शशांक / खंड 3 / भाग-13 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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अभिशाप

आज यशोधावलदेव के जीवन का अन्तिम दिन है। पलंग के पास सम्राट शशांक, वीरेन्द्रसिंह, सैन्यभीति, लतिका तरला, मालती और गढ़ के पुराने भृत्य ऑंखों में ऑंसू भरे खड़े हैं। वृध्द महानायक निश्चेष्ट भाव से ऑंख मूँदे पड़े हैं। थोड़ी देर में उन्होंने ऑंख खोली और सम्राट को सम्बोधान करके क्षीण स्वर से कहने लगे “पुत्र! मैं तो अब चला। वंशगौरव के उध्दार का जो व्रत तुमने लिया है उस पर दृढ़ रहना। हर्षवर्ध्दन तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते। अन्याय से अर्जित थानेश्वर का साम्राज्य एक पीढ़ी भी न चलेगा। हर्ष के सामने ही वह छिन्न भिन्न होने लगेगा और हर्ष यह देखते हुए मरेंगे कि थानेश्वर का सिंहासन विश्वासघाती अमात्यों के हाथ में जा रहा है। यदि आजीवन मैंने क्षत्रधर्म का पालन किया होगा तो मेरा यह वचन सत्य होगा। जैसे लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं सम्भव है तुम्हारे कार्य में बाधा पड़े, पर निराश न होना। यदि मगध में रहना असम्भव हो जाय तो माधवगुप्त को मगध के सिंहासन पर छोड़ दक्षिण की ओर चले जाना। पर यह देखते रहना कि थानेश्वर का कोई राजपुत्र या राजपुरुष मगध में प्रवेश न करने पाए। दक्षिण में अपनी शक्ति बराबर बढ़ाते रहना। समुद्रगुप्त के वंश का प्रताप फिर चमकेगा”।

बोलते बोलते महानायक शिथिल हो पड़े। सम्राट के नेत्रों से अश्रुधारा छूट रही थी। यशोधावलदेव ने फिर ऑंखें खोलीं और कहने लगे “पुत्र, मेरे लिए दु:खी न हो। मैं बहुत दिन इस संसार में रहा। लतिका कहाँ है?” लतिका रोती हुई अपने दादा के पास आ खड़ी हुई। सैन्यभीत को अपने पास बुला लतिका का हाथ उन्हें थमा वृध्द महानायक सम्राट से बोले “पुत्र! लतिका को मैंने समरभीति के पुत्र को अर्पित किया। शुभ मुहूर्त्त में इन दोनों का विवाह करा देना और विवाह के समय वह कंगन इसके हाथ में पहिना देना। मुझे अब और कुछ कहना नहीं है। मैं आनन्द से-पर एक बात-तुम अपना विवाह...”। सम्राट का गला भरा हुआ था। उनके मुँह से एक शब्द न निकला। वृध्द महानायक की चेष्टा भी क्रमश: मन्द होने लगी। दूसरे दिन यह संवाद फैल गया कि रोहिताश्वगढ़ के अधीश्वर का परलोकवास हो गया।

महानायक के जब सब कृत्य हो चुके तब प्रतिष्ठानपुर से दूत संवाद लेकर आया कि हर्षवर्ध्दन ने कान्यकुब्ज पर चढ़ाई की है। सम्राट ने पाटलिपुत्र की तैयारी की। वृध्द अमात्य विधुसेन की प्रार्थना पर सम्राट ने रोहिताश्वगढ़ की रक्षा का भार सैन्यभीति को प्रदान किया। विधुसेन और धानसुख के हाथ में दुर्ग सौंपकर वीरेन्द्रसिंह और सैन्यभीति सम्राट के साथ पाटलिपुत्र गए।

