शशांक / खंड 3 / भाग-11 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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यशोधावलदेव मृत्युशय्या पर

संध्या होती आ रही है। सूरज देव पश्चिम की ओर विन्धयाचल की आड़ में छिपे जा रहे हैं। दूर पर पहाड़ की चोटियाँ और वृक्षों के सिरे अस्ताचलगामी सूर्य की तापरहित किरणों से सुनहरी आभा धारण किए हुए हैं। रोहिताश्वगिरि के सिरे पर एक लम्बा मेघखंड क्रमश: लाल होता जा रहा है। पर्वत के नीचे अब गहरा अंधेरा छा गया है। इसी समय गढ़ के पूरबी फाटक पर एक सैनिक बैठा मानो किसी की प्रतीक्षा कर रहा है।

इन कई वर्षों के बीच रोहिताश्वगढ़ की दशा एकदम पलट गई है। बूढ़े अमात्य विधुसेन और स्वर्णकार धानसुख के उद्योग से गिरे हुए परकोटे फिर ज्यों के त्यों खड़े हो गए हैं, खाईं में जल भरा हुआ है। जो दुर्ग कभी सुनसान पड़ा था वह सैनिकों से भर गया है। प्रत्येक फाटक पर सैनिक रक्षा पर नियत हैं। ऊपर ऊँचे दुर्ग पर बहुत से लोगों का शब्द सुनाई पड़ रहा है। गढ़पति का पुराना प्रासाद अब झाड़ जंगल से भरा नहीं है। कई दिन हुए रोहिताश्व के गढ़पति पीड़ित होकर पाटलिपुत्र से लौट आए हैं। महानायक की दशा अच्छी नहीं है, उनके बचने की आशा नहीं है। मरणकाल समीप जानकर ही वे अपनी जन्मभूमि को देखने की इच्छा से रोहिताश्वगढ़ आए हैं।

पाटलिपुत्र से सम्राट के पास दूत भेजा जा चुका है। महानायक समझ गए हैं कि अब मेरा अन्तिम समय निकट है। दूत से उन्होंने कह दिया था कि सम्राट यदि युद्धमें विजयी हो चुके हों तभी संवाद देना नहीं तो कुछ न कहना। मरने के पहिले वे चाहते थे कि रोहिताश्व दुर्ग और लतिका के सम्बन्धा में सम्राट से कुछ ठीक ठाक कर लेते। इसी से वे मन ही मन घबरा रहे थे। वीरेन्द्रसिंह विद्याधारनन्दी के साथ मधयदेश की ओर गए थे, पर महानायक की आज्ञा पाकर वे रोहिताश्व लौट आए हैं। सन्धया को वीरेन्द्रसिंह ही दुर्ग के फाटक पर बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं।

राज्यवर्ध्दन के मरने पर सम्राट को ज्यों ही यशोधावलदेव का समाचार मिला वे लौट पड़े। कान्यकुब्ज में वसुमित्र और प्रतिष्ठानपुर में विद्याधारनन्दी को छोड़कर वे चट घोड़े की पीठ पर मगध की ओर चल पड़े। थानेश्वर में राज्यवर्ध्दन की मृत्यु का संवाद पहुँचा। सिंहासन शून्य पड़ा रहा। अमात्यों और सेनापतियों ने बहुत दिनों तक हर्षवर्ध्दन को अभिषिक्त न किया। ऐसी दुरवस्था के समय में भी शशांक नरेन्द्रगुप्त ने थानेश्वर पर आक्रमण् न किया। अपने प्रदेशों की रक्षा का प्रबन्धा करके वे चट पितृतुल्य वृद्धमहानायक के अन्तिम दर्शन के लिए लौट पड़े। जिस दिन सन्धया के समय वीरेन्द्रसिंह फाटक पर प्रतीक्षा कर रहे थे उसी दिन सम्राट के रोहिताश्वगढ़ पहुँचने की बात थी। वे बीस दिन में दो सौ कोस चल कर उस दिन सोन के किनारे आ पहुँचे।

सन्धया हो गई और सम्राट न आए यह देखकर यशोधावलदेव ने वीरेन्द्रसिंह को बुलाया। वीरेन्द्रसिंह भवन में जाकर द्वार पर खड़े रहे। घर के भीतर यशोधावलदेव पलंग पर पड़े थे। उनके सिरहाने लतिका देवी और पैताने तरला बैठी थीं। महानायक अत्यन्त दुर्बल हो गए थे, अधिक बोलने की शक्ति उन्हें नहीं थी। जिस समय वीरेन्द्रसिंह कोठरी में आए उस समय उन्हें झपकी सी आ गई थी। थोड़ी देर में जब उनकी ऑंख खुली तब लतिका ने उनके कान में जोर से कहा “बाबा! वीरेन्द्र आए हैं”। महानायक ने करवट ली और बड़े धीरे स्वर में न जाने क्या कहा। दूर रहने के कारण वीरेन्द्रसिंह कुछ सुन न सके। यह देख लतिका ने कहा “बाबा पूछते हैं कि सम्राट आए या नहीं”।

