शशांक / खंड 3 / भाग-17 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऋण परिशोध का अन्तिम प्रयत्न

शशांक मगध लौट आए। सोन के किनोर सैन्यति और मण्डल में वसुमित्र और माधववर्म्मा उनके साथ मिले। भास्करवर्म्मा, माधवगुप्त और हर्षवर्ध्दन तीनों ने मिलकर उन्हें रोकने का उद्योग किया; पर मंडलादुर्ग के सामने उनकी सेना बार बार पराजित हुई। माधवगुप्त तीरभुक्ति की ओर भागे, भास्करवर्म्मा ने कर्णसुवर्ण में जाकर आश्रय लिया। शशांक ने कर्णसुवर्ण घेरने का संकल्प किया।

माधववर्म्मा और रविगुप्त जिस समय कर्णसुवर्ण में घिरे हुए थे उसी समय एक तरुण सैनिक अपनी इच्छा से शत्रु के शिविर को पार करके मण्डला और रोहिताश्व से सहायता भेजवाने के लिए गया था। वह तरुण सैनिक इस समय शशांक का बड़ा प्रियपात्र हो रहा है। कर्णसुवर्ण पर चढ़ाई करते समय सम्राट ने उसे अपनी शरीररक्षी सेना में रखा।

सैनिक का नाम है रमापति। रमापति युध्द के समय कभी सम्राट के पास से अलग नहीं होता था और महाबलाधयक्ष अनन्तवर्म्मा के समान सदा अपने प्राणों को हथेली पर लिए रहता था। रमापति देखने में बड़ा ही सुन्दर था। उसका रंग कुन्दन-सा था देह गठीली और कोमल थी, उसमें कर्कशता का लेश नहीं था। उसके लम्बे लम्बे काले घुँघराले बाल सदा पीठ और कन्धों पर लहराया करते थे। वह जिस समय उन बालों के ऊपर रंग बिरंग का चीरा बाँधाता था उस समय उसे देखने से ऐसा जान पड़ता था कि पाटलिपुत्र का कोई वीरांगनाविलासी नागर है, शरीररक्षी सैनिक नहीं है।

शशांक मंडला से कर्णसुवर्ण की ओर गंगातट के मार्ग से नहीं चले, उन्होंने जंगल पहाड़ का रास्ता पकड़ा। वसुमित्र और सैन्यभीति गंगातट के मार्ग से ही कर्णसुवर्ण की ओर चले। यह स्थिर हुआ कि शशांक तो अनन्तवर्म्मा और माधववर्म्मा को लेकर दक्षिण की ओर से कर्णसुवर्ण पर आक्रमण करें और सैन्यभीति और वसुमित्र उत्तर की ओर से धावा करें। मंडला से चलकर एक महीने में सम्राट जंगल पहाड़ लाँघते ताम्रलिप्ति में आ निकले।

सारी अश्वारोही सेना आगे आगे चलती थी। बीच में शरीररक्षी सेना सहित स्वयं सम्राट थे और पीछे पदातिक सेना थी। जाड़ा बीतने पर वसन्त के प्रारम्भ में एक दिन सन्धया के समय ताम्रलिप्ति नगर के पास सम्राट का शिविर स्थापित हुआ। अश्वारोही सेना ने दस कोस और आगे बढ़कर पड़ाव डाला और पदातिक सेना पाँच छ: कोस पीछे रही। दो पहर रात तक अनन्तवर्म्मा और रमापति के साथ बातचीत करके सम्राट अपने शिविर में सोए। सबेरे ही फिर उत्तर की ओर यात्रा करनी होगी, इससे शरीररक्षी सेना भी डेरों में जाकर सो रही। इधर उधार दस पाँच पहरेवाले ही जागते रहे। तीन पहर रात गए पहरेवाले बहुत से घोड़ों की टापों का शब्द सुनकर चौंक पड़े। उनके शंखध्वनि करने के पहले ही शिविर पर चारों ओर से आक्रमण हुआ।

सम्राट के साथ एक सह अश्वारोही सेना बराबर रहा करती थी। उस सेना में सबके सब सुशिक्षित, पराक्रमी और युध्द में अभ्यस्त रहा करते थे। जब तक कोई युध्द में अद्भुत पराक्रम नहीं दिखाता था तब तक शरीररक्षी सेना में भरती नहीं हो सकता था। इस प्रकार अकस्मात् आक्रमण होने पर भी शरीररक्षी सेना डरी या घबराई नहीं। सबके सब अस्त्रा लेकर सोए हुए थे। शंखध्वनि सुनते ही वे युध्द के लिए उठ खड़े हुए। सम्राट के डेरे में उनके पलंग के पास ही अनन्तवर्म्मा और रमापति सोए थे। वे जब वर्म्म धारण करके डेरे के बाहर निकले तब शिविर के चारों ओर युध्द हो रहा था। असंख्य शत्रु सेना ने अंधेरे में चारों ओर से आकर शिविर पर आक्रमण किया था। शरीररक्षी सेना अपने प्राणों पर खेल युध्द कर रही थी, पर किसी प्रकार इतनी अधिक सेना को हटा नहीं पाती थी। सम्राट को शिविर के बाहर देखते ही सबके सब जयध्वनि करने लगे। थोड़ी देर के लिए शत्रु सेना पीछे हटी, पर फिर तुरन्त सैनिक मरते कटते शिविर में घुस आए। शरीररक्षी सेना हटने लगी।