हर्ष की चढ़ाई का संवाद पाते ही सम्राट की आज्ञा का आसरा न देख सेनापति हरिगुप्त सेना सहित पश्चिम की ओर चल पड़े। राजधानी में लौटकर शशांक चरणाद्रि की तैयारी करने लगे। इधर महाधार्म्माधिकार नारायणशर्म्मा चाहते थे कि सम्राट राजधानी न छोड़ें। उधार माधववर्म्मा, अनन्तवर्म्मा और वीरेन्द्रसिंह युध्द में योग देने के लिए अधीर हो रहे थे। शशांक बड़े असमंजस में पड़े। इधर जब से शशांक रोहिताश्वगढ़ से आए हैं तब से शक्तिहीन से हो रहे हैं। वे सदा अनमने से रहते हैं, उनका जी ठिकाने नहीं रहता। प्रत्येक बात का उत्तर वे कुछ चौंककर देते हैं। सम्राट की यह अवस्था देख माधववर्म्मा और अनन्तवर्म्मा अत्यन्त विस्मित हुए। थानेश्वर की सेना एक बार हार चुकी थी सही पर हर्षवर्ध्दन का प्रभाव आर्यवत्ता में बहुत कुछ था। प्राचीन गुप्तवंश का गौरव फिर से स्थापित करने के लिए हर्षवर्ध्दन का प्रभाव नष्ट करना अत्यन्त आवश्यक है। इस बात को छोटे से बड़े तक सब जानते थे। नए सम्राट के नेतृत्व में कई बार विजय प्राप्त करके मागधा सेना उमंग में भरी किसी नए अवसर का आसरा देख रही थी। पाटलिपुत्र के क्षुद्र से क्षुद्र मनुष्य को यह निश्चय हो गया था कि समुद्रगुप्त के वंशधार समुद्रगुप्त के साम्राज्य पर फिर अधिकार करेंगे। जय और पराजय, सिध्दि और असिध्दि के इस सन्धिस्थल पर नए सम्राट कोर् कत्ताव्यविमूढ़ देख गुप्तराजवंश के जितने हितैषी थे सब भाग्य को दोष देने लगे।

अदृष्ट चक्र किधार से किधार घूमेगा यह उस चक्रधार के अतिरिक्त और कोई नहीं कह सकता। जिस समय गुप्तसाम्राज्य के सेनानायक नवीन रणक्षेत्रा के लिए अधीर हो रहे थे उस समय प्राचीन गुप्तसाम्राज्य का भाग्यचक्र दूसरी ओर मुड़ रहा था। बार बार के आघात से नए सम्राट का हृदय यदि जर्जर न हो गया होता, तरुणावस्था में ही चोट पर चोट खाते खाते शशांक का हृदय यदि दुर्बल न हो गया होता तो सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द का इतिहास और ही प्रकार से लिखा जाता। बहुत सम्भव था कि लाख विघ्न बाधाओं के रहते भी शशांक नरेन्द्रगुप्त अपने पूर्वपुरुषों का सब अधिकार फिर प्राप्त कर लेते। पर भावी प्रबल है, भीषण से भीषण पुरुषार्थ उसे नहीं हटा सकता। इस विषय में दार्शनिक पण्डितों के बीच चाहे मतभेद हो, पर अदृष्टवादियों के निकट तो यह धा्रुव सत्य है।

जिस समय नए सम्राट थानेश्वर के साथ युध्द करने की तैयारी कर रहे थे वृध्द धार्म्माधिकार सम्राट से राजधानी में ही रहने के लिए बार बार अनुरोधा कर रहे थे और युध्द व्यवसायी चटपट रणक्षेत्रा में उतरने का परामर्श दे रहे थे उसी समय पूर्णिमा के पूर्ण शशांक को ढाँकने के लिए, गुप्तसाम्राज्य की फिर से बढ़ती हुई कीर्तिकला को दृष्टि से ओझल करने के लिए, उत्तर पूर्व के कोने पर से एक काला मेघ उठता दिखाई पड़ा।

