शशांक / खंड 3 / भाग-2 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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चित्रा का दिन

पाटलिपुत्र नगर में आज बड़ी चहलपहल है। तोरण तोरण पर मंगल वाद्य बज रहे हैं। राजपथ रंग बिरंग की पताकाओं और फूल से सजाया गया है। दलकेदल नागरिक रंग बिरंगे और विचित्र विचित्र वस्त्र पहने ढोल, झाँझ आदि बजाते और गाते निकल रहे हैं। पहर पहर भर पर नगर में तुमुल शंखध्वनि हो रही है। पौरांगना ऊपर से लावा और श्वेत पुष्प बरसा रही हैं। धूप के सुगन्धित धुएँ से छाए हुए मन्दिरों में से नगाड़ों और घंटों की ध्वनि ध्वनि आ रही है। आज सम्राटमाधवगुप्त का विवाह है।

दोपहर के समय एक वर्म्मावृत पुरुष प्रधान राजपथ पकडे राजप्रासाद की ओर जा रहा है। उसे देख मद्य से मतवाला एक नागरिक बोल उठा ”यह देखो!गौड़ की सेना वर्म्म से ढकी हुई विवाह में जा रही है।”। उसकी बात पर उसके साथी तालियाँ पीट पीट कर हँसने लगे। सैनिक उसकी ओर फिर कर उससे पूछने लगा ”राजभवन का यही मार्ग है?” नागरिक बोला ”हाँ! सीधो उत्तर चले जाओ”। सैनिक बढ़ ही रहा था कि इतने में वह नागरिक बोल उठा ”भाई! ये चित्रादेवी कौन हैं?” दूसरे नागरिक ने कहा ”अरे, तू नहीं जानता। वही मण्डलागढ़ के तक्षदत्ता की


कन्या”।

“कौन? वही जिसके साथ युवराज शशांक के विवाह की बातचीत थी?”

सैनिक ठिठक कर खड़ा हो गया और पूछने लगा ”चित्रादेवी का क्या हुआ?” नागरकि ने कहा ”तुम नगर में कब आए हो? चित्रादेवी के साथ ही तो सम्राटमाधवगुप्त का विवाह है, तुम क्या अब तक नहीं जानते?” सैनिक के सिर में चक्कर सा आ गया, वह गिरते गिरते बचा। पहले नागरिक ने कहा ”गौड़ का वीर तो यहीं गिर रहा है”। दूसरा नागरिक बोला ”भाई निमन्त्रण है। बिना पैसा कौड़ी के चोखा मद्य मिला, चढ़ा लिया”। सैनिक ने उनकी बात न सुनी। वह मतवाले के समान चलतेचलते सड़क से लगी हुई एक बावली के किनारे बैठ गया। जान पड़ता है कि उसे तनमन की सुधा न रही।

दिन तो बीत गया, सन्धया हो चली, पर वह सैनिक वहाँ से न उठा। उसे मद में चूर समझ कोई उसके पास न गया। रात का पहला पहर बीता। प्रासाद में बड़ी धूमधाम और बाजेगाजे के साथ सम्राट का विवाह हो गया। उसके पीछे सैनिक को चेत हुआ। उसने शरीर पर से वर्म्म उतारकर बावली में फेंक दिया और एक दूकान से श्वेत वस्त्र मोल लिया। बावली के किनारे एक घने पेड़ की छाया के नीचे अंधेरे ही में बैठेबैठे उसने अपना वेश बदला और फिर प्रासाद की ओर चलने लगा।

प्रासाद में घुसकर वह भीड़ में मिल गया और धीरे धीरे अन्त:पुर की ओर बढ़ा। उसने एक ऐसा मार्ग पकड़ा जिसे और लोग नहीं जानते थे। इस प्रकार वह नए प्रासाद के अन्त:पुर के दूसरे खण्ड में जा पहुँचा। उत्सव के आमोद प्रमोद में उन्मत्ता स्त्रियों और अन्त:पुररक्षियों ने उसे न देखा। गंगाद्वार के पास प्रासाद के जिस भाग के नीचे से गंगाजी बहती थीं सैनिक उसी भाग के दूसरे खण्ड की छत पर चढ़कर अंधेरे में छिप रहा। अन्त:पुर के उस भाग में उस समय सन्नाटा था, कोई कहीं नहीं दिखाई देता था। उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई थी। कभी कभी विवाहोत्सव का कोलाहल वहाँ तक पहुँचकर गहरे सन्नाटे में भंग डाल देता था।

