शशांक / खंड 3 / भाग-15 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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सम्राट की आज्ञा से प्राचीन पाटलिपुत्र नगर निर्जन हो गया। साम्राज्य की राजधानी कर्णसुवर्ण नगर में स्थापित हुई। कर्णसुवर्ण नदी से घिरे हुए एक टीले पर बसा था। स्थान सुरक्षित था और उसके चारों ओर का दृश्य अत्यन्त मनोरम था। उत्तर राढ़ में अब तक प्राचीन कर्णसुवर्ण नगर के ख्रड़हर फैले हुए हैं। नारायणशर्म्मा और रामगुप्त कर्णसुवर्ण आकर नया नगर निर्माण कराने में लगे। पाटलिपुत्र के नए और पुराने राजभवन गिरने पड़ने लगे।

शशांक पाटलिपुत्र छोड़ जल्दी पश्चिम की ओर बढ़े। चरणाद्रिगढ़ में पहुँच कर उन्होंने हर्षवर्ध्दन के कान्यकुब्ज पर अधिकार करने और नरसिंहदत्ता के मारे जाने का संवाद पाया यह पहले कहा जा चुका है। हरिगुप्त ने आगे बढ़ कर प्रतिष्ठान को तो शत्रुओं के हाथ से छुड़ाया पर वे और विद्याधारनन्दी मिलकर भी कान्यकुब्ज की ओर न बढ़ सके। पूर्व की ओर लौहित्या (ब्रह्मपुत्र) के किनारे जाकर वीरेन्द्रसिंह और माधववर्म्मा ने भास्करवर्म्मा को रोका। शशांक ने प्रतिष्ठानदुर्ग में पहुँचकर सेना का नेतृत्व अपने हाथ में लिया। अखण्ड युध्द चलने लगा। महीने पर महीने, वर्ष पर वर्ष बीत गए, पर युध्द समाप्त न हुआ। हर्षवर्ध्दन की प्रतिज्ञा पूरी न हुई। वे न तो राज्यवर्ध्दन की मृत्यु का बदला ले सके, न शशांक को सिंहासन पर से हटा सके। युध्द छिड़ने से पाँच, छ: वर्ष पर प्रवीण महाबलाधयक्ष हरिगुप्त की मृत्यु हुई। उनके स्थान पर अनन्तवर्म्मा नियुक्त हुए। कुछ दिन पीछे कर्णसुवर्ण नगर में महाधार्माधयक्ष नारायणशर्म्मा की भी मृत्यु हुई। एक एक करके पुराने राजकर्म्मचारियों के स्थान पर नए-नए लोग भरती होने लगे।

हर्षवर्ध्दन जब किसी प्रकार से शशांक को पराजित न कर सके तब उन्होंने एक नया उपाय निकाला। हर्ष राजनीति की टेढ़ी चालें चलने में बड़े कुशल थे। शशांक से युध्द आरम्भ होने के पहले ही कामरूप के राजा के साथ उन्होंने सन्धि कर ली थी। 'हर्षचरित' में बाणभट्ट ने हर्ष के शिविर में कामरूप राज के दूत हंसवेग के आने का जो विवरण लिखा है उसके देखने से जान पड़ता है कि कामरूप के राजा ने अपने आप हर्ष से सहायता माँगी थी। उसके पहले से शशांक और थानेश्वरराज के बीच युध्द चल रहा था पर हर्षचरित में कहीं शशांक और कामरूपराज सुप्रतिष्ठितवर्म्मा या उनके छोटे भाई भास्करवर्म्मा के बीच किसी प्रकार के विग्रह का आभास नहीं पाया जाता। हर्षवर्ध्दन का राज्य कामरूप के पास तक नहीं पहुँचा था अत: कामरूप के राजा आप से आप क्यों थानेश्वर के राजा के साथ सन्धि करने गए यह बात अब तक ऐतिहासिकों की समझ में नहीं आई है। जान पड़ता है कि यह राष्ट्रनीति कुशल हर्षवर्ध्दन की एक चाल थी।

