शशांक / खंड 3 / भाग-12 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल
प्रत्याख्यान
सम्राट को रोहिताश्वगढ़ आए आज बारह दिन हो गए। सन्धया का समय है। गढ़ के अन्त:पुर के प्रासाद के एक छज्जे पर लतिका, तरला और मालती बैठी हैं। मालती अब दोनों के साथ अच्छी तरह हिल मिल गई है। लतिका तो उसकी न जाने कब की पुरानी सखी जान पड़ती है। छज्जे पर बैठी तीनों युवतियाँ सोनपार के नीले पहाड़ों को देख रही हैं। लतिका बोली “क्यों बहिन मालती! तुम्हारे भाई तो बड़े भारी अश्वारोही योध्दा हैं। उनके साथ साथ तुम कैसे इन पहाड़ों को लाँघती हुई आई हो?”
“मैं भी घोड़े पर अपने भाई के साथ साथ बराबर आई हूँ”।
“क्या इसी तरह काछा काछे हुए स्त्री के वेश में?”
“नहीं”।
“तुमने पुरुष का वेश क्यों धाारण किया?”
“एक युवती को साथ लेकर चलने में भैया को बाधा होती, एक कारण तो यह था और दूसरा...”।
“और दूसरा?”
मालती कुछ लज्जित सी हो गई। उसके मुँह से जो वह कहने जाती थी सहसा न निकल सका। यह देख लतिका बोली “देखो बहिन! मुझसे भी छिपाव रखती
हो?”
“नहीं बहिन तुमसे क्या छिपाना है? बात यह थी कि मैं सम्राट शशांक को देखना चाहती थी”।
लतिका और तरला ठठा कर हँस पड़ीं। तरला बोली “तो इसमें संकोच की क्या बात है? अच्छा, यह बताओ कि तुमने सम्राट को जी भर कर देखा कि नहीं। न देखा हो तो मैं जाकर उन्हें यहाँ बुलाए लाती हूँ”। यह कह कर वह चल पड़ी। मालती ने उसे दौड़ कर जा पकड़ा और अपनी ओर खींचने लगी। लतिका ने कहा “तरला! तू सबको इसी प्रकार सताया करती है”। तरला ने कहा “घबराओ न, मैं सैन्यभीति को भी अपने साथ लिए आती हूँ”। इस बात पर न जाने क्यों लतिका लजा गई और तरला को मारने दौड़ी। इसी धामाचौकड़ी के बीच एक परिचारिका ने आकर तरला से कहा “आपको गढ़पति बुला रहे हैं”।
परिचारिका के साथ तरला धीरे धीरे वृद्धमहानायक की कोठरी में गई। यशोधावल आज कुछ अच्छे दिखाई देते हैं। कोठरी में और कोई नहीं है। तरला उनके पास जा खड़ी हुई। वृद्धमहानायक कहने लगे “तरला! जबसे मैंने समरभीति के पुत्र को देखा है मेरे हृदय पर का एक बोझ सा हटा जान पड़ता है। स्वर्गीय समरभीति का वंश प्रतिष्ठा मंक धावल वंश के तुल्य है। वे मेरे बड़े सच्चे सुहृद थे। जब से मैंने उनका नाम सुना है उनकी वीर मूर्ति मेरी ऑंखों के सामने नाच रही है। थानेश्वर वालों का बढ़ता हुआ प्रभाव उन्हें असह्य हो गया। मगध साम्राज्य की दुर्दशा वे न देख सके। उन्होंने सोचा कि चालुक्यराज द्वारा ही अन्याय से बढ़ते हुए थानेश्वर का गर्व दूर हो सकता है। हाँ! अपना मनोरथ वे लिए ही चले गए”। वृद्धकी ऑंखें डबडबा आईं, बोलते बोलते वे शिथिल हो पड़े। थोड़ी देर में वे फिर कहने लगे “मगध साम्राज्य को क्रमश: थानेश्वर की अधीनता में जाते देखना उन्होंने पाप समझा। जाते समय वे अपना हृदय अपने पुत्र को दे गए। तरला! जो प्रतिज्ञा लेकर मैं अपनी लतिका को किसी वीर को देना चाहता था उसी प्रतिज्ञा से बद्धमेरे परम सुहृद के पुत्र को अन्तिम समय में लाकर भगवान् ने मेरे सामने खड़ा कर दिया। उसकी महिमा अपार है। मेरे रहते यदि बात पक्की हो जाती तो मैं लतिका और रोहिताश्वगढ़ दोनों चिन्ताओं से छूट जाता”।
तरला-प्रभो! आप निश्चिन्त रहें। यह बात आपके सामने ही हो जायगी।
यशोधावल -एक बात का बड़ा भारी खटका और है। यदि सम्राट ने विवाह न किया तो फिर गुप्तवंश का क्या होगा?
