शशांक / खंड 3 / भाग-3 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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पुनरुत्थान

सम्राट माधवगुप्त उदास मन सभा में बैठे हैं। सभासद भी उदास और सिर नीचा किए हैं। कल ही विवाह हुआ था और आज ही आमोद प्रमोद की कौमुदीरेखा पर विषाद के घने मेघ छाए हुए हैं। क्या हुआ? पट्टामहादेवी चित्रा का विवाह की रात से ही कहीं पता नहीं है। जो कभी राजसभा नहीं आते थे वे भी आज आए हैं। वेदी के नीचे पूर्व अमात्य ऋषिकेशशर्म्मा, महानायक यशोधावलदेव आदि बैठे हैं। स्थाण्वीश्वर का राजदूत प्रधान अमात्य के आसन पर बैठा है। सब लोग चिन्तामग्न और चुपचाप हैं।

महाप्रतीहार विनयसेन सभामण्डप के तोरण पर खड़े हैं। उनके पास दो चार दंडधार और प्रतीहार भी खड़े हैं। अकस्मात विनयसेन चौंक पड़े; उन्हें जान पड़ा कि एक श्वेतपरिच्छदधारी पुरुष के साथ माधववर्म्मा, वसुमित्र, विद्याधारनन्दी इत्यादि विद्रोही नायक सभामंडप की ओर आ रहे हैं। विनयसेन ने अच्छी तरह दृष्टि की, देखा तो सामने वीरेन्द्रसिंह! वीरेन्द्रसिंह ने अभिवादन के उपरान्त कहा ”महाप्रतीहार! एक गौड़ीय सामन्त महानायक से मिलना चाहते हैं”। विनयसेन ने विस्मित होकर पूछा ”कौन? अरे तुम कब आए?”

वीरेन्द्र -मैं अभी आ रहा हूँ। विवाह के उत्सव पर पहुँचने के लिए चला था, पर मार्ग में विलम्ब हो गया इससे कल न पहुँच सका।

इतने में श्वेतवस्त्रधारी पुरुष विनयसेन के सामने आ खड़े हुए और पूछने लगे ”विनयसेन! मुझे पहचानते हो?” विनयसेन चकित होकर उनके मुँह की ओर ताकते रह गए। आनेवाले पुरुष ने फिर पूछा ”विनयसेन! इतने ही दिनों में भूल गए?” विनयसेन ने पूछा ”तुम-आप कौन हैं?” पीछे से अनन्तवर्म्मा ने उस पुरुष के सिर का उष्णीष हटा दिया। लम्बे लम्बे घुँघराले भूरे केश पीठ और कन्धों पर बिखर पडे। देखते ही विनयसेन के पैर हिल गए। महाप्रतीहार घुटने टेक हाथ जोड़कर बोले ”युवराज-महाराजाधिराज ...”। शशांक ने विनयसेन को उठाकर गले से लगा लिया। दण्डधारों और द्वारपालों ने सम्राट को देखते हीजयध्वनि की। ”महाराजाधिराज की जय”, “युवराज शशांक की जय” आदि शब्दों से सभामंडप काँप उठा।

यशोधावलदेव बैठे एकाग्रचित्ता चित्रा की बात सोच रहे थे। दो एक बूँद ऑंसू भी उन्होंने चुपचाप तक्षदत्ता की एकमात्रा कन्या के लिए गिराए। अकस्मात् शशांक का नाम सुनकर वे चौंक पड़े और उठ खड़े हुए। फिर शब्द हुआ ”महाराजाधिराज की जय”, “महाराजाधिराज शशांक की जय”। वृध्द महानायक उन्मत्ता के समान तोरण की ओर दौड़ पड़े। तोरण पर नंगे सिर एक युवक खड़ा था। वह उनके पैरों पर लोट गया। वे शशांक को हृदय से लगाकर मूर्च्छित हो गए। हरिगुप्त, रामगुप्त और नारायणशर्म्मा तोरण की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने देखा कि सामने शशांक खड़े हैं। शशांक ने सबके चरण छुए। जयध्वनि से बार बार सभामण्डप गूँजने लगा। माधवगुप्त भी सिंहासन छोड़ उठ खड़े हुए। वीरेन्द्रसिंह और विनयसेन यशोधावल की अचेत देह लेकर चले; पीछे पीछे शशांक,नारायणशर्म्मा, रामगुप्त, हरिगुप्त, अनन्तवर्म्मा और वसुमित्र सभामण्डप में आए। सभासद लोग अपने अपने आसनों पर से चकित होकर उठ खड़े हुए। सबको खड़े होते देख वृध्द ऋषिकेशशर्म्मा भी उठ खड़े हुए। सामने शशांक को देख वे चकपका उठे और तुरन्त झपट कर उन्हें गले से लगा कहने लगे ”पहचान लिया-तुम्हें पहचान लिया-तुम शशांक हो। शशांक लौट आए हैं-अरे, कोई है? जाकर तुरन्त महादेवी को बुला लाओ। मधुसूदन, नारायण, अनाथों के नाथ!धान्य हो! तुम जो चाहे सो करो, तुम्हारी महिमा कौन जान सकता है, प्रभो! नारायण, हरिगुप्त! महाराजाधिराज की बात ठीक निकली-शशांक लौट आए। दामोदरगुप्त की बात कभी झूठ हो सकती थी?” वे शशांक को बड़ी देर तक हृदय से लगाए रहे, उन्हें प्रणाम तक करने न दिया। चारों ओर जयध्वनि हो रही थी,पर बहरे के कान में एक शब्द भी नहीं पड़ता था।

