शशांक / खंड 2 / भाग-14 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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अनन्तवर्म्मा का विद्रोह


मेघनाद के किनारे रेत पर दो सैनिक दिन डूबने के पहले बैठे बातचीत कर रहे हैं। सामने दूर तक फैला हुआ पड़ाव है। डेरे नदी तट की भूमि छेके हुए हैं। पेड़ों के नीचे आग जला जलाकर सैनिक रसोई बना रहे हैं।

पहला सैनिक बोला “भाई! अब तो जी नहीं लगता। देश की ओर कब लौटना होगा?” दूसरे सैनिक ने कहा “कब देश की ओर लौटना होगा, नहीं कह सकता। युवराज यदि बच गए होते तो लौटने की कोई बातचीत कही जा सकती”।

“हा! क्या सर्वनाश हुआ! अब गुप्तसाम्राज्य डूबा”।

“लक्षण तो ऐसे ही दिखाई पड़ते हैं। महानायक कहते हैं कि माधवगुप्त तो प्रभाकरवर्ध्दन के क्रीतदास होकर रहेंगे, वे साम्राज्य न चला सकेंगे”।

“सम्राट के पास संवाद गया है?”

“अवश्य गया होगा”।

“तुमने युवराज की मृत्यु का वृत्तान्त सुना है?”

“हाँ सुना है। युवराज की नाव पर के माझी अनन्तवर्म्मा और विद्याधारनन्दी को लेकर लौटे हैं, उन्हीं के मुँह से सुना है”।

“उन लोगों ने क्या कहा?”

“उन लोगों ने कहा कि एक दिन बहुत सी विद्रोही सेना ने आकर युवराज की सेना को घेर लिया। विद्याधारनन्दी ने पीछे लौट चलने का परामर्श दिया। पर कुमार ने एक न सुनी, उन्होंने अकस्मात् धावा कर दिया”।

“तब फिर? तब फिर?”

“बीस नावें और तीन चार सौ सैनिक लेकर युवराज ने सौ से अधिक नावों पर आक्रमण किया। आश्चर्य की बात यह है कि विद्रोही पूर्ण रूप से पराजित होकर भागे। युद्धप्राय: समाप्त हो चुका था। उस समय कुमार ने देखा कि कुछ दूर पर विद्रोहियों की दस बारह नावें जमकर बराबर युद्धकर रही हैं और किसी प्रकार पराजित नहीं होती हैं। उन्होंने उनपर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्ष के बहुत से लोग मरे। विद्याधारनन्दी और अनन्तवर्म्मा घायल होकर गिर पड़े। इतने में बड़े जोर से ऑंधी पानी आया। कौन किधार गया इसका किसी को पता न रहा। तभी से युवराज नहीं मिल रहे हैं। कोई कहता है वे युद्धमें मारे गए, कोई कहता है जल में डूब गए, जितने मुँह उतनी बातें हैं”।

“संवाद सुनकर यशोधावलदेव ने क्या कहा?”

पहले तो उन्हें संवाद देने का किसी को साहस ही नहीं होता था। युद्धके तीन दिन पीछे जब विद्याधारनन्दी को चेत हुआ तब वे महानायक से मिले। अनन्तवर्म्मा तब भी अचेत पड़े थे। आज तीन दिन हुए यशोधावलदेव ने जल तक नहीं ग्रहण किया और न शिविर के बाहर निकले हैं। वीरेन्द्रसिंह, वसुमित्र, माधववर्म्मा आदि सेनानायक भी उनसे भेंट नहीं कर सकते हैं। शंकरनद के किनारे नरसिंहदत्ता के पास भी संवाद गया है, वे भी आते होंगे”।

“भाई, सम्राट सुनेंगे तो उनकी क्या दशा होगी? यशेधावल किस प्रकार अपना मुँह पाटलिपुत्र मंद दिखाएँगे?”

धीरे धीरे अंधेरा फैल गया। दोनों सैनिकों के पीछे से न जाने कौन बोल उठा “पाटलिपुत्र में क्या मुँह दिखाऊँगा यही तो समझ में नहीं आता”। दोनों सैनिकों ने चौंककर पीछे ताका, देखा तो महानायक यशोधावलदेव! उनसे कुछ दूर पर प्रधान सेनानायक सिर नीचा किए खड़े हैं। महानायक के सिर पर उष्णीष नहीं है, वे नंगे सिर हैं। उनके लम्बे लम्बे श्वेत केश वायु के झोंकों से इधर उधार लहरा रहे हैं। देखने से जान पड़ता था कि महानायक को आगे पीछे की कुछ भी सुधा नहीं है, वे उन्मत्ता से हो गए हैं। बड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा। उसके उपरान्त महानायक बोल उठे, सुनो वीरेन्द्र! अभी तक तो मैं पागल नहीं हुआ हूँ, पर अब हो जाऊँगा। जब मैं उन्मत्ता हो जाऊँ, नंगा होकर नाचने लगूँ तब मुझे पाटलिपुत्र ले जाना। अभागे महासेनगुप्त यदि तब तक जीते बचें तो उनसे कहना कि यशोधावलदेव के पाप का प्रायश्चित्त हो गया। प्राचीन धावलवंश का उच्छेद करके भी पाप से उसका पेट नहीं भरा था इससे वह अन्धों की लकड़ी और बूढ़े के सहारे को लेकर भाग्य से जुआ खेलने गया था।