एक युवती अन्त:पुर में एक भवन से निकलकर छत पर आ खड़ी हुई। युवती की अवस्था अभी बहुत थोड़ी थी, दूर से देखने से वह बालिका जान पड़ती थी। उसका सौन्दर्य अनुपम था। उसके बहुमूल्य रत्नालंकार थे जो निर्मल चाँदनी पड़ने से जगमगा उठे। उसके केश छूटे हुए थे। जान पड़ता था कि वह अभी स्नान किए चली आ रही है। उसके शरीर पर अत्यन्त बहुमूल्य महीन श्वेत वस्त्र था जो भूमि पर लोटता था। एक दासी ने आकर उसे सँभाला और फिर वह बाल सुखाने चली। युवती अनमनी सी होकर बोली ”बाल हवा में सूख जायँगे, तू यहाँ से जा”। दासी चली गई। रमणी छत पर इधर उधर टहलने लगी। थोड़ी देर में एक और दासी ने आकर कहा ”महादेवी! सोने का समय हो गया”। रमणी ने पूछा ”कितनी रात हो गई होगी?” दासी ने उत्तर दिया ”दोपहर के लगभग”। रमणी ने कहा”मैं अभी न सोऊँगी, तू जा”। दासी विवश हो चली गई।

थोड़ी देर में छिपा हुआ सैनिक अंधेरे में से निकलकर छत पर आ खड़ा हुआ और उसने दूर से पुकारा ”चित्रा!” रमणी चौंक पड़ी, फिरकर जो देखती है तो कुछ दूर पर निखरी चाँदनी में श्वेतवस्त्रधारी एक पुरुष खड़ा है। पुरुष ने फिर पुकारा ”चित्रा!” रमणी को कण्ठस्वर कुछ परिचित सा जान पड़ा। उन्होंने पूछा ”तुम कौन हो?” पुरुष ने उत्तर दिया ”चित्रा! मैं हूँ”। रमणी को कुछ डर सा लगने लगा, उसने सकपकाकर कहा ”तुम कौन हो? मैं तो नहीं पहचानती”। पुरुष ने कहा”कण्ठस्वर से भी नहीं पहचानती, चित्रा! अब मैं क्या धयान से इतना उतर गया?” उसने सिर पर से उष्णीष उतार दिया। इतने में एक छोटे से बादल के टुकड़े ने आकर चन्द्रमा को ढाँक लिया। उसके हटते ही फिर चाँदनी छिटक गई। चित्रा देवी ने देखा कि पुरुष सुन्दर गौर वर्ण है, लम्बे लम्बे पिंगल केश उष्णीष से छूटकर वायु के झोंकों से इधर उधार लहरा रहे हैं। देखते ही वह कुछ कहती हुई चिल्ला उठी। पुरुष ने उसके निकट आकर कहा ”कोई डर नहीं है, चित्रा! मैं मनुष्य ही हूँ, प्रेत होकर नहीं आया हूँ”।

भय, विस्मय और हृदय की दारुण यन्त्राणा से चित्रादेवी का जी घुटने लगा। बड़ी कठिनता से अपने को सँभालकर उन्होंने कहा 'तुम-कुमार-शशांक “।

पुरुष ने कुछ हँसकर कहा ”पट्टमहादेवी! मैं वही शशांक हूँ। कभी कुमार भी कहलाता था, पर तुम्हारा बाल्य सखा था”।

“युवराज-तुम “।

“हाँ, चित्रा! मैं ही हूँ। तुमने लौटने के लिए कहा था इसी से आया हूँ। मेरी बात तो रह गई”। चित्रादेवी घुटने टेककर बैठ गई और रोते रोते बोली”युवराज-युवराज-क्षमा करो “।

“क्षमा किस बात की, चित्रा? तुमने कहा था इसी से आया हूँ। बाल्यसखी की बात रखने के लिए मरा हुआ भी जी उठा है। क्षमा किस बात की चित्रा?”

