शशांक / खंड 3 / भाग-9 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रतिष्ठान का युद्ध

जिस स्थान पर कालिन्दी का श्यामल जल भागीरथी के मटमैले जल के साथ मिलता था-जहाँ गंगा और यमुना का संगम था-वहीं पर प्राचीन काल में प्रतिष्ठान का दुर्ग स्थित था। अब भी गंगा के किनारे प्रतिष्ठान के पुराने दुर्ग1 का भारी ढूह दिखाई पड़ता है। यह दुर्ग अत्यन्त प्राचीन था-न जाने कब से यह पुराना दुर्ग अन्तर्वेत की रक्षा का एक प्रधान अड्डा गिना जाता था। प्राचीन गुप्त राजवंश के समय में भी प्रतिष्ठान दुर्ग आर्यवत्ता के प्रधान दुर्गों में से था।

चौदह शताब्दी पूर्व अगहन के महीने में एक सेना दल प्रतिष्ठान दुर्ग को घेर रहा था। दुर्ग के तीन ओर दूर तक डेरे पड़े हुए थे। उनके बीच जो सबसे बड़ा डेरा था उसके ऊपर सोने का गरुड़धवज निकलते हुए सूरज की किरनों से अग्नि के समान दमक रहा था। उस सबसे बड़े शिविर के सामने काठ की एक चौकी पर एक युवा पुरुष बैठा है। उसके सामने सैनिकों से घिरे हुए दो और युवक खड़े हैं। पड़ाव के चारों ओर सेना दुर्ग के आक्रमण् की तैयारी कर रही है। पहला युवक कह रहा है “माधव! तुम महासेनगुप्त के पुत्र और दामोदर गुप्त के पौत्र हो; तुमने प्रभाकरवर्ध्दन की अधीनता कैसे स्वीकार की समझ में नहीं आता। यदि तुमसे भूल हुई तो कोई बात नहीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। शशांक का हृदय बहुत उदार है, तुम्हें किसी बात का भय नहीं। माधव! शशांक आ रहे हैं, मैं उनके सामने नहीं होना चाहता। इससे आज ही या तो प्रतिष्ठान दुर्ग पर अधिकार करूँगा अथवा सन्धया होते होते तनुदत्ता और तक्षदत्ता के वंश का लोप करूँगा। तुम समुद्रगुप्त के वंशधार हो, सारा वैर विरोधा भूलकर यह गरुड़धवज हाथ में लो और आगे बढ़ो। सन्ध्या के पहले ही दुर्ग पर चन्द्रकेतु के स्थान पर अपना गरुड़धवज स्थापित करो। यदि ऐसा करोगे तो मगधवासी तुम्हारा सारा अपराध भूल जायँगे”।

रक्षकों से घिरे हुए युवक ने जब कोई उत्तर न दिया तब पहला युवक फिर कड़ककर बोला “माधव! अभी तुम्हारा भ्रम दूर नहीं हुआ। अच्छी बात है, तुम शिविर में बन्दी रहो, मैं ही जाकर प्रतिष्ठान दुर्ग पर अधिकार करता हूँ”। सेनादल दोनों युवकों को बन्दी करके अन्यत्रा ले गया। पहले युवक ने आसन से उठकर एक परिचारक से वर्म्म लाने के लिए कहा। वर्म्म लाया गया। उसे धारण करते करते उसने कहा “नायकों को यहाँ बुलाओ”। इतने में एक सैनिक ने आकर निवेदन किया कि चरणाद्रिगढ़ से कुछ संवाद लेकर एक अश्वारोही आया है। युवक शिरस्त्राण को हाथ में लिए हुए बोला “उसे यहीं ले आओ”। सैनिक जाकर एक और वर्म्मावृत्ता योध्दा को साथ लिए आया। उस योध्दा ने आते ही कहा “मैं परसों सन्धया को चरणाद्रिगढ़ से चला हूँ। उस समय सम्राट वाराणसी से चलकर वहाँ पहुँच चुके थे। कल सबेरे फिर वहाँ से चले होंगे। आज तीसरे पहर या सन्धया को यहाँ पहुँच जायँगे”। युवक ने शिरस्त्राण को सिर पर रखकर कहा “अच्छी बात है, तुम जाकर विश्राम करो”।


