शशांक / खंड 3 / भाग-4 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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नरसिंहगुप्त का

सन्धया के पीछे सम्राट चित्रासारी में विश्राम कर रहे हैं। रूप लावण्य से भरी तरुणीर् नत्ताकियाँ नाच गाकर उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा कर रही हैं। किन्तु नए सम्राट उदास हैं, उनके मुँह पर चिन्ता का भाव झलक रहा है। देखने से जान पड़ता है कि संगीत की ध्वनि उनके कानों में नहीं पड़ रही है,नरत्तकियों के हावभाव की ओर उनकी दृष्टि नहीं है। शशांक का जी आज न जाने किधार उड़ा हुआ है। उनका मन नाच रंग, राजकाज सब कुछ भूल कभी चाँदनी में चमकते हुए नए प्रासाद के अन्त:पुर में इधर उधार भटकता है, कभी गंगा की धावल धारा के भीतर किसी को ढूँढ़ता फिरता है।

उनके पीछे वसुमित्र, माधववर्म्मा और अनन्तवर्म्मा बैठे हैं। वे भी उदास और खिन्न हैं। चित्रासारी के द्वार पर महाप्रतीहार विनयसेन दंड पर भार दिए खड़े हैं। एक दंडधर ने आकर उनके कान में धीरे से न जाने क्या कहा। विनयसेन घबराए हुए घर के भीतर गए। शशांक उसी प्रकार गहरी चिन्ता में डूबे थे,विनयसेन पर उनकी दृष्टि न पड़ी। महाप्रतीहार सहमते सहमते बोले ”महाराजाधिराज ! नरसिंहदत्ता आए हैं”। शशांक नरसिंह का नाम सुनते ही चौंककर बोल उठे ”क्या कहा? नरसिंह आए हैं। अच्छी बात है, मैं उन्हीं का आसरा देख रहा था। उन्हें यहीं ले आओ”। महाप्रतीहार अभिवादन करके चले गए।

पीछे से वसुमित्र ने उठकर कहा ”महाराजाधिराज ! महानायक नरसिंहदत्ता ने चित्रादेवी की मृत्यु का समाचार अवश्य पाया होगा। उनसे मिलने पर महाराज को और दु:ख होगा”। वसुमित्र की बात काटकर शशांक ने कहा, “नहीं, वसुमित्र, नरसिंह को यहीं आने दो। चित्रा अब नहीं है यह बात वे अवश्य सुन चुके होंगे। एक प्रकार से चित्रा की मृत्यु का कारण मैं ही हूँ। हृदय की भरी हुई वेदना से उन्हें जो कुछ कहना हो कह डालें। इससे मेरा जी बहुत कुछ हलका होगा”।वसुमित्र चुप होकर अपने आसन पर जा बैठे। अनन्तवर्म्मा उठकर द्वार के पास जा खड़े हुए।

थोड़ी ही देर में महाप्रतीहार विनयसेन नरसिंहदत्ता को लेकर लौट आए। नरसिंहदत्ता ने अपने शरीर पर से वर्म्म तक न उतारा था। उनपर धूल पड़ी हुई थी,बाल भी बिखरे हुए थे। उन्हें आते देख शशांक उठ खड़े हुए। दूर ही से नरसिंह चिल्ला उठे ”युवराज-चित्र-युवराज...”। घर के भीतर आने पर सम्राट को देख वे बोले”युवराज! चित्र क्या सचमुच...?” शशांक कुछ भी विचलित न होकर धीरे से बोले ”सचमुच, नरसिंह! चित्र नहीं है”। हाँफते हाँफते नरसिंह ने कहा ”तो फिर सचमुच-युवराज तुमने...”। आगे और कुछ उनके मुँह से न निकल सका, वे भूमि पर गिर पड़े। शशांक का मुँह पीला पड़ गया। वे बोल उठे ”हाँ! नरसिंह मैंने ही। मैं ही चित्र की मृत्यु का कारण हूँ। मैंने उसे अपने हाथ से तो नहीं मारा, पर मरी वह मेरे ही कारण”।

नरसिंह उठ खड़े हुए और कड़े स्वर से बोले ”युवराज शशांक! तुम्हारे सामने ही चित्रा मरी और तुम चुपचाप खड़े रहे, उसे बचाने का यत्न न किया?”

