शशांक / खंड 2 / भाग-18 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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खोए हुए का पता

“तुम कौन हो?”

“पागल! मुझे नहीं पहचानते? मैं भव हूँ”।

“हाँ पहचानता हूँ, तुम भव हो। अनन्त कहाँ हैं?”

झोपड़े में एक मैले बिस्तर पर पड़ा पूर्वपरिचित युवक भव से यही पूछ रहा था। आज तीन दिन पर उसे चेत हुआ है। भव ताड़ का पंखा लिए उसे हाँक रही थी। उसने चकित होकर पूछा “पागल! अनन्त कौन?”

“तुम नहीं जानती। विद्याधरनन्दी कहाँ हैं?”

भव समझी कि पागल यों ही बक रहा है। वह अपने पिता को पुकारकर कहने लगी कि “बाबा, बाबा! देखो तो पागल क्या कह रहा है”।

दीनानाथ नदी के किनारे खड़ा देख रहा था कि बहुत बड़ी बड़ी नावें मेघनाद के उस पार से उसके झोपड़े की ओर चली आ रही हैं। युवक ने फिर कहा “तुम अनन्त को बुला दो, मैं युद्धका संवाद जानने के लिए बहुत घबरा रहा हूँ”। इतने में दीनानाथ के साथ एक वृद्धऔर एक युवक झोपड़े में आया झोपड़े के द्वार पर बहुत से लोगों के आने का शब्द सुनाई पड़ा। भव ताकती रह गई।

युवा पुरुष बिस्तर पर पड़े युवक को देखते ही चारपाई के किनारे घुटने टेककर बैठ गया और कोष से तलवार खींच सिर से लगाकर बोला “महाराजाधिराज की जय हो! प्रभु, मुझे पहचानते हैं?”

“क्यों नहीं पहचानता? तुम वसुमित्र हो। अनन्त कहाँ हैं?”

“वे कुशल से हैं। श्रीमान् का जी कैसा है?”

“अच्छा है। युद्धका क्या समाचार है?”

युद्धमें महाराज की विजय हुई। श्रीमान् उठ सकते हैं?”

शशांक के चापाई पर से उठने के पहले ही आए हुए वृद्धने पास आकर पूछा “शशांक! मुझे पहचानते हो?” उत्तर मिला “पहचानता हूँ। तुम वज्राचार्य्य शक्रसेन हो”। दीनानाथ ने आगे बढ़कर कहा “इन्हीं ने तुमको-आपको-पाँच बरस हुए नदी से निकालकर बचाया था”। शशांक ने विस्मित होकर पूछा “वज्राचार्य्य ने? पाँच बरस पहले? वसुमित्र! मैं कहाँ हूँ?”

“श्रीमान् इस समय बंगदेश में हैं”।

भव पत्थर बनी चुपचाप यह सब अद्-भुत लीला देख रही थी। शशांक को उठते देख वह भी उठ खड़ी हुई। शशांक झोपड़े के द्वार पर आकर खड़े हुए। बाहर और नदी के किनारे कई सह सैनिक खड़े थे। उनमें से प्रत्येक युवराज के आधीन किसी न किसी युद्धमें लड़ा था। जिन्होंने उन्हें देख पाया वे देखते ही जयध्वनि करने लगे। जो कुछ दूर पर खड़े थे और जो नाव पर थे वे भी जयध्वनि करने लगे। सह कण्ठों से एक स्वर से शब्द उठा “महाराजाधिराज की जय हो”। शशांक चौंक पड़े और घबराकर वसुमित्र से पूछने लगे “वसुमित्र! ये लोग मुझे महाराजाधिराज क्यों कह रहे हैं?”

वसु -प्रभु! थोड़ा स्थिर होकर विराजें, मैं सारी व्यवस्था कहता हूँ।

शशांक-नहीं वसुमित्र! मैं शान्त नहीं रह सकता। बताओ, क्या हुआ है।

वसु -मेघनाद के युद्धमें आप घायल होकर नदी में गिर पड़े। वज्राचार्य्य शक्रसेन आपको निकालकर इस धीवर के घर ले आए। वे बीच बीच में आपको देख जाते थे। बन्धुगुप्त ने यह सुनकर उन्हें कारागार में बन्द कर दिया। वज्राचार्य्य कारागार से भाग कर मेरे पास आए। इस प्रकार आज पाँच बरस पर श्रीमान् का पता लगा। अब तक हम लोग देश लौटकर नहीं गए। केवल महानायक यशोधावलदेव महाराजाधिराज के अन्तिम समय-

शशांक बोल उठे “अन्तिम समय? क्या पिताजी अब नहीं हैं?”