सम्राट के डेरे के सामने शशांक, अनन्तवर्म्मा और रमापति युध्द करने लगे। शत्रु सेना चारों ओर से शिविर में घुस आई थी। शरीररक्षी हटते हटते सम्राट के शिविर की ओर सिमटते आते थे। इतने में सौ से ऊपर सैनिक अंधेरे में दूसरी ओर से आकर सम्राट पर सहसा टूट पड़े। एक लम्बा तड़ंगा वर्म्मधारी योध्दा उनका अगुवा था। उसने सम्राट को ताक कर बरछा चलाया। रमापति ने तुरन्त सम्राट के आगे आकर बरछे को अपने ऊपर रोक लिया। बरछा रमापति की बाँह को छेदता निकल गया। रमापति मूर्च्छित होकर सम्राट के पैरों के पास गिर पड़े। इसी बीच अनन्तवर्म्मा ने उस लम्बे तड़ंगे योध्दा के मस्तक पर तलवार का वार किया। उसके माथे पर से शिरस्त्राण नीचे गिर पड़ा। उसका मुँह देखते ही अनन्तवर्म्मा उल्लास से चिल्ला उठे। शशांक ने पूछा “अनन्त ! क्या हुआ?” अनन्तवर्म्मा उस दीर्घाकार योध्दा के सिर पर तलवार तानकर बोले “प्रभो! चन्द्रेश्वर!”

“कौन चन्द्रेश्वर, अनन्त !”

इसी बीच में चन्द्रेश्वर के पीछे से एक वर्म्मधारी योध्दा ने शशांक के ऊपर बरछा छोड़ा। सम्राट या अनन्तवर्म्मा किसी ने न देखा। बरछा वर्म्म के सन्धि स्थल को भेद कर सम्राट के कन्धो में जा लगा। इस भीषण आघात से सम्राट को मूर्च्छा सी आ गई, पर उन्होंने तुरन्त सँभलकर बरछे को निकाल कर फेंक दिया। इतने में अनन्तवर्मा चन्द्रेश्वर का कटा सिर हाथ में लेकर बोले “महाराज! इसी चन्द्रेश्वर ने मेरे पिता को मारा था”। उनकी बात सम्राट के कान में न पड़ी क्योंकि अत्यन्त क्रुध्द होकर वे बरछा चलानेवाले की ओर लपके थे। शशांक की तलवार उसके कन्धो पर पड़ी। वह युध्द छोड़कर भाग खड़ा हुआ। इसी बीच चारों ओर से शत्रु सेना सम्राट के शिविर में घुस आई। मुट्ठी भर शरीररक्षी कब तक खड़े रह सकते थे, एक एक करके वे गिरने लगे। इतने में पीछे से किसी ने चिल्ला कर कहा “ रत्नेश्वर! वही सामने शशांक है, आगे बढ़ो”। अकस्मात् पीछे से शशांक पर किसी ने खड्ग चलाया। अनन्तवर्म्मा का बायाँ हाथ ही बेकाम हुआ था, वे तलवार लेकर चिल्लाने वाले की ओर झपटे। इधर रत्नेश्वर और शशांक में खड्ग युध्द होने लगा। इतने में पीछे से एक और योध्दा ने शशांक पर तलवार चलाई। अनन्त ने वार को रोकना चाहा, पर तलवार उनके कन्धो पर पड़ी। वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। अकेले शशांक रह गए। सहसा एक भाला उन्हें लगा। बहुत से घाव खाकर शशांक पहले ही शिथिल हो रहे थे। इस चोट को वे सँभाल न सके, मूर्च्छित होकर गिर पड़े।

इतने में कुछ योध्दाओं को लिए रमापति आते दिखाई पड़े। उन्होंने चट शशांक को अपनी पीठ पर लाद लिया और वहाँ से चलते हुए। रमापति के साथ आए हुए योध्दा कुछ देर तक लड़ते भिड़ते रहे। उनमें से एक अनन्तवर्म्मा को अपनी पीठ पर लाद अंधेरे में एक ओर निकल गया। अभी सबेरे का उजाला नहीं हुआ था। थानेश्वर की सेना शिविर को लूटने पाटने और जलाने में लगी हुई थी।