1. प्रयाग के उस पार झूँसी में इस दुर्ग का ढूह अब तक है। गंगा के इस पार जो दुर्ग है वह अकबर का बनवाया हुआ है।

सैनिक अभिवादन करके चला गया।

देखते देखते सैकड़ों सेनानायकों ने शिविर के घेरे में आकर युवक को अभिवादन किया। युवक ने भी तलवार उठाकर सबके अभिवादन का उत्तर दिया और उनमें से एक को पुकारकर कहा “सुरनाथ! केवल एक अश्वारोही चरणाद्रिगढ़ से आया है। उसने कहा है कि सम्राट परसों सन्धया को चरणाद्रिगढ़ पहुँचे हैं। वे कल सबेरे वहाँ से चले होंगे और आज तीसरे पहर तक यहाँ पहुँच जायँगे”। सुरनाथ ने कहा “प्रभो! यह अच्छा ही हुआ। सम्राट के आ जाने से बिना युद्धके ही दुर्ग पर अधिकार हो जायगा”। पहले युवक ने सिर हिलाकर कहा “यह नहीं होगा, सुरनाथ! आज ही जैसे हो वैसे दुर्ग पर अधिकार करना होगा। सम्राट अतिथि के रूप में दुर्ग में प्रवेश करेंगे”। सुरनाथ चकित होकर युवराज का मुँह ताकते रह गए। युवक ने सेनानायकों को सम्बोधान करके कहा “वीर नायकगण! दूत के मुँह से केवल यही संवाद मुझे मिला है कि आज तीसरे पहर सम्राट यहाँ पहुँच जायँगे। मैंने यह स्थिर किया है कि आज ही दुर्ग पर अधिकार हो जाय। चाहे जिस प्रकार हो आज ही दुर्ग पर अधिकार करना होगा। जिस समय समुद्रगुप्त के वंशधार समुद्रगुप्त के दुर्ग में प्रवेश करें उस समय उन्हें रोकनेवाला कोई न रह जाय। नायकगण् मैं तक्षदत्ता का पुत्र हूँ। मैं खंग स्पर्श करके कहता हूँ कि आज सन्धया होने के पहले ही मैं सम्राट के लिए दुर्ग में प्रवेश करने का पथ खोल दूँगा। मेरे साथ कौन कौन चलता है?”

सैकड़ों कण्ठों से शब्द निकला “मैं चलूँगा”। कोलाहल मिटने पर युवक ने कहा “केवल चलूँगा कहने से नहीं होगा। वीरो! आज के युद्धसे लौटना नहीं है। या तो सन्धया के पहले दुर्ग पर अधिकार होगा अथवा प्राकार या खाईं के नीचे सब दिन के लिए विश्राम। जो जो आज हमारे साथ चलें वे खंग स्पर्श करके शपथ करें कि कभी पीछे न फिरेंगे”।

दो एक वृद्धसैनिक युवक की ओर बढ़े, पर युवक ने हाथ के संकेत से उन्हें लौट जाने की आज्ञा देकर कहा “भाइयो, मेरा अपराध क्षमा करना। परामर्श और मन्त्राणा का समय अब नहीं है। युद्धकरते जिनके बाल पके हैं उनसे क्षमा माँगकर कहता हूँ कि आज रणनीति के विरुद्धमहानायक यशोधावलदेव के उपदेश पर चलूँगा। प्रतिष्ठान दुर्ग भीषण और दुर्जेय है, बहुत बड़ी सेना से रक्षित है, यह सब मैं जानता हूँ। पर आज दुर्ग पर अधिकार करना ही होगा। वीर नायको! आज का यह युद्धरणनीति के विरुद्धहै, आज के युद्धमें न लौटना है, न पराजय। कौन कौन मेरे साथ चलते हैं?” सैकड़ों तलवारें म्यान से निकल पड़ीं। बालक, वृध्द, प्रौढ़, तरुण सब ने खंग स्पर्श करके एक स्वर से प्रतिज्ञा की कि 'आज ही दुर्ग पर अधिकार करेंगे, युद्धसे भी पीछे न फिरेंगे”।