“यत्न किया था, नरसिंह! पूर्णिमा का चन्द्रमा, गंगा की धारा, और आकाश के मेघ साक्षी हैं। वह कब जल में कूदी मैं देख न सका। उलटकर देखा तो छत पर चित्र न दिखाई पड़ी। मैं भी चट गंगा में कूद पड़ा। चन्द्रमा मेघों से ढक गया, पानी बरसने लगा, ऑंधी उठी, गंगा का जल बाँसों ऊपर उछलने लगा। इस धारा में मैं चित्रा को इधर उधर ढूँढ़ने लगा। नरसिंह! जब तक शरीर में बल रहा, जब तक चेत रहा तब तक ढूँढ़ता ही रहा, पर कहीं पता न लगा। नरसिंह! ज्ञान रहते मैं चित्रा को छोड़कर गंगा की धारा से बाहर नहीं निकला। मेरे अचेत हो जाने पर गंगा की तरंगों ने मुझे किनारे फेंक दिया”।

नाच गाना बन्द हो गया। वसुमित्र का संकेत पाकरर् नत्ताकियों और गवैयों का दल चित्रासारी से निकलकर नौ दो ग्यारह हुआ। वहाँ सन्नाटा छा गया। नरसिंह फिर धीरे धीरे बोलने लगे ”शशांक! तुम उतनी रात बीते चुपचाप चोरों की तरह अन्त:पुर के कोने में चित्रा से मिलने क्यों गए? दिन को क्या तुम चित्रासे नहीं मिल सकतेथे?”

“सुनो, नरसिंह! सोचा था कि एक बार एकान्त में जा उसे देख आऊँगा, फिर चला आऊँगा, फिर कभी न देखूँगा। तब तक पाटलिपुत्र वाले यही जानते थे कि शशांक मर गया है। मैंने सोचा था कि उसे देखकर मैं सचमुच ही मर जाऊँगा। जिस समय मैंने सुना कि आज उसका विवाह है, आज वह मगध की राजराजेश्वरी होगी उसी समय मेरी राज्य की आकांक्षा, जीने की आकांक्षा सब दूर हो गई। युध्दयात्रा के पहले मैंने चित्रा के सामने शपथ खाई थी कि मैं लौटकर आऊँगा-इसी मगध में, इसी पाटलिपुत्र नगर में फिर आकर मिलूँगा। इसीलिए एक बार और देखने दिखाने के लिए मैं अन्त:पुर में रात को ही पहुँचा। बाल्य,किशोर और युवावस्था की सब बातों को भूल जब वह माधव की अंकलक्ष्मी हुई तब मैंने विचारा कि अब एक क्षण भी यहाँ रहकर उसके जीवन में बाधा न डालूँगा-उसके सुख के मार्ग का कण्टक न रहूँगा। इसी से एक बार उसे ऑंख भर देखने गया था। मन के आवेग को वह न रोक सकेगी, अपना प्राण दे देगी,इसका मुझे कुछ भी धयान न था...”।

“माधव की अंकलक्ष्मी! शशांक, यह कैसी बात कहते हो?”

“मैं ठीक कहता हूँ, नरसिंह! माधव का विवाह हुआ यह बात तो तुमने मार्ग में ही सुनी होगी। मैं भेष बदलकर नगर में आया और मैंने सब उत्सव देखा। समय दोपहर का था। मुझसे एक नागरिक ने कहा कि तक्षदत्ता की कन्या के साथ माधवगुप्त का विवाह हो रहा है। सारा संसार मुझे घूमता सा दिखाई पड़ने लगा, मेरी ऑंखों के सामने चिनगारियाँ सी छूटती दिखाई देने लगीं”।

“तब तक तो विवाह नहीं हुआ था। शशांक! तुम उसी समय प्रासाद में क्यों नहीं गए, उसी समय चित्रा से क्यों न जाकर मिले?”

“मेरा अदृष्ट, नरसिंह! और क्या कहूँ? उस समय वर्म्म के भार से दबकर मैं धाँसने लगा, पैरों पर खड़ा न रह सका। मैं पुराने मन्दिर के पास की बावली पर जाकर पड़ गया। आते जाते नागरिक मुझे मद में चूर समझ हँसी ठट्ठा करते थे। चित्रा का विवाह माधव के साथ हो रहा है, बस यही बात मेरे मन में नाच रही थी। धीरे धीरे संसार मेरे सामने से हट सा गया, मुझे कुछ सुधा बुधा न रह गई। उसके पीछे अन्धकार छा गया, क्या क्या हुआ मैं नहीं जानता”।

“जब चेत हुआ तब देखा कि रात का सन्नाटा छाया हुआ है। उत्सव का कोलाहल धीमा पड़ गया है। विवाह उस समय हो चुका था। तब मेरे जी में आया कि एक बार जाकर चित्रा को देख आऊँ-बस एक ही बार-फिर उसके पीछे जल के बुलबुले के समान संसार सागर में विलीन हो जाऊँ। माधव सुख से राज्य करें, चित्राके सुख के विचार से मैं माधव का कण्टक न रहूँगा”।

“जाकर देखा था? उसने क्या कहा?”