धीरे धीरे यशोधावल को चेत हुआ। उन्होंने खड़े होकर कहा ”ऋषिकेश! नारायण कहाँ हो भाई? शशांक आ गए। महासेनगुप्त की बात पूरी हुई। महादेवी कहाँ हैं? उन्हें झट से जाकर बुला लाओ...”। वृध्द महामन्त्री की श्रवणशक्ति कुछ अधिक हो पड़ी थी, वे बोल उठे ”सुना है, देखा है, यशोधावलदेव! शशांक सचमुच आ गए”।

यशो -ऋषिकेश! अब वचन का पालन करो।

ऋषि -हाँ! विलम्ब किस बात का है?

दोनों वृध्द ने माधवगुप्त का हाथ पकड़कर उन्हें सिंहासन से उतारा, और वेदी के नीचे खड़ा कर दिया। बिना कुछ कहे सुने चुपचाप माधवगुप्त मगध के सिंहासन पर से उतर रहे थे। यह देख थानेश्वर का राजदूत कड़ककर बोला ”महाराजाधिराज ! किसके कहने से सिंहासन छोड़ रहे हैं, बूढ़ों और बावलों के?युवराज शशांक की तो मृत्यु हो गई। आप इस सिंहासन के एकमात्रा अधिकारी हैं। झूठी माया में पड़कर आप अपने को न भूलें”। इतना सुनते ही अनन्तवर्म्मा भूखे बाघ की तरह झपट कर वेदी पर आ पहुँचे और उन्होंने जोर से लात मारकर राजदूत को गिरा दिया।

इतने में सभामंडप के चारों ओर दंडधार लोग चिल्ला उठे ”हटो, रास्ता छोड़ो, महादेवी आ रही हैं”। सभासद सम्मानपूर्वक किनारे हट गए। माधवगुप्त वेदी के नीचे खड़े रहे। शोक से शीर्ण महादेवी उन्मत्ता के समान आकर सभामंडप के बीच खड़ी हो गईं। थोड़ी देर तक शशांक के मुँह की ओर देख उन्होंने झपटकर गोद में भर लिया। आनन्द में फूलकर जनसमूह जयध्वनि करने लगा।

महादेवी के साथ गंगा, लतिका, तरला, यूथिका तथा और न जाने कितनी स्त्रियाँ सभामण्डप में आईं। उन्हें एक किनारे खड़े होने को कहकर यशोधावलदेव बोले ”महादेवीजी! शान्त हों, महाराजाधिराज को अब सिंहासन पर बिठाएँ”। थानेश्वर का राजदूत बड़ा विलक्षण और नीतिकुशल था। वह पदाघात का अपमान भूलकर फिर बोल उठा ”महानायक आप ज्ञानवृध्द और नीतिकुशल हैं। घोर माया में मुग्धा होकर आप किसे सिंहासन पर बिठा रहे हैं?युवराज शशांक अब इस लोक में कहाँ हैं? यह तो कोई धूर्थ्ता और भंड है”। बिजली की तरह कड़ककर महानायक सभामंडप को कँपाते हुए बोले ”सुनो, दूत! तुम अवधय हो, नहीं तो इसी क्षण धाड़ से तुम्हारा सिर अलग कर देता। मुझे इस संसार में आए नब्बे वर्ष हो गए। कौन है, कौन प्रतारक है यह सब मैं अच्छी तरह जानता हूँ। तुम अपने को सच्चे सम्राट के सामने समझो और झटपट अभिवादन करो। कौन है, पुत्र की माता से पूछो। ऋषिकेशशर्म्मा, नारायणशर्म्मा,रामगुप्त, हरिगुप्त, रविगुप्त आदि पुराने राजपुरुषों से पूछो। थोड़ा सोचो तो कि अनन्तवर्म्मा, वसुमित्र माधववर्म्मा आदि विद्रोही नायक किसके साथ पाटलिपुत्र आए हैं? अब व्यर्थ बकवाद न करो, चुप रहो”।

