शशांक / खंड 3 / भाग-16 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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कर्णसुवर्ण अधिकार

एक दिन रात के समय कर्णसुवर्ण के नए प्रासाद के अलिंद में माधववर्म्मा और रविगुप्त भोजन के उपरान्त विश्राम कर रहे हैं। इतने में एक द्वारपाल ने आकर संवाद दिया कि कोशल से कुछ सैनिक आए हैं जो इसी समय महानायक माधववर्म्मा से मिलना चाहते हैं। माधववर्म्मा ने विरक्त होकर कहा, “वे क्या कल सबेरे तक ठहर नहीं सकते?” द्वारपाल ने कहा “हम लोगों ने उन्हें बहुत समझाया पर वे किसी प्रकार नहीं मानते, कहते हैं कि अत्यन्त प्रयोजनीय संवाद है।” “उन्हें यहाँ ले आओ” कहकर माधववर्म्मा पलंग पर ही उठकर बैठ गए। द्वारपाल तुरन्त एक प्रौढ़ सैनिक को लिए हुए आया। सैनिक माधववर्म्मा को अभिवादन करके बोला “प्रभो! भयंकर संवाद है।” माधववर्म्मा सैनिक को देख घबराकर उठ खड़े हुए और पूछने लगे “नवीन! कहो क्या संवाद है।” बताने की आवश्यकता नहीं सैनिक और कोई नहीं बंगदेश का माँझी नवीनदास है।

नवीन ने कहा “प्रभो! हमारी सारी सेना अभी ताम्रलिप्ति तक भी नहीं पहुँची है। मैं अपनी नौ सेना लेकर अभी चला आ रहा हूँ। मार्ग में मैंने देखा कि गंगा के उस पार दूर तक न जाने किसके शिविर पड़े हैं। पश्चिम तट के सब गाँव उजाड़ पड़े हैं और घाट पर एक नाव भी नहीं है। आपको क्या अब तक इसका कुछ भी संवाद नहीं मिला?”

“कुछ भी नहीं।”

“प्रभो! तो फिर निश्चय है कि शत्रु सेना राजधानी पर आक्रमण करने आ पहुँची।”

“नवीन! तुम चटपट बाहर जाओ, नगर के सब फाटक बन्द करो और सैनिकों को युध्द के लिए सन्नध्द करो।”

नवीनदास अभिवादन करके चला गया। आधी घड़ी में नगर के भीतर स्थानस्थान पर शंखध्वनि हो उठी, नगर के प्राकार पर सैकड़ों पंसाखे दिखाई देने लगे। माधववर्म्मा ने रविगुप्त से सारी व्यवस्था कह सुनाई। रविगुप्त हँसकर बोले “अच्छी बात है, बताओ मुझसे भी कुछ हो सकता है?”

माधव ने कहा “हाँ हो सकता है।”

“क्या, बताओ।”

“आप पाँच सहस्रपुर रक्षियों को लेकर नगर की रक्षा करें। मेरी सेना के जितने लोग अब तक आ चुके हैं उन्हें लेकर मैं नदी के किनारे जाकर शत्रु सेना को देखता हूँ। तब तक आप नगर के फाटकों को दृढ़ करें।”

“अच्छी बात है। पर तुम लौटोगे कब?”

“चाहे जिस प्रकार होगा सबेरा होते होते मैं नगर में लौट आऊँगा।”

रविगुप्त और माधववर्म्मा प्रासाद के बाहर निकले।

भास्करवर्म्मा की बंगदेश पर फिर चढ़ाई सुनकर वसुमित्र अधिकांश सेना लेकर उन्हें रोकने के लिए गए थे। उन्हें पीछे छोड़ भास्करवर्म्मा सीधे कर्ण सुवर्ण पर आ धमकेंगे इस बात का उन्हें स्वप्न में भी ध्यान न था। वे राजधानी की रक्षा के लिए केवल पाँच सहस्र सेना छोड़ जल्दी जल्दी बंगदेश की ओर बढ़े जा रहे थे। कुमार भास्करवर्म्मा बंगदेश के विद्रोहियों की सहायता से चटपट बालवल्लभी होते हुए भागीरथी के तटपर आ निकले। वसुमित्र ने मेघनाद के तट पर पहुँचकर देखा कि बंगदेश में उनका सामना करने के लिए कहीं कोई शत्रु नहीं है। पीछे उन्होंने सुना कि कामरूप की सारी सेना पश्चिम की ओर बढ़ गई है और लौटते समय उन्हें रोकने के लिए डटी हुई है। वसुमित्र ने युध्द की तैयारी कर दी। युध्द के आरम्भ ही में उन्हें समाचार मिला कि भास्करवर्म्मा ने स्वयं पन्द्रह सह अश्वारोही लेकर कर्णसुवर्ण पर आक्रमण कर दिया है।