वसु.-महाराजाधिराज महासेनगुप्त का परलोकवास हो गया।

शशांक-वसुमित्र! मरते समय पिजाती को मेरा धयान आया था? पिताजी क्या यह सुन चुके थे कि मैं युद्धमें मारा गया?

वसु -प्रभु! लोगों के मुँह से सुना है कि महाराजाधिराज ने अन्तिम समय में महानायक को पास बुलाकर कहा था कि आप जीवित हैं। गणना के अनुसार आपकी आयु अभी बहुत है। महाराज को पूरा विश्वास था कि आप जीते जागते हैं और लौटेंगे। इसी से उन्होंने महादेवीजी को सहमरण से रोक लिया। इस वृध्दावस्था में भी महानायक सारा राजकाज चला रहे हैं-

शशांक-हाय! पिताजी।

पिता की मृत्यु का संवाद सुनकर शशांक बालकों के समान रोने लगे। थोड़ी देर में शोक का वेग कुछ थमने पर उन्होंने वज्राचार्य्य शक्रसेन से पूछा “वज्राचार्य्य! बन्धुगुप्त कहाँ है?”

शक्र -अब तो जहाँ तक समझता हूँ पाटलिपुत्र में होंगे।

शशांक-उन्हें मेरा कुछ पता लगा है।

शक्र -मैं तो समझता हूँ, नहीं। पर इतना वे अवश्य जानते हैं कि आप जीवित हैं। इससे दाँव पाकर आपको मारने का विचार है।

शशांक-मुझे क्यों मारेंगे? वसुमित्र ! महानायक कहाँ हैं।

वसु -पाटलिपुत्र में। वे स्वर्गीय महाराजाधिराज की आज्ञा से सब राजकाज चला रहे हैं। पर कुछ दिन हुए स्थाण्वीश्वर से एक अमात्य आए हैं। वे ही आजकल माधवगुप्त के प्रधानमन्त्री हैं।

शशांक-तो क्या महानायक सब राजकाज छोड़ बैठे हैं?

वसु -उन्हें विवश होकर छोड़ना पड़ा है।

शशांक-तो क्या नरसिंह को भी मण्डल का अधिकार नहीं मिला?

वसु -वे पाटलिपुत्र इसलिए नहीं लौटै कि चित्रा को कौन मुँह दिखाएँगे।

शशांक-चित्रा-चित्रादेवी।

वसु.-प्रभु! चित्रादेवी कुशल मंगल से हैं।

शशांक-चित्रा का विवाह हुआ?

वसु -विवाह? यह श्रीमान् कैसी बात कहते हैं। वे तो विधावा के समान अपने दिन काट रही हैं और आपका आसरा देख रही हैं।

शशांक-तुम्हारी यूथिका की तरह?

वसुमित्र ने लजाकर सिर नीचा कर लिया। शशांक ने फिर पूछा “नरसिंह कहाँ हैं?”

“वे राढ़ देश में हैं। उन्होंने भी माधवगुप्त की अधीनता नहीं स्वीकार की”।

“वसुमित्र! तुम बार बार माधवगुप्त का नाम क्यों लेते हो? क्या तुम उन्हें सम्राट नहीं मानते?”

“प्रभु! मैं भी विद्रोही हूँ। जब से महाराजाधिराज का स्वर्गवास हुआ है तब से मैंने एक कौड़ी पाटलिपुत्र नहीं भेजी है। आपके साथ जितने लोग यहाँ बंगदेश में आए थे उनमें से एक महानायक यशोधावलदेव ही माधवगुप्त की आज्ञा में हैं और कोई नहीं। राढ़ में नरसिंहदत्ता, समतट में माधववर्म्मा, बंगदेश में मैं-ये सबके सब इस समय विद्रोही हैं। मण्डला में जमकर अनन्तवर्म्मा ने जंगलियों की सहायता से माधवगुप्त की सेना पर खुल्लमखुल्ला आक्रमण किया है। दक्षिण मगध भी उन्हीं के हाथ में है। मण्डला से लेकर रोहिताश्व तक का सारा पहाड़ी प्रदेश उनके अधिकार में है। गौड़ देश में वीरेन्द्रसिंह केवल वृद्धमहानायक का मुँह देखकर विद्रोह नहीं कर रहे हैं। रामगुप्त और हरिगुप्त पाटलिपुत्र में पड़े स्थाण्वीश्वर के दास की आज्ञा का पालन कर रहे हैं”।

शशांक ने चुपचाप सारी बातें सुनीं। बहुत देर पीछे वे बोले “वसुमित्र! अब क्या करना चाहिए?”

वसु -पाटलिपुत्र चलिए।

“अकेले तुम्हारे साथ?”

