शशांक / खंड 2 / भाग-16 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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महासेनगुप्त की भविष्यवाणी

मेघनाद का युद्ध हुए पाँच बरस हो गए। यशोधावलदेव और सामन्त लौटे नहीं।

वीरेन्द्रसिंह गौड़ देश में, वसुमित्र बंगदेश में, माधववर्म्मा समतट प्रदेश में, नरसिंहदत्ता राढ़ि देश में तथा यशोधावलदेव और अनन्तवर्म्मा मेघनाद के तट पर पड़ाव डाले पड़े थे। इसी बीच पाटलिपुत्र से संवाद आया कि सम्राट महासेनगुप्त का अन्तकाल उपस्थित है, वे यशोधावलदेव को देखना चाहते हैं।

वृद्धमहानायक ने भिन्न-भिन्न स्थानों के नायकों के पास दूत भेजे, पर सबने कहलाकर भेजा कि हम लोग अपनी इच्छा से पाटलिपुत्र न जायँगे, बन्दी बनाकर भेजे जा सकते हैं। यशोधावलदेव बड़ी विपत्ति में पड़े। दूत बार बार कहने लगा कि यदि विलम्ब होगा तो सम्राट से भेंट न होगी। कोई उपाय न देख यशोधावलदेव लौटने को तैयार हुए।

सम्राट को युवराज की मृत्यु का संवाद बहुत पहले मिल चुका था। जिस समय उन्होंने यह दारुण संवाद सुना था वे वज्राहत के समान मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े थे। तब से उन्हें किसी ने सभा में नहीं देखा। वे अन्त:पुर के बाहर न निकले। धीरे धीरे जीवनी शक्ति वृद्धके जीर्ण शरीरपंजर से दूर होती गई। मागध साम्राज्य के अमात्यों ने समझ लिया कि सम्राट अब शीघ्र इस लोक से जाना चाहते हैं।

देखते देखते पाँच बरस बीत गए। माधवगुप्त स्थाण्वीश्वर से लौट आए हैं। नारायणशर्म्मा ने कहा है कि नए युवराज (माधवगुप्त) प्रभाकरवर्ध्दन और उनके दोनों पुत्रों के अत्यन्त प्रिय पात्र हैं। चरणाद्रिगढ़ में सेना का रखना आवश्यक नहीं समझा गया इससे हरिगुप्त सेना सहित बुला लिए गए। यशोधावलदेव बंगदेश में बैठे बैठे साम्राज्य का कार्य चला रहे थे। पाटलिपुत्र में ऋषिकेषशर्म्मा, नारायणशर्म्मा और हरिगुप्त उनके आदेश के अनुसार काम करते थे। माधवगुप्त धीरे धीरे बल और प्रभाव प्राप्त करते जाते थे। उनके व्यर्थ हस्तक्षेप करने से कभी कभी बड़ी अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती थी। यह सब सुनकर यशोधावलदेव बड़ी चिन्ता में दिन काटते थे।

बुझता हुआ दीपक सहसा भभक उठा। मरने से पहले महासेनगुप्त को चैतन्य प्राप्त हुआ। उन्होंने यशोधावलदेव को देखना चाहा। पाँच बरस पर यशोधावलदेव पाटलिपुत्र लौटे। महानायक बंगदेश पर विजय प्राप्त करके लौट रहे हैं यह सुनकर पाटलिपुत्रवासियों ने बड़े उल्लास और समारोह से उनका स्वागत करना चाहा, पर महानायक ने कहला भेजा कि महाराजाधिराज मृत्युशय्या पर पड़े हैं ऐसी दशा में किसी प्रकार का उत्सव करना उचित न होगा। इतना सब होने पर भी नगर के तोरणों और राजपथ पर सह नागरिकों ने इकट्ठे होकर जयध्वनि द्वारा उनका स्वागत किया। यशोधावलदेव सिर नीचा किए चुपचाप प्रासाद के तोरण में घुसे।

तीसरे तोरण पर महाप्रतीहार विनयसेन उनका आसरा देख रहे थे। यशोधावलदेव को उनसे विदित हुआ कि सम्राट के प्राण निकलने में अब अधिक विलम्ब नहीं है। वृद्धयशोधावल के पैर थरथरा रहे थे। वे किसी प्रकार अन्त:पुर में पहुँचे। लतिका उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ी, पर उनकी आकृति देख सहमकर पीछे हट गई। महानायक ने सम्राट के शयनागार में प्रवेश किया।

उन्होंने द्वार ही पर से सुना कि महासेनगुप्त क्षीण स्वर से पूछ रहे हैं “क्यों? यशोधावल कहाँ हैं?” वृद्धमहानायक भवन के भीतर पहुँचे। वे अपने बाल्यबन्धु का हाथ थामकर बैठ गए। ऑंसुओं के उमड़ने से उन्हें कुछ सुझाई नहीं पड़ता था, आवेग से गला भरा हुआ था। सम्राट ने कहा “छि! यशोधावल, रोते क्यों हो? यह रोने का समय नहीं है। तुम्हें अब तक देखा नहीं था इसी से प्राण इस जीर्ण पंजर को छोड़ निकलता नहीं था”। सम्राट के सिरहाने महादेवी पत्थर की मूर्ति बनी बैठी थीं। उन्होंने सम्राट का गला सूखते देख उनके मुँह में थोड़ा सा गंगाजल दिया।

