमंग, प्रेम की अवर्णनीय व्यथा ही हो सकता था। युवक की अवस्था बीस वर्ष से ऊपर न होगी। उसका रूप अलौकिक था। वैसा रूप धीवर के घर कभी देखने में नहीं आ सकता। धूप से तप कर उसका शरीर तामरस के समान हो रहा था। मैला वस्त्र लपेटे धूल पर बैठा वह ऐसा देख पड़ता था जैसा राख से लिपटा हुआ अंगारा। सिर उसका मुँड़ा हआ था, सारे अंगों पर अस्त्रों की चोट के चिद्द थे, माथे पर बाईं ओर जो घाव था वह अभी अच्छी तरह सूखा तक न था। धीवर के घर ऐसा रूप कभी किसी ने नहीं देखा। इसी से वह धीवर की बेटी रह रह कर टकटकी बाँधा उसकी ओर देखती रह जाती और वह युवक अनजान बालक के समान भोलेपन के साथ उसकी हाथ की सफाई और फुरती देखता था।
इतने में एक और युवक धीरे धीरे उनके पीछे आ खड़ा हुआ। उन दोनों को इसका कुछ भी पता न लगा। आए हुए पुरुष के एक हाथ में लम्बा भाला और दूसरे हाथ में भीगा हुआ जाल था। थोड़ी देर तक तो वह युवक युवती के हावभाव देखता रहा, फिर पूछने लगा “भव, क्या कर रही है?” युवती ने चौंक कर ऊपर ताका और बोली “तेरे क्या ऑंख नहीं है, देखता नहीं है कि मैं क्या कर रही हूँ?”उस पुरुष ने भाले को अच्छी तरह थाम कर कहा “देखता तो हूँ, पर समझता नहीं हूँ”।
भव-तब फिर खड़ा क्या है? चला जा।
पुरुष-मैं न जाऊँगा। बुङ्ढा कहाँ है?
“घर में सो रहा है”।
वह पुरुष झोपड़े की ओर बढ़ा। यह देख युवती उसे पुकार कर बोली “नवीन! नवीन! उधार कहाँ जाते हो?”
“बुङ्ढे को बुलाने।”
“वह बहुत थक कर सोया हुआ है, उसे जगाना मत।”
युवक लौट आया। पर युवती ने उसकी ओर ऑंख उठाकर देखा तक नहीं। वह चुपचाप अपना जाल बुनती रही। थोड़ी देर आसरा देख अन्त में उसने युवती को पुकारा “भव!” कोई उत्तर नहीं।
“भव!”
“क्या है?”
“चलो नाव पर थोड़ा घूम फिर आएँ”।
“मुझे अच्छा नहीं लगता”।
“इतने दिन तो अच्छा लगता था”।
“मैं बहुत बकवाद करना नहीं चाहती”।
जाल बुनने में भूल पड़ गई। दो ओर चित्ता बँट जाने से उसका धयान उचट गया था। नवीन ने पूछा “तुझे नाव पर चढ़ कर घूमना बहुत अच्छा लगता है, इसी से मैं तुझे बुलाने आया हूँ, चल न”।
“तेरे साथ बाहर निकलने से लोग भला बुरा कहेंगे, मैं न जाऊँगी”।
“इतने दिन भलाबुरा नहीं कहते थे, आज भला बुरा कहेंगे”।
“यह सब मैं कुछ नहीं जानती”।
यही कहकर और चिड़चिड़ाकर उसने जाल हाथ से फेंक दिया और वहाँ से चली गई। युवक भी उदास होकर झोंपड़े के ऑंगन से चला गया।
जब युवती ने देखा कि वह युवक चला गया तब वह फिर लौट आई।
पहला युवक ज्यों का त्यों बैठा था। उसने युवती से पूछा “भव! नवीन चला क्यों गया?”
“वह रूठ गया”।
“रूठ गया क्या?”
भव हँसते हँसते उसकी देह पर लोट गई। युवक चकपकाकर इसकी ओर ताकता रह गया। भव ने पूछा “पागल! तू क्या कुछ भी नहीं जानता?”