प्रतिष्ठान दुर्ग आर्यवत्ता भर में अत्यन्त दुर्गम और दुर्जय प्रसिद्धथा। दुर्ग के चारों ओर की चौड़ी खाईं सदा गंगा के जल से भरी रहती थी। दुर्ग चारों ओर से तिहरे परकोटों से घिरा था जो पहाड़ ऐसे ऊँचे और ढालू थे। दिन में तो दुर्ग के प्राकारों पर चढ़ना असम्भव था इससे थानेश्वर की दुर्गरक्षी सेना रात को तो बहुत सावधान रहती थी, पर दिन को बेखटके विश्राम करती थी। इतिहास से पता चलता है कि जब जब प्रतिष्ठान दुर्ग पर शत्रुओं का अधिकार हुआ है तब तब अन्न जल के चुकने के कारण। बाहर से कोई शत्रु बल से दुर्ग के भीतर नहीं घुस सका है।

पहर दिन चढ़ते चढ़ते मागधा सेना को दुर्ग के आक्रमण की तैयारी करते देख स्थाण्वीश्वर के सेनानायक विस्मित हुए। उन्होने रात भर जागी हुई सेना को दुर्ग प्राकार पर नियत किया। तीसरे पहर मागधा सेना ने दुर्ग पर आक्रमण् कर दिया। स्थाण्वीश्वर के नायकों ने इसे बावलापन समझ दुर्ग रक्षा का कोई विशेष प्रबन्ध न किया। देखते देखते बाँस और लकड़ी की हजारों सीढ़ियाँ परकोटों पर लग गई। हजारों सैनिक उन पर से होकर प्राकार पर चढ़ने की चेष्टा करने लगे, पर खौलते तेल, गले सीसे और पत्थरों की वर्षा से अधिक दूर न चढ़ सके। सैकड़ों सैनिक घायल होकर नीचे खाईं में जा रहे। यह देखकर भी पीछे की सेना विचलित न हुई। एक बार, दो बार, तीन बार सीढ़ियों पर चढ़ती हुई मागधा सेना नीचे गिरी। खाईं मुर्दों से पट गई। इतना होने पर भी चौथी बार मागधा सेना ने आक्रमण किया। थानेश्वर के सेनानायक और भी चकित हुए। चौथी बार भी सैकड़ों सैनिक घायल होकर गिरने लगे, पर सेना बराबर चढ़ती गई। देखते देखते परकोटे के ऊपर युद्धहोने लगा। थानेश्वर की सेना हटने लगी।

सहसा यह आपत्ति देख थानेश्वर के सेनानायक सेना के आगे होकर युद्धकरने लगे। मागधा सेना पीछे हटने लगी। यह देखते ही चमचमाता हुआ वर्म्म धारण किए एक लम्बे डील का पुरुष हाथ में गरुड़धवज लिए शत्रुसेना के बीच जा कूदा और कड़ककर बोला “आज समुद्रगुप्त के दुर्ग में समुद्रगुप्त के वंशधार प्रवेश करेंगे, कौन लौटता है?” मागधा सेना लौट पड़ी। बिजली के समान गरुड़धवज आगे दौड़ता दिखाई पड़ा। प्रथम प्राकार पर अधिकार हो गया।