तरला-प्रभो! इसकी चेष्टा भी मैं करती हूँ।
यशो -अभी इसकी चेष्टा क्या करोगी? पहले सम्राट के योग्य कन्या भी तो कहीं मिले।
तरला-कन्या तो मिली हुई है!
यशो -कन्या मिली हुई है?
तरला-हाँ! वह यहीं है। सैन्यभीति की बहिन, मालती।
वृद्धमहानायक का चेहरा खिल उठा। वे बोल उठे “हाँ, हाँ! बहुत ठीक! रूप और गुण में तो अद्वितीय है”।
तरला-सम्राट पर उसका अनुराग भी वैसा ही अद्वितीय है। पर सम्राट के चित्ता की जो अवस्था है वह बेढब है। उनका मन फेरना सहज नहीं है। फिर भी मैं भरसक कोई बात उठा न रखूँगी।
यशो -हाँ, तरला! ये दोनों काम हो जाते तो मैं आनन्द से अपना जीवन समाप्त करता।
तरला वृद्धका आशीर्वाद ग्रहण करके बाहर निकली।
दो पहर रात बीत गई है। कृष्णपक्ष का टेढ़ा चन्द्रमा निकल कर पर्वतमालाओं पर धुँधली आभा डाल रहा है। सम्राट शशांक गढ़ के परकोटे पर अकेले टहल रहे हैं। वे खा पीकर सोने गए थे, पर उन्हें नींद न आई। वे शयनागार से निकल कर चाँदनी के प्रकाश में उज्ज्वल परकोटे पर इधर उधर टहलने लगे। उस समय रोहिताश्वगढ़ के भीतर सब लोग सो रहे थे। फाटक को छोड़ और स्थान के दीपक बुझ गए थे। सम्राट जब से रोहिताश्वगढ़ में आकर ठहरे हैं तब से आसपास के पहाड़ी, गाँवों में नित्य उत्सव होता है। किसी किसी गाँव से गाने बजाने के शब्द बीच बीच में आ जाता है। सम्राट को शयनागार से निकलते देख एक शरीररक्षी उनके पीछे पीछे चला, पर सम्राट के निषेधा करने पर वह दुर्गप्राकार के नीचे अंधेरे में खड़ा रहा।
शशांक परकोटे पर से ही तोरण की ओर बढ़ने लगे। सहसा किसी के पैर की आहट सुनकर वे खड़े हो गए। उन्होंने देखा कि कुछ दूर पर उज्ज्वल चाँदनी में श्वेत वस्त्र धारण किए एक स्त्री खड़ी है। सम्राट ठिठक कर खड़े हो गए। चट उनका हाथ तलवार की मूठ पर जा पड़ा। उस समय बौध्दसंघ किसी न किसी उपाय से सम्राट की हत्या करने के घात में रहता था। इसी से सम्राट का हाथ तलवार पर गया। उन्होंने धीरे से पूछा “कौन है?” उत्तर मिला “मैं हूँ तरला”। शशांक ने हँसकर तलवार की मूठ पर से हाथ हटा लिया और पूछा “तरला! इतनी रात को कहाँ?”
“महाराज यदि अभयदान दें तो कहूँ”।
“बेधाड़क कहो”।
“महाराज! अभिसार को निकली हूँ”।
“मार डाला! क्या वीरेन्द्रसिंह से जी भर गया?”
“वे तो अब बुङ्ढे हो गए। जैसा समय आया है उसके अनुसार और न सही तो परोपकार के लिए ही दो एक रसिक नागर अपने हाथ रहें तो अच्छा है”।
“तरले! बातों में मैं तुम से पार पा जाऊँ ऐसा वीर मैं नहीं हूँ। तुम्हारी बात कुछ समझ में न आई”।
“महाराज! जिन्हें भूख तो है पर लज्जा के मारे शिकार नहीं कर सकते ऐसों के लिए ही मुझे कभी कभी बाहर निकलना पड़ता है”।
“तुमने जिसका शिकार किया है क्या वह कुछ नहीं बोलता?”
“महाराज! उसकी कुछ न पूछिए”।
“बताओ तो किस पर लक्ष्य करके निकली हो?”
