शशांक / खंड 3 / भाग-18 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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अन्तिम निर्णय

चारों ओर दूर तक बालू का मैदान चला गया है। दूर पर समुद्र की नीली रेखा दिखाई पड़ रही है और मेघगर्जन के समान गम्भीर शब्द सुनाई पड़ रहा है। रात बीत गई है, उषा की उज्ज्वल आभा पूर्व की ओर दिखाई पड़ रही है। बालू पर एक घायल योध्दा पड़ा हुआ है। एक अल्पवयस्क युवक बीच बीच में उसका नाम ले लेकर पुकारता है और फिर स्त्रियों के समान रोता हुआ उसके घायल शरीर पर सिर रख देता है।

“सम्राट-महाराज-शशांक-एक बार और उठो”।

घायल पुरुष अचेत पड़ा है। युवक ने फिर पुकारा “शशांक!” अन्त में हारकर अपने साथी के पैरों पर सिर रखकर वह रोते रोते बोला “तो क्या अब न उठोगे-अब ऑंख न खोलोगे? एक बार ऑंख खोलकर देखो, मैं सैनिक नहीं हूँ-मैं रमापति नहींहूँ- मैं वही मालती हूँ”। युवक या युवती सम्राट के पास भूमि पर लोटकर विलाप करनेलगी।

थोड़ी देर में सूर्य्योदय हुआ। सूर्य की किरणों के ऊपर पड़ने से शशांक को कुछ चेत हुआ। मालती ने इस बात को न देखा। वह भूमि पर पड़ी विलाप कर रही थी। सम्राट ने उसके सिर पर हाथ रखकर पुकारा “अनन्त!” मालती चकपकाकर उठ बैठी “कौन?” शशांक ने अत्यन्त क्षीण स्वर से पूछा “तुम कौन हो?”

मालती ने कहा “अहा जाग गए, सचमुच जाग गए महाराज-महाराज! मैं हूँ, मालती। मैं रमापति नहीं हूँ-मैं सचमुच मालती हूँ। रोहिताश्वगढ़ से मैं बराबर साथ हूँ। एक दंड के लिए भी मैंने आपका साथ नहीं छोड़ा। पुरुष का वेश धारण करके मैंने जो जो किया वह किसी स्त्री से नहीं हो सकता। सदा तुम्हारे साथ रहने के लिए ही मैं रमापति के नाम से शरीररक्षी सेना में भरती हुई”।

“क्या कहा? मालती, तुम रमापति! कुछ समझ में नहीं आता-अनन्त कहाँ हैं!'

“प्रभो! मुझे पता नहीं है”।

“अनन्त-नहीं-नरसिंह-चित्रा। युध्द में क्या हुआ?”

“प्रभो! युध्द हो गया, माधवगुप्त की जीत हुई”।

माधवगुप्त की जीत की बात सुनते ही घायल सम्राट उठ बैठे और बोले “माधवगुप्त की जीत? हर्षवर्ध्दन की जीत कहो; कभी नहीं। यशोधावलदेव चले गए, नरसिंह चले गए, अनन्त का पता नहीं। क्या हुआ? मैं तो हूँ, वीरेन्द्र हैं, वसुमित्र हैं, माधववर्म्मा भी होंगे। प्राचीन गुप्त साम्राज्य का गौरव फिर स्थापित करूँगा। पर-तुम कौन हो? तुम तो रमापति हो? नहीं-नहीं-तुम हो मालती। मालती तुम कहाँ? नहीं तुम तो रमापति हो-तुम्हें इतने दिन तो मैंने नहीं पहचाना था...”।

“महाराज, प्रभो, स्वामिन! मैं मालती ही हूँ। तुम्हें सदा देखते रहने के लिए ही अब तक रमापति बनी थी”।

“मालती-मालती-चित्रा! यह नहीं हो सकता”।

“न होने की कोई बात ही नहीं है, प्रभो! तुम्हें देखने की आशा से मैं दक्षिण से जंगल पहाड़ लाँघती इस देश में आई। लोक लज्जा आदि सब कुछ छोड़ बराबर साथ साथ फिर रही हूँ और फिरूँगी। मुझे और कुछ न चाहिए, इतना ही अधिकार मेरा रहने दीजिए। मैं और कुछ नहीं चाहती। आपके हृदय पर चित्रा का जो अधिकार है उसमें मैं कुछ भी न्यूनता नहीं चाहती। समुद्रगुप्त के वंश का जो गौरव उनके परम प्रतापी वंशधार के हृदय में विराज रहा है वही एक अबला के हृदय में भी जगा हुआ है। इसी नाते मुझे चरणों के समीप रहने का अधिकार दीजिए”।

“तुम अपना जीवन क्या इसी प्रकार नष्ट करोगी, कहीं विवाह न करोगी?”

