शशांक / खंड 2 / भाग-15 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल
धीवर की बेटी
नदी के किनारे अमराई की छाया में भव बैठी गीत गा रही है और वही गोरा गोरा पागल युवक उसके पास बैठा मुग्ध होकर सुन रहा है। सन्धया होती चली आ रही है। दक्षिण दिशा से शीतल वायु मेघनाद की तरंगों को स्पर्श करती हुई तटदेश को स्निग्ध कर रही है। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। ऐसा जान पड़ता है कि सारा संसार उस अप्सरा विनिन्दित कण्ठ से निकला हुआ संगीत सुधा पान करने में भूला हुआ है।
गीत थम गया, जगत् के ऊपर से मोहजाल हटा, पेड़ों पर पक्षी बोल उठे। मेघनाद की तरंगें किनारों पर थपेड़े मारने लगीं। युवक चौंक उठा और बोला “बन्द क्यों हो गई?” युवती बोली “गाना पूरा हो गया”।
“पूरा क्यों हो गया?”
“इसका तो कोई उत्तर नहीं”।
“क्यों?”
'तू तो बड़ा भारी पागल है”।
“भव! मुझे तुम्हारा गाना बहुत अच्छा लगता है”।
“क्या कहते हो? फिर तो कहो”।
“तुम्हारा गाना बहुत मधुर लगा है”।
“पागल! क्या तुम मुझे चाहते हो?”
“चाहता हूँ”।
“क्यों?”
“तुम्हारा गाना बहुत मधुर है”।
“बस, इसीलिए?”
“क्या जानूँ”।
युवती लम्बी साँस भरकर उठी। युवक ने चकित होकर पूछा “अब आज क्या और गीत न गाओगी?” युवती बोली “सन्धया हो गई है, अब घर चलें”।
“सन्धया तो नित्य होती है”।
“मैं भी तो नित्य गाती हूँ”।
“तुम्हारा गाना सुनने की इच्छा सदा बनी रहती है”।
युवती कुछ हँसकर बैठ गई और पूछने लगी “पागल! अच्छा, बताओ तो तुम कौन हो”।
“मैं पागल हूँ”।
“तुम क्या सब दिन से पागल हो?”
“सब दिन क्या?”
“तुम तो बड़े भारी पागल हो। तुम्हारे धयान में क्या पहले की कुछ भी बातें नहीं आती हैं?”
“बहुत थोड़ी सी, सो भी एक छाया के समान। ऐसा जान पड़ता है कि मेरा कहीं कोई था, पर कहाँ, यह नहीं धयान में आता”।
“तुम यहाँ कैसे आए कुछ जानते हो?”
“न”।
“जानने की इच्छा होती है?”
“न, तुम गाओ”।
“क्या गाऊँ?”
“वही चन्दावाली गीत”।
युवती गुनगुनाकर गाने लगी। शुक्ल पंचमी की धुंधली चाँदनी उस सघन कुंज के अन्धकार को भेदने का निष्फल प्रयत्न कर रही थी पर मेघनाद के काले जल तरंगों पर से पलटकर वह उस साँवली सलोनी युवती को विद्युल्लता सी झलका रही थी। धीवर कन्या का कण्ठ अत्यन्त मधुर था। जो गीत वह गा रही थी वह भी बड़ा सुहावना था। युवक टकटकी बाँधो उसके मुँह की ओर ताक रहा था और मनहीमन एक अपूर्व सुख का अनुभव कर रहा था। अकस्मात् गाना बन्द हो गया। युवती ने पूछा “तुम्हें चाँदनी अच्छी लगती है, पागल?”
“अच्छी लगती है”।
“तुम मुझे चाहते हो?”
“चाहता हूँ”।
“क्यों?”