“नहीं, अब तक तो नहीं आए हैं। मैं फाटक पर उनका आसरा देख रहाहूँ”।

यशोधावलदेव ने फिर न जाने क्या कहा। लतिका देवी ने कहा “जापिल ग्राम के मार्ग में सौ पंसाखेवाले भेजने के लिए कहते हैं”। वीरेन्द्रसिंह अभिवादन करके कोठरी के बाहर गए। थोड़ी देर में सौ आदमी हाथों में मशाल लिए जापिल के पत्थर जड़े हुए मार्ग पर थोड़ी थोड़ी दूर पर खड़े हुए। सन्धया हो गई। दुर्ग के ऊपर बड़ा भारी अलाव जलाया गया। पहाड़ की घाटी में गाँव गाँव में दीपमाला जगमगा उठी। जापिल गाँव के पत्थर जड़े पथ पर बहुत से घोड़ों की टापें सुनाई पड़ीं। पंसाखेवाले जल्दी जल्दी गढ़ के फाटक की ओर बढ़ने लगे। यह देख दुर्गरक्षी सेना फाटक पर और ऑंगन में श्रेणी बाँधाकर खड़ी हो गई। वीरेन्द्र सिंह यशोधावलदेव को सम्राट के आने का संवाद दे आए। थोड़ी ही देर में सम्राट ने गढ़ के भीतर प्रवेश किया।

वीरेन्द्र सिंह के मुँह से महानायक की अवस्था सुनकर शशांक तुरन्त उन्हें देखने चले। उन्हें देखते ही बुझता हुआ दीपक एक बार जगमगा उठा। मृत्युशय्या पर पड़े वृद्धमहानायक के शरीर में बल सा आ गया। सम्राट को देखकर वे उठकर बैठ गए। सम्राट उनके चरण छूकर सिरहाने बैठ गए। उनके साथ साथ एक अत्यन्त सुन्दर युवक भी सैनिक वेश में आया था। वह पीछे खड़ा हो गया। तरला और लतिका बार बार उसकी ओर ताकने लगीं। उसे उन्होंने शशांक के साथ और कभी नहीं देखा था।

सम्राट को सम्बोधान करके महानायक कहने लगे “पुत्र! तुम्हारी राह देखतेदेखते एक सप्ताह तक अपना प्राण रखता आया, पर अब अधिक दिन नहीं रह सकता। मैं अब चला। लतिका आपकी शरण में है। यदि हो सके तो इसका विवाह करके इसे रोहिताश्वगढ़ में बिठा दीजिएगा, और । वृद्धने तकिये के नीचे से एक जड़ाऊ कंगन निकाल कर कहा, “जब इसका विवाह हो तब यह कंगन इसे देना। यह कंगन इसकी दादी का उपहार है। कई पीढ़ियों से यह रोहिताश्वगढ़ की स्वामिनी के हाथ में रहता चला आया है। सुना जाता है कि जब महाराज चन्द्रगुप्त ने मथुरा से शकराज को भगाया था तब रोहिताश्व के प्रथम गढ़पति ने शकराज के हाथ से यह कंगन छीना था”। वृद्धहृदय के आवेग से आगे कुछ न कह सके और लेट गए। थोड़ी देर में गरम दूध पीकर वृद्धमहानायक फिर कहने लगे “पुत्र! अब मैं चारपाई से न उठूँगा। लतिका है, इसे देखना। यदि इसके वंश का लोप हो जाय तो रोहिताश्वगढ़ का अधिकार वीरेन्द्र सिंह को दे देना। इस गढ़ की रक्षा करनेवाला इस समय और कोई नहीं दिखाई देता। मैं तो आजकल में चला, तुम सावधान रहना। तुम्हें मैं निष्कण्टक करके न जा सका, यही बड़ा भारी दु:ख रह गया। बाहरी शत्रु का तो तुम्हें कोई भय नहीं है। यदि घर के भीतर या देश के भीतर कोई झगड़ा न हो तो बाहरी शत्रु तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकता। इस समय आर्यवत्ता में एक हर्षवर्ध्दन ही तुम्हारे शत्रु हैं। पर कामरूप के राजा को छोड़ और कोई तुम्हारे विरुद्धउनका पक्ष नहीं ग्रहण करेगा। राज्यवर्ध्दन तो मर गए, पर प्रभाकरवर्ध्दन के दूसरे पुत्र चुपचाप न रहेंगे। हर्षवर्ध्दन बदला लेने के लिए चढ़ाई करेंगे। उस समय तुम गौड़ और बंग की रक्षा का प्रबन्धा करना। यदि कभी किसी प्रकार की आपत्ति में पड़ना तो यह समझ लेना कि आर्यवत्ता में कोई सहायता करनेवाला नहीं है। उस समय दक्षिणापथ में जगद्विजयी चालुक्य राज मंगलेश के पास दूत भेजकर सहायता माँगना”।