“सुनो वसुमित्र! मागधा सेना के सामान्य सैनिक भी कह रहे हैं कि वृद्धयशोधावलदेव पाटलिपुत्र में कौन सा मुँह दिखाएँगे। ठीक है! मैं अपने बाल्यसखा महाराजाधिराज से उनके पुत्र की मृत्यु की बात कैसे कहूँगा? ज्योतिषियों के मुँह से अनिष्ट फल सुनकर वे सदा अपने पुत्र की चिन्ता में दु:खी रहते थे। मैं उन्हें बहुत समझा बुझाकर उनके नयनों का तारा खींच लाया। उस समय तो कुछ नहीं सूझता था पर अब मैं देख रहा हूँ कि यशोधावल युद्धकरने नहीं आया था, भाग्य से खिलवाड़ करने आया था”।

वीरेन्द्रसिंह कुछ कहना ही चाहते थे कि यशोधावलदेव ने फिर कहना आरम्भ किया “मुझे कोई समझाने बुझाने न आना। दुधामुँहे बालक को लेकर मैं मृत्यु के साथ खेल करने आया था। उस समय मुझे नहीं सूझता था कि मैं क्या करने जा रहा हूँ, मेरी ऑंखों पर परदा पड़ गया था। पुत्र प्रेम में व्याकुल सम्राट ने तोरण तक आकर मेरे हाथ में कुमार को सौंपा था। बाईं ऑंख का फरकना देख उन्होंने मुझसे कहा था कि युद्धका परिणाम चाहे जो हो, शशांक को लौटा लाना। वे समझते थे कि मैं उनकी ऑंख की पुतली निकाले लिए जा रहा हूँ। मेरे निकट महासेनगुप्त सम्राट नहीं हैं, मगध के महाराजाधिराज नहीं हैं बाल्यबन्धु हैं। पुत्रशोक में मैं उन्हें भूल गया था। फिर जब अपने पुत्र का शोक भूला तब उनके पुत्र की हत्या करने के लिए पाटलिपुत्र आया।

“शशांक की हत्या मैंने ही की। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि यशोधावल के जीते जी मेरा एक बाल तक कोई बाँका नहीं कर सकता। शंकरनद के किनारे इसी विश्वास पर उन्होंने एक लाख सेना का सामना किया, बंगदेश में मुट्ठी भर सैनिक लेकर विद्रोह दमन करने गए। वे जानते थे कि यशोधावल सौ कोस पर भी रहेगा तो भी किसी प्रकार की विपद आने पर झट से पहुँचकर मुझे अपनी गोद में ले लेगा। अब शशांक नहीं हैं। मैं उनकी रक्षा न कर सका। मैंने उन्हें युद्धकरने की शिक्षा तो दी, पर अपनी रक्षा करने की शिक्षा नहीं दी।

“युद्धसमाप्त हो गया, पर उसके साथ ही युवराज शशांक भी “

काँपते काँपते वृद्धमहानायक बालू पर बैठ गए। नायक और सामन्त लोग उन्हें सँभालने के लिए आगे बढ़े, पर महानायक ने उन्हें रोककर कहा “अभी मुझे ज्ञान है, जब मैं ज्ञान शून्य हो जाऊँगा तभी चुपचाप बैठूँगा। कीत्तिधावल को मैंने खोया, उसे सह लिया; शशांक को खोया है, इसे भी सहूँगा। तब फिर तीन दिन तक पड़ा मैं क्या सोचता रहा जानते हो? पुत्रहीन माता से क्या कहूँगा? वृद्धमहासेनगुप्त से क्या कहूँगा? सबसे बढ़कर तो यह कि किस प्रकार समुद्रगुप्त के सिंहासन पर प्रभाकरवर्ध्दन को बैठते देखूँगा?”