“नहीं जानता, जिस दिन से तुम आई हो उसी दिन से चाहता हूँ”।
धीवर की बेटी उसपर मर रही थी। उस असामान्य रूप लावण्य की दीप्ति पर वह पतंग की तरह गिरा चाहती थी। बूढ़े दीनानाथ ने बहुत दूर से अनाथ बालक नवीन को लाकर इसलिए पाला पोसा था कि उसके साथ अपनी कन्या भव का ब्याह कर देगा। इससे इधर भव को नवीन की अवज्ञा करते देख उसे बहुत दु:ख होता। वह बीच बीच में भव को समझाता बुझाता, पर वह उसकी एक न सुनती थी। जिस दिन से पागल आया है उसी दिन से वह एकदम बदल सी गई है। वह घर का काम धान्धा छोड़ दिन रात पिंजड़े से छूटे हुए पक्षी के समान कभी जल में, कभी वन में इधर उधर फिरा करती है। बूढ़े धीवर की वही एक सन्तान थी इससे वह उसे डाँट डपट नहीं सकता था। नवीन भी चुपचाप सहकर रह जाता और घर का जो कुछ काम काज होता कर जाता था।
भव ने फिर पूछा “पागल! अच्छा बताओ तो तुम कौन हो?” उत्तर मिला “क्या जानूँ”।
“बाबाजी कहते थे कि राजपुत्र हो”।
“राजपुत्र क्या?”
“राजा का बेटा”।
“राजा क्या?”
“बाबाजी आवें तो पूछूँगी”।
“बाबाजी कौन?”
“जो तुमको यहाँ लाए हैं”।
“वे कौन हैं?”
“वे एक महात्मा हैं, पेड़ पर चढ़कर यहाँ आते हैं”।
“क्या वे ही हमको यहाँ लाए हैं?”
“हाँ! तुम लड़ाई में मारे गए थे। उन्होंने नाव पर लेकर तुम्हें बचाया था, पर ऑंधी में नाव उलट गई और तुम फिर पानी में जा रहे। बाबा मछली मारने गए थे, वे तुम्हें निकाल लाए”।
“मैं तो यह सब नहीं जानता”।
“जानोगे कैसे? तुम तो उस समय अचेत थे”।
“बाबाजी कहाँ गए?”
“तुम्हें मेरे घर रखकर वे पेड़ पर बैठकर आकाश में उड़ गए”।
“अब फिर कब आएँगे?”
“नहीं कह सकती। पर आएँगे अवश्य”।
“तब फिर क्या हुआ?”
“अपनी देह में देखो तो क्या है?”
“क्या है?”
“ये सब चित कैसे हैं?”
“मैं कुछ नहीं जानता”।
“बाबा जिस समय तुम्हें निकालकर लाए थे तुम्हारे शरीर भर में घाव ही घाव थे। नवीन ने चिकित्सा करके तुम्हें अच्छा किया है”।
युवक कुछ काल तक चुप रहकर बोला “मुझे किसी बात का स्मरण नहीं है”।
इतने में पीछे से नवीन ने पुकारा “भव! बूढ़ा तुम्हें बुलाता है”। भव ने पूछा “किसलिए?”
नवीन-यह मैं नहीं जानता।
भव-तो फिर मैं नहीं आती।
युवक ने कहा “भव! क्या तुम न जाओगी? नवीन दु:खी होगा, बुङ्ढा चिढ़ेगा”। भव ने कहा “चाहे जो हो, मैं न जाऊँगी”।
युवक-तब फिर क्या करोगी?
भव-गाना सुनोगे?
युवक-सुनूँगा।
युवती गाना छेड़ा ही चाहती थी कि पीछे से बुङ्ढे ने आकर पुकारा “भव! इधर आ”।
भव-मैं अभी न आऊँगी।
वृध्द-न आएगी?
भव-न।
वृध्द-गाना गाने ही से पेट भर जायगा?
भव-हाँ, भर जायगा।
वृद्धने चिढ़कर कहा 'अच्छा तो वहीं मर”। युवक उठकर बोला “भव अब घर चलो”।
भव-गाना न सुनोगे?
युवक-नहीं, बुङ्ढा बहुत चिढ़ गया है।
भव और कुछ न कहकर युवक का हाथ थामे घर लौटी।