शशांक / खंड 2 / भाग-17 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल
नवीन का अपराध
देखते देखते पाँच बरस निकल गए। गौरवर्ण युवक धीवर के घर रहते रहते धीवरों की चाल ढाल पर चलने लगा। वह अब बड़ी फुरती से नाव खेने लगा, पानी में जाल छोड़ने लगा। उसके जी में डर या शंका का नाम न था इससे माझियों के बीच वह बल और साहस के लिए विख्यात हो गया। पर उसका नाम ज्यों का त्यों रहा, उसमें कुछ फेरफार न हुआ। सब लोग उसे 'पागल' ही कहकर पुकारते थे। दीनानाथ उसे बहुत चाहता था। नवीन को छोड़ धीवरों में वह और सबका प्रेमपात्र हो गया। इन पाँच बरसों के बीच कोई उसकी खोज खबर लेने न आया। अज्ञात कुलशील युवक धीरे धीरे माझियों में मिल गया।
नवीन ने सेवा यत्न करके उसे अच्छा किया था अवश्य, पर भव का उस पर अनुराग देख वह उससे बहुत जलता था। वह अपने पालन दीनानाथ के संकोच से कभी मुँह फोड़कर कुछ कहता तो न था पर डाह के मारे भीतर ही भीतर जला करता था। बड़े कष्ट से वह अपने हृदय की आग दबाए रहता था, पर वह इस बात को जानता था कि किसी न किसी दिन वह आग भड़क उठेगी जिसमें पड़कर दीनानाथ का सब कुछ भस्म हो जायगा।
एक दिन नवीन ने देखा कि नदी के किनारे एक पेड़ की डाल पर बैठी भव पागल के साथ बुलबुल बातचीत कर रही है। देखते ही उसके शरीर में आग लग गई। भव का ऐसा व्यवहार वह न जाने कितने दिनों से देखता आता था, पर वह देखकर भी नित्य अपने को किसी प्रकार सँभाल कर कामकाज में लग जाता था। पर आज वह आपे के बाहर हो गया। सिर से पैर तक वह आगबबूला हो गया, उसके रोम रोम से चिनगारियाँ छूटने लगीं। नवीन कहीं से लोहे का एक अंकुश उठा लाया था। उसे हाथ में लिए वह एक पेड़ की आड़ में छिप रहा।
थोड़ी देर में दीनानाथ की पुकार सुनकर भव वहाँ से चली गई। पागल एक पेड़ की जड़ पर बैठा पानी थपथपाने लगा। नवीन ने पास जाकर पुकारा “पागल!”
“क्या है?”
“इधर आ”।
पागल कुछ न कहकर पास आ खड़ा हुआ। नवीन बोला “तू क्या करता था?”
“भव के साथ बैठा था”।
“क्यों बैठा था?”
“न बैठता तो भव रूठ जाती”।
“तू क्या भव को चाहता है?”
“हाँ! चाहता हूँ”।
“क्यों?”
“भव का गाना बड़ा अच्छा लगता है”।
“मैं तुझे मार डालूँगा”।
“क्यों मारोगे, नवीन?”
“तू भव को प्यार करता है इसीलिए”।
“मैं तो तुम्हें भी प्यार करता हूँ”।
“झूठ कहता है”।
“नहीं, नवीन! तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ”।
“तो फिर भव को क्यों प्यार करता है?”
“क्या एक को प्यार करके फिर दूसरे को नहीं प्यार करना होता?”
“नहीं”।
“मैं तो नहीं जानता”।
“तो फिर मैं तुझे मार डालूँगा”।
“मारोगे क्यों, नवीन?”
नवीन से कोई उत्तर न बन पड़ा, वह बहुत देर तक चुपचाप खड़ा रहा, फिर बोला-
“तो फिर तू अस्त्रा लेकर आ, मैं तेरे साथ लड़ूँगा”।
“क्यों?”
“हम दोनों में से किसी एक को मरना होगा”।
“और दोनों बचे रहें तो?”
“भव को दो आदमी नहीं प्यार कर सकते”।
“मैं तुमसे न लड़ूँगा”।
“क्यों?”
“तुमने मेरे प्राण बचाए हैं”।
“तो इससे क्या? मैं तुझे मारूँगा। तू न लड़ेगा?”
“न। तुमने मुझे बचाया क्यों था?”
“यह सब मैं कुछ नहीं जानता। मैं तुझे मारूँगा”।
“तो फिर मारो”।
नवीन बड़े फेर में पड़ा। मारने को तो उसने कहा, पर उसका हाथ न उठा। वह चुपचाप खड़ा रहा। यह देख पागल बोला-
“नवीन! तुम मुझे मारो, मैं कुछ न कहूँगा”।
“क्यों?”
“तुमने मुझे बचाया है”।
“इससे क्या हुआ?”
“न जाने कौन मुझसे कहता है कि तुम्हें नहीं मारना चाहिए”।
नवीन और कुछ न कह सका। पागल उसका हाथ थामकर कहने लगा “नवीन! भव को प्यार करने से तुम इतना चिढ़ते क्यों हो?”
नवीन चुप।
होनहार टलता नहीं। उसी समय वन के भीतर से भव ने पुकारा “पागल! पागल! कहाँ हो?” उसके पुकारने में चाहभरी आकुलता टपकती थी। उसे सुनते ही नवीन के हृदय की दबती हुई आग एकबार भड़क उठी। उसने अपने को बहुत सँभालना चाहा, पर रोक न सका। भव ने फिर पुकारा “पागल! तुम कहाँ हो?” आग में घी पड़ा। नवीन ने अंकुश उठाकर पागल के सिर पर मारा। युवक पीड़ा से कराह कर भूमि पर गिर पड़ा। नवीन भागा।
भव दूर पर थी, पर उसने पागल का कराहना सुना। वह दौड़ी हुई आई और देखा कि पेड़ के नीचे रक्त में सना पागल पड़ा है। वह जोर से चिल्लाकर पागल के ऊपर गिर पड़ी। चिल्लाना सुन झोपड़े से दीनानाथ दौड़ा आया। दोनों ने युवक को चेत में लाने की बड़ी चेष्टा की पर वह अचेत पड़ा रहा। अन्त में वे उसे उठाकर झोपड़े में ले गए।