शशांक / खंड 3 / भाग-1 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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पिंगलकेश अतिथि

जाड़े के आरम्भ में सूर्य्योदय के पहले मंडला की विकट घाटी पार करके एक अश्वारोही मंडलादुर्ग के सिंहद्वार के सामने आ खड़ा हुआ। पिपीलिकाश्रेणी के समान बहुतसे अश्वारोही और पदातिक उसके पीछे पीछे आते थे। अश्वारोही ने गढ़ के फाटक पर खड़े होकर पुकारा ”गढ़ में कोई है?” परकोटे पर से एक पहरे वाला बोला”तुम कौन हो?” अश्वारोही ने कहा ”हम लोग अतिथि हैं”।

पहरे -तो यहाँ क्यों आए? अतिथिशाला में जाओ।

अश्वारोही ने हँसकर कहा ”हम लोग गढ़ के अतिथि हैं, अतिथिशाला में क्या करने जायँ?”

पहरे वाले ने चकित होकर कहा ”गढ़ का अतिथि तो आज तक मैंने कभी नहीं सुना। यह एक नई बात है”।

अश्वारोही-तुम गढ़पति से जाकर कहो कि गढ़ के एक अतिथि आए हैं, वे गढ़ के भीतर आना चाहते हैं।

पहरे -गढ़पति अभी सो रहे हैं, मैं अभी उनके पास नहीं जा सकता। तुम्हारे पीछे बहुत से लोग दिखाई पड़ते हैं, वे सब क्या तुम्हारे ही साथ हैं?

अश्वारोही-हाँ।

पहरे -तो फिर उन्हें यहाँ से हट जाने को कहो, नहीं तो अच्छा न होगा।

अश्वा -अतिथि होकर हटेंगे कैसे?

इतने में अश्वारोही के पास बहुत से अश्वारोही और पदातिक आ खड़े हुए। पहरेवाले ने तुरही बजाई। देखते देखते दुर्ग का परकोटा सशस्त्रा सैनिकों से भर गया। अश्वारोही ने पूछा ”तुम्मारा स्वामी कौन है?” उत्तर मिला ”महाराज अनन्तवर्म्मा”।

अश्वा -उन्हें बुला लाओ।

पहरे -अपने दल के लोगों को हटाओ नहीं तो हमलोग आक्रमण करते हैं।

अश्वारोही की आज्ञा से उसके साथ के लोग दूर हट गए। थोड़ी देर में एक वर्म्मधारी पुरुष ने परकोटे पर आकर पूछा ”तुम कौन हो?”

अश्वा -मैं अतिथि हूँ। तुम क्या यज्ञवर्म्मा के पुत्र अनन्तवर्म्मा हो?

“हाँ, पर तुम कौन हो? तुम्हारा कण्ठस्वर तो परिचित सा जान पड़ता है।

“कण्ठस्वर से नहीं पहचान सकते?”

“नहीं”।

“मुझे पाटलिपुत्र में कभी देखा है?”

“देखा होगा, पर इस समय तो नहीं पहचानता”।

“एक दिन थानेश्वर की सेना के शिविर में बन्दी होकर पाटलिपुत्र में गंगा के तट पर खड़े थे, धयान में आता है?”

“हाँ आता है। कौन, नरसिंह?”

अश्वारोही ठठाकर हँस पड़ा और उसने धीरे धीरे अपना शिरस्त्राण हटाया। पीठ और कन्धो पर भूरे भूरे केश छूट पड़े जो उदय होते हुए सूरज की किरणें पड़ने से झलझल झलकने लगे। गढ़ के परकोट पर वर्म्मधारी योध्दा चिल्ला उठा ”पहचान गया युवराज-महाराजाधिराज “।

उस समय नरसिंहदत्ता, वीरेन्द्रसिंह, माधववर्म्मा और वसुमित्र आदि प्रधान सेनानायक आकर सम्राट के आसपास खड़े हो गए। तुरन्त दुर्ग का द्वार खुल गया और सब लोग दुर्ग के भीतर गए। दिन भर दुर्ग के भीतर सेना जाती रही। सन्धया होने के कुछ पहले विद्याधरनन्दी शेष सेना लेकर पहुँचे। वसुमित्रकी बात ठीक निकली। पचास सह से ऊपर सेना शशांक के साथ पाटलिपुत्र की ओर चली थी।

ज्यों ही शशांक बंगदेश से बाहर हुए थे कि समतट से माधववर्म्मा आकर उनके साथ मिल गए थे। केवल तीन आदमी थोड़ी सी सेना लेकर भागीरथी के किनारे अब तक गए थे। इससे यह किसी ने न जाना कि शशांक पाटलिपुत्र लौट रहे हैं। भागीरथी के तट पर नरसिंह सेना लिए पड़े थे। उनके साथ इतनी सेना देखकर किसी को कुछ आश्चर्य न हुआ। माधवगुप्त जब शपथ भंग करके सिंहासन पर बैठ गए तब साम्राज्य के सब प्रधान अमात्यों की श्रध्दा उनकी ओर से हट गई। उसके पीछे जब स्थाण्वीश्वर के अमात्य द्वारा वृध्द नायक यशोधावलदेव का बात बात में अपमान होने लगा तब अभिजातवर्ग के लोग अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे। भीतर भीतर अत्यन्त विरक्त होने पर भी उन्होंने समुद्रगुप्त के वंशधार के प्रति स्पष्ट रूप से अपना असन्तोष नहीं प्रकट किया।

