शशांक / खंड 3 / भाग-14 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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आत्मोत्सर्ग

“क्या कहा?”

“सच कहता हूँ, महाराज! मैंने बंगदेश और प्रतिष्ठानपुर में उनका तलवार चलाना देखा था, उनका अद्भुत पराक्रम मैं देख चुका हूँ। वे तक्षदत्ता के पुत्र थे। नरसिंहदत्ता को छोड़ ऐसी अद्भुत वीरता और कोई नहीं दिखा सकता”।

“क्या यह सच है?”

“सच है, महाराज! बीस वर्ष इन्हीं हाथों में गरुड़धवज लेकर चला हूँ। जिन्होंने शंकरनद के किनारे और प्रतिष्ठानदुर्ग में नरसिंहदत्ता को युध्द करते देखा है वे क्या कभी उन्हें भूल सकते हैं? महाराज! इन्हीं हाथों में गरुड़धवज लिए हुए प्रतिष्ठानदुर्ग के परकोटे पर मैं चढ़ा हूँ, गौड़ वीरों की मृतदेह के ऊपर पैर रखता हुआ, सर्वांग में उष्ण रक्त लपेटे मैंने उनका अनुसरण किया है। मैं उन्हें कभी भूल नहीं सकता, महाराज। महाराज! मैं मण्डलागढ़ का पुराना सैनिक हूँ, लक्षदत्ता के समय का सेवक हूँ। इन्हीं हाथों से मैंने नरसिंहदत्ता को खेलाया है। उनके पिता के साथ भी मैं युध्द में गया हूँ। अन्त में इन्हीं हाथों से उनके पुत्र को चिता पर रखे चला आता हूँ”।

“तो अब नरसिंह भी इस संसार में नहीं हैं। नरसिंहदत्ता के जीते जी भला कब कान्यकुब्ज शत्रुओं के हाथ में जा सकता था? जब तक तक्षदत्ता के पुत्र के शरीर में प्राण रहा तब तक थानेश्वर की एक मक्खी भी कान्यकुब्ज नगर में नहीं घुसने पाई। महाराज! नरसिंहदत्ता वीर थे, वीर के पुत्र थे, वीर कुल में उत्पन्न थे। तक्षदत्ता के पुत्र ने एक वीर के समान मृत्यु का आलिंगन किया। सनातन से तनुदत्ता का वंश सम्राट की सेवा में, साम्राज्य के कार्य में, अपना जीवन विसर्जित करता आया था। तनुदत्ता के अन्तिम वंशधार ने, मण्डला के अन्तिम अधीश्वर ने, भी अपने वंश का गौरव अखण्डित रखा, अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया-और यह अकर्मण्य, वृध्द जीता जागता महाराज को संवाद देने आया है। रणनीति बड़ी कठिन है, जी में तो मृत्यु की कामना भरी हुई थी पर रणनीति के अनुसार मुझे युध्द क्षेत्र को छोड़कर मगध के निर्जन श्मशान में आना पड़ा”।

“और क्या क्या हुआ, कहो”।

“कहता हूँ, महाराज! कहता हूँ, सुनिए। जिस समय प्रतिष्ठानदुर्ग पर अधिकार हुआ था उस समय, महाराज! आप दुर्ग के फाटक तक ही पहुँच पाए थे। वृध्द के मुँह से यदि कुछ कठोर शब्द निकलें तो क्षमा करना। जब फाटक पर पहुँचे थे तब तक दुर्ग के तीसरे प्राकार पर अधिकार नहीं हुआ था। समुद्रगुप्त के वंशधार समुद्रगुप्त के दुर्ग में निर्विघ्न प्रवेश करेंगे यही कह कर देखते देखते वे एक फलांग में दुर्ग के प्राकार पर चढ़ गए, मृत्यु के सामने उन्होंने अपनी छाती कर दी-क्यों, इसको या तो आप जानते होंगे या वे ही जानते रहे होंगे। मृत्यु उन पर हाथ न लगा सकी, प्रतिष्ठानदुर्ग पर अधिकार हो गया। अपने दल बल सहित दुर्ग में प्रवेश किया। पर जिसने आपके लिए अपने प्राणों पर खेल दुर्ग का फाटक खोला उसका कहीं पता लगा? चित्रा-महाराज! चित्रा उनके बड़े आदर की वस्तु थी। चित्रा ही के कारण उन्होंने अपना मुँह न दिखाया। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि अब इस जीवन में आपको मुँह न दिखाएँगे। यही कारण है कि इतने बड़े राजराजेश्वर होकर भी आप उनका पता न पा सके। वे कहीं भागे नहीं थे, आपके साथ ही साथ रहते थे। भागना तो तनुदत्ता के वंश में कोई जानता ही न था। प्रत्येक युध्द में वे महाराज के साथ रहते थे, प्रत्येक रणक्षेत्रा में वे आपकी पृष्ठरक्षा करते थे, पर आप उनको नहीं देख पाते थे”।

