शशांक / खंड 3 / भाग-10 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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द्वन्द्व युद्ध

प्रतिष्ठानपुर में आने पर शशांक ने सुना कि पिता की मृत्यु का संवाद पाकर राज्यवर्ध्दन गान्धार से लौट आए हैं; देवगुप्त ने कान्यकुब्ज पर अधिकार कर लिया है; मौखरि राजपुत्र ग्रहवर्म्मा युद्धमें मारे गए; उनकी रानी, प्रभाकरवर्ध्दन की कन्या राज्यश्री, अपनी उद्दण्डता के कारण कारागार में हैं। देवगुप्त कान्यकुब्ज पर अधिकार करके थानेश्वर की ओर बढ़ रहे हैं। शशांक को यह भी समाचार मिला कि देवगुप्त कान्यकुब्ज से चलते समय अनुरोधा कर गए हैं कि सम्राट भी अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्रा में आ मिलें।

प्रतिष्ठानदुर्ग में ठहर कर शशांक नरसिंह की खोज करने लगे, पर इधर उधार बहुत ढूँढ़ने पर भी उनका कहीं पता न लगा इसी बीच में संवाद आया कि हिमालय की तराई में गंगा के किनारे हार खाकर देवगुप्त मालवे की ओर भागे और राज्यवर्ध्दन सम्राट पर आक्रमण करने के लिए बड़े वेग से बढ़े चले आ रहे हैं। शशांक प्रतिष्ठान दुर्ग छोड़कर कान्यकुब्ज की ओर बढ़े। कान्यकुब्ज पहुँचने पर सम्राट को संवाद मिला कि थानेश्वर की सेना अभी बहुत दूर है। सम्राट ने नगर और दुर्ग पर अधिकार करके कान्यकुब्ज नगर के पश्चिम गंगा के किनारे प्राचीन शूकरक्षेत्रा में पड़ाव डाला। ऐसा प्रसिद्धहै कि सत्ययुग में भगवान् का वाराह अवतार यहीं हुआ था।

शूकरक्षेत्रा बड़ा पुराना तीर्थ है। कुरुक्षेत्रा के समान इसकी गिनती भी पुराने रणक्षेत्र में है। बहुत काल से मधयदेश के राजाओं के भाग्य का निबटारा यहाँ होता आया है। ईसा की बारहवीं शताब्दी में जब आर्यवत्ता के राजाओं का सौभाग्य सब दिन के लिए अस्त हो रहा था तब इसी शूकरक्षेत्रा में महाराज जयचन्द ने मुहम्मद गोरी की सेना का सामना किया था।

शूकरक्षेत्र ही में शशांक को पता लगा कि राज्यवर्ध्दन मालवे की ओर बढ़ रहे हैं; देवगुप्त लड़ाई में मारे गए और राज्यवर्ध्दन की चढ़ाई अब कान्यकुब्ज ही पर है। शशांक देवगुप्त की मृत्यु का संवाद पाकर बहुत दु:खी हुए पर शूकरक्षेत्र उन्होंने नहीं छोड़ा। इसी बीच मगध से संवाद आया कि यशोधावलदेव चारपाई पर पड़े हैं और उनकी दशा अच्छी नहीं है, गौड़ और बंग की सेना लेकर विद्याधरनन्दी आ रहे हैं। दूत पर दूत आकर राज्यवर्ध्दन के बढ़ते चले आने का समाचार कहने लगे। जब वे मथुरा पहुँचे तब सम्राट शशांक ने उनके पास दूत भेजा। दूत अपमानित होकर लौट आया और कहने लगा “थानेश्वर के महाराज ने कहा है कि अब पाटलिपुत्र में ही चलकर शशांक से भेंट करेंगे”। अनन्तवर्म्मा और माधववर्म्मा ने यमुना के तट पर ही राज्यवर्ध्दन को रोकने का प्रस्ताव किया, पर शशांक सहमत न हुए। अन्त में राज्यवर्ध्दन अपनी सेना सहित शूकरक्षेत्र में आ पहुँचे। तब भी शशांक ने उनपर आक्रमण न किया। उन्होंने महाधार्माधयक्ष नारायणशर्म्मा को दूत बनाकर थानेश्वर के शिविर में भेजा। नारायणशर्म्मा स्वर्गीय महादेवी महासेनगुप्ता के श्राद्धके अवसर पर एक बार थानेश्वर हो आए थे और राज्यवर्ध्दन से परिचित थे। वे दोनों भाई महाधार्म्माधयक्ष पर बड़ी श्रध्दा रखते थे।