दोनों सैनिक कठपुतली बने उन्मत्ताप्राय महानायक की अवस्था देख रहे थे। दूर पर रेत में खड़ी कई सह मागधा सेना चुपचाप ऑंखों में आँसू भरे वृद्धकी बात सुन रही थी। अकस्मात् अन्धकार में करुणकंठ से किसी ने पुकारा “युवराज! कहाँ हो? मैं अभी बहुत अशक्त हूँ, ऑंखों से ठीक सुझाई नहीं पड़ता है। युवराज शशांक! कहाँ जा छिपे हो? निकल आओ तुम्हारे लिए जी न जाने कैसा कर रहा है, बड़ी व्याकुलता हो रही है”।

कंठस्वर सुनकर माधववर्म्मा बोल उठे “कौन, अनन्त?” क्षीण कण्ठ से कोई बोला “कौन, युवराज? कहीं दिखाई नहीं पड़ते हो। अब तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं रह सकता। अब छिपे मत रहो, निकल आओ। एक बार मैं ऑंख भर देख लूँ, फिर चाहे छिप जाना”।

अनन्तवर्म्मा धीरे धीरे महानायक की ओर बढे। महानायक स्थिर न रह सके। वे चट बोल उठे “अनन्त! कुमार कहाँ हैं?” उनका स्वर पहचान कर अनन्त ने कहा “कौन, महानायक? युवराज कहाँ हैं? मुझे अभी अच्छी तरह दिखाई नहीं पड़ता है”। वृद्धने उन्हें अपनी गोद में भर लिया। अनन्त ने चकित होकर पूछा “महानायक! युवराज कहाँ हैं?” महानायक का गला भर आया, किसी प्रकार वे बोले “मैं भी तो उन्हीं को ढूँढ़ रहा हूँ”। अनन्त ने और भी अधिक विस्मित होकर कहा “युवराज क्या आपको भी नहीं दिखाई पड़ते हैं?” माधववर्म्मा ने धीरे धीरे पास आकर अनन्त का हाथ थाम लिया और कहा “अनन्त! यहाँ आओ”। अनन्तवर्म्मा ने व्याकुल होकर पूछा “माधव! युवराज कहाँ हैं?” यशोधावल बालकों की तरह रो पड़े और बोले “अनन्त! तुम्हारे युवराज हम सबको छोड़ कर चले गए। जान पड़ता है, अब फिर न आएँगे”।

अनन्त धीरे धीरे महानायक की गोद से उठे। एक बार चारों ओर उन्होंने ऑंख दौड़ाई, फिर बोले “तो अब युवराज नहीं हैं। इसी से कोई मुझसे युद्धकी ठीक ठीक बात नहीं कहता था”। इतने में यशोधावलदेव बोल उठे “तुम सब लोग पाटलिपुत्र लौट जाओ। मैं यहीं बंगदेश में ही रहूँगा”। उनकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि अनन्तवर्म्मा गरजकर बोले “महानायक ने क्या कहा? पाटलिपुत्र लौट जायँ? सम्राट को कौन मुँह दिखाएँगे? महादेवी के आगे जाकर क्या कहेंगे? श्यामा के मन्दिर में मैं प्रतिज्ञा करके आया था कि जीते जी युवराज का साथ न छोडूँगा। किन्तु मैं जीता खड़ा हूँ, और युवराज नहीं हैं। अब कौन मुँह लेकर पाटलिपुत्र जाऊँगा?”

युवक ने झट से तलवार खींचकर अपने मस्तक से लगाई और कहा “मैं खड्ग छूकर कहता हूँ कि जब कभी युवराज लौटेंगे तभी अनन्तवर्म्मा पाटलिपुत्र लौटेगा, बीच में नहीं”। शपथ कर चुकने पर अनन्तवर्म्मा ने तलवार नीचे की और उस पर पैर रखकर उसके दो खण्ड कर डाले। इसके उपरान्त वे घुटने टेक महानायक के सामने बैठ गए और हाथ जोड़कर बोले “देव! मौखरि विद्रोही हो गया है, आप सेनापति हैं वह आपके आदेश का पालन न करेगा। उसे बन्दी करने की आज्ञा दीजिए”। अकस्मात् सह कण्ठों से जयध्वनि हो उठी। मागधा सेना क्षुब्धा होकर अपने शरीर तक की सुधा भूल इधर उधार जयध्वनि करने लगी, उन्मात के समान एक दूसरे के गले मिलने लगी, और शपथ खाने लगी कि यदि युवराज न आएँगे तो कोई घर लौटकर न जायगा।

उस समय एक एक करके माधववर्म्मा, वसुमित्र, वीरेन्द्रसिंह इत्यादि सेनानायकों ने आगे बढ़कर कहा “हम सबके सब विद्रोही हैं कोई पाटलिपुत्र न लौटेगा”। वृद्धयशोधावलदेव चुप-उनकी ऑंखों से लगातार ऑंसुओं की धारा छूट रही थी। अनन्तवर्म्मा के घाव से तनाव पड़ने के कारण रक्त की धारा बह चली जिससे वे अचेत होकर महानायक के पैर के पास गिर पड़े।