भगदत्तावंशीय कामरूप के राजा गुप्तवंश के सम्राटों के पुराने शत्रु थे। लौहित्या के किनारे कामरूपराज सुस्थितवर्म्मा महासेनगुप्त के हाथ से पराजित हो चुके थे। महावीर यज्ञवर्म्मा ने परशु का आघात अपने ऊपर लेकर सम्राट की जीवन रक्षा की थी। शंकरनद के तट पर विलक्षण संयोग से कुमार भास्करवर्म्मा शशांक नरेन्द्रगुप्त द्वारा हराए जा चुके थे। उस समय जो सन्धि हुई थी उसका पालन अब तक होता आया था। राज्यवर्ध्दन के मरने पर जब हर्षवर्ध्दन भाई की हत्या का बदला लेने और आर्यवत्ता से शशांक का अधिकार लुप्त करने निकले तब कामरूपवालों ने भी अच्छा अवसर देख युध्दघोषणा कर दी। पाटलिपुत्र में बैठे बैठे शशांक ने सुना कि कामरूप की सेना शंकरनद पार करके बंगदेश की ओर बढ़ी आ रही है। कामरूप के राजाओं के इस आचरण का संवाद पाकर तरुण सम्राट का मोह कुछ दूर हुआ। सोता हुआ सिंह जाग पड़ा। शशांक की नींद टूटी। सिर पर विपत्ति देखते ही उनका शैथिल्य हट गया। उन्होंने स्थिर किया कि वीरेन्द्रसिंह और माधववर्म्मा भास्करवर्म्मा के विरुध्द बंगदेश की ओर जायँ और वे आप अनन्तवर्म्मा को साथ लेकर कान्यकुब्ज की ओर यात्रा करें। पुराने नौवलाधयक्ष रामगुप्त और महाधार्म्माधिकार नारायणशर्म्मा पाटलिपुत्र में रह कर मगध की रक्षा करें।

यात्रा करने के पूर्व एक दिन सम्राट चित्रादेवी की फुलवारी में बैठे कान्यकुब्ज और प्रतिष्ठान दुर्ग से आए हुए दूतों के मुँह से युध्द का वृत्तान्त सुन रहे थे। लम्बा भाला लिए अनन्तवर्म्मा उनके पीछे खड़े थे। कान्यकुब्ज का दूत दुर्ग के भीतर घिरे हुए वसुमित्र की दुर्दशा का ब्योरा सुना रहा था। दूत कह रहा था “महाराजाधिराज ! थानेश्वर की असंख्य सेना आकर नगर को घेरे हुए है। महानायक वसुमित्र सेना सहित दुर्ग के भीतर घिरे हुए हैं। दुर्ग में यद्यपि खानेपीने की सामग्री कम नहीं है पर यदि साम्राज्य की सेना चटपट महानायक की सहायता के लिए न पहुँचेगी तो दुर्गरक्षा किसी प्रकार नहीं हो सकती। कान्यकुब्जवाले बड़े विश्वासघाती हैं। वे धान के लोभ से चुपचाप दुर्ग का फाटक खोल दें तो आश्चर्य नहीं। अब तक तो खुल्लमखुल्ला उन्होंने कोई विरुध्द आचरण नहीं किया है, पर विद्रोह होने पर नगर की रक्षा असम्भव हो जायगी। नित्य थानेश्वर से नई नई सेना आकर दुर्ग पर धावा बोलती है। महानायक की सेना तो छीजती जा रही है पर शत्रु की सेना घटती नहीं दिखाई देती”।

शशांक-विद्याधारनन्दी कहाँ हैं?

दूत-वे भी प्रतिष्ठान दुर्ग में घिरे हुए हैं।

शशांक-हरिगुप्त कहाँ तक पहुँचे हैं?

अनन्त-प्रभो! उनकी अश्वारोही सेना चरणाद्रि के आगे निकल गई है।

शशांक-अनन्त! चलो हम लोग भी कल ही यात्रा कर दें। माधव और वीरेन्द्र यदि भास्करवर्म्मा को पराजित न कर सकेंगे तो भी उन्हें बढ़ने न देंगे। यदि इस समय हमलोग चलकर हर्षवर्ध्दन के पैर न उखाड़ेंगे तो साम्राज्य का मंगल नहीं है।

अनन्त-प्रभो! मुझे जो आज्ञा मिले तो मैं इसी क्षण चलने के लिए प्रस्तुत हूँ। सैन्यभीति भी तैयार हैं।

शशांक-रोहिताश्वगढ़ की सेना तो बंगदेश की ओर जायगी।

अनन्त-वे महाराज ही के साथ रहना चाहते हैं।

शशांक-अच्छी बात है। क्यों दूत! विद्याधारनन्दी प्रतिष्ठान दुर्ग में कैसे घिर गए?