“साम्राज्य में बन्धुगुप्त और बुध्दघोष को छोड़ ऐसा कोई नहीं है जो आपका नाम सुनते ही दौड़ा न आएगा। प्रभु! मैं अभी चारों ओर संवाद भेजता हूँ, एक महीने के भीतर पचास सह पदातिक इकट्ठे हो जायँगे”।

“वसुमित्र! घबराओ न। अभी माधव और नरसिंह के पास संवाद भेजो। माधव को तुरन्त सेना लेकर चलने को कहो, और नरसिंह से कहो कि वे अपनी सेना लेकर गंगा के किनारे रहें। वीरेन्द्र और अनन्त के पास संवाद भेजने की आवश्यकता नहीं है”।

“क्यों श्रीमान्?”

“मुझे विश्वास है कि मेरे लिए वे सदा तैयार होंगे।”

“अच्छा तो मैं नाव पर जाता हूँ, आप कपड़े बदलें”।

वसुमित्र ने तलवार माथे से लगाकर नए सम्राट का अभिवादन किया और वज्राचार्य्य के साथ नाव पर लौट गए।

भव अब तक चुपचाप खड़ी थी। वह धीरे धीरे शशांक के पास आई और पूछने लगी “पागल! तुम कौन हो?”

“भव अब मैं पागल नहीं हूँ, अब मैं राजा हूँ”।

“तो क्या तुम चले जाओगे?”

“हाँ! अभी तो देश को जाऊँगा”।

“कब जाओगे?”

“मैं समझता हूँ, कल ही”।

“हाँ! आज न जाना, मैं तुम्हें ऑंख भर देखूँगी। फिर तो तुम लौटकर आओगे नहीं”।

भव डबडबाई हुई ऑंखें लिए झोपड़े से बाहर निकली। शशांक व्यथित हृदय से झोपड़े के सामने खड़े किए हुए डेरे में गए।

दोपहर रात बीते शशांक नदी तट पर डेरे के बाहर निकल कर बैठे हैं। दूर पर आग जल रही है और डेरे के चारों ओर पहरे वाले खड़े हैं। ऍंधोरी रात में बैठे नए सम्राट चिन्ता कर रहे हैं। चिन्ता की अनेक बातें हैं। इन छ: वर्षों के बीच संसार में कितने परिवर्तन हो गए हैं, उसकी दशा में कितना उलट फेर हो गया है। पिता नहीं हैं, माधवगुप्त मगध के सिंहासन पर विराजमान हैं, स्थाण्वीश्वर के राजदूत ने आकर यशोधावलदेव को पदच्युत कर दिया है। थोड़ी देर पीछे धयान आया कि वसुमित्र कहते थे कि चित्रा का अभी विवाह नहीं हुआ है।

देखते देखते मेघनाद के किनारे से एक व्यक्ति दौड़ा दौड़ा आया और शशांक के पैरों पर लोट कर कहने लगा “पागल! मुझे क्षमा करो। मैंने सुना है कि तुम राजा हो, तुम्हारे हृदय में अपार दया है, तुम मेरा अपराध क्षमा करो”।

सम्राट ने विस्मित होकर देखा कि कीचड़ लपेटे, भीगा वस्त्र पहने नवीन भूमि पर पड़ा है। उन्होंने ऑंखों में आँसू भरकर उसे उठा लिया और कहने लगे “नवीन! क्षमा कैसी, भाई! तुम उस समय पागल हो गए थे। मैं तो पागल था ही, तुम्हारे हृदय की वेदना को न समझ सका। तुम भव के साथ विवाह करो, भव तुम्हारी है”।

गले से छूटकर नवीन बोला “तुम सचमुच राजा हो, इतनी दया मैंने आज तक कहीं नहीं देखी। राजा! मैंने सुना है तुम देश जा रहे हो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। मैंने तुम्हारा रक्त बहाया है। जब तक प्रायश्चित्ता न करूँगा मेरे मन की आग न बुझेगी। नवीनदास आज से तुम्हारा क्रीतदास हुआ। जब तुम देश में जाकर राजा हो जाआगे और मैं जीता रहूँगा तब लौटूँगा'। इतना कहकर नवीन सम्राट का पैर पकड़कर बैठ गया। शशांक ने उसे उठाकर फिर गले से लगाया। उनका बहुमूल्य वस्त्र कीचड़ कीचड़ हो गया।

दूसरे दिन सबेरे शशांक ने सेना सहित यात्रा की। यात्रा के समय दीनानाथ और नवीनदास सह माँझी लेकर साथ हो लिए। रात को ही भव न जाने कहाँ चली गई, उसका कहीं पता न लगा।