“युवराज, एक बार और क्षमा करो, बस एक बार। न जाने कितनी बार क्षमा किया है, एक बार और क्षमा करो”।

“क्षमा कैसी, चित्रा? नगर में सुना कि तुम्हारा विवाह है; बस विवाह का उत्सव देखने के लिए मैं भी चला आया “ चित्रादेवी रोते रोते शशांक के पैर पकड़ने जा रही थीं, पर वे दो हाथ पीछे हटकर कहने लगे ”छि: छि: चित्रा! यह क्या करती हो? तुम मेरे छोटे भाई की स्त्री हो, मुझे छूना मत। आज तुम मगधकी पट्टमहादेवी हो, एक भिखारी के पैरों पर पड़ना क्या तुम्हें शोभा देता है? उठो! बाल्यबन्धु का कुशल समाचार पूछो “।

“युवराज! मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है। मैं कभी ऐसा कर सकती थी? तुम्हें विश्वास है?”

“विश्वास करने की इच्छा तो नहीं होती। किन्तु, चित्रा! अब तुम माधव की अंकलक्ष्मी हो, अब तुम मेरी नहीं हो। तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष मेरा है-मेरे भाग्य का है”।

चित्रादेवी उठ खड़ी हुई। छ:वर्ष पर आज दोनों एक दूसरे के सामने हुए हैं। चाँदनी में डूबा हुआ जगत स्थिर और सन्नाटे में था। झलकते हुए आकाश में बादल के छोटे छोटे टुकड़े वेग से दौड़े जा रहे थे। उत्सव का रंग अब धीमा पड़ गया है, कलरव मन्द हो गया है, दीपमाला बुझा चाहती है। चित्रादेवी ने कहा”कुमार! मेरी बात मानो। मुझे एक बार और क्षमा करो। मैं तक्षदत्ता की बेटी हूँ, मेरी बात पर विश्वास करो”।

“विश्वास करता हूँ तभी न आया हूँ, चित्रा! नहीं तो क्यों आता? मैं क्षमा क्या करूँ। तुम रमणी हो, अनुपम रूपवती हो। तुमने यदि बिना ठौर ठिकाने के मनुष्य का व्यर्थ आसरा न देख एक राजराजेश्वर के गले में वरमाला डाली तो इसमें बुरा क्या किया?”

“युवराज! तुमने क्या मुझे ऐसी वैसी ही समझ रखा है?”

“ऐसी वैसी नहीं समझता था, तभी न यह फल...”।

“बस, युवराज! क्षमा करो। मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है।

“विवाह भी कहीं बाँधाकर हुआ है, चित्रा?”

“महादेवी ने बलपूर्वक मेरा विवाह करा दिया”।

“सुनो महादेवी! अब तुम भी महादेवी हो, बालिका नहीं हो, युवती हो, किसी का हृदय भी कभी कोई बल करके छीन सकता है? नश्वर शरीर पर बल चल सकता है, पर बल से क्या किसी का मन वश में हो सकता है?”

“अब एक बार और क्षमा करो, युवराज!”

“क्षमा तो मैं कर चुका हूँ, चित्रा! यदि क्षमा न करता तो देखनेदिखाने नआता”।

“तब फिर?”

“तब फिर क्या, चित्रा?”

“एक बार और...”

“अब हो नहीं सकता, चित्रा?”