“नहीं, महाराज! मुझसे विवाह करके संसार में कोई सुखी नहीं हो सकता, मैं देखती हूँ आप भी सुखी नहीं हो सकते। जिस बात से महाराज को दु:ख होता है उसे कभी मैं अपने मुँह पर न लाऊँगी। जंगल जंगल, पहाड़ पहाड़ महाराज के साथ फिरकर पहाड़ की चोटियों पर से, वृक्ष की शाखाओं पर से, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त और शशांकनरेन्द्रगुप्त के विजयगीत गाऊँगी। मेरी वाणी से महाराज के मुख पर कुछ भी प्रफुल्लता दिखाई देगी, महाराज की सेना को कुछ भी उत्साह मिलेगा, तो मैं अपना जन्म सफल समझूँगी। बस, महाराज! मुझे और कुछ न चाहिए”।

बोलते बोलते मालती का मुख आवेश से रक्तवर्ण हो गया, सुनते सुनते शशांक को तन्द्रा सी आ गई, उनकी ऑंखें झपकने लगीं। उन्होंने क्षीण स्वर से कहा “रमापति-नहीं, नहीं-मालती-मैं तो देखता हूँ कि मेरे जीवन का अन्त-अब...”।

“महाराज! यह क्या कहते हैं? तो फिर मेरे जीवन का भी आज यहीं अन्त होगा”। मालती फिर विलाप करने लगी। सम्राट फिर मूर्च्छित से हो गए। थोड़ी देर में ऑंख खोलकर बोले “चित्रा-नरसिंह-बड़ी प्यास-जल।”

मालती सम्राट को उस दशा में छोड़ कहीं नहीं जाना चाहती थी। पास में कहीं पीने योग्य जल मिलना भी कठिन था। उस बालू के मैदान में समुद्र के खारी जल के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई देता था। शशांक को प्यास से व्याकुल देख मालती बड़ी चिन्ता में पड़ गई। अन्त में “अच्छा मैं जल लाने जाती हूँ कहकर वह एक ओर गई। परमेश्वर परमभट्टारक महाराजधिराज शशांकनरेन्द्रगुप्त तपती बालू में प्यास से तलफते अकेले पड़े रहे।

इतने में वृक्ष की एक शाखा पर सवार वज्राचार्य्य शक्रसेन सम्राट के सामने आ खड़े हुए और पुकारने लगे “महाराज-महाराज शशांक!” सम्राट ने ऑंखें खोलकर जल मुँह में डालने का संकेत किया। वृध्द वज्राचार्य्य बोले “महाराज! अदृष्टचक्र पूरा हुआ”। वृध्द आचार्य्य चट एक बूटी का रस शशांक के मुँह में डाल और घावों पर लगाते लगाते बोले “महाराज! यह बोधिसत्व नागार्जुन का लटका है। यह कभी व्यर्थ नहीं हो सकता”।

औषधा मुँह में पड़ते ही सम्राट का शैथिल्य हट गया, पीड़ा में भी बहुत कमी हो गई। वे सँभलकर बोले “प्रभो! यह आपने क्या किया? मुझे अब और क्या दिखाना चाहते हैं? हर्षवर्ध्दन की कामना तो पूरी हुई”।

“नहीं महाराज! माधवगुप्त का अपराध क्षमा कीजिए”।

“माधवगुप्त! आपकी बात समझ में नहीं आती है”।

“महाराज! समझ में तो मुझे भी नहीं आती है, अदृष्ट न जाने क्या क्या कहलाताहै”।

रमापति के वेश में मालती जल लिए आ पहुँची। जल मुँह में पड़ते ही सम्राट और भी स्वस्थ हुए। इतने में बहुत से अश्वारोहियों का शब्द कुछ दूर पर सुनाई पड़ा। देखते देखते सम्राट के साथ की सारी अश्वारोही सेना उस बालू के मैदान में आ पहुँची। अनन्तवर्म्मा ने आकर सम्राट को अभिवादन किया। दो सैनिकों ने नि:शस्त्र माधवगुप्त को लाकर शशांक के सामने खड़ा कर दिया। माधवगुप्त सिर नीचा किए चुपचाप खड़े रहे। शशांक ने बहुत दिनों से माधवगुप्त को नहीं देखा था। देखते ही स्नेह से उनका जी भर आया। वे बोल उठे “माधव!”