हर्षवर्ध्दन ने जब किसी प्रकार युध्द समाप्त होते न देखा तब उन्होंने माधव गुप्त को पाटलिपुत्र भेजा और उन्हें ही मगध का प्रकृत राजा प्रसिध्द किया। बन्धुगुप्त और बुध्दघोष की मृत्यु के पीछे महाबोधि विहार के स्थविर जिनेन्द्रबुध्दि उत्तारापथ के बौध्द संघ के नेता हुए। उनकी उत्तोजना से गौड़, मगध, बंग और राढ़ देश की बौध्द प्रजा भड़क उठी। शशांक बड़े फेर में पड़े। उन्हें मगध की रक्षा के लिए सैन्यभीति को रोहिताश्वगढ़ और वसुमित्र को गौड़ नगर भेजना पड़ा। इसी बीच में कामरूपराज के भाई भास्करवर्म्मा ने बंगदेश के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया। प्रतिष्ठानपुर में विद्याधरनन्दी और कर्णसुवर्ण में रामगुप्त की मृत्यु हो जाने से शशांक को विश्वासपात्र पुरुषों का बड़ा अभाव हो गया। जो नए-नए कर्म्मचारी हुए वे भीतरभीतर शत्रु की ओर मिलने लगे। हर्षवर्ध्दन धन देकर सबको मुट्ठी में करने लगे। शशांक ने विवश होकर माधववर्म्मा को कर्णसुवर्ण लौट जाने की आज्ञा दी-और वे आप प्रतिष्ठानपुर में ही जमे रहे। शशांक के बहुत दिन राजधानी से दूर रहने के कारण मगध में घोर अव्यवस्था फैल गई। बौध्दसंघ के नेताओं की सहायता से माधवगुप्त ने रोहिताश्व, मंडला, पाटलिपुत्र और चम्पा इत्यादि कुछ प्रधान दुर्गों को छोड़ मगध और तीरभुक्ति के और सब मुख्य मुख्य नगरों और ग्रामों पर अधिकार कर लिया। माधववर्म्मा के कर्णसुवर्ण चले आने पर भास्करवर्म्मा ने सारे बंगदेश को अपने हाथ में कर लिया। ऐसे समय में शशांक को नरसिंहदत्ता का अभाव बराबर खटकता और वे बार बार यशोधवलदेव, ऋषिकेशशर्म्मा, नारायणशर्म्मा और विनयसेन ऐसे विश्वस्त कर्म्मचारियों का नाम लेकर दु:खी होते।

बहुत दिनों तक युध्द चलते रहने से राजकोष भी खाली हो चला। जिन प्रदेशों पर माधवगुप्त का अधिकार हो गया था उन्होंने राजस्व देना बन्द कर दिया। सम्राट को विवश होकर राजधानी की ओर लौटना पड़ा। उनकी आज्ञा से सैन्यभीति और वीरेन्द्रसिंह विधुसेन के दोनों पौत्रों पर रोहिताश्वगढ़ की रक्षा का भार छोड़ प्रतिष्ठानपुर चले आए। शशांक अनन्तवर्म्मा को प्रतिष्ठानपुर में छोड़ आप कर्णसुवर्ण लौटना चाहते थे, पर नए महाबलाध्यक्ष ऐसे समय में सम्राट का साथ छोड़ने पर सम्मत न हुए। शशांक कर्णसुवर्ण लौट आए। माधववर्म्मा भास्करवर्म्मा को रोकने के लिए बढ़े। एक वर्ष के भीतर बंगदेश पर अधिकार हो गया। भास्करवर्म्मा शंकरनद के उस पार लौट गए। अनन्तवर्म्मा और वसुमित्र ने मगध और तीरभुक्ति के विद्रोहियों का दमन किया। माधवगुप्त भागकर कान्यकुब्ज पहुँचे। साम्राज्य के कार्य फिर व्यवस्थित रूप से चलने लगे। राजस्व भी बराबर आने लगा। स्थाण्वीश्वर में फिर से चढ़ाई लिए नई सेना भरती होने लगी। हर्षवर्ध्दन को बौध्दाचाय॔ से संवाद मिला कि सम्राट शीघ्र ही थानेश्वर पर चढ़ाई करनेवाले हैं।

इसी बीच जिनेन्द्रबुध्दि के कौशल से वाराणसी, चरणाद्रि और प्रतिष्ठान की प्रजा बिगड़ गई। थानेश्वर की सेना ने सैन्यभीति और वीरेन्द्रसिंह को प्रतिष्ठानदुर्ग में घेरकर श्रावस्ती, वाराणसी, चरणाद्रि और प्रतिष्ठानभुक्ति पर अधिकार कर लिया। शशांक और अनन्तवर्म्मा विवश होकर राजधानी से चल पड़े। भास्करवर्म्मा को परास्त करके माधववर्म्मा दक्षिण कोशल पर अधिकार करने गए थे। वे कलिंग, दक्षिण कोशल, उड्र और कोंकद मण्डल पर अधिकार करके लौट आए। उन्होंने आकर सुना कि सम्राट और महाबलाध्यक्ष ने प्रतिष्ठान की ओर यात्रा की है; अवसर पाकर भास्करवर्म्मा ने बंगदेश पर फिर अधिकार कर लिया है और वसुमित्र उनसे युध्द करने के लिए गए हैं; वृध्द महादण्डनायक रविगुप्त नगर की रक्षा कर रहे हैं। युध्द में जयलाभ करके माधववर्म्मा जल्दी जल्दी राजधानी की ओर बढ़ रहे थे, उनकी सेना पीछे धीरेधीरे आ रही थी। कर्णसुवर्ण पहुँचकर उन्होंने देखा कि नगरदुर्ग की रक्षा के लिए केवल पाँच सह सेना रह गई है। वृध्द महादण्डनायक उन्हें देख अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनके हाथ में राजधानी सौंप निश्चिन्त हुए। माधववर्म्मा ने राजधानी की इतनी थोड़ी सेना को चटपट कर्णसुवर्ण पहुँचने की आज्ञा दी। सम्राट के राजधानी छोड़ते ही मगध और तीरभुक्ति में विद्रोह खड़ा हुआ। वाराणसी और श्रावस्ती पर अधिकार कर चुकने पर शशांक ने सुना कि तीरभुक्ति अधिकार से निकल गया और मगध के बौध्दों ने रोहिताश्व और मण्डलागढ़ को घेर रखा है। बड़ी कठिनता से चरणाद्रि और प्रतिष्ठान का विद्रोह शान्त करके उन्होंने सैन्यभीति को मण्डलागढ़ की ओर दौड़ाया। थानेश्वर की चढ़ाई के लिए मगध, गौड़ और बंग से जो नई सेना इकट्ठी की गई थी उसे मगध और तीरभुक्ति का विद्रोह दमन करने में फँसी देख हर्षवर्ध्दन निश्चिन्त हुए।