महासेनगुप्त फिर बोलने लगे “सुनो यशोधावल! शशांक मरे नहीं हैं। ज्योतिष की गणना कभी मिथ्या नहीं हो सकती। मेरा पुत्र अंग, बंग और कलिंग का एकछत्र सम्राट होगा। उसके बाहुबल से स्थाण्वीश्वर का सिंहासन काँप उठेगा।” यशोधावलदेव कुछ कहा चाहते थे पर सम्राट फिर बोलने लगे “सुनते चलो, तर्क वितर्क का समय नहीं है। शशांक लौटेंगे, पर मेरे भाग्य में अब उनका मुँह देखना नहीं लिखा है। शशांक के लौटने पर उन्हें सिंहासन पर बिठाना। विनय!” महाप्रतीहार विनयसेन सामने आए। सम्राट ने कहा “झटपट गरुड़धवज लाओ। ऋषिकेश कहाँ हैं?” विनयसेन ने उत्तर दिया “दूसरे घर में हैं”। विनयसेन गरुड़धवज लाने गए। सम्राट ने कहा “यशोधावल अब मैं मरता हूँ। जब तक शशांक लौटकर न आएँ तब तक राज्यभार न छोड़ना, नहीं तो माधव साम्राज्य का सत्यानाश कर देगा”।

गरुड़धवज हाथ में लिए विनयसेन आ पहुँचे। सम्राट महादेवी की सहायता से उपाधान का सहारा लेकर बैठे और बोले “यशोधावल! गरुड़धवज छूकर शपथ खाओ कि जब तक शशांक न आ जायँगे तब तक राज्य का भार न छोड़ेंगे”।

यशोधावलदेव ने गरुड़धवज छूकर शपथ खाई। सम्राट ने फिर कहा “देवि! तुम सहमरण का विचार कभी न करना। तुम्हारा पुत्र लौटकर आएगा। जब पुत्र सिंहासन पर बैठ जाय तब चिता पर बैठना”। महादेवी ने सम्राट के चरण छूकर शपथ खाई। तब सम्राट ने प्रसन्न होकर अमात्यों को बुलाने की आज्ञा दी। ऋषिकेश थोड़ी देर में ऋषिकेश शर्म्मा, हरिगुप्त, रविगुप्त और माधवगुप्त शयनागार में आए। महासेनगुप्त उस समय शिथिल पड़ गए थे। बुझने के पहिले एक बार वृद्धका जीवनप्रदीप फिर जग उठा। वे बोले “नारायण! मेरा क्षीण् स्वर ऋषिकेश के कानों तक न पहुँचेगा। मैं जो कुछ कहता हूँ उन्हें समझा दो। यह छत्र, दण्ड और सिंहासन तुम लोगों के हाथ सौंपता हूँ। शशांक जीवित हैं और अवश्य लौटकर आएँगे। उनके लौटने पर उन्हें सिंहासन पर बिठाना। जब तक वे न लौटें माधवगुप्त राजप्रतिनिधि होकर सिंहासन पर बैठें। तुम लोग गरुड़धवज छूकर शपथ करो कि जो कुछ मैंने कहा है सबका पालन होगा”।

अमात्यों ने एक एक करके गरुड़धवज स्पर्श करके शपथ खाई। इसके उपरान्त सम्राट ने माधवगुप्त से कहा “माधव! तुम भी शपथ करो”। माधवगुप्त को इधर उधर करते देख यशोधावलदेव ने कुछ कड़े स्वर से कहा “कुमार! सम्राट आदेश कर रहे हैं”। सम्राट बोले “शपथ करो कि बड़े भाई के लौट आने पर तुम बिना कुछ कहे सुने झट सिंहासन छोड़ दोगे। शपथ करो कि कभी बड़े भाई के साथ विरोध न करोगे”। माधवगुप्त ने धीमे स्वर से सम्राट के मुँह से निकली हुई बात दोहराई। यशोधावलदेव बोले “महाराजाधिराज ! यशोधावल का एक और अनुरोध है। कुमार इस बात की भी शपथ खायँ कि वे कभी स्थाण्वीश्वर के आश्रित न होंगे”।

सम्राट ने थोड़ा सिर उठाकर कहा “माधव! शपथ करो”। काँपते हुए हाथों से गरुड़धवज छूकर माधवगुप्त ने शपथ खाई “आपत्काल में भी मैं कभी स्थाण्वीश्वर का आश्रय न लूँगा”। इस बात पर मानो भवितव्यता अदृश्य होकर हँस रही थी।

सम्राट के आदेश से लोग उन्हें गंगा तट पर ले गए। तीसरे पहर आत्मीय जनों के बीच, अभिजातवर्ग के सामने सम्राट महासेनगुप्त ने शरीर छोड़ा।