“सैनिक! मैं यह सब जानता हूँ, मैं इसे भूला नहीं हूँ। तुम्हारा भी मनुष्य का चोला है, अब और निष्ठुरता न करो, मुझे अब और न जलाओ, दया करो। नरसिंह और चित्रा का धयान मुझे सदा जलाता रहता है, तुम ज्वाला और न बढ़ाओ। नरसिंह नहीं रहे, उन्होंने मेरे लिए अपना प्राण निछावर कर दिया-यही बात मेरे हृदय को बराबर बेधा करती है। पर तुम कहते चलो; जब तक मैं अन्त न सुन लूँगा तब तक मरूँगा भी नहीं।”

“सुनिए, महाराज! वृध्द का अपराध मन में न लाना। मेरे स्त्री पुत्र कोई नहीं है, कभी कोई था भी नहीं। इन्हीं हाथों से तक्षदत्ता के पुत्र और कन्या को मैंने पाला और इन्हीं से नरसिंहदत्ता को चिता पर रखा। मेर हृदय में भी बड़ी ज्वाला है। आपही तनुदत्ता के वंशलोप के कारण हैं, आप ही के कारण चित्रा मरी, महाराज! और आपही के कारण नरसिंह भी मरे। पर तुम हमारे महाराज हो, हमारे परमेश्वर हो, नहीं तो सारा संसार यदि एक ओर होता तो भी मेरे हाथ से आपको बचा नहीं सकता था”।

“पर महाराज! आप अवधय हैं, आप हमारे देवता हैं क्योंकि आप महाराजाधिराज समुद्रगुप्त के वंशधार हैं। अच्छा सुनिए, जब घूस पाकर कान्यकुब्जवाले विद्रोही हो गए तब महानायक वसुमित्र को विवश होकर नगर छोड़ना पड़ा। उस समय सारी सेना ने चुपचाप सिर झुका कर सेनापति की आज्ञा का पालन किया और कान्यकुब्ज छोड़ प्रतिष्ठान का मार्ग लिया। केवल दो सेना ने महानायक की आज्ञा न मानी। एक सामान्य पदातिक उसका नेता हुआ। महाराज! वे दो सैनिक विद्रोही हुए। पर किस प्रकार विद्रोही हुए यह भी सुनिए। उन्होंने महानायक की आज्ञा की ओर कुछ धयान न दे दुर्ग की रक्षा करने का दृढ़ संकल्प किया। उन्हीं लोगों के कारण कान्यकुब्ज दुर्ग के ऊपर गरुड़धवज चमकता रहा। यह नए ढंग का विद्रोह है, महाराज! आपके राज्य में एक बार और ऐसा विद्रोह हुआ था। कुछ स्मरण है? उस बार भी एक सामान्य पदातिक ने विद्रोह करके सामा्रज्य के सिंहद्वार की रक्षा की थी। महाराज! तक्षदत्ता के पुत्र को छोड़ और ऐसा कौन कर सकता है, और किसकी इतनी छाती है?”