महासेनगुप्त की मृत्यु के एक वर्ष के भीतर ही साम्राज्य में बहुत कुछ उलटफेर हो गया है। गौड़ और बंग में शशांक के साथी विद्रोही हुए। अनन्तवर्म्मा ने दक्षिण मगध को अपने हाथ में करके मण्डलागढ़ पर अधिकार जमाया। प्रभाकरवर्ध्दन के अनुरोधा से माधवगुप्त ने चरणाद्रि और वाराणसी को अवन्तिवर्म्मार् को प्रदान किया। यशोधावलदेव चुपचाप सब अपमान सहते रहे। शशांक के लौटने की आशा दिन दिन उनके चित्ता से दूर होती जाती थी। बुध्दघोष, बन्धुगुप्त आदि बौध्दसंघ के नेताओं ने खुल्लमखुल्ला ब्राह्मणों पर अत्याचार करना आरम्भ किया। उनके अत्याचारों से पाटलिपुत्र के नागरिक एकबारगी घबरा उठे। सैकड़ों देवमन्दिरों की सम्पत्ति छीन ली गई, सह देवालयों में महादेव और वासुदेव के स्थान पर बुध्द और बोधिसत्वों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हुईं। अत्याचार से पीड़ित प्रजा ने वृध्द महानायक की शरण ली, पर वे उसकी रक्षा न कर सके।

धीरे धीरे राजकोष भी खाली हो चला। चारों ओर से राजस्व का आना बन्द हो गया था। वेतन न पाने के कारण सेना अन्न बिना मरने लगी। धीरे धीरे अभाव असह्य हो गया और वह सेनानायकों की बात पर कुछ भी धयान न दे गाँव पर गाँव लूटने लगी। प्रजा भी अपनी रक्षा के लिए उनसे लड़ने लगी। देश में अराजकता छा गई। यशोधावलदेव कठपुतली बने पाटलिपुत्र में बैठे बैठे साम्राज्य की यह सब दुर्दशा देखने लगे।

प्रभाकरवर्ध्दन के पास संवाद पहुँचा कि मगध में विद्रोह हुआ ही चाहता है। वे तो यह चाहते ही थे। समुद्रगुप्त के वंश के रहते आर्यर्वत्ता में कोई उन्हें चक्रवरत्ती राजा नहीं मानता था। इसीलिए वे अपने ममेरे भाई की सम्राट पदवी लुप्त करने की युक्ति निकाल रहे थे। प्रभाकरवर्ध्दन मगध की अवस्था सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा कि घर की लड़ाई से जब मगध राज्य निर्बल हो जायगा, पराजित होकर जब माधवगुप्त आश्रय चाहेंगे उस समय मैं उन्हें करद सामन्त राजा बनाकर गुप्तवंश से सम्राट की पदवी सदा के लिए दूर कर दूँगा। मगध की जिस समय यह दशा हो रही थी ठीक उसी समय शशांक बंगदेश से मगधको लौटे।

मंडलागढ़ में नए सम्राट ने मन्त्राणा सभा बुलाकर स्थिर किया कि यशोधावलदेव को बिना जताए पाटलिपुत्र में घुसना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो नगर पर आक्रमण करना चाहिए। अनन्तवर्म्मा ने सूचित किया कि अगहन शुक्ल त्रायोदशी को माधवगुप्त का विवाह है। नरसिंहदत्ता और माधववर्म्मा की सम्मति हुई कि उसी दिन पाटलिपुत्र पर आक्रमण करना चाहिए। शशांक ने सोचा कि पाटलिपुत्र ऐसा ही कोई वर्णाश्रमधार्मी होगा जो मेरे विरुध्द अस्त्रा उठाएगा। उन्होंने उनकी बात काटकर स्थिर किया कि गुप्तवेश में अपने को वीरेन्द्रसिंह के साथ आए हुए गौड़ीय सामन्त बतला कर सब लोग नगर में प्रवेश करें और नरसिंहदत्ता अधिकांश सेना लेकर नगर के बाहर रहें। केवल दस सह सेना उत्सव में सम्मिलित होने के लिए नगर में प्रवेश करे।

वीरेन्द्रसिंह ने गौड़ से यशोधावलदेव को सूचना दे दी थी कि मैं शीघ्र पाटलिपुत्र आऊँगा इससे उनके आने पर किसी को कुछ आश्चर्य्य न हुआ। दस सहसेना देखकर भी किसी को कुछ सन्देह न हुआ। बात यह थी कि सम्राट के विवाह के उपलक्ष में निमन्त्रित भूस्वामी और सामन्त लोग अपने दलबल के साथ नगर में आ रहे थे। दस सह सेना एक पक्ष के भीतर नगर में पहुँच गई। अधिकांश सेना नगर के बाहर आसपास के गाँवों में इधर उधार छिप रही।

माधवगुप्त उस समय मन का खटका छोड़ उत्सव और नाचरंग में डूबे थे। किसी विघ्न या विपत्ति की आशंका उनके मन में नहीं थी। वे जानते थे कि किसी प्रकार की लड़ाई भिड़ाई होने पर प्रभाकरवर्ध्दन मेरी रक्षा करेंगे। प्रजा यदि बिगड़ जायगी तो वे पूरी सहायता देंगे और यदि आवश्यक होगा तो स्वयं लड़ने के लिए आएँगे।