सम्राट ने नारायणशर्म्मा से कहला भेजा कि देवगुप्त ने बिना साम्राज्य की आज्ञा के ही कान्यकुब्ज पर आक्रमण किया था। महानायक नरसिंहदत्ता ने भी सम्राट की इच्छा के विरुद्धही प्रतिष्ठान दुर्ग पर आक्रमण और अधिकार किया है। थानेश्वर के सेनानायकों ने माधवगुप्त से मिलकर वाराणसीभुक्ति पर अधिकार जमाने का उद्योग किया इसी से नरसिंहदत्ता ने चढ़ाई की। स्थाण्वीश्वरराज मेरे सम्बन्धी हैं, उनके साथ लड़ाई करने की इच्छा मुझे नहीं है। आदित्यवर्ध्दन और प्रभाकरवर्ध्दन के समय में दोनों राज्यों के बीच जो मेल था उसे मैं बनाए रखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि थानेश्वरराज्य और मगधसाम्राज्य के बीच जो सीमा है वह सब दिन के लिए निर्दिष्ट हो जाय। इसके लिए मैं राज्यवर्ध्दन से मिलना चाहता हूँ। सीमा पर कई छोटेछोटे खण्ड राज्य हैं, जिनके कारण समय समय पर झगड़ा उठा करता है। सीमा यदि निर्दिष्ट हो जायगी तो फिर आगे चलकर किसी प्रकार के झगड़े की सम्भावना न रह जायगी। देवगुप्त ने कान्यकुब्ज पर जो सहसा आक्रमण किया था उसका प्रायश्चित्ता उनके जीवन के साथ हो गया। उसके लिए अब झगड़ा बढ़ाना मैं नहीं चाहता।

दो घड़ी में नारायणशर्म्मा ने लौटकर कहा “मेरा दौत्य व्यर्थ हुआ, राज्यवर्ध्दन ने बड़े उध्दत भाव से सम्राट का प्रस्ताव अस्वीकृत किया। पर राजमर्य्यादा की रक्षा के लिए दोनों शिविरों के बीच गंगा तट पर महाराजाधिराज से मिलना उन्होंने स्वीकार किया है”।

सन्धि असम्भव समझ शशांक युद्धके लिए प्रस्तुत होने लगे। नगर और दुर्ग पर आक्रमण करने की तैयारी उन्होंने की। विद्याधारनन्दी अभी बहुत दूर थे। दूसरे दिन दोपहर को दोनों शिविरों के बीच के क्षेत्रा में दोनों पक्षों के राजछत्रा स्थापित हुए। दोनों पक्षों की सेना युद्धके लिए खड़ी हुई। एक ही समय में शशांक और राज्यवर्ध्दन अपने अपने शिविर से निकले। शशांक के साथ माधव, अनन्त और पाँच शरीररक्षी थे। राज्यवर्ध्दन के साथ भी दो अमात्य और पाँच सैनिक थे।

दोनों ने अपने अपने छत्रा के नीचे खड़े होकर एक दूसरे को अभिवादन किया। उसके पीछे शशांक आगे बढ़कर बोले “महाराज! आप युद्धकरने पर दृढ़ हैं यह बात मैंने सुनी। इससे आपको अपने विचार से हटाना क्षात्राधार्म के विरुद्धहै। इस सम्बन्ध में केवल एक बात मुझे कहनी है जो दूत के द्वारा नहीं कहलाई जा सकती थी। राज्य के लिए आपके और मेरे बीच झगड़ा है। इसके लिए मनुष्यों के प्राण नाश से क्या लाभ? आप अस्त्रविद्या में पारंगत हैं मैंने भी अपना सारा जीवन युद्धमें ही बिताया है। दोनों शिविरों के बीच आप तलवार लेकर मुझसे युद्धकरें। यदि मैं युद्धमें हारूँगा तो सम्राट की पदवी छोड़ अपनी सेना सहित चला जाऊँगा।” यदि आप पराजित होंगे तो आपको अपना राज्य न छोड़ना होगा, केवल जमुना और चम्बल के पूर्व कभी पैर न रखने की प्रतिज्ञा करनी होगी। इससे भी यदि निबटारा न हो तो दोनों पक्षों की सेनाएँ लड़कर देख लें”।

शशांक की बात सुन कर राज्यवर्ध्दन सिर नीचा करके कुछ सोचने लगे, फिर अपने साथियों और अमात्यों से परामर्श करने लगे। अमात्यों की चेष्टा से प्रकट होता था कि वे राज्यवर्ध्दन को ऐसा करने से रोक रहे हैं। पर राज्यवर्ध्दन तरुण और उग्र स्वभाव के थे। उन्होंने उनकी बात न मानी। वे बोले “महाराज! आप क्षत्रिय होकर जब युद्धकी प्रार्थना कर रहे हैं तब आपकी इच्छा पूर्ण न करना मेरे लिए असम्भव है। आप समय और स्थान निश्चित करें”।

“कल प्रात:काल, सूर्योदय के पहले, गंगा के तट पर”।

“अस्त्रों में केवल तलवार रहे?”