“न”
“रूठना किसको कहते हैं?”
“मैं क्या जानूँ?”
“चाहना किसको कहते हैं?”
“मैं क्या जानूँ?”
“मैं तुझे चाहती हूँ”।
“मैं क्या जानूँ?”
“तब तू क्या जानता है?”
“मैं तो कुछ भी नहीं जानता”।
भव हँसते हँसते लोट पड़ी। थोड़ी देर पीछे उसने फिर पूछा “पागल! तू इतने दिनों तक कहाँ था?” युवक ने उत्तर दिया “मैं तो नहीं जानता”।
“तेरा घर बार कहाँ है? तेरा क्या कहीं कोई नहीं था?”
“था तो, भव! ऐसा जान पड़ता है मेरा कहीं कोई था। पर कहाँ किस अन्धकार में, यह मुझे दिखाई नहीं पड़ता”।
“पागल! थोड़ा सोच कर देख-तो कि कहाँ”।
“मैं नहीं सोच सकता, सोचने से सिर चकराता है।”
“अच्छा, जाने दे”।
“भव! तुम नवीन के साथ घूमने क्यों नहीं गई?”
“मुझे अच्छा नहीं लगता”।
“पहले तो बहुत अच्छा लगता था”।
“तू तो पागल है। तेरे मुँह कौन लगे? अच्छा बोल, तू घूमने चलेगा”?
“चलूँगा”।
'तुझे नाव पर घूमना अच्छा लगता है?”
“हाँ, मुझे बहुत अच्छा लगता है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि नदी के जल में मेरा कुछ खो गया है, यदि मैं जाकर ढूँढू तो मिल जायगा; इसी से और अच्छा लगता है”।
“तब चलो”।
“नवीन को बुला लूँ”।
“क्या करने को?”
“वह तो नित्य जाता है”।
“अब न जायगा”।
“क्यों?”
“मैं तेरी सब बातों का कहाँ तक उत्तर दूँगी? चलना हो तो चल”।
युवक इच्छा न रहने पर भी उठा। युवती काछा काछकर बालू पर से एक नाव खींचकर जल में ले गई। युवक नाव पर जा बैठा। भव दोनों हाथों से डाँड़ चलाने लगी। नाव धारा की ओर चली। नाव के अदृश्य हो जाने पर आम के कुंज में से निकल कर नवीन बाहर आया। जब तक नाव दिखाई पड़ती रही तब तक वह किनारे खड़ा रहा। नाव के अदृश्य हो जाने पर वह धीरे धीरे झोपड़े की ओर लौटा। इतने में करार पर से किसी ने पुकारा “नवीन”। नवीन बोला “कहिए”।
“भव कहाँ है?”
“नाव पर घूमने गई है”।
“तुम नहीं गए?”
“नहीं”।
“उसके साथ कौन गया है?”
“पागल”।
“अच्छा तुम इधर आओ। बाबाजी आए हैं”।
नवीन ने जल्दी जल्दी घाट के ऊपर चढ़ कर देखा कि कटहल के एक पेड़ के नीचे कषाय वस्त्र धाारण किए एक वृद्धबैठे हैं। उसने उन्हें भक्तिभाव से प्रणाम किया। वृद्धने पूछा “वह कहाँ है?”
नवीन-कौन?
वृध्द-वही तुम्हारा अतिथि।
“भव के साथ नाव पर घूमने गया है।”
“वह कैसा है?”
“भला चंगा है”।
“पहले की बातों का कुछ उसे स्मरण है?”
“कुछ भी नहीं। वह ज्यों का त्यों पागल है”।
“अच्छी बात है। तो अब मैं जाता हूँ, फिर कभी आऊँगा”।
वृद्धचले गए। जिसने नवीन को पुकारा था वह पूछने लगा “नवीन! तू क्यों नहीं जाता है?” नवीन बोला “मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है”। दोनों बैठे बहुत देर तक बातचीत करते रहे। दो घड़ी रात बीते भव गीत गाती पागल को लिए लौटी। नवीन तब तक वहीं बैठा था, पर भव उससे एक बात न बोली। वह उठकर धीरे धीरे चला गया।