दूत-महाराजाधिराज ! बौध्दाचाय्र्यों के भड़काने से सारे मधयदेशवासी विद्रोही हो गए हैं। बौध्दाचाय्र्यों ने घूम घूम कर उपदेश दिया है कि राजा बौध्द नहीं है इससे सधर्म्मियों को उसकी आज्ञा में रहना उचित नहीं।

यह बातचीत हो ही रही थी कि फुलवारी के पीछे के पेड़ों के बीच से एक आदमी दौड़ा दौड़ा आया और उसने सम्राट पर एक बरछा छोड़ा। चट दूसरे पेड़ की ओट से महाप्रतीहार विनयसेन निकलकर सम्राट के आगे खड़े हो गए। देखतेदेखते बरछा महाप्रतीहार की छाती को पार कर गया। विनयसेन का शरीर सम्राट के पैरों के नीचे धाड़ाम से गिर पड़ा। अनन्तवर्म्मा दौड़कर उस आततायी का सिर उड़ाना ही चाहते थे कि सम्राट उन्हें रोक कर विनयसेन का घाव देखने लगे। शशांक ने देखा कि बरछा वृध्द महाप्रतीहार के हृदय को चीरता हुआ पार हो गया है, पर वे अभी मरे नहीं हैं। थोड़ी देर में वृध्द महाप्रतीहार ने ऑंखें खोलीं। यह देख शशांक ने पुकारा “विनय!” क्षीण स्वर में उत्तर मिला “महाराज”।

“यह क्या किया?”

“महाराज! पानी”।

अनन्तवर्म्मा ने जल लाकर महाप्रतीहार के मुँह में डाला। वृध्द कुछ स्वस्थ होकर बोला “महाराज!-बौध्द चक्रान्त-भीषण षडयन्त्र-दो महीने से-ये सब-आपकी-हत्या करने की-चेष्टा में थे-जल-मेरे मारे-कुछ कर नहीं-पाते थे-यह बुध्दश्री है-जल”।

अनन्तवर्म्मा ने मुँह में फिर थोड़ा जल दिया। विनयसेन की छाती के घाव से रक्त की धारा छूट चली-धारती गीली हो गई। धीरे धीरे वृध्द की चेष्टा मन्द होने लगी-देह पीली पड़ चली। बड़े कष्ट से ये शब्द निकले “महाराज, शशांक-अब भी-कड़ी आशंका है-तुरन्त-पाटलिपुत्र-परित्याग सब-बौध्द-शशा...”। वाक्य पूरा होने के पहले ही वृध्द ने मुँह से रक्त फेंका। प्राण निकल गया, सिर सम्राट के पैरों पर पड़ा रहा। शशांक की ऑंखों से ऑंसू की धारा बह रही थी। उनका गला भर आया था, उनके मुँह से इतना भर निकला अनन्त!-आज ही”।

“क्या महाराज?”

“आज ही-पाटलिपुत्र परित्याग...”।

“क्यों प्रभो?”

“अनन्त! चित्रा, पिता, लल्ल, वृध्द महानायक, अन्त में ये विनयसेन भी । आज ही मैं पाटलिपुत्र छोड़ता हूँ। रामगुप्त से कह आओ कि एक पक्ष के भीतर नगरवासी पाटलिपुत्र छोड़ दें। गीदड़, कुत्तों और चील कौवो को छोड़ पाटलिपुत्र में और कोई न रह जाय। मैं इसी क्षण पाटलिपुत्र छोड़ता हूँ। जो अपने को मेरी प्रजा समझता हो वह भी चटपट छोड़ दे। मैं शाप देता हूँ कि जो कोई यहाँ रहेगा उसका निर्वंश होगा, उसके कुल में कोई न रह जायगा, उसका मांस चील कौवे खायँगे। बुध्दश्री को आग में जलाओ”।

उसी क्षण तरुण सम्राट नंगे पैर नगर के बाहर हुए। एक पक्ष के भीतर प्राचीन पाटलिपुत्र नगर उजाड़ हो गया। कई सौ वर्ष तक शशांक के शाप के भय से कोई पाटलिपुत्र में न बसा।