“हाँ, ढाल किसी के पास न रहे”।

“साथ में कौन रहें?”

“मेरे साथ माधव और अनन्तवर्म्मा रहेंगे”।

'मेरे साथ भण्डी और ईश्वरगुप्त”।

दोनों एक दूसरे से विदा होकर अपने अपने शिविर में गए। लौटते समय अनन्तवर्म्मा ने कहा “महाराज! यह आपने क्या किया?”

“क्यों अनन्त?”

“कलियुग में कहीं कोई द्वन्द्वयुद्धकरता है?”

“हानि क्या है?”

“आप क्या कह रहे हैं मेरी समझ में नहीं आता”।

“इसमें न समझ में आने की कौन सी बात है?”

“प्रभो! यदि युद्धमें आप घायल हुए तो?”

“घायल छोड़ यदि मैं मारा भी जाऊँ तो इससे क्या?”

“सर्वनाश, महाराज! मगध देश फिर किसकी छत्राछाया के नीचे रहेगा?”

“अनन्त! सच पूछो तो मैं मरना चाहता हूँ। मृत्यु को बुलाने के लिए ही मैं अकेले राज्यवर्ध्दन के साथ युद्धकरने जा रहा हूँ”।

“आपको युद्धकरने का काम नहीं, चलिए पाटलिपुत्र लौट चलें। राज्यवर्ध्दन अपना कान्यकुब्ज और प्रतिष्ठान लें”।

“यह नहीं हो सकता, अनन्त! न जाने कौन ऐसा करने से रोक सा रहा है। राज्यवर्ध्दन यदि मुझे कायर ही समझकर सन्धि का प्रस्ताव मान लेते तो मैं बड़ी प्रसन्नता से उन्हें देश का अधिकार देकर लौट जाता। मेरे न स्त्री है, न लड़का बाला, राज्य से मुझे कोई प्रयोजन नहीं। माधव राज्य की रक्षा करने में असमर्थ है। वह कभी इतना बड़ा साम्राज्य नहीं सँभाल सकता”।

“तब फिर साम्राज्य को भी जाने दीजिए, माधवगुप्त को मगध का राज्य देकर आप वानप्रस्थ ले लें”।

“हँसी की बात नहीं है, अनन्त! कल मैं मरूँगा। मेरे मर जाने पर तुम लोग देश में जाकर माधवगुप्त को सिंहासन पर बिठा देना”।

“अच्छी बात है, तो फिर जैसे उस बार बंगदेश से हमलोग लौटे थे उसी प्रकार इस बार भी लौटेंगे”।

“देखो, अनन्त! जब मैं मरने लगूँ तब मरते समय...”

“हृदय पर उसका नाम लिख देंगे”।

“ठट्ठा न करो, उस समय नरसिंह को बुला देना”।

“उन्हें कहाँ पाऊँगा?”

“अनन्त! वे कहीं दूर नहीं हैं। मेरे सामने नहीं होना चाहते इसी से कहीं इधर उधार छिपे हैं”।

“आप निश्चय समझें कि आपके पीछे नरसिंह को बुलाने के लिए यज्ञवर्म्मा का पुत्र बचा न रहेगा”।

दूसरे दिन सूर्य्योदय के पहले भागीरथी के तट पर शशांक, अनन्त और माधववर्म्मा और दूसरे पक्ष में राज्यवर्ध्दन, भंडी और ईश्वरगुप्त इकट्ठे हुए। केवल हाथ में तलवार लेकर शशांक और राज्यवर्ध्दन द्वन्द्वयुद्धमें प्रवृत्ता हुए। शशांक तलवार से केवल अपना बचाव कर रहे थे। उनकी तलवार एक बार भी राज्यवर्ध्दन की तलवार पर न पड़ी। देखते देखते शशांक को कई जगह चोट आई, उनका श्वेत वस्त्र रक्त से रँग गया। फिर भी उन्होंने राज्यवर्ध्दन के शरीर पर वार न किया। सहसा उनकी तलवार राज्यवर्ध्दन की तलवार को हटा कर उनके गले पर जा पड़ी। झटके के कारण शशांक गिर पड़े। उनके साथ ही राज्यवर्ध्दन का धाड़ भी धूल पर लोट गया।

राज्यवर्ध्दन की मृत्यु सुनकर थानेश्वर की सारी सेना शिविर छोड़ कर भाग खड़ी हुई। भण्डी संवाद लेकर थानेश्वर गए। शशांक आगे न बढ़कर कान्यकुब्ज लौट आए।