“आप पर?”
“मुझ पर?”
“हाँ महाराज!”
“यह कैसी बात, तरला?”
“महाराज...”।
“तरले! जान पड़ता है तुम कुछ भूलती हो”।
“नहीं महाराज! मैं भूलती नहीं हूँ”।
“तो फिर तुम क्या कहती हो?”
“मैं यही कहती हूँ कि कोई आपके ऊपर मर रहा है”।
“मेरे ऊपर? तरला, तुम क्या सब बातें भूल गईं?”
“नहीं महाराज!”
“तो फिर?”
“क्या कहूँ, महाराज! कौन किस पर क्यों मरता है, कौन कह सकता है?”
“उसे क्या सम्भव असम्भव का भी विचार नहीं होता?”
“महाराज! कहते लज्जा आती है, मन्मथ के राज्य में सम्भव असम्भव का विचार नहीं है। और फिर हमलोगों की-जो आपके अन्न से पल रहे हैं-सदा सर्वदा यही इच्छा रहेगी कि राजभवन में पट्टमहादेवी आएँ और हमलोग उनकी सेवा करके जन्म सफल करें”।
“अब असम्भव है, तरला!”
“महाराज! तो क्या...”।
“तो क्या, तरला?”
“तो क्या महाराज अपना जीवन इसी प्रकार बिताएँगे? आपके जीवन का अभी एक प्रकार से सारा अंश पड़ा हुआ है”।
“तरला! मैंने यही स्थिर किया है”।
“महाराज! फिर साम्राज्य का उत्ताराधिकारी...?”
“क्यों, माधव का पुत्र?”
“हार गई, महाराज! पर अबला की प्राणरक्षा कीजिए”।
“वह है कौन, तरला?”
“जब किसी प्रकार की आशा ही नहीं तब फिर और बातचीत क्या? महाराज एक बार उससे मिल ही लें”।
“वह कहाँ है?”
“यहीं है”।
“यहीं है? इसी रोहिताश्वगढ़ में?”
“हाँ महाराज! इसी गढ़ के परकोटे की छाया में”।
तरला आगे आगे चली। शशांक को एक स्वप्न सा जान पड़ा। वे उसके पीछेपीछे चले। दुर्ग के प्राकार की छाया में एक और रमणी खड़ी थी। सम्राट को अपनी ओर आते देख उसने सिर का वस्त्र कुछ नीचा कर लिया। सम्राट ने पास जाकर देखा कि सैन्यभीति की बहिन मालती है!
तरला ने मालती के कान में न जाने क्या कहा। फिर सम्राट की ओर फिर कर वह बोली “महाराज! आपने जो कहा मैंने मालती से कह दिया, फिर भी ये आपसे कुछ कहना चाहती हैं। मैं हट जाती हूँ”। तरला इतना कह कर दूर चली गई। शशांक ने पूछा “मालती! तुम्हें मुझसे क्या कहना है?”
मालती चुप।
“क्या कहती हो, कहो”।
कुछ उत्तर नहीं।
“तुम्हें कहने में संकोच होता है, तरला को बुलाऊँ?”
बहुत अस्फुट स्वर में धीरे से उत्तर मिला “नहीं, प्रभो!”
“मुझसे क्या कहने आई हो?”
कोई उत्तर नहीं।
“मालती! मैंने सुना है कि तुम मुझे चाहती हो।”
मालती से फिर भी कोई उत्तर न बन पड़ा।
“तुमने तरला से तो सब सुना ही होगा। फिर जानबूझकर ऐसा क्यों करती हो? तुम परम प्रतिष्ठित भीतिवंश की कन्या हो। तुम्हारी सी सर्वगुणसम्पन्ना अनुपम रूपवती को पाकर मैं अपने को परम भाग्यवान् समझता। पर मेरे भाग्य में नहीं है”। शशांक ने ठण्डी साँस लेकर फिर कहा “तुम अभी एक प्रकार से अनजान हो, यदि भूल से इस बखेड़े में पड़ गई हो तो अब से जाने दो। सैन्यभीति तुम्हारे लिए उत्ताम वर ढूँढ़कर तुम्हारा विवाह करेंगे”।
मालती सिर नीचा किए हुए धीरे से बोली “असम्भव महाराज!” चौंककर सम्राट ने पूछा “क्या कहा?”