माधवगुप्त दौड़कर सम्राट के चरणों पर गिर पड़े, उनकी ऑंखों से ऑंसुओं की धारा छूट चली। शशांक ने कहा “माधव! तुम मगध के अधीश्वर और महाराज महासेनगुप्त के पुत्र होकर इतने कातर क्यों होते हो?”

“भैया! माधव-भिखारी-चरणों में स्थान नहीं-महाराजाधिराज ! इस कृतघ्न का शीघ्र दण्डविधान...”।

“क्या हुआ, माधव! तुम निर्भय होकर कहो”।

माधवगुप्त के मुँह से एक शब्द न निकला।

वज्राचार्य्य बोले “महाराज! माधवगुप्त का भ्रम दूर हो गया है। हर्षवर्ध्दन मगध के सिंहासन पर समुद्रगुप्त के किसी वंशधार को नहीं रखना चाहते। वे अपना कोई सामन्त वहाँ भेजना चाहते हैं। माधवगुप्त को अपने साथ थानेश्वर और कान्यकुब्ज में रखना चाहते हैं”।

शशांक-सेवा कराने के लिए-समुद्रगुप्त के वंशधार से?

सम्राट की ऑंखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं। वे उठ बैठे और कड़क कर बोले “माधव! तुम समुद्रगुप्त के वंशधार हो। तुम्हारा मोह छूट गया, अब तुम मगध सिंहासन के अधिकारी हो। तुम्हीं से यदि समुद्रगुप्त का वंश चलेगा तो चलेगा। मेरे स्त्री पुत्र कोई नहीं, और न कभी होंगे। मैंने अब तक विवाह नहीं किया है और न कभी करूँगा। मैं राज भोगने के लिए युध्द नहीं कर रहा हूँ, मुझे राज्य की आकांक्षा नहीं है। मगध में गुप्तवंश का अधिकार स्थिर रखने के लिए ही मैंने शस्त्र उठाया है। मेरे जीते थानेश्वर राजवंश का कोई पुरुष या सामन्त मगध के सिंहासन पर पैर नहीं रख सकता। अनन्त!”

अनन्त-महाराज!

शशांक-जिस प्रकार से हो माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करना होगा।

सम्राट के मुँह से इतना निकलते ही अश्वारोही सेना जयध्वनि करने लगी। सम्राट की पदातिक सेना भी पास आ गई थी। उसने भी शशांक का नाम लेकर भीषण जयध्वनि की। जयध्वनि के बीच उस बालू के मैदान में रमणी के अत्यन्त मधुर और कोमल कण्ठ से निकला हुआ गुप्तवंश के गौरव का गीत कहीं से आकर कान में पड़ने लगा। सब लोग मन्त्रा मुग्धा के समान चकित खड़े रहे। किसी को यह रहस्य समझ में न आया। सब यही समझे कि वनदेवी प्रसन्न होकर गा रहीहैं।

सम्राट ने पूछा “अनन्त! वसुमित्र और सैन्यभीति कहाँ हैं?”

वज्राचार्य्य-महाराज के घायल होने का संवाद उन्हें भी मिल चुका है, वे भी पहुँचा चाहते हैं। महाराज! यशोधावलदेव की बात का स्मरण है?

शशांक-प्रभो! कौन सी बात?

वज्रा -दक्षिण चले जाने की।

शशांक- प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं।

वज्रा -महाराज! सर्वज्ञ कोई नहीं-मैं तो लोकचर मात्रा हूँ, एक स्थान पर कभी नहीं रहता। वसुमित्र और अनन्तवर्म्मा अपनी सेना के साथ माधवगुप्त को ले जाकर मगध के सिंहासन पर बिठाएँ। हर्षवर्ध्दन नहीं रोक सकते, उन्हें शीघ्र ही अपनी सेना पूर्व से हटानी पड़ेगी। आप माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर निर्विघ्न रखने के लिए कलिंग और दक्षिण कोशल के दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में गुप्तवंश के गौरवरक्षक के रूप में अवस्थान करें। अदृष्ट चक्र की गति यही कह रही है। बस, महाराज!”