हंसवेग चुप। ऋषिकेशशर्म्मा और यशोधावलदेव ने हाथ पकड़कर शशांक को सिंहासन के ऊपर बिठाया। पौरांगनाएँ मंगलगीत गाने लगीं। एकत्रा जनसमूह की जयध्वनि आकाश में गूँजने लगी। महादेवी की आज्ञा से एक परिचारिका सोने के कटोरे में दही, चन्दन, दूर्वा और अक्षत ले आई। ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया, बड़े बूढ़े अमात्यों ने नए सम्राट को आशीर्वाद दिया। जब सब लोग अपने अपने आसन पर बैठ गए तब विनयसेन ने सिंहासन के पास जाकर अभिवादन किया और कहा ”महाराजाधिराज ! आपका पुराना सेवक लल्ल तोरण पर खड़ा है। वह एक बार श्रीमान् को देखना चाहता है”। सम्राट ने तुरन्त सामने ले आने की आज्ञा दी। बहुत देर पीछे बुढ़ापे से झुका हुआ एक अत्यन्त जर्जर वृध्द लाठी टेकता सभामंडप में आया। शशांक उसकी आकृति देख चकित हो गए। वे सिंहासन से उठकर उसकी ओर बढ़े। सभा में जितने लोग थे सब जय जयकार करने लगे।

शशांक को अपनी ओर आते देख लल्ल खड़ा हो गया। उसकी ऑंखों की ज्योति मन्द पड़ गई थी, सूखे हुए गालों पर ऑंसुओं की धारा बह रही थी। लल्ल ने रुक रुककर कहा ”तुम-भैया-तुम-शशांक!” सम्राट ने दौड़कर वृध्द को हृदय से लगा लिया। वृध्द अपनी सूखी हुई बाँहों को सम्राट के गले में डाल बोला ”भैया! तुम सचमुच आ गए। महाराजाधिराज कह गए थे कि शशांक लौटेंगे, लौटेंगे। इसी से मैं अब तक बचा था, नहीं तो कब का अपने महाराज के पास पहुँच गया होता”। ऑंसुओं से सम्राट की ऑंखों के सामने धुन्ध सा छा गयी, उनका गला भर आया, उनके मुँह से केवल इतना ही निकल सका ”दादा...”। जनसमूह बार बारजयध्वनि करने लगा।

सम्राट ने वृध्द को वेदी के ऊपर बिठाया, वह वहाँ किसी प्रकार बैठता नहीं था। वह लाठी टेककर उठा और कहने लगा ”भैया! तुम महाराज बनकर सिंहासन पर बैठो, मैं ऑंख भर देख लूँ। शशांक सिंहासन पर बैठ गए। उन्हें देखकर वृध्द बोला ”भैया! एक बार अपना पूर्ण रूप दिखलाओ-छत्रा, चँवर, दण्ड। विनयसेन ने गरुड़धवज लाकर शशांक के हाथ में दे दिया। यशोधावलदेव की आज्ञा से माधवगुप्त छत्रा लेकर सिंहासन के पास खड़े हुए। रामगुप्त के दोनों पुत्र चँवर लेकर ढारने लगे। यह दृश्य देख वृध्द की ऑंखें दमक उठीं। उसने खंग के स्थान पर अपनी लाठी को ही मस्तक से लगाकर सामरिक प्रथा के अनुसार अभिवादन किया। इसके पीछे वह थककर गिर पड़ा। उसकी यह अवस्था देख सम्राट झट सिंहासन से उतर कर उसके पास आए। वृध्द शशांक की गोद में सिर डाले पड़ा रहा। थोड़ी देर में वह बोला ”भैया! एक बार और, एक बार और तो पुकारो”। शशांक वृध्द के शरीर पर हाथ फेर बोले ”दादा! दादा! क्या है?” वृध्द ऋषिकेशशर्म्माआसन से उठकर ऊँचे स्वर में बोले ”है क्या, महाराज? लल्ल अब चले। बैकुण्ठ में महाराजाधिराज महासेनगुप्त की सेवा के लिए चले। अनाथों के नाथ, दुष्टों के दर्पहारी, मधुसूदन! मूढ़ जीव को अच्छी गति दो। भाई! सब लोग एक बार भगवान की जय बोलो”। हरिध्वनि से सभामण्डप गूँज उठा। लल्ल का अन्तकाल समझ सम्राट ने पुकारकर कहा ”लल्ल दादा! एक बार राम राम करो, कहो-राम-राम...”। वृध्द क्षीण कण्ठ से बोला ”राम-राम”। बोली बन्द हो गई, दो एक बार ऑंखों की पुतलियाँ ऊपर नीचे हिलीं। देखते देखते लल्ल ने परलोक की यात्रा की। प्रभुभक्त सेवक अब तक स्वामी के वियोग में इसी आशा पर दिन काट रहा था,आज चल बसा। सम्राट हाय मारकर रोते रोते उसके प्राणहीन शरीर पर गिर पड़े।