“असम्भव”।
“सुनो, मालती! मेरे लिए चित्रा ने प्राण दे दिया-मैं इस जीवन में उसे नहीं भूल सकता। मेरा शेष जीवन अब उसी पाप के प्रायश्चित्ता में बीतेगा। मैं तुम्हें किस प्रकार अपने जीवन का साथी बना सकता हूँ?”
अकस्मात् सिर का वस्त्र हट गया। उज्ज्वल चाँदनी चन्द्रमुख पर पड़ी। सम्राट ने देखा कि मालती धयान में मग्न है। बहुत देर पीछे उसने धीरे धीरे कहा-
“महाराज! बाल्यावस्था से ही समुद्रगुप्त के वंशधार की कीर्ति इन कानों में पड़ती आ रही है। जिस मूर्ति की अव्यक्त भावना से सारा जगत् सौन्दर्य्यमय दिखाई पड़ता था उसका साक्षात् दर्शन प्रतिष्ठानपुर में हुआ। जिन पिंगल केशों की चर्चा दक्षिण में मैं सुनती आ रही थी उन्हें प्रतिष्ठानपुर में आकर देखा। महाराज! चपलता क्षमा हो, जो मेरे हृदय के प्रत्येक भाव के साथ मिला हुआ है, जो हृदयस्वरूप हो रहा है, उसका धयान इस जीवन में किस प्रकार हट सकता है?”
“मालती! मेरे हृदय में जो भयंकर ज्वाला है उसका अनुभव दूसरा नहीं कर सकता। मैं सदा उसी ज्वाला में जला करता हूँ। मैं कभी उसे भूल नहीं सकता। इसके लिए मुझे क्षमा करो। जो तुम कहती हो वह इस जन्म में नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता। तुम्हारे मन को मुझसे जो कष्ट पहुँचा उसके लिए क्षमा करो। मैं बड़ा भारी अभागा हूँ, मेरे जीवन में सुख नहीं है। बौध्दाचार्य्य शक्रसेन ने यह बात मुझसे बहुत पहले कही थी, पर उस समय मैंने कुछ धयान न दिया। जीवन मधुमय नहीं है, विषमय है। जो कुछ तुम्हारे हृदय में समा रहा है, उसे स्वप्नमात्र समझो, स्वप्न दूर करते क्या लगता है?”
“महाराज! वह स्वप्न अब प्रत्यक्ष हो गया है, अब किसी प्रकार हट नहीं सकता। मैं पट्टमहादेवी बनना नहीं चाहती, मुझे सिंहासन पर बैठने की आकांक्षा नहीं है, मैं महाराज के चरणों के नीचे रहकर सेवा में दिन बिताना चाहती हूँ”। यह कहकर वह शशांक के चरणों पर लोट गई। हृदय आवेग से व्याकुल होकर सारे आर्यवत्ता के चक्रवर्ती सम्राट शशांक नरेन्द्रगुप्त बैठ गए और अत्यन्त कातर स्वर से कहने लगे “मालती! क्षमा करो। मैं ज्वाला से मरा जाता हूँ-विषम यन्त्रणा है-चित्रा “।
सम्राट का गला भर आया। वे आगे और कुछ न कह सके। उनकी यह दशा देख मालती की ऑंखों से भी ऑंसुओं की धारा बहने लगी। उसने रोते रोते कहा “महाराज! आपकी दशा देख मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। जिस मूर्ति का मैं रात दिन धयान करती थी उसे इस अवस्था में देखूँगी संसार की इस विचित्रा गति का अनुमान मुझे न था। यदि इस लोक में कहीं चित्रादेवी होतीं तो मैं अपने प्राणों पर खेल उन्हें ढूँढ़ लाती और महाराज का प्रसन्न मुख देख कृतकृत्य होती। महाराज! मैं पट्टरानी होना नहीं चाहती। राजभवन में दासियाँ होंगी, उन्हीं में मेरी गिनती भी हो। बस, मुझे और कुछ न चाहिए। मेरा जीवन स्वप्नमय है। इतनी ही विनती है कि इस स्वप्न को भंग न कीजिए। मैं महाराज के साथ छाया के समान फिर कर इस स्वप्न को चलाए चलूँगी। कोई मुझे रोक नहीं सकता”।
“यह नहीं हो सकता। कभी नहीं, मालती! यह सब स्वप्न है-भूल जाओ-क्षमा करो”।
यह कहकर मगधोश्वर वहाँ से भाग खड़े हुए। उनके पिंगल केश पीछे लहरा उठे। जब तक वे दिखाई पड़ते रहे मालती एकटक उनकी ओर ताकती रही।