देखते देखते वृध्द वज्राचार्य्य वृक्षशाखा पर सवार होकर बालू के मैदान में न जाने किधार निकल गए। फिर वे वहाँ दिखाई न पड़े। इतने में घोड़ों की टापें फिर सुनाई पड़ीं। एक दूत ने आकर सैन्यभीति, वीरेन्द्रसिंह और माधववर्म्मा के आने का समाचार दिया।

समुद्र के तट पर फिर शिविर स्थित हो गए। एक बड़े शिविर के भीतर सम्राट शशांक, माधवगुप्त, अनन्तवर्म्मा, माधववर्म्मा, सैन्यभीति और वीरेन्द्रसिंह बैठकर मन्त्रणा कर रहे हैं। स्थिर हुआ कि वसुमित्र, अनन्तवर्म्मा और माधववर्म्मा माधवगुप्त को साथ लेकर मगध पर चढ़ाई करें। जब तक वे माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर बिठाकर न लौटें तब तक सम्राट वहीं अवस्थान करें। उनके लौट आने पर दक्षिण की यात्रा हो। सैन्यभीति ने कहा-

“महाराजाधिराज! मैं वातापिपुर से कई बार दक्षिणकोशल और कलिंग की ओर गया हूँ। मैं उन प्रदेशों से पूर्णतया परिचित हूँ। गुप्तवंश का स्मरण वहाँ की प्रजा में अब तक बना हुआ है। बौध्दसंघ के अत्याचारों से दु:खी होकर कलिंगवाले अब तक गुप्तवंश का नाम लेते हैं। कलिंग में पुष्पगिरि आदि संघाराम बड़े प्रबल हैं। बौध्द आचार्य्य बालकों को पकड़ ले जाते हैं और संघ में भरती करते हैं। तान्त्रिक बौध्द बालकों को चुराकर बलि चढ़ा देते हैं। यह दशा वहाँ सैकड़ों वर्ष से है। प्राचीन वर्णाश्रम धार्म की रक्षा के लिए बहुत से लोग समुद्रपार द्वीपान्तरों में चले गए हैं। महाराज! आप धार्मरक्षक हैं, आपके ही हाथ उनका उध्दार हो सकता है।

शशांक-मैं अवश्य चलूँगा। बौध्दसंघ राजद्रोही है। इसी राजद्रोह के पाप से बौध्द मत का चिद्द तक इस देश में न रह जायगा।

डेढ़ महीने तक सम्राट शशांक ताम्रलिप्ति में रहे। अनन्तवर्म्मा, माधववर्म्मा और वसुमित्र जिस समय अपनी सेना सहित माधवगुप्त को लेकर मगध में पहुँचे उस समय थानेश्वर की सेना देश छोड़कर जल्दी जल्दी दक्षिण पश्चिम की ओर जा रही थी। यह देख कामरूप की सेना भी अपने देश को लौट पड़ी। माधवगुप्त निर्विघ्न मगध के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किए गए। थोड़े दिनों में सुनाई पड़ा कि दक्षिणापथ के सम्राट द्वितीय पुलकेशी के हाथ से नर्मदा के तट पर हर्षवर्ध्दन ने गहरी हार खाई। इसके उपरान्त फिर हर्षवर्ध्दन ने माधवगुप्त को मित्रा छोड़ कभी सामन्त आदि कहने का साहस न किया।

माधवगुप्त के सिंहासन पर बैठने के थोड़े ही दिनों पीछे कलिंग और दक्षिण कोशल में “परमेश्वर परमभट्टारक परम भागवत महाराजाधिराज श्री शशांक नरेन्द्रगुप्त” की जयध्वनि गूँज उठी। प्राचीन वर्णाश्रम धार्म्म की मर्य्यादा वहाँ फिर स्थापित हुई। सम्राट शशांक और उनके सामन्त राजाओं की ओर से शास्त्राज्ञ ब्राह्मणों को बहुत सी भूमि मिली। इससे बौध्दसंघ का प्रभाव कम हुआ और तान्त्रिकों का अत्याचार दूर हुआ।