“मैंने-मैंने सुना-युवराज! मेरा कोई अपराध नहीं है”।

“छि: चित्रा! तुम तक्षदत्ता की कन्या हो, तुम गुप्तकुल की वधू हो, तुम्हारे मुँह से ऐसी बात नहीं सोहती। कोई सामान्य क्षत्रिय वधू यदि आचार भ्रष्ट हो जाय तो हो जाय, पर तुम तक्षदत्ता की कन्या हो, महासेनगुप्त की पुत्रवधू हो, मगध की राजराजेश्वरी हो-तुम्हारे लिए ऐसी बात उचित नहीं है”।

“तब फिर”

“तब फिर क्या? मैं अपनी बात रखने के लिए तुम्हारे पास आया। बात अब पूरी हो गई। अब हे देवी! शशांक को भूल जाओ, समझ लो कि शशांक सचमुच मर गया। मैं जल के बुलबुले के समान अनन्त जलराशि में मिल जाऊँगा, इस अपार जगत में कोई मुझे ढूँढ़े न पाएगा। आशीर्वाद करता हूँ कि तुम सुख से रहो। अब बड़े सुख से मैं मरने जाता हूँ, मन में कोई दु:ख नहीं है। दूर देश में ज्ञान शून्य होकर मैंने इतने दिन अज्ञातवास किया, जब ज्ञान हुआ तब सुना कि पिताजी नहीं हैं, फिर भी दौड़ा दौड़ा मैं पाटलिपुत्र आया। क्योंकि जानती हो, चित्रा! मन में बड़ी भारी आशा लिए हुए था कि तुम्हें देखूँगा तब कितना सुखी हूँगा। सोचता था कि तुम वैसे ही दौड़ी दौड़ी मेरे पास आओगी, तुम्हारी हँसी से संसार खिल उठेगा, तुम्हें लेकर मैं अपना सब दु:ख शोक भूल जाऊँगा। देखो चित्रा! इस चाँदनी में बालू का मैदान कैसा सुन्दर लगता है! इसमें तुम्हारे साथ कितनी बार खेलने निकला हूँ-अब मैं तुम्हें खेलते नहीं देखूँगा। चित्रा! देखो, वही तुम्हारी फुलवारी है। तुम्हारा समझ कर उसकी मैं कितनी सेवा, कितना यत्न करता था। चित्रा! उस दिन की बात का स्मरण है जिस दिन लतिका पहिले पहिल आई थी। उसे फूल तोड़कर दिया था इस पर तुम कितनी रूठी थी?”

“आज आनन्द के दिन मैं भी थोड़ा आनन्द करने आ गया, चित्रा! अब और तुम्हारा सिर न दुखाऊँगा। बात देकर गया था, वही पूरी करने आ गया। अच्छा, अब जाओ। शशांक को भूल जाओ, बाल्यकाल की स्मृति दूर करो, आशीर्वाद करता हूँ”।

“युवराज!”

“चित्रा!”

“और एक बार पुकारो”।

“क्या कहकर पुकारूँ, चित्रा?”

“जो कहकर पुकारा करते थे”।

“चित्रा, चित्रो, चित्रा, चित्रिता, चिती। अब और माया न बढ़ाऊँगा, तुम जाओ।”

“कहाँ जाऊँ, युवराज?”

“अपनी सेज पर”।

“यही तो मेरी सेज है”।

“छि: चित्रा! ऐसी बात मुँह से न निकालो। अब मैं जाता हूँ। तुम अपने को सँभालो”।

युवराज कई पग हटे। चित्रादेवी उनकी ओर एकटक देखकर बोली ”युवराज, शशांक! तो क्या अब बिदा है?” भरे हुए गले से शशांक ने उत्तर दिया ”हाँ,चित्रा! सब दिन के लिए बिदा”।

देखते देखते नीचे गंगा में किसी भारी वस्तु के गिरने का शब्द हुआ। शशांक ने पीछे फिरकर देखा कि छत पर कोई नहीं है। गंगा के जल में मंडल सा बँधाकर फैल रहा है, बीच में बुलबुले उठ रहे हैं। महाराज शशांक की ऑंखों के आगे अंधेरा सा छा गया। वे भी छत पर से गंगा में कूद पड़े।

ईशान कोण पर बादल चढ़ रहे थे। देखते देखते वे चारों ओर घिर आए। वर्षा होने लगी। जगत् अन्धकार में मग्न हो गया।