अपने को चारों ओर विपज्जाल से घिरा देख एक दिन शशांक को वज्राचार्य्य शक्रसेन और उनकी भविष्यद्वाणी का स्मरण आया। बहुत पहले गंगा के तट पर वृध्द वज्राचार्य्य ने जो बातें कही थीं उनमें से अधिकांश सत्य निकलीं। शशांक सोचने लगे कि इसी प्रकार और आगे की बातें भी ठीक घटेंगी। सोचते सोचते वज्राचार्य्य से एक बार फिर मिलने की उन्हें बड़ी इच्छा हुई। बन्धुगुप्त की मृत्यु के पीछे फिर वज्राचार्य्य शक्रसेन दिखाई नहीं पड़े थे। शशांक ने उन्हें कपोतिक महाविहार का आधिपत्य देना चाहा था, पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया था। सम्राट उनके दर्शन के लिए व्यग्र हो रहे थे। अकस्मात् एक दिन सबेरे वृध्द वज्राचार्य्य एक वृक्ष की शाखा को दोनों जाँघों के बीच से निकाले प्रतिष्ठानदुर्ग की ओर आ निकले। शशांक उस समय कान्यकुब्ज की ओर यात्रा करने की तैयारी में थे। उन्होंने दुर्ग के फाटक पर वज्राचार्य्य को देख चकित होकर पूछा “आप कब आए? मैं तो इधर कई दिनों से आपकी खोज में हूँ”। वज्राचार्य्य ने हँसते हँसते कहा “महाराज! आपने स्मरण किया तभी तो चला आ रहा हूँ।”

“आपने कैसे जाना?”

“गणना द्वारा। महाराज! इस समय की तैयारी रोक दीजिए। आप कान्यकुब्ज न जा सकेंगे। आपको बहुत शीघ्र पूर्व की ओर जाना पड़ेगा।”

“आप क्या कहते हैं मैंने नहीं समझा।”

“महाराज! जो कुछ मैं कहता हूँ उसे मैं ही अच्छी तरह नहीं समझता आपसे क्या बताऊँ...?”

“इस समय मैं बड़े संकट में पड़ा हूँ, इसी से इधर कई दिनों से दिन रात आपका स्मरण करता हूँ।”

“बाहरी शत्रु तो आपका बाल बाँका नहीं कर सकता। सम्मुख युध्द में हर्षवर्ध्दन कभी आपको परास्त न कर सकेंगे।”

“पर मैं भी तो हर्षवर्ध्दन को परास्त नहीं कर सकता हूँ।”

“वृध्द वृक्ष की शाखा दूर फेंक प्रतिष्ठानदुर्ग के पत्थर जड़े ऑंगन में बैठ गए और वस्त्र के भीतर से खरिया निकालकर पत्थर पर अंक लिखने लगे। थोड़ी देर पीछे वज्राचार्य्य बोले “महाराज! आपके हाथ से हर्षवर्ध्दन का पराजय नहीं है। भारतवर्ष भर में केवल एक ही व्यक्ति है जो हर्षवर्ध्दन को ध्वस्त करेगा-दक्षिणपथ का अधीश्वर चालुक्यराज पुलकेशी।”

वज्राचार्य्य की बात पर शशांक को सहसा वृध्द महानायक यशोधवलदेव की मरते समय की यह बात याद आई कि “विपत्ति पड़ने पर चालुक्यराज मंगलेश से सहायता माँगना।” मंगलेश तो उस समय मर चुके थे, द्वितीय पुलकेशी दक्षिण के सम्राट थे। शशांक ने मन ही मन चालुक्यराज के पास दूत भेजने का निश्चय किया। इसी बीच वज्राचार्य्य सहसा बोल उठे “महाराज! मैं स्वयं वातापिपुर जाने को तैयार हूँ।” सम्राट ने विस्मित होकर कहा “प्रभो! आप तो अन्तर्यामी जान पड़ते हैं।”

“महाराज! जगत् में कोई अन्तर्यामी नहीं है। भाषा जिस प्रकार लोगों के मन का भाव प्रकट करती है, आकृति भी अस्फुट रूप में मन का भाव प्रकट करती है।”

“तो आप स्वयं दक्षिण जाने के लिए तैयार हैं?”

“हाँ।”

“कब।”

“आज ही।”

उसी दिन सन्ध्या को वज्राचार्य्य शक्रसेन सम्राट शशांक नरेन्द्रगुप्त के दूत बनकर दक्षिण की ओर चल पड़े।