नरसिंह की ऑंखों में ऑंसू नहीं थे। उनका स्वर बादल की गरज की तरह गम्भीर हो गया था। शशांक हवा के झोंकों से हिलते हुए पर्पिंत्रा के समान काँप रहे थे। शशांक कहने लगे ”वह बार बार यही कहती थी कि युवराज, क्षमा करो, मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है। जब अन्त में वह मेरा पैर पकड़ने चली तब मैंने उसे दुतकार दिया। मैं समझा कि अब वह मेरी चित्रा नहीं है, वह माधवगुप्त की पत्नी है। नरसिंह! चित्रा मेरे छोटे भाई की स्त्री थी। वह बार बार मुझसे क्षमा माँगती थी और मैं उसकी हँसी करता था, उस पर व्यंग्य छोड़ता था। वह बार बार मेरा पैर पकड़ने दौड़ती थी, क्षमा चाहती थी। पर मैं क्षमा क्या करता? शास्त्र के दृढ़ बन्धन ने उसे माधव के साथ बाँधा दिया था, उसे छू जाना तक मेरे लिए पाप था। मेरे और उसके बीच शास्त्र और लोकाचार का भारी व्यवधान आ पड़ा था। उसे अधिक दु:खी करना ठीक न समझ मैं चट लौट पड़ा। चित्रा से सब दिन के लिए मैं विदा हुआ। दो पैर भी आगे न रखे थे कि किसी भारी वस्तु के जल में गिरने का शब्द कान में पड़ा। उलटकर देखा तो चित्रा कहीं नहीं है। नरसिंह! चित्रा की हत्या मैंने ही की है, मुझे मारो। दारुण यन्त्राणा से मुझे मुक्त करो। नरसिंह! तुम मेरे बाल्यसखा हो। इस समय मित्रा का कार्य करो। अब इस वेदना का भार हृदय नहीं सह सकता। तलवार खींचो, मेरा हृदय विदीर्ण करो। उसे ढूँढ़कर कहीं न पाया, वह अब नहीं है, पर मैं जीता हूँ, सिंहासन पर बैठा राज्य का स्वांग भरता हूँ। पर भीतर गहरी ज्वाला है, असह्य यन्त्राणा है। सच कहता हूँ, असह्य और अपार ज्वाला है। हृदय जल रहा है, कुछ दिखाई नहीं पड़ता है”।

शशांक बैठने लगे, अनन्तवर्म्मा दौड़कर न थाम लेते तो वे भूमि पर गिर पड़ते। नरसिंहदत्ता पत्थर की अचलर् मूर्ति के समान खड़े रहे। आधा दंड इसी दशा में बीत गया। उसके पीछे नरसिंह ने धीरे से पुकारा ”शशांक!”

“क्या है?”

“युवराज! तुम अब महाराजाधिराज हो, अपना राजपाट भोगो। नरसिंह के लिए तो अब संसार सूना है। पितृहीना बालिका को लेकर मण्डला छोड़कर तुम्हारे पिता के यहाँ आश्रय लिया था। सोचा था कि कभी दिन फिरेंगे और वह राजराजेश्वरी होगी तब सबको लेकर मंडला जाऊँगा। पर वह चल बसी। उसे छोड़ मेरा कहीं कोई नहीं था। मेरी वह छोटी बहिन अब नहीं है। अब मण्डला में नरसिंह के लिए स्थान नहीं है। सिंहदत्ता का दुर्ग अब तक्षदत्ता के पुत्र के योग्य नहीं है। अब मुझे मण्डला न चाहिए। शशांक! अब मैं विदा चाहता हूँ, अब इस पाटलिपुत्र में एक क्षण नहीं रह सकता। यह विशाल नगर, यह राजप्रासाद मुझे चित्रामय दिखाई पड़ता है। यहाँ अब और नहीं ठहर सकता। तुम्हारे कार्य के लिए मैं अपना जीवन दे चुका हूँ, जब कभी कोई संकट का समय आएगा तब नरसिंह को अपने पास पाओगे”।

इतना कहकर नरसिंहदत्ता वायु वेग से कोठरी के बाहर निकल गए। शशांक मूर्ति के समान भूमि पर बैठे रह गए।