जिस दिन भास्करवर्म्मा ने कर्णसुवर्ण नगर पर धाावा किया उस दिन नगर में केवल वसुमित्र के दल के पाँच सह पदातिक और माधववर्म्मा के दल के एक सह अश्वारोही तथा दो सौ नौसेना नदी तट पर थी। माधववर्म्मा अश्वारोहियों को लेकर अंधेरे में शत्रु सेना को रोकने चले। नवीनदास अपने दो सौ माझियों को लेकर रविगुप्त के साथ नगर की रक्षा पर रहे। माधववर्म्मा दो पहर रात तक आसरा देखते रहे, जब शत्रु सेना का कहीं पता न लगा तब वे नगर को लौट आए। उनके नगर में घुसते ही कर्णसुवर्ण नगर चारों ओर से घेर लिया गया। भास्करवर्म्मा ने बहुत दूर जाकर नदी पार किया और चुपचाप अपनी सारी सेना लेकर वे नगर के किनारे आ पहुँचे।

सारी रात युध्द होता रहा। नगर पर शत्रु का अधिकार न हो सका। रात ढलने पर दोनों पक्ष की सेना थककर विश्राम करने लगी। उस समय माधववर्म्मा रविगुप्त के साथ परामर्श करने बैठै। पहली बात तो यह स्थिर हुई कि वसुमित्र के पास संवाद भेजा जाय, दूसरी बात यह कि मण्डला वा रोहिताश्वगढ़ सहायता के लिए दूत भेजा जाय। सम्राट उस समय प्रतिष्ठानदुर्ग में थे, अत: उनके पास संवाद भेजना व्यर्थ समझा गया। नवीनदास स्वयं वसुमित्र के पास संवाद लेकर गए। एक तरुण सेनानायक अपनी इच्छा से दूत होकर मण्डला की ओर गया।

पहर दिन चढ़ते चढ़ते कामरूप की सेना ने फिर नगर पर आक्रमण किया। पहर भर तक युध्द होता रहा। माधववर्म्मा और रविगुप्त ने कई बार शत्रु सेना को पीछे भगाया तब भास्करवर्म्मा की सेना ने नगर के चारों ओर पड़ाव डाल कर घेरा किया। भास्करवर्म्मा की सेना नित्य दो तीन बार नगर के प्राकार पर धावा करती, पर हार खाकर पीछे हटती। इसी तरह करते एक महीना बीत गया पर न तो वसुमित्र के शिविर से और न मण्डलागढ़ से दूत लौटकर आया। कामरूप की सेना बारबार पराजित होकर भी निरस्त और हतोत्साह न हुई। यह देख माधववर्म्मा और रविगुप्त बड़ी चिन्ता में पड़ गए। लगातार लड़ते लड़ते दिन दिन सेना घटती जाती थी, पर शत्रु के शिविर में नई नई सेना आती जाती थी। कर्णसुवर्ण का प्राकार नया तो अवश्य था, पर वह पाटलिपुत्र या मण्डला प्राकार के समान दृढ़ और स्थायी नहीं था। प्राकार जगह जगह से गिरता जाता था। आक्रमण भी रोकना और उसे ठीक भी करना कठिन हो गया। धीरे धीरे दुर्ग के भीतर सेना का अभाव हो गया। माधववर्म्मा ने देखा कि अब नगररक्षा नहीं हो सकती। वे बचे हुए लोगों को लेकर शत्रु सेना को चीरतेफाड़ते निकल पड़े। पास की शत्रु सेना मुट्ठी भर लोगों पर टूट पड़ी। रात अंधेरी थी। शेष शत्रु सेना को पता न चला कितने लोग बाहर निकल रहे हैं। जो जहाँ थे वहीं निकलनेवालों की खोज में व्यग्र हो उठे।

रात के सन्नाटे में केवल पाँच सात सैनिकों के साथ रविगुप्त और माधववर्म्मा शत्रु शिविर से बहुत दूर निकल आए। माधववर्म्मा बोले “अब क्या करना चाहिए?” नगर तो शत्रु ओं के हाथ में जा चुका, अब यही हो सकता है कि उनके बीच कूद कर वीरगति प्राप्त करें”।

रविगुप्त-इस समय ऐसा करना मैं नीतिविरुध्द समझता हूँ। जब साम्राज्य में सेनानायकों का इस प्रकार प्रभाव हो रहा है तब यश की कामना से मृत्यु का आश्रय लेना मैं उचित नहीं समझता। साम्राज्य के भीतर कई स्थानों पर युध्द ठना है। स्वयं सम्राट युध्द कर रहे हैं। इस समय उनके सहायकों की संख्या में कमी करना मैं धर्म नहीं समझता।

माधववर्म्मा-आप वृध्द हैं, जैसा उपदेश देंगे वैसा ही करूँगा।

रविगुप्त-अब हम लोगों को सम्राट के पास चलना चाहिए।

एक महीने में मेघनाद के तट पर अपने शिविर में वसुमित्र ने सुना कि भास्करवर्म्मा ने कर्णसुवर्ण पर अधिकार कर लिया, पर पुररक्षकों में से कोई बन्दी नहीं हुआ। दूर के रोहिताश्व और प्रतिष्ठानदुर्ग में कर्णसुवण् के पतन का समाचार जा पहुँचा। शशांक समझे कि नरसिंहदत्ता के समान माधववर्म्मा ने भी साम्राज्य की सेवा में अपना जीवन विसर्जित कर दिया। सम्राट प्रतिष्ठान छोड़ मगध को लौट आए। वसुमित्र भी लौटकर गौड़देश में पहुँचे।