देखते देखते मागधा सेना ने दूसरे प्राकार पर धावा किया। सह सैनिक घायल होकर गिरे, पर सेना बार बार चढ़ने का उद्योग करती रही। सैनिकों को शिथिल पड़ते देख वर्म्मधारी पुरुष गरुड़धवज हाथ में लिए चट सीढ़ी पर लपकता हुआ परकोटे के ऊपर जा खड़ा हुआ। तीसरे पहर की सूरज किरणों से चमचमाती हुई वर्म्मावृत्ता मूर्ति और सुवर्णनिर्मित गरुड़धवज को ऊपर देख मागधा सेना जयध्वनि करने लगी। भय से थानेश्वर की सेना थोड़ा पीछे हटी। सह सैनिक प्राकार के ऊपर पहुँच गए। दूसरे प्राकार पर भी अधिकार हो गया।

दुर्ग को इस प्रकार शत्रु के हाथ में पड़ते देख रोष और क्षोभ से अपने जी पर खेल थानेश्वर के सेनानायक तीसरे प्राकार की रक्षा करने लगे। मागधा सेना कई बार पीछे हटी। सेनादल को हतोत्साह होते देख मागधा नायक सिर नीचा किए खड़े रहे। इतने में फिर वही वर्म्मधारी पुरुष अकेले प्राकार पर चढ़ने लगा। उसके ऊपर सैकड़ों पत्थर फेंके गए, पर उसे एक भी न लगा। उसने प्राकार पर खड़े होकर जयध्वनि की। उसे ऊपर देख सेनानायक गण लज्जित होकर अपनी सेना छोड़ प्राकार के ऊपर दौड़ पड़े। दुर्गरक्षकों ने उन मुट्ठी भर मनुष्यों को ऊपर देख उन्हें पीस डालना चाहा। इतने में बाहर सह सैनिकों ने एक स्वर से महाराजाधिराज शशांक नरेन्द्रगुप्त का नाम लेकर जयध्वनि की। प्राकार के नीचे खड़ी मागधा सेना को चेत हुआ। उसने देखा कि प्राकार पर चढ़ने का मार्ग निर्विघ्न है, प्राकार के ऊपर युद्धहो रहा है। भीषण जयध्वनि कर के सेना प्राकार पर चढ़ गई। सन्धया होने के पहले ही दुर्ग पर अधिकार हो गया।

प्रतिष्ठान दुर्ग के पूर्व तोरण पर खड़ा वर्म्मावृत्ता विश्राम कर रहा था। इसी बीच एक सैनिक ने आकर कहा “महानायक! सम्राट दुर्ग में प्रवेश कर रहे हैं”। वर्म्मधारी पुरुष ने विस्मित होकर पूछा “वे कब आए?”

“जिस समय शिविर की सेना ने जयध्वनि की थी उसी समय वे पहुँचे थे”।

“दुर्ग का फाटक खोलने के लिए कहो”।

सन्धया हो गई थी। सैनिकों ने तापने के लिए स्थान स्थान पर अलाव लगाए थे। वर्म्मधारी पुरुष ने अपने पास खड़े सेनानायक से कहा “सुरनाथ! तुम इस गरुड़धवज को लिए रहो, मैं अभी आता हूँ”। नायक के हाथ में गरुड़धवज थमा कर देखतेदेखते यह पुरुष अदृश्य हो गया।

पल भर में सम्राट ने बड़े समारोह के साथ प्रतिष्ठान दुर्ग में प्रवेश किया। आते ही वे नरसिंहदत्ता को ढूँढ़ने लगे। किन्तु जिसके उँगली हिलाने से दस सहò सेना अपने जी पर खेल गई थी, जिसने प्रतिष्ठान दुर्ग पर अधिकार किया था, उसका कहीं पता न लगा-न दुर्ग में, न शिविर में। सम्राट ने तीसरे प्राकार पर खड़े होकर रुँधो हुए गले से अनन्तवर्म्मा को पुकारा “अनन्त!”

“आज्ञा, महाराज”।

“यह उन्हीं का काम है”।

“किनका?”

“नरसिंह का। चित्रा के कारण वे मेरा मुँह अब न देखेंगे”।