बोलते बोलते वृद्धयशोधावलदेव को कुछ थकावट आ गई। वे ऑंख मूँद कर चुपचाप पड़े रहे। जब उन्होंने ऑंखें खोलीं तब उनकी दृष्टि कुमार के पीछे खड़े उस नए युवक पर पड़ी। उन्होंने सम्राट के मुँह की ओर देखा। शशांक समझ गए कि वृद्धमहानायक उस युवक का परिचय चाहते हैं। शशांक ने पूछा “आर्य! समरभीति का आपको कुछ स्मरण है?” वृद्धमहानायक चकित होकर बोले “समरभीति तो मेरे बड़े भारी सुहृद थे। उनके सहसा देश छोड़कर कहीं चले जाने से मेरा दाहिना हाथ टूट गया। उसी दिन से मैं और हारकर बैठ गया”। शशांक बोले “आर्य! उन्हीं के पुत्र सैन्यभीति आपके सामने खड़े हैं”। वृद्धमहानायक फिर उठ बैठे। युवक को अच्छी तरह देख वे बोले “हाँ! आकृति तो उन्हीं की सी है। भैया! पास आओ”। युवक ने वृद्धके चरणों पर मस्तक रख दिया। महानायक आशीर्वाद देकर बोले “क्या नाम बताया? सैन्यभीति। ठीक है, समरभीति के पुत्र सैन्यभीति”। वृद्धयुवक की पीठ पर हाथ फेरते फेरते बोले “पुत्र ये तुम्हें कहाँ मिले?”

“कान्यकुब्ज में जब मैं राज्यवर्ध्दन के आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहा था उसी समय ये मेरे पास आए। प्रतिष्ठानपुर के युद्धमें भी वाराणसीभुक्ति की सेना के साथ ये मिलकर लड़ते रहे, पर किसी को इनका परिचय न था। कान्यकुब्ज में जाकर इन्होंने अपने को प्रकट किया। साम्राज्य की दुरवस्था के समय इनके पिता समरभीति चालुक्यराज मंगलेश के यहाँ दक्षिण चले गए थे”।

यशोधावल-सैन्यभीति! तुम्हारे पिता अभी हैं?

सैन्य -आर्य! उन्हें मरे आज आठ वर्ष हुए। उस समय मेरी अवस्था पन्द्रह वर्ष की थी। मरते समय जो कुछ उन्होंने कहा वह अब तक मेरे कानों में गूँज रहा है। पुत्र! गुप्तवंश को न भूलना। मैं अपने स्वामी महासेनगुप्त को दुरवस्था में छोड़ चला आया। तुम इसका प्रायश्चित्ता करना। महासेनगुप्त के वंश में जो कोई हो उसकी सेवा में अपना जीवन उत्सर्ग कर देना। तभी मेरी आत्मा को शान्ति मिलेगी। थानेश्वर से मगध साम्राज्य को बड़ा भारी भय है। तुम सदा समुद्रगुप्त के वंशधार का साथ देना।

यशो -धान्य! समरभीति धान्य! बेटा सैन्यभीति, तुम दक्षिण से यहाँ अकेले आए हो या तुम्हारे साथ कोई और भी है?

सैन्य-एक आदमी और है।

यशो -तुम्हारी स्त्री होगी?

सैन्य-नहीं, मेरी बहिन है। मेरा तो विवाह ही नहीं हुआ है।

यशो -उसे किसके यहाँ छोड़ा है?

सैन्य -आर्य! वह यहीं है। आज्ञा हो तो ले आऊँ।

यशोधावलदेव के कहने पर सैन्यभीति बाहर गए और थोड़ी देर में एक अत्यन्त रूपवती युवती को साथ लिए आ खड़े हुए। उसका रूप लावण्य और दक्षिणी पहिनावा देख सब मोहित से हो गए। शशांक भी उसकी ओर बड़ी देर तक ताकते रह गए। सैन्यभीति बोले-

“आर्य जिस समय पिताजी महाराजाधिराज समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त के प्रताप और पराक्रम की कहानियाँ कहते थे हम दोनों भाई बहिन बड़े धयान से सुनते थे। उस समय हम दोनों के मन में यही होता कि किसी प्रकार समुद्रगुप्त के किसी वंशधार का दर्शन करते। कुछ दिनों में समुद्रगुप्त वंशधार श्रीशशांक नरेन्द्रगुप्त के बल और पराक्रम की बातें दक्षिण में पहुँचने लगीं। मुझसे वातापिपुर में न रहा गया। मैं चल खड़ा हुआ। मेरे साथ मेरी बहिन मालती भी हो ली। उसकी उत्कण्ठा से मेरी उत्कण्ठा भी कहीं अधिक बढ़ी हुई थी”।

यशोधावलदेव बोले “अच्छा, अब सब लोग जाकर विश्राम करो। मेरा जी अच्छा है। वीरेन्द्र! समरभीति के पुत्र को अपने साथ रखो, देखना किसी बात का कष्ट न हो। लतिका! तुम बेटी मालती को अपने साथ ले जाओ”। सब लोग कोठरी के बाहर हुए।