“महाराज! साम्राज्य की सारी सेना प्रतिष्ठान लौट गई, पर दो गौड़ और मागधा वीर आपके लिए प्राण देने को कान्यकुब्ज के पत्थर के कारागार में रह गए। दो सह लाखों के साथ कब तक जूझते? पर जब तक उनके शरीर में प्राण रहा तब तक कान्यकुब्जदुर्ग के ऊपर गरुड़धवज खड़ा रहा। ऑंधी में उठी हुई तरंगों के समान जिस समय थानेश्वर की लाख लाख सेना क्षण क्षण पर दुर्ग पर धावा करती थी उस समय मुट्ठी भर वीरों ने मृत्यु की ओर अपनी छाती कर दी। कान्यकुब्ज दुर्ग के गंगा द्वार पर आघातों से जर्जर फाटक की रक्षा करते समय तक्षदत्ता के पुत्र चित्रा का सारा शोक भूल गए और अन्त में परम शान्ति को प्राप्त हुए। महाराजाधिराज ! उन्हीं की आज्ञा से मैं आपके निकट कान्यकुब्ज के युध्द का संवाद देने आया हूँ। गंगातट पर गरुड़धवज को छाती पर रखकर आपका नाम स्मरण करते करते नरसिंहदत्ता अमरलोक को सिधारे। उसके पीछे दो सह में से जो दस बीस बचे थे वे हाथ में खड्ग लेकर हँसते हँसते कान्यकुब्ज की समुद्र सी उमड़ती सेना के बीच कूद पड़े। महाराज! वे वीर थे, वे प्रात: स्मरणीय थे, उनमें से एक भी जीता न बचा”।

चरणाद्रिगढ़ के नीचे एक चट्टान पर बैठै शशांक वृध्द सैनिक के मुँह से कान्यकुब्ज दुर्ग के पतन का वृत्तान्त सुन रहे थे। अनन्तवर्म्मा पत्थर की मूर्ति बने उनके पीछे खड़े थे। कुछ दूर पर सैनिक मुग्ध होकर नरसिंहदत्ता के अपूर्व वीरत्व की कहानी सुन रहे थे। कहानी पूरी होते होते मागधा सेना गद्गद होकर बारबार जयध्वनि करने लगी। वृध्द सैनिक मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। सम्राट ठगमारे से पत्थर की चट्टान पर बैठे रहे।

थोड़ी देर में अनन्तवर्म्मा ने धीरे से पूछा “सैनिक! क्या तुम महानायक नरसिंहदत्ता की देह को कान्यकुब्ज में यों ही छोड़ कर चले आए?” वृध्द बोला “नहीं प्रभो! मैं नरसिंहदत्ता का सब संस्कार करके तब कान्यकुब्ज से चला हूँ। उस समय भी युध्दहो रहा था। वसुमित्र के नगर छोड़कर चले जाने पर थानेश्वर की सेना ने नगर पर अधिकार कर लिया था जब नरसिंहदत्ता चिता पर गए तब गढ़ के भीतर जो योध्दा बचे थे वे फाटक खोलकर बाहर निकल आए और शत्रु की असंख्य सेना पर टूट पड़े”।

उनकी बात सुनकर शशांक को कुछ चेत हुआ। उन्होंने वृध्द से कहा “भाई! तुम नरसिंहदत्ता की आज्ञा का पालन तो कर चुके, तुम्हारा काम तो पूरा हो गया। अब बताओ कहाँ जाओगे और क्या करोगे...?”

“कार्य तो हो चुका, महाराज! अब मुझे और कुछ करना नहीं है। अब मृत्यु की खोज में बाहर निकलना है”।

“भाई! इसके लिए तुम्हें दूर न जाना होगा। तुम मेरे साथ रहो, मृत्यु का नित्य सामना होगा”।

“कहाँ चलना होगा, महाराज?”

“बस सीधो प्रतिष्ठानपुर”।

शशांक अनन्तवर्म्मा के हाथ का सहारा लिए गढ़ के ऊपर चढ़ने लगे। सैनिक भी उनके पीछे पीछे चला।